Sunday, 24 November 2019

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ त्रियोदशोऽध्यायः

ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ त्रयोदशोऽध्यायः
|| संकलन - बाबा चरणदास || 

ऋषय ऊचुः
सदाचारं श्रावयाशु येन लोकान्जयेद् बुधः।
धर्माधर्ममयान्ब्रूहि स्वर्गनारकदांस्तथा।।1।।

ऋषियों ने कहा-- सूत जी! अब आप शीघ्र ही हमें वह सदाचार सुनाइये, जिससे विद्वान् पुरुष पुण्यलोकों पर विजय पाता है। स्वर्ग प्रदान करने वाले धर्ममय आचार तथा नरक का कष्ट देने वाले अधर्ममय आचारों का भी वर्णन कीजिये।।1।।

सूत उवाच

सदाचारयुतो विद्वान् ब्राह्मणो नाम नामतः।
वेदाचारयुतो विप्रो ह्येतैरेकैकवान्द्विजः।।2।।

सूत जी बोले --सदाचार का पालन करने वाला विद्वान् ब्राह्मण ही वास्तव में ब्राह्मण नाम धारण करने का अधिकारी है। जो केवल वेदोक्त आचार का पालन करने वाला एवं वेद का अभ्यासी है, उस ब्राह्मण की विप्र संज्ञा होती है। सदाचार, वेदाचार तथा विद्या इनमें से एक एक गुण से ही युक्त होने पर भी उसे द्विज कहते हैं।।2।।

अल्पाचारोऽल्पवेदश्च क्षत्रियो राजसेवकः।
किञ्चिदाचारवान्वैश्यः कृषिवाणिज्यकृत्तथा।।3।।
जिसमें स्वल्प मात्रा में ही आचार का पालन देखा जाता है, जिसने वेदाध्ययन भी बहुत कम किया है तथा जो राजा का सेवक पुरोहित, मंत्री आदि है, उसे क्षत्रिय ब्राह्मण कहते हैं। जो ब्राह्मण कृषि तथा वाणिज्य कर्म करने वाला है और कुछ कुछ ब्राह्मणोचित आचार का भी पालन करता है, वह वैश्य ब्राह्मण है।।3।।

शूद्र ब्राह्मण इत्युक्तः स्वयमेव हि कर्षकः।
असूयालुः परद्रोही चण्डालद्विज उच्यते।।4।।

जो स्वयं ही खेत जोतता है(हल चलाता है), उसे शूद्र ब्राह्मण कहा गया है। जो दूसरों के दोष देखने वाला और परद्रोही है, उसे चांडाल द्विज कहते हैं।।4।।

     पृथिवी पालको राजा. इतरे क्षत्रिया मताः।
धान्यादिक्रयवान्वैश्य इतरो वणिगुच्यते।।5।।

इसी तरह क्षत्रियों में भी जो पृथ्वी का पालन करता है वह राजा है। दूसरे लोग राजत्व हीन क्षत्रिय माने गए हैं। वैश्यों में भी जो धान्य आदि वस्तुओं का क्रय विक्रय करता है, वह वैश्य कहलाता है। दूसरों को वणिक कहते हैं।।5।।

ब्रह्मक्षत्रिय वैश्यानांशुश्रूषुः शूद्र उच्यते।
कर्षको वृषलो ज्ञेय इतरे चैव दस्यवः।।6।।

जो ब्राह्मणों,क्षत्रियों तथा वैश्यों की सेवा में लगा रहता है, वही वास्तव में शूद्र कहलाता है। जो शूद्र हल जोतने का काम करता है। उसे वृषल समझना चाहिये। सेवा, शिल्प और कर्षण से भिन्न वृत्ति आश्रय लेने वाले  शूद्र दस्यु कहलाते हैं।।6।।

सर्वोह्युषः प्राङ्मुखश्च चिन्तयेद् देवपूर्वकान्।
धर्मानर्थांश्च तत्क्लेशानायं च व्ययमेव च।।7।।

इन सभी वर्णों के मनुष्यों को चाहिए कि वे ब्रह्ममुहूर्त में उठकर पूर्वाभिमुख हो सबसे पहले देवताओं का, फिर धर्म का, अर्थ का, उसकी प्राप्ति के लिये उठाये जाने वाले क्लेशों का तथा आय और व्यय का भी चिंतन करें।।7।।

निशान्त्ययामोषा ज्ञेया यामार्थं  सन्धिरुच्यते।
तत्काले तु समुत्थाय विण्मूत्रे विसृजेद द्विजः।।9।।

गृहाद् दूरं ततो गत्वावाह्यतः प्रावृतस्तथा।
उदङ्मुखः समाविश्य प्रतिबन्धेऽन्यदिङ्मुखः।।10।।
  रात के पिछले पहर को उषः काल जानना चाहिये। उस अंतिम पहर का जो आधा या मध्य भाग है, उसे संधि कहते हैं। उस संधिकाल में उठकर द्विज को मल मूत्र आदि का त्याग करना चाहिये। घर से दूर जाकर बाहर से अपने शरीर को ढके रखकर दिन में उत्तराभिमुख बैठकर मल मूत्र का त्याग करे। यदि उत्तराभिमुख बैठने में कोई रुकावट हो तो दूसरी दिशा की ओर मुख करके बैठे।। 9-10।।

