Saturday, 9 May 2020

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ विंशोऽध्यायः

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ विंशोऽध्यायः

अथ वैदिक भक्तानां पार्थिवार्चा निगद्यते।
वैदिकेनैव मार्गेण भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी।।1।।

सूतजी कहते हैं-

महर्षियो!अब मैं वैदिक कर्म के प्रति श्रद्धा भक्ति रखने वाले लोगों के लिये वेदोक्त मार्ग से ही पार्थिव पूजा की पद्धति का वर्णन करता हूँ। यह पूजा भोग और मोक्ष दोनों को देने वाली है।।1।।

सूत्रोक्तविधिना स्नात्वा सन्ध्यां कृत्वा यथाविधि।
ब्रह्मयज्ञं विधायादौ ततस्तर्पणमाचरेत्।।2।।

आह्निक सूत्रों में बतायी हुई विधि के अनुसार विधिपूर्वक स्नान और संध्योपासना करके पहले ब्रह्मयज्ञ करे। तत्पश्चात देवताओं, ऋषियों, सनकादि मनुष्यों और पितरों का तर्पण करे।।2।।

नैत्यिकं सकलं कामं विधायानन्तरं पुमान्।
शिवस्मरणपूर्वं हि भस्मरुद्राक्षधारकः।।3।।
वेदोक्तविधिना सम्यक सम्पूर्ण फल सिद्धये।
पूजयेत्परया भक्त्या पार्थिवं लिङ्ग मुत्तमम्।।4।।

अपनी रुचि अनुसार सम्पूर्ण नित्यकर्म को पूर्ण करके शिवस्मरण पूर्वक भस्म तथा रुद्राक्ष धारण करे। तत्पश्चात सम्पूर्ण मनोवांक्षित फल की सिद्धि के लिये ऊंची भक्ति भावना के साथ उत्तम पार्थिव लिङ्ग की वेदोक्त विधि से भली भांति पूजा करे।।3-4।।

नदीतीरे तडागे च पर्वते काननेऽपि च।
शिवालये शुचौ देशे पार्थिवार्चा विधीयते।।5

नदी या तालाब के किनारे, पर्वत पर, वन में, शिवालय में अथवा और किसी पवित्र स्थान में पार्थिव पूजा करने का विधान है।।5।।

शुद्ध प्रदेश सम्भूतां मृदमाहृत्य यत्नतः।
शिवलिङ्गं प्रकल्पेत सावधानतया द्विजाः।।6।।

ब्राह्मणों! शुद्ध स्थान से निकाली हुई मिट्टी को यत्नपूर्वक लाकर बड़ी सावधानी के साथ शिवलिङ्ग का निर्माण करे।।6।।

विप्रे गौरा स्मृता शोणा बाहुजे पीतवर्णका।
वैश्ये कृष्णा पादजाते ह्यथवा यत्र या भवेत्।।7।।

ब्राह्मण के लिये श्वेत, क्षत्रिय के लिये लाल, वैश्य के लिये पीली, और शूद्र के लिये काली मिट्टी से शिवलिङ्ग बनाने का विधान है अथवा जहाँ जो मिट्टी मिल जाये, उसी से शिवलिङ्ग बनाये।।7।।

सङ्गृह्य मृत्तिकां लिङ्ग निर्माणार्थं प्रयत्नतः।
अतीव शुभदेशे च स्थापयेत्तां मृदं शुभाम्।।8।।

शिवलिङ्ग बनाने के लिये प्रयत्न पूर्वक मिट्टी का संग्रह करके उस शुभ मृत्तिका को अत्यंत शुद्ध स्थान में रखे।।8।।

संशोध्य च जलेनापि पिण्डीकृत्य शनैःशनैः।
विधीयेत शुभं लिङ्गं पार्थिवं वेदमार्गतः।।9।।

फिर मिट्टी की शुद्धि करके जल से सानकर पिण्डी बना ले और वेदोक्त मार्ग से धीरे धीरे सुन्दर पार्थिवलिङ्ग की रचना करे।।9।।

ततः सम्पूजयेद्भक्त्या भुक्तिमुक्ति फलाप्तये।
तत्प्रकारमहं वच्मि श्रृणुध्वं सविधानतः।।10।।

तत्पश्चात भोग और मोक्ष रुपी फल की प्राप्ति के लिये भक्ति पूर्वक उसका पूजन करे। उस पार्थिवलिङ्ग के पूजन की जो विधि है, उसे मैं विधानपूर्वक बता रहा हूँ, तुम सब लोग सुनो।।10।।

