ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ पञ्चदशोऽध्यायः
|| संकलन - बाबा चरणदास ||
ऋषयः ऊचुः
देशादीनन्क्रमशो व्रूहि सूत सर्वार्थवित्तम।
ऋषियों ने कहा--समस्त पदार्थों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ सूत जी!अब आप क्रमशः देश, काल आदि का वर्णन करें।
सूत उवाच
नशुद्धं गृहं समफलं देवयज्ञादिकर्मसु।।1।।
सूत जी बोले--महर्षियो! देवयज्ञ आदि कर्मों में अपना शुद्ध गृह समान फल देने वाला होता है अर्थात अपने घर में किये हुए देवयज्ञ आदि शास्त्रोक्त फल को सम मात्रा में देने वाले होते हैं।।1।।
ततोदशगुणं गोष्ठं जलतीरं ततोदश।
ततोदशगुणं बिल्वतुलस्यश्वत्थमूलकम्।।2।।
गौशाला का स्थान घर की अपेक्षा दस गुना फल देने वाला होता है। जलाशय का तट उससे भी दस गुना महत्व रखता है। जहाँ बेल, तुलसी एवं पीपल वृक्ष का मूल निकट हो, वह स्थान जलाशय के तट से भी दस गुना फल देने वाला होता है।।2।।
ततो देवालयं विद्यात्तीर्थतीरं ततो दश।
ततोदशगुणं नद्यास्तीर्थनद्यास्तत़ो दश।।3।।
देवालय को उससे भी दस गुने महत्व का स्थान जानना चाहिये। देवालय से भी दस गुना महत्त्व रखता है तीर्थभूमि का तट। उससे भी दस गुना श्रेष्ठ है नदी का किनारा। उससे भी दसगुना उत्कृष्ट है तीर्थ नदी का तट।।3।।
सप्तगङ्गानदीतीर्धं तस्या दशगुणं भवेत्।
गङ्गा गोदावरी चैव कावेरी ताम्रपर्णिका।।4।।
सिन्धुश्च सरयू रेवा सप्तगङ्गाःप्रकीर्तिकाः।
ततोऽब्धितीरे दश च पर्वताग्रे ततो दश।।5।।
तीर्थ नदी के तट से भी दसगुना महत्त्व रखता है सप्त गंगा नामक नदियों का तीर्थ। गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिंधु, सरयू और नर्मदा इन सात नदियों को सप्तगंगा कहा गया है। समुद्र के तट का स्थान इन से भी दस गुना पवित्र माना गया है और पर्वत के शिखर का प्रदेश समुद तट से भी दस गुना पावन है।।4-5।।
सर्वस्मादधिकं ज्ञेयं यत्र वा रोचते मनः।
कृते पूर्णफलं ज्ञेयं यज्ञदानादिकं तथा।।6।।
सबसे अधिक महत्व का वह स्थान जानना चाहिये जहां मन लग जाय। सतयुग में यज्ञदानादि का पूर्ण फल होता है।।6।।
त्रेतायुगे त्रिपादं च द्वापरेऽर्धं सदा स्मृतम्।
कलौपादं तु विज्ञेयं तत्पादोनं ततोऽर्धके।।7।।
त्रेता युग में उसका तीन चौथाई फल मिलता है। द्वापर में सदा आधे ही फल की प्राप्ति कही गयी है।कलयुग में एक चौथाई ही फल की प्राप्ति समझनी चाहिए और आधा कलयुग बीतने पर उस चौथाई फल में से भी एक चतुर्थांश कम हो जाता है।।7।।
शुद्धात्मनः शुद्धदिने पुण्यं समफलं विदुः।
तस्माद दशगुणं ज्ञेयं रविसङ्क्रमणे बुधाः।।8।।
