Sunday, 24 November 2019

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ चतुर्दशोऽध्यायः

ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ चतुर्दशोऽध्यायः
|| बाबा चरणदास || 
ऋषय ऊचुः

अग्नियज्ञं देवयज्ञं ब्रह्मयज्ञं तथैव च।
गुरुपूजां ब्रह्मतृप्तिं क्रमेण ब्रूहि नः प्रभो।।1।।

ऋषियों ने कहा प्रभो! अग्नि यज्ञ, देव यज्ञ, ब्रह्मयज्ञ,    गुरुपूजा तथा ब्रह्म तृप्ति का हमारे समक्ष क्रमशः वर्णन कीजिए।।1।।

सूत उवाच

अग्नौ जुहोति यद् द्रव्यमग्नियज्ञः स उच्यते।
ब्रह्मचर्या श्रमस्थानां समिदाधानमेव हि।।2।।

सूत जी बोले महर्षियो! ग्रहस्थ पुरुष अग्नि में सायंकाल और प्रातः काल जौ, चावल आदि द्रव्य की आहुती देता है, उसी को अग्नि यज्ञ कहते हैं। जो ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित है, उन ब्रह्मचारियों के लिए समिधा का आधान ही अग्नि यज्ञ है।।2।।

समिदग्नौ व्रताद्यं च विशेषयजनादिकम्।
प्रथमाश्रमिणामेवं यावदौपासनं द्विजाः।।3।।

वे समिधा का ही अग्नि में हवन करें। ब्राह्मणो! ब्रह्मचर्य आश्रम में निवास करने वाले द्विजों का जब तक विवाह न हो जाय और वे औपासनाग्नि की प्रतिष्ठा न कर लें, तब तक उनके लिए अग्नि में समिधा की आहुति, व्रत आदि का पालन तथा विशेष यजन आदि ही कर्तव्य हैं। (यही उनके लिए अग्नि यज्ञ है)।।3।।

आत्मन्यारोपिताग्नीनां वनिनां यतिनां द्विजाः।
हितं च मितमेध्यान्नं स्वकाले भोजनं हुतिः।।4।।

द्विजो जिन्होंने वाह्य अग्नि को विसर्जित करके अपने आत्मा में ही अग्नि का आरोप कर लिया है, ऐसे वानप्रस्थियों और सन्यासियों के लिए यही हवन या अग्नि यज्ञ है कि वे विहित समय पर हितकर,  पर परिमित और पवित्र अन्न का भोजन कर लें।।4।।

औपासनाग्निसन्धानं समारभ्य सुरक्षितम्।
कुण्डे वाप्यथ भाण्डे वा तदजस्त्रं समीरितम्।।5।।

"यन्मुखं तदाहवनीयम्। इत्यादि श्रुतेः" उपासना, अग्नि सन्धान इनकी रक्षा सम्यक प्रकार से करनी चाहिये। कुण्ड में अथवा बर्तन में (अँगीठी में) सदा उस अग्नि को रखना चाहिये।।5।।

अग्निमात्मन्यरण्यां वा राजदैववशाद् ध्रुवम्।
अग्नित्यागभयादुक्तं समारोपित मुच्यते।।6।।

अग्नि वा राजा और दैव के भयवश से समिधा में धारण करना, अग्नित्याग भय से ही उसका समारोपण कहा है।।6।।

सम्पतकरी तथा  ज्ञेया सायमग्न्यहुतिर्द्विजाः।
आयुष्करीति.विज्ञेया प्रातः सूर्याहुतिस्तथा।।7।।

ब्राह्मणो! सायंकाल अग्नि के लिए दी हुई आहुती संपत्ति प्रदान करने वाली होती है। ऐसा जानना चाहिये और प्रातः काल सूर्य देव को दी हुई आहुती आयु की वृद्धि करने वाली होती है। यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये।।7।।

अग्नियज्ञो ह्ययं प्रोक्तो  दिवा सूर्य निवेशनात्।
इन्द्रादीन्सकलान्देवानुद्दिश्या ग्नौ जुहोति यत्।।8।।

दिन में अग्निदेव सूर्य में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। अतः प्रातः काल सूर्य को दी हुई आहुती भी अग्नि यज्ञ के ही अंतर्गत है। इस प्रकार यह अग्नि का वर्णन किया गया। इंद्र आदि समस्त देवताओं के उद्देश्य से अग्नि में जो आहुती दी जाती हैं,उसे देव यज्ञ समझना चाहिये।।8।।