नमःशिवाय मन्त्रेणार्चन द्रव्यं च प्रोक्षयेत्।
भूरसीति च मन्त्रेण क्षेत्रसिद्धिं प्रकारयेत्।।11।।

'ॐ नमः शिवाय' इस मंन्त्र का उच्चारण करते हुए समस्त पूजन सामग्री का प्रोक्षण करे, उस पर जल छिड़के। इसके बाद "भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृ गूँ ह पृथिवीं मा हि गूँ सीः" मंन्त्र से क्षेत्र सिद्धि करे।।11।।

आपोऽस्मानिति मन्त्रेण जल संस्कार माचरेत।
नमस्ते रुद्र मन्त्रेण स्फाटिकाबन्ध मुच्यते।।12।।

फिर "आपो अस्मान् मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु। विश्व गूँ हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरि पूत एमि। दीक्षातपसोस्तनूरसि तां त्वा शिवा गूँ शग्मां परि दधे भद्रं वर्णं पुख्यन्।" इस मंन्त्र से जल का संस्कार करे। इसके बाद "नमस्ते रुद्र मन्यव उतोत इषवे नमः बाहुभ्यामुत ते नमः" इस मंन्त्र से स्फाटिकाबन्ध (स्फटिक शिला का घेरा) बनाने की बात कही गयी है।।12।।

शम्भवायेति मन्त्रेण क्षेत्रशुद्धिं प्रकारयेत्।
कुर्यात्पञ्चामृतस्यापि नमः पूर्वेण प्रोक्षणम्।।13।।

नीलग्रीवाय मन्त्रेण नमः पूर्वेण भक्तिमान्।
चरेच्छङ्कर लिङ्गस्य प्रतिष्ठापन मुत्तमम्।।14।।

नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च। इस मंन्त्र से क्षेत्र शुद्धि और पंचामृत का प्रोक्षण करे। तत्पश्चात शिवभक्त पुरुष 'नमः' पूर्वक "नमोस्तु नीलग्रीवाय सहस्त्राक्षाय मीढुखे। अथो जे अस्य सत्वानोऽहंतेभ्योऽकरं नमः" मन्त्र से  शिवलिङ्ग की उत्तम प्रतिष्ठा करे।।13-14।।

भक्तितस्तत एतत्ते रुद्रायेति च मन्त्रतः।
आसन रमणीयं वै दद्याद्वैदिक मार्गकृत्।।15।।

इसके बाद वैदिक रीति से पूजन कर्म करने वाला उपासक भक्तिपूर्वक "एतत्ते रुद्रावसंतेन परो मूजवतोऽतीहि। अवततधन्वा पिनाकावसः कृत्तिवासा अहि गूँ सन्नः शिवोतीहि।" इस मन्त्र से रमणीय आसन दे।।15।।

मानोमहान्तमिति च मन्त्रेणावाहनं चरेत्।
या ते रुद्रेण मन्त्रेण सन्चरेदुपवेशनम्।।16।।

"मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्। मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः"।। इस मन्त्र से आवाहन करे। "या ते रुद्र शिवि तनूर घोराऽपापकाशिनी। या नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि।" इस मंन्त्र से भगवान शिव को आसन पर समासीन करे।।16।।

मन्त्रेण यामिषुमिति न्यासं कुर्याच्छिवस्य च।
अध्यवोचदिति प्रेम्णाधिवासं मनुनाचरेत्।।17।।

"यामिषुं गिरिशन्त हस्ते विभर्ष्यस्तवे। शिवां गिरित्र तां कुरु माहि गूँ सीः पुरुषं जगत्।" इस मन्त्र से शिव के अङ्गों में न्यास करे।"अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्। अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्यो ऽधराचीः परा सुव।" इस मन्त्र से प्रेमपूर्वक अधिवासन करे।।17।।

मनुनासौ जीव इति देवतान्यासमाचरेत्।
असौ योऽवसर्पतीति चाचरेदुपसर्पणम्।।18।।

"असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः। ये चैन गूँ रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्त्रशोऽवैखा गूँ हेड ईमहे।" इस मंन्त्र से शिवलिङ्ग में इष्टदेवता भगवान शिव का न्यास करे। "असौऽयो वसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः। उतैनं गोपा अदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः।" इस मंन्त्र से उपसर्पण (देवता के समीप गमन) करे।।18।।

नमोस्तु नीलग्रीवायेति पाद्यं मनुनाहरेत्।
अर्घ्यं च रुद्रगायत्र्याचमनं त्र्यम्बकेण च।।19।।