जलाग्निब्राह्मणादीनां देवानां नाभिमुख्यतः।
लिंङ्गं पिधाय वामेन मुखमन्येन पाणिना।।11।।

जल, अग्नि, ब्राह्मण आदि तथा देवताओं का सामना बचाकर बैठे। मल त्याग करके उठने पर फिर उस मल को न देखे। तदनन्तर जलाशय से बाहर निकाले  हुऐ जल से ही गुदा की शुद्धि करे। लिङ्ग में ककोड़े के फल के बराबर मिट्टी लेकर लगाये और धो दे।।11।।
   
मलमुत्सृज्य चोत्थाय न पश्येच्चैव तन्मलम्।
उद्धृतेन जलेनैव शौचं कुर्याज्जलाद् बहि।।12।।

अथवा देवपित्रर्षितीर्थावतरणं विना।
सप्त वा पञ्च वा त्रीन्वा गुदं संशोधयेन्मृदा।।13।।
लिङ्गे कर्कोंटमात्रं तु गुदे प्रसूतिरिस्यते।
तत उत्थाय पद्धस्तशौचं गण्डूषमष्टकम्।।14।।

मल त्याग करके उठने पर फिर उस मल को न देखे। तदनन्तर जलाशय से बाहर निकाले  हुऐ जल से ही गुदा की शुद्धि करे अथवा देवताओं, पितरों तथा ऋषियों के तीर्थों में उतरे बिना ही प्राप्त हुए जल से शुद्धि करनी चाहिये। गुदा में सात, पाँच या तीन बार मिट्टी लगाकर उसे धोकर शुद्ध करे। लिङ्ग में ककोड़े के फल के बराबर मिट्टी लेकर लगाये और धो दे। परन्तु गुदा में लगाने के लिये एक पसर मिट्टी की आवश्यकता होती है। लिङ्ग और गुदा की शुद्धि के बाद उठकर अन्यत्र जाये और हाथ, पैर की शुद्धि के बाद आठ बार कुल्ला करे।।12-13-14।।

येन केन च पत्रेण काष्ठेन च जलादि बहिः।
कार्यं सन्तर्जनीं त्यज्य दन्तधावनमीरितम्।।15।।

जलदेवान्नमस्कृत्य मन्त्रेण स्नानमाचरेत्।
अशक्तः कण्ठदघ्नं वा कटिदघ्नमथापि वा।।16।।
आजानुजलमाविश्य मन्त्र स्नानं समाचरेत।
देवादींस्तर्पयेद्विद्वांस्तत्र तीर्थजलेन च।।17।।

किसी वृक्ष के पत्ते से अथवा उसके पतले काष्ठ से जल के बाहर दतुअन करना चाहिये। उस समय तर्जनी अंगुलि का उपयोग न करे। यह दांत शुद्धि का विधान बताया गया है। तदनन्तर जल सम्बन्धी देवताओं को नमस्कार करके मंन्त्र पाठ करते हुए जलाशय में स्नान करे। यदि कण्ठ तक या कमर तक पानी में खड़े होने की शक्ति न हो तो घुटने तक जल में खड़ा हो अपने ऊपर जल छिड़ककर मंत्रोच्चारण पूर्वक स्नान कार्य सम्पन्न करे। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वहाँ तीर्थजल से देवता आदि का स्नानाङ्ग तर्पण भी करे।।15-16-17 ।।

धौतवस्त्रं समादाय पञ्चकच्छेन धारयेत।
उत्तरीयं  च किञ्चैव धार्य सर्वेषु कर्मसु।।18।।

इसके बाद धौतवस्त्र लेकर पाँच कच्छ करके उसे धारण करे। साथ ही कोई उत्तरीय भी धारण कर ले, क्योंकि संध्यावंदन आदि सभी कर्मों में उसकी आवश्यकता होती है।।18।।

नद्यादितीर्थस्नाने तु स्नान वस्त्रं न शोधयेत्।
वापीकूपगृहादौ तु स्नानादूर्ध्वं नयेद् बुधः।।19।।

शिलादार्वादिके वापि जले वापि स्थलेऽपि वा।
संशोध्य पीडयेद्वस्त्रं पितृणां  तृप्तये द्विजाः।।20।।

नदी आदि तीर्थों में स्नान करने पर स्नान सम्बन्धी उतारे हुए वस्त्र को वहाँ न धोये। स्नान के पश्चात विद्वान् पुरुष भीगे हुए उस वस्त्र को बावड़ी में, कुएँ के पास अथवा घर आदि में ले जाय और वहाँ पत्थर पर, लकड़ी आदि पर, जल में, या स्थल में अच्छी तरह धोकर उस वस्त्र को निचोड़े। द्विजो! वस्त्र को निचोड़ने से जो जल गिरता है, वह एक श्रेणी के पितरों की तृप्ति के लिये होता है।।19-20।।

जाबालकोक्त मन्त्रेण भस्मना च त्रिपुण्ड्रकम्।
अन्यथा चेज्जले पातस्ततो नरकमृच्छति।।21।।

