Sunday, 24 November 2019

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ षोडशोऽध्यायः

 ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ षोडशोऽध्यायः
|| संकलन - बाबा चरणदास || 
ऋषयः ऊचुः
पार्थि्वप्रतिमापूजाविधानं ब्रूहि सत्तम्।
येन पूजाविधानेन सर्वाभीष्टम वाप्यते।।1।।

ऋषि बोले- साधुशिरोमणे! अब आप पार्थिव प्रतिमा की पूजा का विधान बताइये, जिससे समस्त अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है।।1।।

सुसाधु पृष्टं युष्माभिः सदा सर्वार्थदायकम्।
सद्यो दुःखस्यशमनं श्रृणुतप्रब्रवीमि वः।।2।।

सूत जी बोले- आपने बहुत श्रेष्ठ बात पूछी है, यह सदा सब अर्थों की सिद्धि करने वाली है, इसे कहते ही शीघ्र ही दुःख की शान्ति हो जाती है। मैं आपसे कहता हूँ, आप सुनिये।।2।।

अपमृत्युहरं कालमृत्योश्चापि विनाशनम्।
सद्यः कलत्रपुत्रादिधनधान्यप्रदं द्विजाः।।3।।

यह अपमृत्यु (अकालमृत्यु) को भी हरने वाला, सदा धन धान्य स्त्री पुत्रों का देने वाला विधान है।।3।।

 अन्नादिभोज्यं वस्त्रादि सर्वमुत्पद्यते यतः।
ततो मृदादिप्रतिमापूजाभीष्टप्रदा भुवि।।4।।

जिससे अन्नादि भोजन, वस्त्र सब कुछ उत्पन्न होते हैं, इसी कारण मृत्तिका आदि की प्रतिमा की पूजा पृथ्वी पर मनुष्यों को अभीष्ट दायक मानी   गयी है।।4।।

पुरुषाणां च नरीणामधिकारो ऽत्र निष्चितम्।
नद्यां तडागे कूपे वा जलान्तर्मृदमाहरेत्।।5।।

संशोध्य गन्धचूर्णेन पेषयित्वा सुमण्डपे।
हस्तेन प्रतिमां कुर्यात्क्षीरेण च सुसंस्कृताम्।।6।।

निश्चचय ही इसमें पुरुषों का और स्त्रियों का भी अधिकार है। नदी, पोखरे अथवा कुएँ में प्रवेश करके पानी के भीतर से मिट्टी ले आये। फिर गंध चूर्ण के द्वारा उसका संशोधन करे और शुद्ध मण्डप में रखकर उसे महीन पीसे और साने। इसके बाद हाथ से प्रतिमा बनायें और दूध से संस्कार करें।।5-6।।

 अङ्ग प्रत्यङ्ग कोपेतामायुधैश्च समन्विताम्।
पद्मासनस्थितां कृत्वा पूजयेदादरेण हि।।7।।

उस प्रतिमा में अङ्ग प्रत्यङ्ग अच्छी तरह प्रकट हुए हों तथा वह सब प्रकार के अस्त्र शस्त्रों  से  सम्पन्न बनायी गयी हो। तदनन्तर उसे पद्मासन पर स्थापित करके आदर पूर्वक उसका पूजन करे।।7।।

विघ्नेशादित्यविष्णूनामम्बायाश्च शिवस्य च।
शिवस्य शिवलिङ्ग च सर्वदा पूजयेद् द्विजः।।8।।

गणेश, सूर्य, विष्णु, दुर्गा और शिव की प्रतिमा का, शिव का एवं शिवलिंग का द्विज को सदा पूजन करना चाहिये।।8।।

षोडशैरुपचारैश्च कुर्यात्तत्फलसिद्धये।
 पुष्पेण प्रोक्षणं कुर्यादभिषेक समन्वकम्।।9।।

षोडशोपचार पूजन जनित फल की सिद्धि के लिये सोलह उपचारों द्वारा पूजन करना चाहिये। पुष्प से प्रोक्षण और मंन्त्र पाठ पूर्वक अभिषेक करें।।9।।

 शाल्यन्नेनैव नैवेद्यं सर्वं कुडवमानतः।
गृहे तु कुडवं ज्ञेयं मानुषे प्रस्थभिष्यते।।10।।

अगहनी के चावल से नैवेद्य तैयार करे। सारा नैवेद्य एक कुडव (लगभग पाव भर) होना चाहिये। घर में पार्थिव शिवलिङ्ग पूजन के लिये एक कुडव और बाहर किसी मनुष्य द्वारा स्थापित शिव लिङ्ग के पूजन के लिये एक प्रस्थ (सेरभर) नैवेद्य तैयार करना आवश्यक है, ऐसा जानना चाहिये।।10।।