देवयज्ञं हि तं विद्यात्स्थाली पाकादिकान्क्रूतून्।
चौलादिकं तथा ज्ञेयं लौकिकाग्नौ प्रतिष्ठितम्।।9।।

स्थालीपाक आदि यज्ञों को देवयज्ञ ही मानना चाहिये। लौकिक अग्नि में प्रतिष्ठित जो चूड़ाकरण आदि संस्कार निमित्तक हवन कर्म हैं, उन्हें भी देव यज्ञ के ही अंतर्गत  जानना चाहिये।।9।।

ब्रह्मयज्ञं द्विजः कुर्याद् देवानां तृप्तयेऽसकृत।
ब्रह्मयज्ञ इति प्रोक्तो वेदस्याध्ययनं भवेत्।।10।।
अब ब्रह्मयज्ञ का वर्णन सुनो। द्विज को  चाहिये कि वह देवताओं की तृप्ति के लिए निरंतर ब्रह्म यज्ञ करे। वेदों का नित्य अध्ययन या स्वाध्याय होता है, उसी को ब्रह्मयज्ञ कहा गया है।।10।।

नित्यानन्तरमासायं ततस्तु न विधीयते।
अनग्नौ देवयजनं श्रृणुत श्रद्धयादरात्।।11।।

प्रातः नित्य कर्म के अनंतर सायंकाल तक ब्रह्मयज्ञ किया जा सकता है। उसके बाद रात में इसका विधान नहीं है। अग्नि के बिना देव यज्ञ कैसे होता है इसे तुम लोग श्रद्धा से और आदर पूर्वक सुनो।।11।।

आदिसृष्टौ महादेवः सर्वज्ञः करुणाकरः।
सर्वलोकोपकारार्थं वारान्कल्पितवान्प्रभु।।12।।

सृष्टि के आरंभ में दयालु और सर्व समर्थ महादेव जी ने समस्त लोगों के उपचार के लिए वारों की कल्पना की है।।12।।

संसार वैद्यः सर्वज्ञः सर्वभेषजभेषजम्।
आदावारोग्यदं वारं स्ववारं कृतवान्प्रभुः।।13।।

अग्नि के बिना देव यज्ञ कैसे होता है इसे तुम लोग श्रद्धा से और आदर पूर्वक सुनो। सृष्टि के आरंभ में सर्वज्ञ, दयालु और सर्व समर्थ महादेव जी ने समस्त लोकों के उपकार के लिए वारों की कल्पना की। वे भगवान शिव संसार रूपी रोग को दूर करने के लिए वैद्य हैं। सब के ज्ञाता तथा समस्त औषधौं के भी औषध हैं। उन भगवान ने पहले अपने वार की कल्पना की, जो आरोग्य प्रदान करने वाला है।।13।।

सम्पत्करं स्वमायाया वारं च कृतवांस्ततः।
जनने दुर्गतिक्रान्ते कुमारस्य ततः परम्।।14।।

तत्पश्चात अपनी माया शक्ति का वार बनाया, जो संपत्ति प्रदान करने वाला है। जन्म काल में दुर्गति ग्रस्त बालक की रक्षा के लिए उन्होंने कुमार कार्तिकेय के वार की कल्पना की।।14।।

आलस्य दुरित क्रान्त्यै वारं कल्पितवान्प्रभुः।
रक्षकस्य तथा विष्णोर्लोकानां हितकाम्यया।।15।।

तत्पश्चात सर्व समर्थ महादेव जी ने आलस्य और पाप की निवृत्ति तथा समस्त लोकोंं का हित करने की इच्छा से लोकरक्षक भगवान विष्णु का वार बनाया।।15।।

 पुष्टयर्थं चैव रक्षार्थं वारं कल्पितवान्प्रभुः।
आयुष्करं ततो वारमायुषां कर्तुरेव हि।।16।।

त्रैलोक्यसृष्टिकर्तुर्हि ब्रह्मणः परमेष्ठिनः।
जगदायुष्यसिद्धयर्थं वारंकल्पितवान्प्रभुः।।17।।

इसके बाद सबके स्वामी भगवान शिव ने पुष्टि और रक्षा के लिए आयुः कर्ता त्रिलोक स्त्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्मा का आयुष्कारक वार बनाया,  जिससे सम्पूर्ण जगत के आयुष्य की सिद्धि हो सके। तत्पश्चात जगत की आयु के निमित्त त्रिलोकी की सृष्टि करने वाले परमेष्ठी ब्रह्माजी के वार प्रभु ने बनाया ।।16-17।।