इसके बाद जाबालि उपनिषद में बताए गये अग्निरिति० मन्त्र से भस्म लेकर उसके द्वारा त्रिपुण्ड्र लगाये। इस विधि का पालन न किया जाय, इसके पूर्व ही यदि जल में भस्म गिर जाय तो गिरने वाला नरक में जाता है।।21।।

आपोहिष्ठेति शिरसि प्रोक्षयेत्पापशान्तये।
यस्येति मन्त्रं पादे तु सन्धि प्रोक्षणमुच्यते।।22।।

आपोहिष्ठा० इत्यादि मंन्त्र से पाप शांति के लिये सिर पर जल छिड़के तथा यस्यक्षयाय० इस मन्त्र को पढ़कर पैर पर जल छिड़के। इसे संधि प्रोक्षण कहते हैं।।22।।

हृदये मूर्ध्नि पादे च मूर्ध्नि हृत्पाद् एव च।
हृत्पाद मूर्ध्नि सम्प्रोक्ष्य मन्त्रस्नानं विदुर्बुधाः।।23।।

आपोहिष्ठा० इत्यादि मंन्त्र में तीन ऋचायें हैं और प्रत्येक ऋचा में गायत्री छन्द के तीन तीन चरण हैं। इनमें से प्रथम ऋचा के तीन चरणों का पाठ करते हुए क्रमशः पैर, मस्तक और हृदय में जल छिड़के। दूसरी ऋचा के तीन चरणों को पढ़कर क्रमशः मस्तक, हृदय और पैर में जल छिड़के तथा तीसरी ऋचा के तीन चरणोंका पाठ करते हुए क्रमशः हृदय, पैर और मस्तक का जल से प्रोक्षण करे। इसे विद्वान पुरुष मन्त्र स्नान मानते है।।23।।

ईषत्स्पर्शे च दौः स्वास्थ्ये राज राष्ट्रभयेऽपि च।
अगत्या गतिकाले च मन्त्रस्नानं समाचरेत्।।24।।

किसी अपवित्र वस्तु से किंचित स्पर्श हो जाने पर, अपना स्वास्थ्य ठीक न रहने पर, राजा और राष्ट्र पर भय उपस्थित होने पर तथा यात्राकाल में जल की उपलब्धि न होने की विवशता आ जाने पर मंन्त्र स्नान करना चाहिये।।24।।

प्रातः सूर्यानुवाकेन सायमग्न्यनुवाकतः।
अपः पीत्वा तथा मध्ये पुनः प्रोक्षणमाचरेत्।।25।।

प्रातःकाल 'सूर्यश्च मा मन्युश्च' इत्यादि सूर्यानुवाक से तथा सायंकाल 'अग्निश्च मा मन्युश्च' इत्यादि अग्नि सम्बन्धी अनुवाक से जल का आचमन करके पुनः जल से अपने अङ्गो का प्रोक्षण करे। मध्याह्नकाल में भी 'आपः पुनन्तु' इस मंन्त्र से आचमन करके पूर्ववत प्रोक्षण या मार्जन करना चाहिये।।25।।

गायत्र्या जप मन्त्रान्ते त्रिरुर्ध्वं प्राग्विनिक्षिपेत्।
मन्त्रेण सह चैकं वै मध्येऽर्घ्यं तु रवेर्द्विजाः।।26।।

अथ जाते च सायाह्ने भुवि पश्चिमदिङ्मुखः।
उद्धृत्य दद्यात् प्रातस्तु मध्याह्नेेऽङ्गुलिभिस्तथा।।27।।

प्रातःकाल की संध्योपासना में गायत्री मंन्त्र का जप करके तीन बार ऊपर की ओर सूर्यदेव को अर्घ्य देना चाहिये। ब्राह्मणों! मध्याह्न काल में गायत्रीमंत्र के उच्चारण पूर्वक सूर्य को एक ही अर्घ्य देना चाहिये। फिर सायंकाल आने पर पश्चिम की ओर मुख करके बैठ जाय और पृथ्वी पर ही सूर्य के लिए अर्घ्य दे(ऊपर की ओर नहीं)। प्रातःकाल और मध्याह्न के समय अञ्जलि में अर्घ्य जल लेकर अंगुलियों की ओर से सूर्यदेव के लिये अर्घ्य दे।।26-27।।

अंगुलीनां च रन्ध्रेण लम्बं पश्येद् दिवाकरम्।
आत्मप्रदक्षिणं कृत्वाशुद्धाचमनमाचरेत्।।28।।

फिर अंगुलियों के छिद्र से ढलते हुए सूर्य को देखे तथा उनके लिये स्वतः प्रदक्षिणा करके शुद्ध आचमन करे।।28।।

सायं मुहूर्तादर्वाक्तु कृता सन्ध्या वृथा भवेत्।
अकालात्काल इत्युक्तो दिनेऽतीते यथाक्रमम्।।29।।

दिवातीते च गायत्रीं शतं नित्यं क्रमाज्जपेत्।
आदशाहात्परातीतं गायत्रीं लक्षमभ्यसेत्।।30।।