शुद्ध अंतःकरण वाले पुरुष को शुद्ध एवं पवित्र दिन सम फल देने वाला होता है। विद्वान ब्राह्मणो! सूर्य संक्रांति के दिन किया हुआ सत्कर्म पूर्वोक्त शुद्ध दिन की अपेक्षा दश गुना फल देने वाला होता है, यह जानना चाहिए।।8।।
विषुवे तद्दशगुणमयने तद्दश स्मृतम्।
तद्दशमृगसङ्क्रान्तौ तच्चन्द्रग्रहणे दश।।9।।
उससे भी दस गुना महत्व उस कर्म का है जो विषुव नामक योग में किया जाता है दक्षिणायन आरंभ होने के दिन अर्थात कर्क संक्रांति में किए हुए पुण्य कर्म का महत्व विषुव से भी दस गुना माना गया है। उससे भी दस गुना मकर संक्रांति में और उससे भी दस गुना चन्द्रग्रहण में किये हुए पुण्य का महत्व है।।9।।
ततश्च सूर्यग्रहणे पूर्णं कालोत्तमे विदुः।
जगदरूपस्य सूर्यस्य विषयोगाच्च रोगदम्।।10।।
अतस्तद्विषशान्त्यर्थं स्नानदानजपांश्चरेत।
विषशान्त्यर्थकालत्वात्स कालः पुण्यदः स्मृतः।।11।।
सूर्य ग्रहण का समय सबसे उत्तम है उसमें किये गये पुण्य कर्म का फल चन्द्रग्रहण से भी अधिक और पूर्ण मात्रा में होता है, इस बात को विज्ञ पुरुष जानते हैं। जगदरूपी सूर्य का राहु रूपी विष से संयोग होता है, इसलिए सूर्य ग्रहण का समय रोग प्रदान करने वाला है। अतः उस विष की शांति के लिए उस समय स्नान दान और जप करे। वह काल विष की शांति के लिये उपयोगी होने के कारण पुण्यप्रद माना गया है।।10-11।।
जन्मर्क्षे च व्रतान्ते च सूर्यरागोपमं विदुः।
महतां सङ्गकालश्च कोट्यर्कग्रहणं विदुः।।12
जन्म नक्षत्र के दिन तथा व्रत की पूर्तिके दिन का समय सूर्यग्रहण के समान ही माना जाता है। परंतु महापुरुषों के संग का काल करोड़ो सूर्यग्रहण के समान पावन है। ऐसा ज्ञानी पुरुष जानते मानते हैं।।12।।
अतस्तद्विषशान्त्यर्थं तपोनिष्ठा ज्ञाननिष्ठा योगिनो यतयस्तथा।
पूजायाः पात्रमेते हि पापसड्क्षयकारणम्।।13।।
तपोनिष्ठ योगी और ज्ञाननिष्ठ यति ये पूजा के पात्र हैं, क्योंकि ये पापों के नाश में कारण होते हैं।।13।।
चतुर्विंशतिलक्षं वा गायत्र्या जपसंयुतः।
ब्राह्मणस्तु भवेत्पात्रं सम्पूर्णफल भोगदम्।।14।।
जिसने चौबीस लाख गायत्री का जप कर लिया हो, वह ब्राह्मण भी पूजा का उत्तम पात्र है। वह सम्पूर्ण फलों और भोगों को देने में समर्थ है।।14।।
पतनात्त्रायत इति पात्रं शास्त्रे प्रयुज्यते।
दातुश्च पातकात्त्राणात्पात्रमित्यभिधीयते।।15।।
जो पतन से त्राण करता अर्थात नरक में गिरने से बचाता है, उसके लिए इसी गुण के कारण शास्त्र में 'पात्र'शब्द का प्रयोग होता है। वह दाता का पातक से त्राण करने के कारण पात्र कहलाता है।।15।।
गायकं त्रायते पाताद्गायत्रीत्युच्यते हि सा।
यथार्थहीनो लोकेऽस्मिन्परस्यार्थं न यच्छति।।16।।