इसके बाद "नमोस्तु नीलग्रीवाय सहस्त्राक्षाय मीढुखे। अथो जे अस्य सत्वानोऽहंतेभ्योऽकरं नमः" इस मंन्त्र से इष्टदेव को पाद्य समर्पित करे।"तत्पुरुखाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्" मन्त्र से अर्घ्य दे।।19।।

पयः पृथिव्यां मन्त्रेण पयसा स्नानमाचरेत्।
दधिक्राव्णेति मन्त्रेण दधिस्नानं च कारयेत्।।20।।

"पय पृथिव्यां पय ओखधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः।पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम" इस मन्त्र से दुग्ध स्नान कराये। "दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखा करत्प्रणआयू गूँ षि तारिषत्" इस मन्त्र से दधिस्नान कराये।।20।।

घृतस्नानं खलु घृतं घृतयावेति मन्त्रतः।
मधुव्वाता मधुनक्तं मधुमान्न इति त्र्यृचा।।21।।

शिवभक्त पुरुष "घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा। दिशः प्रदिश आदिशो विदिश उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा।" इस मन्त्र से घृत स्नान कराये। "मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः। मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव गूँ रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता।मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमा गूँ अस्तु सूर्य्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः।" इन तीन ऋचाओं से मधुस्नान और शर्करा स्नान कराये।।21।।

मधुखण्डस्नपनं प्रोक्तमिति पञ्चामृतं स्मृतम्।
अथवा पाद्य मन्त्रेण स्नानं पञ्चामृतेन च।।22।।

इन दुग्ध, दधि,घृत, मधु, शर्करा आदि पाँच वस्तुओं को पञ्चामृत कहते हैं। अथवा पाद्य समर्पण के लिये कहे गये "नमोस्तु नीलग्रीवाय....।" इत्यादि मन्त्र द्वारा पञ्चामृत स्नान कराये।।22।।

मानस्तोके इति प्रेम्णा मन्त्रेण कटिबन्दनम्।
नमो धृष्णवे इति वा उतरीयं च धारयेत्।।23।।

तदनन्तर "मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः। मा नो वीरान् रुद्रभामिनो वधीर्हविषमन्तः सदमित् त्वा हवामहे।" इस मंन्त्र से भगवान शिव को कटिबंध(करधनी) अर्पित करे। "नमोधृष्णवे च प्रमृशाय च नमो निषङ्गिणे चेषुधिमते च नमस्तीक्षणेषवे चायुधिने च नमः स्वायुधाय च सुधन्वने च।"इस मंन्त्र का उच्चारण करके आराध्य देवता को उत्तरीय धारण कराये।।23।।

 या ते हेतिरिति प्रेम्णा ऋक्चतुष्केण वैदिकः।
शिवाय विधिना भक्तश्चरेद्वस्त्र समर्पणम्।।24।।

शिवभक्त पुरूष "या ते हेतिर्मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः। तयास्मान्विश्वतस्त्वम यक्ष्मया परिभुज।। परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः। अथो ज इखुधिस्तवारे अस्मन्नि धेहि तम्।। अवतत्य धनुष्ट्व गूँ सहस्त्राक्ष शतेषुधे। निशीर्य्य शल्यानां मुखा शिवो न सुमना भव।। नमस्त आयुधायानातताय धृष्णवे। उभाभ्यामुत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने।।" इत्यादि चार ऋचाओं को पढ़कर प्रेम से विधिपूर्वक भगवान शिव के लिये वस्त्र एवं यज्ञोपवीत समर्पित करे।।24।।

नमः श्वभ्य इति प्रेम्णा गन्धं दद्यादृचा सुधीः।
नमस्तक्षभ्य इति चाक्षतान्मन्त्रेण चार्पयेत्।।25।।

इसके बाद "नमः श्वभ्यः श्वपतिभ्यश्च वो नमो नमो भवाय च रुद्राय च नमः शर्वाय च पशुपतये च नमो नीलग्रीवाय च शितिकण्ठाय च।।" इत्यादि मन्त्र को पढ़कर शुद्ध बुद्धि वाला भक्त पुरूष भगवान शिव के लिये प्रेमपूर्वक गन्ध, सुगन्धित चन्दन एवं रोली चढायें। "नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वो नमो नमः कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश्च वो नमो नमो निषादेभ्यः पुञ्जिष्ठेभ्यश्च वो नमो नमः श्वनिभ्यो मृगयुभ्यश्च वो नमः"।। इस मन्त्र से अक्षत अर्पित करे।।25।।