सायंकाल में सूर्यास्त से दो घड़ी पहले की हुई संध्या निष्फल होती है, क्योंकि वह सायं संध्या का समय नहीं है। ठीक समय पर संध्या करनी चाहिए, ऐसी शास्त्र की आज्ञा है। यदि संध्योपासना किए बिना दिन बीत जाय तो प्रत्येक समय के लिए क्रमशः प्रायश्चित करना चाहिए।यदि एक दिन बीते तो प्रत्येक बीते हुए संध्याकाल के लिए नित्य नियम के अतिरिक्त सौ गायत्री मंत्र का अधिक जप करे। नित्य कर्म के लुप्त हुए 10 दिन से अधिक बीत जाय तो उसके प्रायश्चित के रूप में एक लाख गायत्री का जप करना चाहिये।।29-30।।

मासातीते तु नित्ये हि पुनश्चोपनयं चरेत्।
ईशो गौरी गुहो विष्णोर्ब्रह्मा चन्द्रश्च वै यमः।।31।।

एवंरुपांश्च वै देवांस्तर्पयेदर्थसिद्धये।
ब्रह्मार्पणं ततः कृत्वा शुद्धाचमनमाचरेत्।।32।।

यदि एक मास  तक नित्य कर्म छूट जाए तो पुनः अपना उपनयन संस्कार कराये। अर्थ सिद्धि के लिए ईस, गौरी, कार्तिकेय,  विष्णु, ब्रह्मा, चंद्रमा और यम का तथा ऐसे ही अन्य देवताओं का भी शुद्ध जल से तर्पण करें। फिर तर्पण कर्म को ब्रह्मार्पण करके शुद्ध आचमन करे।।31-32।।

तीर्थ दक्षिणमतः शस्ते मठे मन्त्रालये बुधः।
तत्र देवालये वापि गृहे वा नियतस्थले।।33।।

सर्वान्देवान्मस्कृत्य स्थिरबुद्धिः स्थिरासनः।
प्रणवं पूर्वमभ्यस्य गायत्रीमभ्यसेत्ततः।।34।।

तीर्थ के दक्षिण प्रशस्त मठ में, मंत्रालय में, देवालय में, घर में अथवा अन्य किसी नियत स्थान में आसन पर स्थिरतापूर्वक बैठकर विद्वान पुरुष अपनी बुद्धि को स्थिर करे और संपूर्ण देवताओं को नमस्कार करके पहले प्रणव का जप करने के पश्चात गायत्री मंत्र की आवृत्ति करे।।33-34।।

जीवब्रह्मैक्यविषयं बुद्ध्वा प्रणवमभ्यसेत्।
त्रैलोक्यसृष्टिकर्तारं स्थितिकर्तारमच्युतम्।।35।।

संहर्तारं तथा रुद्रं स्वप्रकाशमुपास्महे।
ज्ञान कर्मेन्द्रियाणां च मनोवृत्तीर्धियस्तथा।।36।।
भोग मोक्ष प्रदे धर्मे ज्ञाने च प्रेरयेत्सदा।
इत्थमर्थं धिया ध्यायन्ब्रह्म प्राप्नोति निश्चचयम्।।37।।

प्रणव के अ, उ और म्  इन तीनों अक्षरों से जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन होता है इस बात को जानकर प्रणव ऊँ का जप करना चाहिए जप काल में यह भावना करनी चाहिये कि हम तीनों लोकों की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा, पालन करने वाले विष्णु तथा संहार करने वाले रूद्र की जो स्वयं प्रकाश चिन्मय हैं उपासना करते हैं। यह ब्रह्म स्वरूप ओंकार  हमारी कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों की वृत्तियों को, मन की वृत्तियों को तथा बुद्धि वृत्तियों को सदा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले धर्म एवं ज्ञान की ओर प्रेषित करें। प्रणव के इस अर्थ का बुद्धि के द्वारा चिन्तन करता हुआ जो इसका जप करता है, वह निश्चचय ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।।35-36-37।।

केवलं वा जपेन्नित्यं ब्राह्मण्यस्य च पूर्तये।
सहस्त्रमभ्यसेन्नित्यं प्रातर्ब्राह्मणपुङ्गवः।।38।।

अर्थानुसंधान के बिना भी प्रणव का नित्य जप करना चाहिए। इससे ब्राह्मणत्व की पूर्ति होती है। ब्राह्मणत्व की पूर्ति के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मण को प्रतिदिन प्रातः काल एक सहस्त्र गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए।।38।।

अन्येषां च यथाशक्ति मध्याह्ने च शतं जपेत्।
सायं द्विदशकं ज्ञेयं शिखाष्टक समन्वितम्।।39।।

मध्याह्न काल में 100 बार और सायंकाल में 28 बार जप की विधि है। अन्य वर्ण के लोगों को अर्थात क्षत्रिय और वैश्य को तीनों संध्याओं के समय यथा साध्य गायत्री जप करना चाहिये।।39।।

मूलाधारं समारभ्य द्वादशांश स्थितांस्तथा।
विद्येशब्रह्मविष्ण्वीशजीवात्म परमेश्वरान्।।40।।

ब्रह्मबुद्धया तदैक्यं च सोऽहं भावनया जपेत्।
तानेव ब्रह्मरन्ध्रादौ कायाद् बाह्ये च भावयेत्।।41।।