अर्थवानिह यो लोके परस्यार्थं प्रयच्छति।
स्वयं शुद्धो हि पूतात्मा नरान्सन्त्रातुमर्हति।।17।।
गायत्री अपने गायक का पतन से त्राण करती है, इसलिये वह गायत्री कहलाती है। जैसे इस लोक में जो धनहीन है, वह दूसरे को धन नहीं देता, जो यहाँ धनवान है, वही दूसरे को धन दे सकता है, उसी तरह जो स्वयं शुद्ध और पवित्रआत्मा है, वही दूसरे मनुष्यों का त्राण या उद्धार कर सकता है।।16-17।।
गायत्री जप शुद्धो हि शुद्धब्राह्मण उच्यते।
तस्माद् दाने जपे होमे पूजायां सर्वकर्मणि।।18।।
जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया है, वही ब्राह्मण कहलाता है। इसलिये दान, जप, होम और पूजा सभी कर्मों के लिये वही शुद्ध पात्र है।।18।।
दानं कर्तुं तथा त्रातुं पात्रत्वं ब्राह्मणोऽर्हति।
अन्नस्य क्षूधितं पात्रं नारीनरमयात्मकम्।।19।।
ऐसा ब्राह्मण ही दान तथा रक्षा करने की पात्रता रखता है। स्त्री हो या पुरुष जो भी भूखा हो वही अन्नदान का पात्र है।।19।।
ब्राह्मणं श्रेष्ठमाहूय यत्काले सुसमाहितम्।
तदर्थं शब्दमर्थं वा सदबोधकमभीष्टदम्।।20।।
श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाकर और सावधान होकर उसे दान दे उसका शब्द और अर्थ सतवस्तु का बोधक और इष्ट देने वाला है।।20।।
इच्छावतः प्रदानं च सम्पूर्णफलदं विदुः।
यत्प्रश्नानन्तरं दत्तं तदर्धफलदं विदुः।।21।।
जिसको जिस वस्तु की इच्छा हो, उसे वह वस्तु बिना माँगे ही दे दी जाय तो दाता को उस दान का पूरा पूरा फल प्राप्त होता है। ऐसी महर्षियों की मान्यता है। जो सवाल या याचना करने के बाद दिया गया हो, वह दान आधा ही फल देने वाला बताया गया है।।21।।
यत्सेवकाय दत्तं स्यात्तपादफलदं विदुः।
जातिमात्रस्य विप्रस्य दीनवृत्तेद्विजर्षभाः।।22।।
दत्तमर्थं हि भोगाय भूर्लोके दशवार्षिकम।
वेदयुक्तस्य विप्रस्य स्वर्गे हि दशवार्षिकम।।23।।
अपने सेवक को दिया हुआ दान एक चौथाई फल देने वाला होता है। विप्रवरो!जो जाति मात्र से ब्राह्मण है और दीनता पूर्ण वृत्ति से जीवन बिताता है, उसे दिया हुआ धन का दान दाता को इस भूतल पर दस वर्षों तक भोग प्रदान करने वाला होता है। वही दान यदि वेदवेत्ता ब्राह्मण को दिया जाय तो वह स्वर्ग लोक में देवताओं के वर्ष से दस वर्षों तक दिव्य भोग देने वाला होता है।।22-23।।
गायत्री जपयुक्तस्य सत्ये हि दशवार्षिकम।
विष्णुभक्तस्य विप्रस्य दत्तं वैकुण्ठदं विदुः।।24।।
जो गायत्री के जप से युक्त है, उसे दान देने से सत्यलोक में दस वर्ष फल मिलता है और विष्णुभक्त ब्राह्मण को दान देने से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।।24।।