नमः पार्याय इति वा पुष्पं मन्त्रेण चार्पयेत्।
नमः पर्ण्णाय इति वा बिल्वपत्र समर्पणम्।।26।।

नमः पार्याय चावार्याय च नमः प्रतरणाय चोत्तरणाय च नमस्तीर्थ्याय च कूल्याय च नमः शष्प्याय च फेन्याय च।" इस मन्त्र से फूल चढ़ाये। "नमः पर्णाय च पर्णशदाय च नम उद्गुरमाणाय चाभिघ्नते च नम आखिदते च प्रखिदते च नम इखुकृद्भ्यो धनुष्कृद्भ्यश्च वो नमो नमो वः किरिकेभ्यो देवाना गूँ हृदयेभ्यो नमो विचिन्वत्केभ्यो नमो नम आनिर्हतेभ्यः।" इस मन्त्र से विल्वपत्र समर्पण करे।।26।।

 नमः कपर्दिने चेति धूपं दद्याद्यथाविधि।
दीपं दद्याद्यथोक्तं तुनम आशव इत्यृचा।।27।।

 नमो ज्येष्ठाय मन्त्रेण दद्यान्नैवेद्य मुत्तमम्।
मनुना त्रयम्बकमिति पुनराचमनं स्मृतम्।।28।।

शिवभक्त पुरुष "नमः कपर्दिने च व्युप्तकेशायच नमः सहस्त्राक्षाय च शतधन्वने च नमो गिरिशयाय च शिपिविष्टाय च नमो मीढुष्टमाय चेषुमते च।।" इत्यादि मन्त्र से विधिपूर्वक धूप दे। " नम आशवे चाजिराय च नमः  शीघ्र्याय च शीम्याय च नम ऊर्म्याय चावस्वन्याय च नमो नादेयाय च द्वीप्याय च।।" इस ऋचा से शास्त्रोक्त विधि के अनुसार दीप निवेदन करे। तत्पश्चात हाथ धोकर "नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च नमः पूर्वजाय चापरजाय च नमो मध्यमाय चापगल्भाय च नमो जघन्याय च बुधन्याय च।।" इस मन्त्र से उत्तम नैवेद्य अर्पित करे। फिर पूर्वोक्त त्रयम्बक मन्त्र से आचमन कराये।।27-28।।

इमा रुद्रायेति ऋचा कुर्यात्फल समर्पणम्।
नमो व्रज्यायेति ऋचा सकलं शम्भवेऽर्पयेत्।।29।।

"इमारुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः। यथा शमशद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टंग्रामे अस्मिन्ननातुरम्।।" इस ऋचा से फल समर्पण करे। फिर "नमोव्रज्याय च गोष्ठयाय च नमस्तल्प्यायच गेह्याय च.नमो.हृदय्याय च निवेष्याय च नमः काट्याय च गह्वरेष्ठाय च।।" इस मंन्त्र से भगवान शिव को अपना सब कुछ समर्पित कर दे।।29।।

मानो महान्तमिति च मानस्तोके इति ततः।
मन्त्रद्वयेनैकादशाक्षतै रुद्रान्प्रपूजयेत।।30।।

तदनन्तर "मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्। मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः"।। तथा "मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः। मा नो वीरान् रुद्रभामिनो वधीर्हविषमन्तः सदमित्त्वा हवामहे।" इन दो मन्त्रों द्वारा केवल अक्षतों से ग्यारह रूद्रों का पूजन करे।।30।।

हिरण्यगर्भ इति त्र्यृचा दक्षिणां हि समर्पयेत्।
देवस्यत्वेति मन्त्रेण ह्यभिषेकं चरेद्बुधः।।31।।

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।इत्यादि मन्त्र से जो तीन ऋचाओं के रूप में पठित है, दक्षिणा चढ़ायें। "देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्वि नोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्।" अश्विनोर्भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसायाभि षिञ्चामि सरस्वत्यै भैषज्येन वीर्यायाआद्यायाभि षिञ्चामीन्द्रस्येन्द्रियेण बलाय श्रियै यशसेऽभिषिञ्चामि।" इस मंन्त्र से विद्वान पुरुष आराध्य देव का अभिषेक करे।।31।।

दीपमन्त्रेण वा शम्भोर्नीराजनविधिं चरेत्।
पुष्पांजलिं चरेद्भक्त्या इमा रुद्राय च त्र्यृचा।।32।।