 शरीर के भीतर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, आज्ञा और  सहस्रार ये छः चक्र हैं। इनमें मूलाधार से लेकर सहस्रार तक छहों स्थानों में क्रमशः विद्येश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, ईश, जीवात्मा और परमेश्वर स्थित हैं। इन सब में ब्रह्मबुद्धि करके और इनकी एकता का निश्चय करे। और 'वह ब्रह्म मैं हूँ' ऐसी भावना पूर्वक प्रत्येक श्वास के साथ सोऽहं का जप करे। उन्हीं विद्येश्वर आदि की ब्रह्मरंध्र आदि में तथा इस शरीर से बाहर भी भावना करे।।40-41।।

महत्तत्वं समारभ्य शरीरं तु सहस्त्रकम्।
एकैकस्माज्जपादेकमतिक्रम्य  शनैःशनैः।।42।।

 प्रकृति के विकार भूत महत्तत्व से लेकर पंचभूत पर्यंत तत्वों से बना हुआ जो शरीर है, ऐसे सहस्त्रों शरीरों का एक एक अजपा गायत्री के जप से एक एक के क्रम से अतिक्रमण करके जीव को धीरे धीरे परमात्मा से संयुक्त करे।।42।।

परस्मिन्योजयेज्जीवं जपतत्त्वमुदाहृतम्।
शतद्विदशकं देहं शिखाष्टक समन्वितम्।।43।।

मन्त्राणां जप एवं हि जपमादिक्रमाद्विदुः।
सहस्त्रं ब्राह्मदं विद्याच्छतमैन्द्रप्रदं विदुः।।44।।

इतरत्त्वात्मरक्षार्थं ब्रह्मयोनिषु जायते।
दिवाकरमुपस्थाय नित्यमित्थं समाचरेत्।।45।।

यह जप का तत्त्व बताया गया है। सौ अथवा अट्ठाइस मंत्रों के जप से उतने ही शरीरों का अतिक्रमण होता है। इस प्रकार जो मंत्रों का जप है,  इसी को आदि क्रम से वास्तविक जप जानना चाहिये। सहस्त्र वार किया हुआ जप ब्रह्मलोक प्रदान करने वाला होता है, ऐसा जानना चाहिए। सौ बार किया हुआ जप इंद्र पद की प्राप्ति कराने वाला माना गया है। ब्राह्मणेतर  पुरुष आत्मरक्षा के लिए जो स्वल्प मात्रा में जप करता है। वह ब्राह्मण के कुल में जन्म लेता है। प्रतिदिन सू्र्योपस्थान करके उपर्युक्त रूप से जप का अनुष्ठान करना चाहिये।।43-44-45।।

लक्षद्वादशयुक्तस्तु पूर्णब्राह्मण ईरितः।
गायत्र्या लक्षहीनं तु वेदकार्ये न योजयेत्।।46।।

बारह लाख गायत्री का जप करने वाला पुरुष पूर्ण रूप से ब्राह्मण कहा गया है। जिस ब्राह्मण ने एक लाख गायत्री का भी जप न किया हो, उसे वैदिक कार्य में न लगाये।।46।।

आसप्ततेस्तु नियमं पश्चात्प्रव्राजनं चरेत्। 
प्रातर्द्वांदशसाहस्त्रं प्रव्राजी प्रणवं जपेत्।।47।।

सत्तर वर्ष की अवस्था तक नियम पालन पूर्वक कार्य करे। इसके बाद गृह त्याग कर संयास ले ले। परिव्राजक या सन्यासी पुरुष नित्य प्रातः काल बारह हजार प्रणव का जप करे।।47।।

दिने दिने त्वतिक्रान्ते नित्यमेवं क्रमाज्जपेत्।
मासादौ क्रमशोऽतीते सार्धलक्षजपेन हि।।48।।

अत ऊर्ध्वमतिक्रान्ते पुनः प्रैषं.समाचरेत्।
एवं कृत्वा दोषशान्तिरन्यथा रौरवं व्रजेत।।49।।

यदि एक दिन इस नियम का उल्लंघन हो जाए तो दूसरे दिन उसके बदले में उतना मंत्र और अधिक जपना चाहिए और सदा इस प्रकार जप को चलाने का प्रयत्न करना चाहिये। यदि क्रमशः एक मास आदि का उल्लंघन हो गया तो डेढ़ लाख जप करके उसका प्रायश्चित करना चाहिये। इससे अधिक समय तक नियम का उल्लंघन हो जाये तो नये सिरे से शुरू से गुरू  नियम ग्रहण करे। ऐसा करने से दोषों की शांति होती है, अन्यथा वह रौरव नरक में जाता है।।48-49।।

धर्मार्थयोस्तते यत्नं कुर्यात्कामी न चेतरः।
ब्राह्मणो मुक्तिकामः स्याद् व्रह्मज्ञानं सदाभ्यसेत्।।50।।

जो सकाम भावना से युक्त गृहस्थ ब्राह्मण है, उसी को धर्म तथा अर्थ के लिए यत्न करना चाहिये। मुमुक्षु ब्राह्मण को तो सदा ज्ञान का ही अभ्यास करना चाहिये।।50।।

धर्मादर्थोऽर्थतो भोगो भोगाद्वैराग्यसम्भवः।
धर्मार्जितार्थ भोगेन वैराग्यमुपजायते।।51।।