शिवभक्तस्य विप्रस्य दत्तंकैलाशदं विदुः।
तत्तल्लोकोपभोगार्थं सर्वेषां दानमिष्यते।।25।।
शिवभक्त को दान देने से कैलाश की प्राप्ति होती है। सब प्रकार के दान जिस उद्देश्य से दिए जांय, उसी प्रकार उन लोकों का फल मिलता है।।25।।
दशाङ्गमन्नं विप्रस्य भानुवारे ददन्नरः।
परजन्मनि चारोग्यं दशवर्षं समश्नुते।।26।।
जो रविवार के दिन ब्राह्मण को दशांग युक्त दान करता है, वह दूसरे जन्म में आरोग्यता को दश वर्ष तक प्राप्त होता है।।26।।
बहुमानमथाह्वानमभ्यङ्गं पादसेवनम्।
वासो गन्धाद्यर्चनं च घृतापूपरसोत्तरम्।।27।।
षड्रसं व्यञ्जनं चैव ताम्बूलं दक्षिणोत्तरम्।
नमश्चानुगमश्चैव स्वन्नदानं दशाङ्गकम्।।28।।
दशांग कहते हैं--बहुत सम्मान करना, बुलाना, उबटना, चरण सेवन, वस्त्र गंधादि से अर्चन, घृत, मालपूए, रस, षटरस, व्यंजन, ताम्बूल, दक्षिणा, नमस्कार, कुछ दूर संग जाना, यह दशांग अन्नदान है।।27-28।।
दशाङ्गमन्नं विप्रेभ्यो दशभ्यो वै ददन्नरः।
अर्कवारे तथारोग्यं शतवर्षं समश्नुते।।29।।
जो रविवार के दिन दस ब्राह्मणों को दशांग अन्नदान करता है, वह सौ वर्ष तक आरोग्यता पाता है।।29।।
सोमवारखदिवारेषु तत्तद्वारगुणं फलम्।
अन्नदानस्य विज्ञेयं भूर्लोक परजन्मनि।।30।।
सोमवार आदि वारों में उनके गुणों के अनुसार फल होता है। अन्न दान से दूसरे जन्म में भूर्लोक की प्राप्ति होती है।।30।।
सप्तस्वपि च वारेषु दशभ्यश्च दशाङ्गकम्।
अन्नं दत्वा शतं वर्षमारोग्यादि कमश्नुते।।31।।
सातों वारों में दस ब्राह्मणो को दशांग अन्न देकर सौ वर्ष अरोग्यादि की प्राप्ति होती है।।31।।
एवं शतेभ्यो विप्रेभ्यो भानुवारे ददन्नरः।
सहस्त्रवर्षमारोग्यं शर्वलोके समश्नुते।।32।।
इस प्रकार सौ ब्राह्मणों को सूर्यवार के दिन अन्नदान करने से सहस्त्रवर्ष शिवलोक में आरोग्य रहता है।।32।।
सहस्त्रेभ्यस्तथा दत्वाऽयुतवर्षं समश्नुते।
एवं सोमादिवारेषु विज्ञेयं हि विपश्चिता।।33।।
सहस्र ब्राह्मणों को दशांग अन्न दान देने से दस सहस्त्र वर्ष सुख भोग करता है। इसी प्रकार सोमवार आदि वारों का भी फल जानना चाहिए।।33।।
भानुवारे सहस्त्राणां गायत्री पूतचेतसाम्।
अन्नं दत्वा सत्यलोके ह्यारोग्यादि समश्नुते।।34।।
रविवार के दिन गायत्री से पवित्र चित्त सहस्त्र ब्राह्मणों को अन्न देने से सत्यलोक में अरोग्यादि की प्राप्ति होती है।।34।।
अयुतानां तथा दत्वा विष्णुलोके समश्नुते।
अन्नं दत्वा तु लक्षाणां रुद्रलोकेसमश्नुते।।35।।
दस सहस्र ब्राह्मणों को अन्नदान करने से विष्णुलोक और लक्ष ब्राह्मणों को अन्नदान करने से रुद्रलोक की प्राप्ति होती है।।35।।