दीप के लिये बताये हुये " नम आशवे चाजिराय च नमः  शीघ्र्याय च शीम्याय च नम ऊर्म्याय चावस्वन्याय च नमो नादेयाय च द्वीप्याय च।।" इत्यादि मंन्त्र से भगवान शिव की नीराजना (आरती) करे। तत्पश्चात "इमारुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः। यथा शमशद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टंग्रामे अस्मिन्ननातुरम्।।" इत्यादि तीन ऋचाओं से भक्तिपूर्वक रुद्रदेव को पुष्पाञ्जलि अर्पित करे।।32।।

मानोमहान्तमिति च चरेत्प्राज्ञः प्रदक्षिणाम्।
मानस्तोकेति मन्त्रेण साष्टाङ्गं प्रणमेत्सुधीः।।33।।

विज्ञ उपासक "मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्। मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः"।। इस मन्त्र से पूजनीय देवता की परिक्रमा करे। फिर उत्तम बुद्धि वाला उपासक "मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः। मा नो वीरान् रुद्रभामिनो वधीर्हविषमन्तः सदमित्त्वा हवामहे।" इस मन्त्र से भगवान को साष्टांग प्रणाम करे।।33।।

एष ते इति मन्त्रेण शिवमुद्रां प्रदर्शयेत्।
यतो यत इत्यभयां ज्ञानाख्यां त्र्यम्बकेण च।।34।।

"एष ते रुद्र भागः सह स्वस्त्राम्बिकया तं जुषस्व स्वाहा। एष ते रुद्र भाग आखुस्ते पशुः।।" इस मंन्त्र से शिवमुद्रा का प्रदर्शन करे। "यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं न पशुभ्यः।।" इस मंन्त्र से अभय नामक मुद्रा का तथा "त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टि वर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। "त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनादितोमुक्षीय  मामुतः।।" मंन्त्र से ज्ञान नामक मुद्रा का प्रदर्शन करे।।34।।

नमः सेनेति मन्त्रेण महामुद्रां प्रदर्शयेत्।
दर्शयेद्धेनुमुद्रां च नमो गोभ्य ऋचानया।।35।।

नमः सेनाभ्यः सेनानिभ्यश्च वो नमो नमो रथिभ्यो अरथेभ्यश्च वो नमो नमः। क्षतृभ्यः संग्रहीतृभ्यश्च वो नमो नमो महद्भ्यो अर्भकेभ्यश्च वो नमः।। इस मंन्त्र से महामुद्रा का प्रदर्शन करे। "नमो गोभ्यः श्रीमतीभ्यः सौरभेयीभ्य एव च। नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो नमो नमः।।" इस ऋचा द्वारा धेनुमुद्रा दिखाये।।35।।

पञ्च मुद्राः प्रदश्यार्थ शिवमन्त्र जपं चरेत्।
शतरुद्रिय मन्त्रेण जपेद् वेदविचक्षणः।।36।।

इस तरह पांच मुद्राओं का प्रदर्शन करके शिव सम्बन्धी मन्त्रों का जप करे अथवा वेदज्ञ पुरुष 'शतरुद्रिय' मंन्त्र (रुद्री का पाँचवा अध्याय ) की आवृत्ति करे।।36।।

ततः पञ्चाङ्गपाठं च कुयाद् वेदविचक्षणः।
देवागात्विति मन्त्रेण कुर्याच्छम्भोर्विसर्जनम्।।37।।

तत्पश्चात वेदज्ञ पुरुष पञ्चाङ्ग पाठ करे। तदनन्तर" देवा गातविदो गातुं वित्त्वा गातमित। मनसस्पत इमं देव यज्ञ गूँ स्वाहा वाते धाः।।" इत्यादि मंन्त्र से शिवलिङ्ग का विसर्जन करे।।37।।

इत्युक्तः शिवपूजाया व्यासतो वैदिको विधिः।
समासतश्च श्रृणुत वैदिकं विधिमुत्तमम्।।38।।

इस प्रकार शिव पूजा की वैदिक विधि का विस्तार से प्रतिपादन किया। महर्षियो!अब संक्षेप से भी पार्थिव पूजन की वैदिक विधि का वर्णन सुनो।।38।।

ऋचा सद्योजातमिति मृदाहरणमाचरेत्।
वामदेवाय इति च जलप्रक्षेपमाचरेत्।।39।।

"सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः। भवे भवे नातिभवे भवस्य मां भवोद्भवाय नमः।।" इस ऋचा से पार्थिव शिवलिङ्ग बनाने के लिये मिट्टी ले आये। "ऊँ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मथाय नमः।।" इत्यादि मंन्त्र पढ़कर मिट्टी में जल डालें।।39।।