जहाँ धर्म से अर्थ का उपार्जन किया जाता है, वह कामना के निमित्त नहीं होता है, उस अर्थ से भोग सुलभ होता है। फिर उस भोग से वैराग्य की सम्भावना होती है।।51।।

विपरीतार्थभोगेन राग एव प्रजायते।
धर्मश्च द्विविधः प्रोक्तो द्रव्यदेह द्वयेन चः।52।।

और विपरीत अर्थ के भोग से रोग ही हो जाता है। धर्म दो प्रकार से होता है, एक देह से दूसरा धन से।।52।।

द्रव्यमिज्यादि रुपं स्यात्तीर्थस्नानादि दैहिकम्।
धर्मेण धनमाप्नोति तपसा दिव्यरुपताम्।।53।।

द्रव्य से यज्ञादि रूप में धर्म होता है और शरीर से तीर्थस्नानादि रूप में धर्म होता है। धन से धन और तप से दिव्यरुपता प्राप्त होती है।।53।।

निष्कामः शुद्धिमाप्नोति शुद्धया ज्ञानं न संंशयः।
कृतदौ हि तपः श्लाघ्यं द्रव्यधर्मः कलौ युगे।।54।।

 कामनाओं का त्याग करने वाले पुरुष के अन्तः करण की शुद्धि होती है। उस शुद्धि से ज्ञान का उदय होता है इसमें संशय नहीं है।।54।।

कृते ध्यानाज्ज्ञानसिद्धिस्त्रेतायां तपसा तथा।
द्वापरे यजनाज्ज्ञानं प्रतिमापूजया कलौ।।55।।

सतयुग आदि में तप को ही प्रशस्त कहा गया है, किंतु कलयुग में द्रव्य साध्य धर्म दान आदि अच्छा माना गया है। सतयुग  मैं ध्यान से, त्रेता में तपस्या से, और द्वापर में यज्ञ करने से ज्ञान की सिद्धि होती है, परंतु कलयुग में प्रतिमा भगवद विग्रह की पूजा से ज्ञान लाभ होता है।।55।।

यादृशं पुण्यपापं वा तादृशं फलमेव हि।
द्रव्यदेहाङ्ग भेदेन न्यून वृद्धिक्षयादिकम्।।56।।

जैसा कोई पुण्यपाप करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। द्रव्य और देह के भेद से पुण्यपाप की न्यूनता, वृध्दि और क्षयादिता होती है।।56।।

अधर्मो हिंसिकारुपो धर्मस्तु सुखरुपकः।
अधर्माद् दुःखमाप्नोति धर्माद्वै सुखमेधते।।57।।

विद्याद् दुर्वृत्तितो दुःखं सुखं विद्यात्सुवृत्तितः।
धर्मार्जनमतः कुर्याद्भोगमोक्षप्रसिद्धये।।58।।

 अधर्म, हिंसा दुख रूप है और धर्म सुख रूप है। अधर्म से मनुष्य दुख पाता है और धर्म से वह सुख एवं अभ्युदय का भागी होता है। दुराचार से दुख प्राप्त होता है और सदाचार से सुख। अतः भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये  धर्म का उपार्जन करना चाहिए।।57-58।।

सकुटुम्बस्य विप्रस्य चतुर्जनयुतस्य च।
शतवर्षस्य वृत्तिं तु दद्यात्तद्ब्रह्मलोकदम्।।59।।

जिसके घर में कम से कम चार मनुष्य हैं, ऐसे कुटुम्बी  ब्राह्मण को जो सौ वर्ष के लिए जीविका (जीवन निर्वाह की सामग्री) देता है, उसके लिए वह दान ब्रह्मलोक की प्राप्ति कराने वाला होता है।।59।।

चान्द्रायणसहस्त्रं तु ब्रह्मलोकप्रदं विदुः।
सहस्त्रस्य कुटुम्बस्य प्रतिष्ठां क्षत्रियश्चरेत्।।60।।

इन्द्रलोकप्रदं विद्यादयुतं ब्रह्मलोकदम्।
यां देवतां पुरस्कृत्य दानमाचरते नरः।।61।।

तत्तल्लोकमवाप्नोति इति वेदविदो विदुः।
अर्थहीनः सदा कुर्यात्तपसामर्जनं तथा।।62।।

एक सहस्र चान्द्रायण व्रत का अनुष्ठान ब्रह्मलोक दायक माना गया है। जो क्षत्रिय एक सहस्र कुटुम्ब को जीविका और आवास देता है, उसका वह कर्म इंद्रलोक की प्राप्ति कराने वाला होता है। दस सहस्र कुटुम्बों को दिया हुआ आश्रय दान बह्मलोक प्रदान करता है। दाता पुरूष जिस देवता को सामने रखकर दान करता है अर्थात वह दान के द्वारा जिस देवता को प्रसन्न करना चाहता है। उसी का लोक उसे प्राप्त होता है। यह बात वेदवेत्ता पुरुष अच्छी तरह जानते हैं। जो धनहीन हैं, उन्हें सदा तप रूपी धन एकत्र करना चाहिये।।60-61-62।। 