आदौ त्रैलोक्यवृद्धयर्थं पुण्यपापे प्रकल्पिते।
तयो कर्त्रोस्ततो वारमिन्द्रस्य च यमस्य च।।18।।

इसके बाद तीनों लोकों की वृद्धि के लिए पहले पुण्य पाप की रचना हो जाने पर उनके करने वाले लोगों को शुभाशुभ फल देने के लिए भगवान शिव ने इंद्र और यम के वारों का निर्माण किया।।18।।

भोगप्रदं मृत्युहरं लोकानां च प्रकल्पितम्।
आदित्यादीन्स्वस्वरुपान्सुखदुःखस्य सूचकान्।।19।।

ये दोनों वार क्रमशः  भोग देने वाले तथा लोगों के मृत्यु भय को दूर करने वाले हैं। इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहों को,   जो अपने ही स्वरूप भूत तथा प्राणियों के लिए सुख दुःख के सूचक हैं।19।।

वारेशान्कल्पयित्वादौ ज्योतिश्चक्रे प्रतिष्ठितान।
स्वस्ववारे हि तेषां तु पूजि स्वस्वफलप्रदा।।20।।

भगवान शिव ने उपर्युक्त सात वारों का स्वामी निश्चित किया। वे सब के सब ग्रह नक्षत्रों के ज्योतिर्मय मंडल में प्रतिष्ठित हैं। शिव के वार या दिन  के स्वामी सूर्य है। शक्ति संबंधी वार के स्वामी सोम हैं। कुमार सम्बन्धी दिन के अधिपति मंगल हैं। विष्णुवार के स्वामी बुध है। ब्रह्मा जी के वार के अधिपति बृहस्पति हैं। इंद्रवार के स्वामी शुक्र और यम वार के स्वामी शनेश्चर हैं। अपने-अपने वार में की हुई उन देवताओं की पूजा उनके अपने-अपने फल को देने वाली होती हैं।।20।।

आरोग्यं सम्पदश्चैव व्याधीनां शान्तिरेव च।
पुष्टिरायुस्तथा भोगो मृतेर्हानिर्यथाक्रमम्।।21।।
सूर्य आरोग्य के और चंद्रमा संपत्ति के दाता हैं। मंगल व्याधियों का निवारण करते हैं, बुध पुष्टि देते हैं। वृहस्पति आयु की वृद्धि करते हैं। शुक्र भोग देते हैं। और शनैश्चर मृत्यु का निवारण करते हैं।।21।।

वारक्रमफलं प्राहुर्देवप्रीतिपुरःसरम्।
अन्येषामपि देवानां पूजायाः फलदः शिवः।।22।।

ये सात वारों के क्रमशः फल बताये गये हैं, उन उन देवताओं की भी पूजा का फल देने वाले भगवान् शिव ही हैं।।22।।

देवानां प्रीतये पूजा पञ्चधैव प्रकल्पिता।
तत्तन्मन्त्रजपो होमो दानं चैव तपस्तथा।।23।।

देवताओं की प्रसन्नता के लिये पूजा की पांच प्रकार की ही पद्धति बनायी गयीं। उन उन देवताओं के मन्त्रों का जप यह पहला प्रकार है। उनके लिये होम करना दूसरा, दान करना तीसरा तथा तप करना चौथा प्रकार है।।23।।

स्थण्डिले प्रतिमायां च ह्यग्नौ ब्राह्मणविग्रहे।
समाराधनमित्येवं षोडशैरुपचारकैः।।24।।

किसी वेदी पर, प्रतिमा में, अग्नि में अथवा ब्राह्मण के शरीर में आराध्यदेवता की भावना करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा या आराधना करना पाँचवा प्रकार है।।24।।

उत्तरोत्तरवैशिष्टयात्पूर्वाभावे तथोत्तरम्।
नेत्रयोः शिरसो रोगे तथा कुष्ठस्य शान्तये।।25।।

आदित्यं पूजयित्वा तु ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः।
दिनं मासं तथा वर्षं वर्षत्रयमथापि वा।।26।।

इनमें पूजा के उत्तरोत्तर आधार श्रेष्ठ हैं। पूर्व पूर्व के अभाव में उत्तरोत्तर आधार का अवलंबन करना चाहिये। दोनों नेत्रों तथा मस्तक के रोग में और कुष्ठ रोग की शांति के लिए भगवान सूर्य की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराये। तदनंतर एक दिन, एक माह, एक वर्ष अथवा तीन वर्ष तक लगातार ऐसा साधन करना चाहिये।।25-26।।