बालानां ब्रह्मबुद्धया हि देयं विद्यार्थिभिर्नरैः।
यूनां च विष्णुबुद्धया हि पुत्रकाकामार्थिभिर्नरैः।।36।।
पुत्र की इच्छा वाले मनुष्यों को बालक विद्यार्थियों को ब्रह्मबुद्धि से, युवाओं को विष्णुबुद्धि से अन्नदान करना चाहिये।।36।।
वृद्धानां रुद्रबुद्धया हि ज्ञानार्थिभिर्नरैः।
बालस्त्री भारतीबुद्धया बुद्धिकामैर्नरोत्तमैः।।37।।
ज्ञान की इच्छा वालों को वृद्धों के निमित्त रुद्र्बुद्धि से दान करना चाहिये और बुद्धि की इच्छा वाले मनुष्यों को बालक स्त्रियों को सरस्वती की बुद्धि से दान करना चाहिये।।37।।
लक्ष्मीबुद्धया युवस्त्रीषु भोगकामैर्नरोत्तमैः।
वृद्धासच पार्वती बुद्धया देयमात्मार्थगभिर्जनैः।।38।।
ऐश्वर्य की इच्छा वाले मनुष्यों को युवा स्त्री में लक्ष्मी की बुद्धि से पूजा करनी चाहिये और आत्मा की इच्छा करने वाले पुरूषों को वृद्धा स्त्रीयों को पार्वती की बुद्धि से दान करना चाहिये।।38।।
शिलवृत्त्योञ्छवृत्त्या च गुरुदक्षिणयार्जितम्।
शुद्धद्रव्यमिति प्राहुस्तपूर्णफलदं विदुः।।39।।
उन्छ शिलवृत्ति, कण चुनना और गुरुदक्षिणा से बचा हुआ दशांश द्रव्य शुद्ध होता है और वह पूर्ण फल का देने वाला है।।39।।
शुक्लप्रतिग्रहाद्दत्तं मध्यमं द्रव्यमुच्यते।
कृषिवाणिज्यकोपेतमधमं द्रव्यमुच्यते।।40।।
ब्राह्मणों से दान लिया द्रव्य मध्यम है। कृषि वाणिज्य से प्राप्त हुआ धन अधम द्रव्य कहलाता है।।40।।
क्षत्रियाणां विशां चैव शौर्यवाणिज्यकार्जितम्।
उत्तमं द्रव्यमित्याहुः शूद्राणां भृतकार्जितम्।।41।।
क्षत्रिय का शूरता से और वैश्य का वाणिज्य से उत्पन्न किया द्रव्य उत्तम है और शूद्र का सेवा से अर्जन किया द्रव्य उत्तम है।।41।।
स्त्रीणां धर्मार्थिनां द्रव्यं पैतृकं भर्तृकं तथा।
गवादीनां द्वादशानां चैत्रादिषु यथाक्रमम्।।42।।
स्त्रियों को स्वामी और उनके पिता का दिया हुआ द्रव्य धर्मवाला है। चैत्रादि मासों में गौ आदि को लेकर बारह वस्तु का यथाक्रम दान दे।।42।।
सम्भूय वा पुण्यकाले दद्यादिष्टसमृद्धये।
गोभूतिलहिरण्याज्यवासो धान्यगुडानि च।।43।।
रौप्यं लवणकूष्माण्डं कन्या द्वादशकं तथा।
गोदानाद्दत्तगवयेन गोमयेनोपकारिणा।।44।।
गौ, भूमि, तिल, स्वर्ण,घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चांदी, नमक, कोंहड़ा और कन्या ये ही बारह वस्तुएं हैं इनमें गोदान से कायिक, वाचिक और मानसिक पापों का निवारण तथा कायिक आद पुण्य कर्मों की पुष्टि होती है।।43-44।।
धनधान्याद्याश्रितानां दुरितानां निवारणम्।
जलस्नेहाद्याश्रितानां दुरितानां तु गोजलैः।।45।।
धन धान्य से आश्रितों के कष्ट का निवारण करना चाहिये। जलस्नेह से तथा गोमूत्र से आश्रितों के कष्ट निवारण होते हैं।।45।।