तीर्थाच्च तपसा प्राप्यं सुखमक्षय्यमश्नुते।
अर्थार्जनमथो वक्ष्ये न्यायतः सुसमाहितः।।63।।

तपस्या और तीर्थसेवन से अक्षय सुख पाकर मनुष्य उसका उपभोग करता है। धन को भी न्यायपूर्वक और सावधानी से संग्रह करना चाहिये।।63।।

कृतात्प्रतिग्रहाच्चैव याजनाच्च   विशुद्बतः।
अदैन्यादनतिक्लेशाद् ब्राह्मणो धनमर्जयेत्।।64।।

 ब्राह्मण को चाहिए कि वह सदा सावधान रहकर विशुद्ध प्रतिग्रह (दान ग्रहण) तथा याजन (यज्ञ कराने) आदि से धन का अर्जन करें। वह इसके लिए कहीं भी दीनता न दिखाएं और न अत्यंत क्लेशदायक  कर्म ही करे।।64।।

क्षत्रियो बाहुवीर्येण कृषिगोरक्षणाद् विशः।
न्यायाजितस्य वित्तस्य दानात्सिद्धिं समश्नुते।।65।।

क्षत्रिय बाहुबल से धन का उपार्जन करे और वैश्य कृषि एवं गोरक्षा से। न्यायोपार्जित धन का दान करने से दाता को ज्ञान की सिद्धि प्राप्त होती है।।65।।

ज्ञानसिद्धया मोक्षसिद्धिः सर्वेषां गुर्वनुग्रहात।
मोक्षात्स्वरुपसिद्धिः स्यात्परानन्दं समुश्नते।।66।।

ज्ञान सिद्धि द्वारा सब पुरुषों को गुरु कृपा, मोक्ष  सिद्धि सुलभ होती है। मोक्ष से स्वरूप की सिद्धि (ब्रह्मरुप से स्थिति) प्राप्त होती है, जिससे मुक्त पुरुष परमानंद का अनुभव करता है।।66।।

सत्सङ्गात्सर्वमेतद्वै नराणां जायते द्विजाः।
धनधान्यादिकं सर्वं देयं वै गृहेमेधिना।।67।।

हे ब्राह्मणो ! यह सब कुछ सत्संग से ही प्राप्त होता है।गृहस्थ पुरुष को चाहिए कि वह धन-धान्यादि  सब वस्तुओं का दान करे।।67।।

यद्यत्काले वस्तुजातं फलं वा धान्यमेव च।
तत्तत्सर्वं ब्राह्मणेयो देयं वै हितमिच्छता।।68।।

जिस काल जो वस्तु , फल धान्य होते हैं, वह सब हित की इच्छा से ब्राह्मणों को देने चाहिये।।68।।

जलं चैव सदा देयमन्नं क्षुद्र्व्याधिशान्तये।
क्षेत्रं धान्यं तथामान्नमन्नमेव चतुर्विधम्।।69।।

 वह तृषा निवृत्ति के लिए जल तथा क्षुधा रुपी रोग की शांति के लिए सदा अन्न का दान करे। खेतधान्य, कच्चा अन्न तथा भक्ष्य, भोज्य,लेह्य और चोष्य यह चार प्रकार के सिद्ध अन्न दान करने चाहिए।।69।।

यावत्कालं यदन्नं वै भुक्त्वा श्रवणमेधते।
तावत्कृतस्य पुण्यस्य त्वर्धं दातुर्न संशयः।।70।।

जिसके अन्न को खाकर मनुष्य जब तक कथा श्रवण  आदि सद्धर्म का पालन करता है, उतने समय तक उसके किये हुए पुण्य फल का आधा भाग दाता को मिल जाता है इसमें संशय नहीं है।।70।।

ग्रहीता हि गृहीतस्य दानाद्वै तपसा तथा।
पापसंशोधनं कुर्यादन्यथा रौरवं व्रजेत।।71।।

दान लेने वाला पुरुष दान में प्राप्त हुई वस्तु का दान तथा तपस्या करके अपने प्रतिग्रह जनित पाप की शुद्धि कर ले अन्यथा उसे रौरव नरक में गिरना पड़ता है।।71।। 

आत्मवित्तं त्रिधा कुर्याद्धर्मवृद्धयात्मभोगतः।
नित्यं नैमित्तिकं काम्यं कर्म कुर्यात्तु धर्मतः।।72।।

अपने धन के तीन भाग करे। एक भाग धर्म के लिए, दूसरा भाग वृद्धि के लिए तथा तीसरा भाग अपने उपभोग के लिए। नित्य नैमित्तिक और काम्य, यह तीनों प्रकार के कर्म धर्मार्थ रखे हुए धन से करे।।72।।

वित्तस्य वर्धनं कुर्याद् वृद्धयंशेन हि साधकः।
हितेन मितमेध्येन भोगं भोगांशतश्चरेत्।।73।।

साधक को चाहिए कि वह वृद्धि के लिए रखे हुए धन से ऐसा व्यापार करें जिससे उस धन की वृद्धि हो तथा उपभोग के लिए रक्षित धन से हितकारक, परिमित एवं पवित्र भोग भोगे।।73।।