प्रारब्धं प्रबलं चेत्स्यान्नश्येद् रोगजरादिकम्।
जपाद्यमिष्टदेवश्य वारादीनां फलं विदुः।।27।।

इससे यदि प्रबल प्रारब्ध का निर्माण हो जाय तो रोग एवं जरा आदि रोगों का नाश हो जाता है। इष्ट देव के नाम मंत्रों का जप आदि साधन वार आदि के अनुसार फल देते हैं।।27।।
पापशान्तिर्विशेषेण ह्यादिवारे निवेदयेत्।
आदित्यस्यैव देवानां ब्राह्मणानां विशिष्टदम्।।28।।

रविवार को सूर्य देव के लिये, अन्य देवताओं के लिए तथा ब्राह्मणों के लिए विशिष्ट वस्तु अर्पित करे। यह साधन विशिष्ट फल देने वाला होता है तथा इसके द्वारा विशेष रूप से पापों की शांति होती है।।28।।

सोमवारे च लक्ष्म्यादीन्सम्पदर्थं यजेद बुधः।
आज्यान्नेन तथा विप्रान्सपत्नीकांश्च भोजयेत्।29।।

सोमवार को विद्वान पुरुष संपत्ति की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी आदि की पूजा करे। तथा सपत्नीक ब्राह्मणों को घृतपक्व अन्न का भोजन कराये।।29।।

काल्यादीन्भौमवारे तु यजेद् रोगप्रशान्तये।
माषमुद्गाढकान्नेन ब्राह्मणांश्चैव भोजयेत्।।30।।

मंगलवार को रोगों की शांति के लिए काली आदि की पूजा करे तथा उड़द, मूँग एवं एवं अरहर की दाल आदि से युक्त ब्राह्मणों को भोजन कराये।।30।।

सौम्यवारे तथा विष्णुं दध्यन्नेन यजेद बुधः।
पुत्रमित्रकलत्रादिपुष्टिर्भवति सर्वदा।।31।।

बुधवार को विद्वान पुरुष दधि युक्त अन्न से भगवान विष्णु का पूजन करे। ऐसा करने से सदा पुत्र, मित्र और कलत्र आदि की पुष्टि होती है।।31।।

आयुष्कामो गुरोर्वारे देवानां पुष्टिसिद्धये।
उपवीतेन वस्त्रेण क्षीराज्येन यजेद बुधः।।32।।

जो दीर्घायु होने की इच्छा रखता हो, वह गुरुवार को देवताओं की पुष्टि के लिए वस्त्र,यज्ञोपवीत तथा घृत मिश्रित खीर से यजन पूजन करे।।32।।

भोगार्थं भृगुवारे तु यजेद देवान्समाहितः।
षड्सोपेतमन्नं च दद्याद् ब्राह्मण तृप्तये।।33।।

भोगों की प्राप्ति के लिये शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करे और ब्राह्मणों की तृप्ति के लिए षडरस युक्त अन्न दे।।33।।

स्त्रीणां च तृप्तये तद्वद् देयं वस्त्रादिकं शुभम्।
अपमृत्युहरे मन्दे रुद्रादींश्च यजेद बुधः।।34।।

 इसी प्रकार स्त्रियों की प्रसन्नता के लिए सुंदर वस्त्र आदि का विधान करे। शनैश्चर अपमृत्यु का निवारण करने वाला है। उस दिन बुद्धिमान पुरुष रूद्र आदि की पूजा करे।34।।

तिलहोमेन दानेन तिलान्नेन च भोजयेत्।
इत्थं यजेच्च विबुधानारोग्यादिफलं लभेत्।।35।।

तिल के होम से, दान से देवताओं को संतुष्ट करके ब्राह्मणों को तिल मिश्रित अन्न भोजन कराये। जो इस तरह देवताओं की पूजा करेगा, वह आरोग्य आदि फल  का भागी होगा।।35।।

देवानां नित्ययजने विशेषयजनेऽपि च।
स्नाने दाने जपे होमे ब्राह्मणानां च तर्पणे।।36।।
तिथिनक्षत्रयोगे च तत्तद्देवप्रपूजने।
आदिवारादिवारेषु सर्वज्ञो जगदीश्वरः।।37।।

देवताओं के लिए नित्य पूजन, विशेष पूजन, स्नान, दान, जप, होम तथा ब्राह्मण तर्पण आदि में एवं रवि आदि वारों में विशेष तिथि और नक्षत्रों का योग प्राप्त होने पर विभिन्न देवताओं के पूजन में सर्वज्ञ जगदीश्वर भगवान शिव ही उन उन देवताओं के रूप में पूजित हो सब लोगों को आरोग्य आदि फल प्रदान करते हैं।।36-37।।