अघोरेण च मन्त्रेण लिङ्गनिर्माणमाचरेत्।
तत्पुरुखाय मन्त्रेणाह्वानं कुर्याद्यथाविधि।।40।।

जब मिट्टी सनकर तैयार हो जाय तब "ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्ते अस्तुऽरूद्र रुपेभ्यः।" मंन्त्र पढ़ते हुए शिवलिङ्ग निर्माण करे। फिर "ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात।" इस मंन्त्र से विधिवत उसमें भगवान शिव का आवाहन करे।।40।।

संयोजयेद्वेदिकायामीशानमनुना हरम्।
अन्यत्सर्वं विधानं च कुर्यात्संक्षेपतः सुधीः।।41।।

"ऊँ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणो धिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तुऽसदा शिवोम्।" मंन्त्र से भगवान शिव को वेदी पर स्थापित करे। इनके सिवाय अन्य सब विधानों को भी शुद्ध बुद्धि वाला उपासक संक्षेप से ही सम्पन्न करे।।41।।

पञ्चाक्षरेण मन्त्रेण गुरुदत्तेन वा तथा।
कुर्यात्पूजां षोडशोपचारेण विधिवत्सुधीः।।42।।

इसके बाद विद्वान पुरुष पञ्चाक्षर मंन्त्र से अथवा गुरु के दिये हुये अन्य किसी भगवान शिव सम्बन्धी मंन्त्र से सोलह उपचारों द्वारा विधिवत पूजन करे।।42।।

भवाय भवनाशाय महादेवाय धीमहि।
उग्राय उग्रनाशाय शर्वाय शशिमौलिने।।43।।

अनेन मनुना वापि पूजयेच्छङ़्करं सुधीः।
सुभक्त्या च भ्रमं त्यक्त्वा भक्त्यैव फलदः शिवः।।44।।

इस मंन्त्र द्वारा विद्वान उपासक भगवान शिव की पूजा करे। वह भ्रम छोड़कर उत्तम भक्ति भाव से भगवान शिव की आराधना करे, क्योंकि भगवान शिव भक्ति से ही मनोवांक्षित फल देते हैं।।43-44।।

इत्यपि प्रोक्तमादृत्य वैदिकं क्रमपूजनम्।
प्रोच्यतेऽन्यवविधिः सम्यक्साधारणतया द्विजाः।।45।।

ब्राह्मणो!यहाँ जो वैदिक विधि से पूजन का क्रम बताया गया है, इसका पूर्ण रूप से आदर करता हुआ मैं पूजा की एक दूसरी विधि भी बता रहा हूँ, जो उत्तम होने के साथ ही सर्व साधारण के लिये उपयोगी है।।45।।

पूजा पार्थिवलिङ्गस्य संप्रोक्ता शिवनामभिः।
तां श्रृणुध्वं मुनिश्रेष्ठाः सर्वकामप्रदायिनीम्।।46।।

हरो महेश्वरः शम्भुः शूलपाणिः पिनाकधृक।
शिवः पशुपतिभ्यश्च महादेव इति क्रमात्।।47।।

मुनिवरो! पार्थिवलिङ्ग की पूजा भगवान शिव के नामों से बतायी गयी है। वह पूजा सम्पूर्ण अभीष्टों को देने वाली है। मैं उसे बताता हूँ, सुनो! हर, महेश्वर, शम्भु, शूलपाणि, पिनाकधृक, शिव, पशुपति और महादेव- ये क्रमशः शिव के आठ नाम कहे गये हैं।।46-47।।

मृदाहरणसंघट्टप्रतिष्ठाह्वानमेव च।
स्नपनं पूजनं चैव त्रमस्वेति विसर्जनम्।।48।।

इनमें से प्रथम नाम द्वारा अर्थात'ॐ हराय नमः' का उच्चारण करके पार्थिवलिङ्ग बनाने के लिये मिट्टी ले आये। दूसरे नाम अर्थात 'ॐ महेश्वराय नमः' का उच्चारण करके उस पार्थिवलिङ्ग की प्रतिष्ठा करे। तत्पश्चात 'ॐ शूलपाणये नमः' कहकर उस पार्थिवलिङ्ग में भगवान् शिव का आवाहन करे। 'ॐ पिनाकधृषे नमः' कहकर उस पार्थिवलिङ्ग को नहलाये। 'ॐ शिवाय नमः' बोलकर उसकी पूजा करे। फिर 'ॐ पशुपतये नमः' कहकर क्षमा प्रार्थना करे और अंत में 'ॐ महादेवाय नमः:' कहकर आराध्य देव का विसर्जन कर दे।।48।।