कृष्यर्जिते दशांशं हि देयं पापस्य शुद्धये।
शेषेण कुर्याद्धर्मादि अन्यथा रौरवं व्रजेत्।।74।।

खेती से पैदा किए हुए धन का दसवां अंश दान कर दे। इससे पाप की शुद्धि होती है। शेष धन से धर्म वृद्धि एवं उपभोग करे,  अन्यथा  वह रौरव नरक.में पड़ता है।।74।।

अथवा पापबुद्धिः स्यात्क्षयं वा सस्यमेष्यति।
वृद्धिवाणिज्यके देयं षडंषं हि विचक्षणैः।।75।।

 अथवा उसकी बुद्धि पाप पूर्ण हो जाती है या खेती ही चौपट हो जाती है।   बुद्धिमान पुरुष को धन का छठा अंश वाणिज्य व्यापार की वृद्धि में लगाना चाहिए।।75।।

शुद्धप्रतिग्रहे देयं चतुर्थांशं द्विजोत्तमैः।
अकस्मादुत्थितेऽर्थे हि देयमर्धंद्विजोत्तमैः।।76।।

चतुर्थांश में शुद्धप्रतिग्रह ब्राह्मणादि  को देना चाहिये और अकस्मात् कहीं से धन मिल जाये तो उसमें से आधा दान कर दे।।76।।

असत्प्रतिग्रहे सर्वं दुर्दानं सागरे क्षिपेत्।
आहूय दानं कर्तव्यमात्म भोगसमृद्धये।।77।।

और असत्प्रतिग्रह किया हो तो, वह सब दुर्दान समुद्र में डाल दे। अपनी भोग समृद्धि के निमित्त बुलाकर दान करना चाहिये।।77।।

पृष्टं सर्वं सदा देयमात्म शक्त्यनुसारतः।
जन्मान्तरे ऋणी हि स्याददत्ते पृष्टवस्तुनि।।78।।

और याचना करने वाले को अपनी शक्ति के अनुसार सदा दान करना चाहिये। कहकर जो फिर नहीं दे तो वो जन्मांतर में ऋणी होता है।।78।।

 परेषां च तथा दोषं न प्रशंसेद्विचत्रणः।
विद्वेषेण तथा ब्रह्मन् श्रुतं दृष्टं च नो वदेत्।।79।।

न वदेत्सर्वंजन्तूनां हृदि रोषकरं बुधः।
सन्ध्ययोरग्निकार्यं च कुर्यादैश्वर्यसिद्धये।।80।।

अशक्तस्त्वेककाले वा सूर्याग्नी च यथाविधि।
तण्डुलं धान्यमाज्यं वा फलं कन्दं हविस्तथा।।81।।

स्थालीपाकं तथा कुर्याद्यथान्यायं यथाविधि।
प्रधान होममात्रं वा हव्याभावे समाचरेत्।।82।।

विद्वान को चाहिए कि वह दूसरों के दोषों का बखान न करे। ब्राह्मणो! दोषवश दूसरों के सुने या देखे हुए छिद्र को भी प्रकट न करे। विद्वान पुरुष ऐसी बात न कहे, जो समस्त प्राणियों के हृदय में  रोष पैदा करने वाली हो। ऐश्वर्य की सिद्धि के लिए दोनों संध्याओं के समय अग्निहोत्र कर्म अवश्य करें। जो दोनों समय अग्निहोत्र कर्म करने में असमर्थ हो, वह एक ही समय सूर्य और अग्नि को विधिपूर्वक दी हुई आहुति से संतुष्ट करें। चावल, धान्य, घी, फल, कंद, तथा हविष्य इनके द्वारा विधिपूर्वक स्थालीपाक बनाये तथा यथोचित रीति से सूर्य और अग्नि को अर्पित करें। यदि हविष्य का अभाव हो तो  प्रधान होममात्र करे।।79-80-81-82।।

 नित्यसन्धानमित्युक्तं तमजस्त्रं विदुरविधाः।
अथवा जपमात्रं वा सूर्यवन्दनमेव च।।83।।

सदा सुरक्षित रहने वाली अग्नि को विद्वान पुरुष अजस्त्रकी संज्ञा देते हैं। अथवा संध्याकाल में जपमात्र या सूर्य की वंदना मात्र कर ले।।83।।

एवमात्मार्थिनः कुर्युरर्थार्थी च यथाविधि।
ब्रह्मयज्ञरता नित्यं देवपूजारतास्तथा।।84।।

आत्मज्ञान की इच्छा वाले तथा धनार्थी पुरुषों को भी इस प्रकार विधिवत उपासना करनी चाहिए। जो सदा ब्रह्म यज्ञ में तत्पर होते हैं,. देवताओं की पूजा में लगे रहते हैं।।84।।

अग्निपूजापरा नित्यं गुरुपूजारतास्तथा।
ब्राह्मणानां तृप्तिकराः सर्वे स्वर्गस्य भागिनः।।85।।

 नित्य अग्नि पूजा एवं गुरु पूजा में अनुरक्त होते हैं तथा ब्राह्मणों को तृप्त किया करते हैं वे सब लोग स्वर्ग लोक के भागी होते हैं।।85।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां सदाचारवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः।।13।।

जय बाबा की - बाबाचरण दास

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