दैवे प्रस्थत्रयं योग्यं स्वयम्भोः प्रस्थपञ्चकम्।
एवं पूर्णफलं विद्यादधिकं वै द्वयं त्रयम्।।11।।

देवताओं द्वारा स्थापित शिव लिङ्ग के लिये तीन सेर नैवेद्य अर्पित करना उचित है और स्वयं प्रकट हुए स्वयंभू शिव लिङ्ग के लिये पाँच सेर। ऐसा करने पर पूर्ण फल की प्राप्ति समझनी चाहिये।।11।।

सहस्त्रपूजया सत्यं सत्यलोकं लभेद् द्विजः।
द्वादशांगुलमायामं द्विगुणंं च ततोऽधिकम्।।12।।

प्रमाणमंगुलस्यैकं तदूर्ध्व पञ्चकत्रयम्।
अयोदारुकृतं पात्रं शिव मित्युच्यते बुधैः।।13।।

इस प्रकार सहस्र बार पूजा करने से द्विज सत्यलोक को प्राप्त कर लेता है। बारह अंगुल चौड़ा, इससे दूना और एक अंगुल अधिक अर्थात पच्चीस अंगुल लम्बा तथा पंद्रह अंगुल चौड़ा जो लकड़ी का बना हुआ पात्र होता है, उसे विद्वान् पुरुष 'शिव' कहते हैं।।12-13।।

 तदष्टभागः प्रस्थः स्यात्तच्चतुष्कुडवं मतम्।
दशप्रस्थं शतप्रस्थं सहस्त्रप्रस्थमेव च।।14।।

उसका आठवाँ भाग प्रस्थ कहलाता है। जो चार कुडव के बराबर माना गया है। मनुष्य द्वारा स्थापित शिवलिङ्ग के लिए दशप्रस्थ, ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिङ्ग के लिये शतप्रस्थ और स्वयंभू शिवलिङ्ग के लिये सहस्त्रप्रस्थ नैवेद्य निवेदन किया जाय।।14।।

जलतैलादिगन्धानां यथायोग्यं च मानतः।
मानुषार्षस्वयम्भूनां महापूजेति कथ्यते।।14।।

जल, तैल आदि एवं गंध द्रव्यों की भी यथायोग्य मात्रा रखी जाय तो यह उन शिवलिङ्ग की महापूजा बतायी जाती है।।15।।

अभिषेकादात्म शुद्धिर्गन्धात्पुण्यमवाप्यते।
आयुस्तृप्तिश्च नैवेद्याद् धूपादर्थमवाप्यते।।16।।

देवता का अभिषेक करने से आत्मशुद्धि होती है, गंध से पुण्य की प्राप्ति होती है। नैवेद्य लगाने से आयु बढ़ती और तृप्ति होती है। धूप निवेदन करने से धन की प्राप्ति होती है।।16।।

 दीपाज्ज्ञानमवाप्नोति ताम्बूलाद्भोगमाप्नुयात्।
तस्मातस्नानादिकं षटकं प्रयत्नेन प्रसाधयेत्।।17।।

दीप दिखाने से ज्ञान का उदय होता है और ताम्बूल समर्पण करने से भोग की उपलब्धि होती है। इसलिये स्नान आदि छह उपचारों को यत्नपूर्वक अर्पित करे।।17।।

नमस्कारो जपश्चैव सर्वाभीष्ट प्रदावुभौ।
पूजान्ते च सदा कार्यौ भोगमोक्षार्थिभिर्नरैः।।18।।

नमस्कार और जप ये दोनों सम्पूर्ण अभीष्ट फल को देने वाले हैं। इसलिए भोग और मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोगों को पूजा के अंत में सदा ही जप और नमस्कार करने चाहिये।।18।।

सम्पूज्य मनसा पूर्वं कुर्यात्तत्तसदा नरः।
देवानां पूजया चैव तत्तलोकमवाप्नुयात्।।19।।

मानसिक पूजन में भी वह सब उपचार करने चाहिये, देवताओं की भी इसी प्रकार पूजा करने से उन उन के लोकों की प्राप्ति होती है।।19।।

     तदवान्तरलोके च यथेष्टं भोग्यमाप्यते।
तद्विशेषान्प्रवक्ष्यामि श्रृणुत श्रद्धया द्विजाः।।20।।

और उनके बीच के लोकों में भी यथेष्ट भोग की प्राप्ति होती हैं। अब मैं देव पूजा से प्राप्त होने वाले विशेष फलों का वर्णन करता हूँ। द्विजो तुम श्रद्धा पूर्वक सुनो।।20।।

विघ्नेशपूजया सम्यग्भूर्लोकेऽभीष्टमाप्नुयात्।
शुक्रवारे चतुर्थ्याञ्च सिते श्रावणभाद्रके।।21।।