कायिकादित्रयाणां तु क्षीरदध्याज्यकैस्तथा।
तथा तेषां च पुष्टिश्च विज्ञेया हि विपश्चिता।।46।।
इसी प्रकार क्षीर, दधि और घृत से कायिक, वाचिक, मानसिक यह तीन प्रकार के पाप दूर होते हैं। इस प्रकार गोदान से तथा गव्य से पुष्टि होती है, सो विद्वानों को जानना उचित है।।46।।
भूदानं तु प्रतिष्ठार्थमिह चामुत्र च द्विजाः।
तिलदानं बलार्थं हि सदा मृत्युंजयं विदुः।।47।।
ब्राह्मणों ! भूमि का दान इह लोक और परलोक में प्रतिष्ठा (आश्रय) की प्राप्ति कराने वाला है। तिल का दान बल वर्धक एवं मृत्यु का निवारक होता है।।47।।
हिरण्यं जाठराग्नेस्तु वृद्धिदं वीर्यदं तथा।
आज्यं पुष्टिकरं विद्याद्वस्त्रमायुष्करं विदुः।।48।।
सुवर्ण का दान जठराग्नि को बढ़ाने वाला तथा वीर्य दायक है। घी का दान पुष्टि कारक होता है। वस्त्र का दान आयु की वृद्धि कराने वाला होता है, ऐसा जानना चाहिये।।48।।
धान्यमन्न समृद्धयर्थं मधुराहारदं गुडम्।
रौप्यं रेतोऽभिवृद्धयर्थंषड्रसार्थं तु लावणम्।।49।।
धान्य का दान अन्न धन की समृद्धि में कारण होता है। गुड़ का दान मधुर भोजन की प्राप्ति कराने वाला होता है। चांदी के दान से वीर्य की वृद्धि होती है। लवण का दान षडरस भोजन की प्राप्ति कराता है।।49।।
सर्वं सर्वसमृद्धयर्थं कूष्माण्डंं पुष्टिदं विदुः।
प्राप्तिदं सर्वभोगानामिह चामुत्र च द्विजाः।।50।।
सब प्रकार का दान सारी समृद्धि की सिद्धि के लिए होता है। विज्ञ पुरूष कूष्माण्ड के दान को पुष्टि दायक मानते हैं। हे ब्राह्मणों! यह दोनों लोकों में सब भोगों की प्राप्ति करने वाला है।।50।।
यावज्जीवनमुक्तं हि कन्यादानं तु भोगदम्।
पनसाम्रकपित्थानां वृक्षाणां फलमेव च।।51।।
कदल्याद्यौषधीनां च फलं गुल्मोद्भवं तथा।
माषादीनां च मुद्गानां फलं शाकादिकं तथा।।52।।
मरीचिसर्षपाद्यानां शाकोपकरणं तथा।
यदृतौ यत्फलं सिद्धं तद्देयं हि विपश्चिता।।53।।
कन्या का दान आजीवन भोग देने वाला कहा गया है। पनस, आम, कैथ वृक्षों के फल कदली(केला), औषधि फल जो लता गुल्म से उत्पन्न हुए हैं, उर्द मूंगफली, शाकादि, मिर्च, सरसों तथा अन्य शाक की सामग्री, जिस ऋतु में जो फल हो, वही बुद्धिमान को देना चाहिये।।51-52-53।।
श्रोत्रादीन्द्रियतृप्तिश्च सदा देया विपश्चिता।
शब्दादिदशभोगार्थं दिगादीनां च तुष्टिदा।।54।।
विद्वान पुरुष को चाहिए कि जिन वस्तुओं से श्रवण आदि इंद्रियों की तृप्ति होती है, उनका सदा दान करे। श्रोत्र आदि दस इंद्रियों के जो शब्द आदि दस विषय हैं उनका दान किया जाए तो वे भोगों की प्राप्ति कराते हैं तथा दिशा आदि इंद्रिय देवताओं को संतुष्ट करते हैं।।54।।