ऊँकारादि चतुर्थ्यन्तैर्नमोऽन्तैर्नामभिः क्रमात्।
कर्तव्याश्च क्रियाः सर्वा भक्त्या परमया मुदाः।।49।।

प्रत्येक नाम के आदि में ॐ कार और अंत में चतुर्थी विभक्ति के साथ नमः पद लगाकर बड़े आनन्द और भक्ति भाव से पूजन सम्बन्धी सारे कार्य करने चाहिये।।49।।

कृत्वा न्यासविधिं सम्यक् षडङ्गं करयोस्तथा।
षडक्षरेण मन्त्रेण ततो ध्यानं समाचरेत्।।50।।

षडक्षर मंन्त्र से अङ्गन्यास और करन्यास की विधि भली भांति सम्पन्न करके फिर नीचे लिखे अनुसार ध्यान करे।।50।।

भक्तैः सनन्दादिभिरर्च्यमानम्।
भक्तार्तिदावानलमप्रमेयं ध्यायेदुमालिङ्गितविश्वभूषणम्।।51।।

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशु मृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानम् विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्।।52।।

जो कैलास पर्वत पर एक सुन्दर सिंहासन के मध्यभाग में विराजमान हैं, जिनके वामभाग में भगवती उमा उनसे सटकर बैठी हैं। सनक सनंदन आदि भक्तजन जिनकी पूजा कर रहे हैं तथा जो भक्तों के दुःख रुपी दावानल को नष्ट कर देने वाले अप्रमेय शक्तिशाली ईश्वर हैं, उन विश्वभूषण भगवान् शिव का चिंतन करना चाहिये। भगवान महेश्वर का प्रतिदिन इस प्रकार ध्यान करें। उनकी अङ्गकांति चाँदी के पर्वत की भाँति गौर है। वे अपने मस्तक पर मनोहर चंद्रमा का मुकुट धारण करते हैं। रत्नों के आभूषण धारण करने से उनका श्रीअङ्ग और भी उद्भासित हो उठा है। उनके चार हाथों में क्रमशः परशु, मृगमुद्रा, वर एवं अभय मुद्रा सुशोभित हैं। वे सदा प्रसन्न रहते हैं। कमल के आसन पर बैठे हैं और देवतालोग चारों ओर खड़े होकर उनकी स्तुति कर रहे हैं। उन्होंने वस्त्र की जगह व्याघ्रचर्म धारण कर रखा है। वे इस विश्व के आदि हैं, बीज (कारण) रूप हैं। तथा सबका समस्त भय हर लेने वाले हैं। उनके पांच मुख हैं और प्रत्येक मुखमंडल में तीन तीन नेत्र हैं।।51-52।।

 इति ध्यात्वा च सम्पूज्य पार्थिवं लिङ्गमुत्तमम्।
जपेत्पञ्चाक्षरं मन्त्रं गुरुदत्तं यथाविधि।।53।।

इस प्रकार ध्यान तथा उत्तम पार्थिवलिङ्ग का पूजन करके गुरु के दिये हुए पञ्चाक्षर मंन्त्र का विधिपूर्वक जप करे।।53।।
स्तुतिभिश्चैव देवेशं स्तुवीत प्रणमन्सुधीः।
नानाभिधाभिर्विप्रेन्द्राः पठेद् वै शतरुद्रियम्।।54।।

विप्रवरो! विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह देवेश्वर शिव को प्रणाम करके नाना प्रकार की स्तुतियों द्वारा उनका स्तवन करे तथा शतरुद्रिय का पाठ करे।।54।।

ततः साक्षतपुष्पाणि गृहीत्वाञ्जलिना मुदा।
प्रार्थयेच्छङ्करं भक्त्या मन्त्रैरेभिः सुभक्तितः।।55।।

तत्पश्चात अञ्जलि में अक्षत और फूल लेकर उत्तम भक्तिभाव से निम्नांकित मन्त्रों को पढ़ते हुए प्रेम और प्रसन्नता के साथ भगवान शंकर से इस प्रकार प्रार्थना करे।।55।।

तावकस्त्वद्गुण प्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड।
कृपानिधे इति ज्ञात्वा भूतनाथ प्रसीद मे।।56।।