तत्तदरुपेण सर्वेषामारोग्यादिफलप्रदः।
देशकालानुसारेण तथा पात्रानुसारतः।।38।।

 देश, काल, पात्र, द्रव्य, श्रद्धा एवं लोक के अनुसार उनके तारतम्य क्रम का ध्यान रखते हुए महादेव जी आराधना करने वाले लोगों को आरोग्य आदि फल देते हैं।।38।।

द्रव्यं श्रद्धानुसारेण तथा लोकानुसारतः।
तारतम्यक्रमाद् देवस्त्वारोग्यादीन्प्रयच्छति।।39।।

द्रव्य की श्रद्धा के अनुसार  तथा लोकानुसार तारतम्य के क्रम से भगवान् शिवजी सबको फल प्रदान करते हैं।।39।।

शुभादावशुभान्ते च जन्मर्क्षेषु गृहे गृही।
आरोग्यादिसमृद्धयर्थंमादित्यादीनग्रहान्यजेत्।।40।।

तस्माद्वै देवयजनं सर्वाभीष्टफलप्रदम्।
समन्त्रकं ब्राह्मणानामन्येषां चैवतान्त्रिकम्।।41।।

शुभ (मांगलिक कर्म) के आरंभ में और अशुभ (अंत्येष्टि आदि कर्म) के अंत में तथा जन्म नक्षत्रों के आने पर गृहस्थ पुरुष अपने घर में आरोग्य आदि की समृद्धि के लिए सूर्य आदि ग्रहों का पूजन करे। इससे सिद्ध  है कि देवताओं का यजन संपूर्ण अभीष्ठ वस्तुओं को देने वाला है। ब्राह्मणों का देव यजन कर्म वैदिक मंत्र के साथ होना चाहिये। यहाँ ब्राह्मण शब्द क्षत्रिय और वैश्य का भी उप लक्षण है।शूद्र आदि दूसरों का देव यज्ञ तांत्रिक विधि से होना चाहिये।।40-41।।

यथाशक्त्यनुरुपेण कर्तव्यं सर्वदा नरैः।
सप्तस्वपि च वारेषु नरैः शुभफलेप्सुभिः।।42।।

शुभ फल की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को सातों ही दिन अपनी शक्ति के अनुसार सदा देव पूजन करना चाहिये।।42।।


दरिद्रस्तपसा देवान्यजेदाढ्यो धनेन हि।
पुनश्चैवंविधं धर्मं कुरुते श्रद्धया सह।।43।।

पुनश्च भोगान्विविधान्भुक्त्वा भूमौ प्रजायते।
छायां जलाशयं ब्रह्मप्रतिष्ठांधर्म सञ्चयम्।।44।।

निर्धन मनुष्य तपस्या (व्रत आदि के कष्ट सहन) द्वारा और धनी धन के द्वारा देवताओं की आराधना करे। वह बार-बार श्रद्धा पूर्वक इस तरह के धर्म का अनुष्ठान करता है और बारंबार पुण्यलोकों में, उन लोकों में नाना प्रकार के फल भोग कर पुनः इस पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करता है। धनवान पुरुष सदा भोग सिद्धि के लिए मार्ग में वृक्ष आदि लगाकर लोगों के लिए छाया की व्यवस्था करे। जलाशय (कुआँ, बावली और पोखरे) बनवाये। वेद शास्त्रों की प्रतिष्ठा के लिए पाठशाला का निर्माण करे तथा अन्यान्य प्रकार से भी धर्म का संग्रह करता रहे।।43-44।।


सर्वं च वित्तवान्कुर्यात्सदा भोग प्रसिद्धये।
कालाच्च पुण्यपाकेन ज्ञानसिद्धिः प्रजायते।।45।।

य इमं श्रृणुतेऽध्यायं पठते वा नरो द्विजाः।
श्रवणस्योपकर्ता च देवयज्ञ फलं लभेत्।।46।।

धनी को यह सब कार्य सदा ही करते रहना चाहिये। समयानुसार पुण्य कर्मों के परिपाक से अन्तःकरण शुद्ध होने पर ज्ञान की सिद्धि हो जाती है। द्विजो! जो इस अध्याय को सुनता, पढ़ता अथवा सुनने की व्यवस्था करता है, उसे देवयज्ञ का फल प्राप्त होता है।।45-46।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां अग्नियज्ञादिवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः।।14।।

|| जय बाबा की-बाबाचरण दास|| 

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