वेदशास्त्रं समादाय बुद्ध्वा गुरुमुखात्स्वयम्।
कर्मणां फलमस्तीति बुद्धिरास्तिक्यमुच्यते।।55।।
वेद और शास्त्र को गुरु मुख से ग्रहण करके गुरु के उपदेश से अथवा स्वयं ही बोध प्राप्त करने के पश्चात जो बुद्धि का यह निश्चय होता है कि कर्मों का फल अवश्य मिलता है इसी को उच्च कोट की आस्तिकता कहते हैं।।55।।
बन्धुराजभयाद् बुद्धिः श्रद्धा सा च कनीयसी।
सर्वाभावे दरिद्रस्तु वाचा वा कर्मणा यजेत्।।।56।।
भाई बंधु अथवा राजा के भय से जो आस्तिकता बुद्धि या श्रद्धा होती है, वह कनिष्ठ श्रेणी की आस्तिकता है। जो सर्वथा दरिद्र है जिसके पास सभी वस्तुओं का अभाव है, वह वाणी अथवा कर्म (शरीर) द्वारा यजन करे।।56।।
वाचिकं यजनं विद्यान्मन्त्रस्तोत्र जपादिकम्।
तीर्थयात्रा व्रताद्यं हि कायिकं यजनं विदुः।।57।।
मंत्र स्तोत्र और जप आदि को वाणी द्वारा किया गया यजन समझना चाहिए तथा तीर्थ यात्रा और व्रत आदि को विद्वान पुरुष शारीरिक यजन मानते हैं।।57।।
येन केनाप्युपायेन ह्यल्पं वा यदि वा बहु।
देवतार्पणबुद्धया च कृतं भोगाय कल्पते।।58।।
जिस किसी भी उपाय से थोड़ा हो या बहुत देवतार्पण बुद्धि से जो कुछ भी दिया अथवा किया जाय, वह दान या सत्कर्म भोगों की प्राप्ति कराने में समर्थ होता है।।58।।
तपश्चर्या च दानं च कर्तव्यमुभयं सदा।
प्रतिश्रयं प्रदातव्यं स्ववर्णं गुणशोभितम्।।59।।
तपस्या और दान यह दो कर्म मनुष्यको सदा करने चाहिए तथा ऐसे ग्रह का दान करना चाहिए, जो अपने वर्ण (चमक-दमक या सफाई) और गुण (सुख सुविधा) से सुशोभित हो।।59।।
देवानां तृप्तयेऽत्यर्थं सर्वभोगप्रदं बुधैः।
इहामुत्रोत्तमं जन्म सदा भोगं लभेद् बुधः।
ईश्वरार्पण बुद्धया हहि कृत्वा मोक्षफलं लभेत्।।60।।
बुद्धिमान पुरुष देवताओं की तृप्ति के लिए जो कुछ देते हैं, वह अतिशय मात्रा में और सब प्रकार के भोग प्रदान करने वाला होता है। उस दान से विद्वान पुरुष इहलोक और परलोक में उत्तम जन्म और सदा सुलभ होने वाला भोग पाता है। ईश्वरार्पण बुद्धि से यज्ञ दान आदि कर्म करके मनुष्य मोक्षफल का भागी होता है।।60।।
य इमं पठतेऽध्यायं यः श्रृणोति सदा नरः।
तस्य वै धर्मबुद्धिश्च ज्ञानसिद्धिः प्रजायते।।61।।
जो मनुष्य इस अध्याय को पढ़ते और सदा सुनते हैं, उन्हें धर्म, बुद्धि और ज्ञान की सिद्धि होती है।।61।।
इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायांदेशकालपात्रादि वर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः।।15।।
|| जय बाबा की - बाबा चरणदास ||
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