सबको सुख देने वाले कृपानिधान भूतनाथ शिव! मैं आपका हूँ। आपके गुण ही मेरे प्राण, मेरे जीवन सर्वश्व हैं। मेरा चित्त सदा आपके ही चिंतन में लगा हुआ है। यह जानकर मुझ पर प्रसन्न होइए।।56।।

अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं मया।
कृतघ्न तदस्तु सफलं कृपया तव शंकर।।57।।

कृपा कीजिए।शंकर! मैंने अनजान में अथवा जानबूझकर यदि कभी आपका जप और पूजन आदि किया हो तो आपकी कृपा से वह सफल हो जाय।।57।।

अहं पापी महानद्य पावनश्च भवान्महान्।
इति विज्ञाय गौरीश यदिच्छसि  तथा कुरू।।।58।।

गौरीनाथ! में आधुनिक युग का महान पापी हूं, पतित हूँ। और आप सदा से ही परम महान पतित पावन हैं इस बात का विचार करके आप जैसा चाहे वैसा करें।।58।।

वेदै‌: पुराणै: सिद्धान्तैर्ऋषिभिर्विविधैरपि।
न ज्ञातोऽसि महादेव कुतोऽहं त्वां सदाशिव।।59।।

 महादेव! सदाशिव! वेदों पुराणों नाना प्रकार के शास्त्रीय सिद्धांतों और विभिन्न महर्षियों ने भी अब तक आप को पूर्ण रूप से नहीं जाना है फिर मैं कैसे जान सकता हूँ।।59।।

यथातथात्वदीयोस्मि सर्वभावैर्महेश्वर।
रक्षणीस्त्वयाहं वै प्रसीद परमेश्वर।।60।।

जैसा हूँ वैसे सब भाव से मैं तुम्हारा हूँ। हे!परमेश्वर आप हम पर प्रसन्न होकर हमारी रक्षा कीजिये।।60।।

इत्येवंचाक्षतान्पुष्पाण्यारोप्य च शिवोपरि।
प्रणमेद्भक्तितश्शंभुसाष्टांग विधिवन्मुने।।61।।

इस प्रकार शिवजी के ऊपर पुष्प और अक्षत का आरोपण करके विधि पूर्वक शिवजी को साष्टांग प्रणाम करे।।61।।

ततः प्रदिक्षणां कुर्याद्यथोक्तविधिनासुधीः।
पुनःस्तुवीतदेवेशंस्तुतिभिः श्रद्धयान्वितः।।62।।

फिर विधिपूर्वक प्रदिक्षणा करे। फिर स्तुतियों से श्रद्धा पूर्वक देवेश की स्तुति करे।।62।।

ततो गलरवं कृत्वा प्रणमेच्छुचिनमध्रीः।
कुर्याद्विज्ञप्तिमादृत्य विसर्जनमथाचरेत्।।63।।

इसके बाद गाल बजाकर(गले से अव्यक्त शब्द का उच्चारण करके) पवित्र एवं विनीत चित्तवाला साधक भगवान को प्रणाम करे। फिर आदरपूर्वक विज्ञप्ति करे और उसके बाद विसर्जन।।63।।

इत्युक्ता मुनिशार्दूलाः पार्थिवार्चा विधानतः।
भुक्तिदा मुक्तिदा चैव शिवभक्तिविवर्धिनी।।64।।

मुनिवरो!इस प्रकार विधिपूर्वक पार्थिवपूजा बतायी गयी। वह भोग और मोक्ष देने वाली तथा भगवान शिव के प्रति भक्तिभाव को बढ़ाने वाली है।।64।।

इत्यध्यायं सुचित्तेन यः पठेच्छृणुयादपि।
सर्वपाप विशुद्धात्मा सर्वान्कामानवाप्नुयात्।।65।।

आयुरारोग्यदं चैव यशस्यं स्वर्ग्यमेव च।
पुत्रपौत्रादिसुखदमाख्यानमिद मुत्तमम्।।66।।

जो इस अध्याय को अच्छे मन से प्रसन्नता पूर्वक पढ़ता है, वह सर्व पापों से विशुद्ध होकर सर्व कामनाओं को प्राप्त हो जाता है। यह उत्तम आख्यान आयु, आरोग्य, यश, और स्वर्ग का देने वाला तथा पुत्र पौत्र का सुख देने वाला है।।65-66।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां साध्यसाधन खण्डे पार्थिव शिवलिङ्ग पूजनविधिवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।।20।।

🙏🏿जय बाबा की।🙏🏿
बाबाचरण दास

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