भिषगृक्षे धनुर्मासे विघ्नेशं विधिवद्यजेत्।
शतं पूजासहस्त्रं वा तत्सङ्ख्याकदिनैर्व्रजेत्।।22।।

विघ्नराज गणेश की पूजा से भूलोक में उत्तम अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है। शुक्रवार को श्रावण और भाद्रपद मासों के शुक्लपक्ष की चतुर्थी को और पौष मास में शतभिषा नक्षत्र के आने पर विधिपूर्वक गणेशजी की पूजा करनी चाहिये। सौ या सहस्र दिनों में सौ या सहस्र बार पूजा करे।।21-22।।

   देवाग्निश्रद्धया नित्यं पुत्रदं चेष्टदं नृणाम्।
सर्वपापप्रशमनं तत्तद् दुरितनाशनम्।।23।।

देवता और अग्नि में श्रद्धा रखते हुए किया जाने वाला उनका नित्य पूजन मनुष्यों को पुत्र एवं अभीष्ट प्रदान करता है। वह समस्त पापों का शमन तथा भिन्न भिन्न दुष्कर्मों का विनाश करने वाला है।।23।। 

वारपूजां शिवादीनामात्मशुद्धिप्रदांरय विदुः।
तिथिनक्षत्रयोगानामाधारं सार्वकामिकम्।।24।।

विभिन्न वारों में की हुई शिव आदि की पूजा को आत्म शुद्धि प्रदान करने वाली समझना चाहिये। वार या दिन, तिथि, नक्षत्र और योगों का आधार है। समस्त कामनाओं को देने वाला है।।24।।

तथा वृद्धिक्षयाभावात्पूर्ण ब्रह्मात्मकं विदुः।
उदयादुदयं वारो ब्रह्मप्रभृतिकर्मणाम्।।25।।
उसमें वृद्धि और क्षय नहीं होता। इसलिये उसे पूर्ण ब्रह्मस्वरूप मानना चाहिये। सूर्योदय काल से लेकर सूर्योदय काल आने तक एक वार की स्थिति मानी गयी है जो ब्राह्मण आदि सभी वर्णों के कर्मों का आधार है।25।।

   तिथ्यदौ देवपूजा हि पूर्णभोगप्रदा नृणाम्।
पूर्वभागः पितृणां तु निशियुक्तः प्रशस्यते।।26।।

विहित तिथि के पूर्व भाग में की हुई देवपूजा मनुष्यों को पूर्ण भोग प्रदान करने वाली होती है। यदि मध्याह्न के बाद तिथि का आरम्भ होता है तो रात्रियुक्त तिथि का पूर्वभाग पितरों के श्राद्धादि कर्म के लिये उत्तम बताया जाता है।।26।।

परभागस्तु देवानां दिवायुक्तः प्रशस्यते।
उदयव्यापिनी ग्राह्या मध्याह्ने यदि सा तिथिः।।27।।

ऐसी तिथि का परभाग जो दिन से युक्त होता है, अतः वही देवकर्म के लिये प्रशस्त माना गया है। यदि मध्याह्नकाल तक तिथि रहे तो उदयव्यापिनी तिथि को ही देवकार्य में ग्रहण करना चाहिये।।27।।

देवकार्ये तथा ग्राह्या स्तिथिऋक्षादिकाः शुभाः।
 सम्यग्विचार्य वारादीन्कुर्यात्पूजाजपादिकम्।।28।।

इसी तरह शुभ तिथि एवं नक्षत्र आदि ही देवकार्य में ग्राह्य होते हैं। वार आदि का भली भांति विचार करके पूजा और जप आदि करने चाहिये।।28।।

   पूर्जियते ह्यनेनेति वेदेष्वर्थस्य योजना।
पूर्भोगफलसिद्धिश्च जायते तेन कर्मणा।।29।।

 वेदों में पूजा शब्द के अर्थ की इस प्रकार योजना की गई है। पूर्जायते अनेन इति पूजा। यह पूजा शब्द की व्युत्पत्ति है। पूः का अर्थ है भोग और फल की सिद्धि--वह जिस कर्म से सम्पन्न होती है, उसका नाम पूजा है।।29।।

मनोभावांस्तथा ज्ञानमिष्टभोगार्थ योजनात्।
पूजाशब्दार्थ एवं हि विश्रुतो लोकवेदयोः।।30।।

मनोवांक्षित वस्तु तथा ज्ञान,  ये ही अभीष्ट वस्तुएं हैं। सकाम भाव वाले को अभीष्ट भोग अपेक्षित होता है और निष्काम वाले को अर्थ, पारमार्थिक ज्ञान। ये दोनों ही पूजा  शब्द के अर्थ हैं। इनकी योजना करने से ही पूजा शब्द की सार्थकता है। इस प्रकार लोक और वेद में पूजा शब्द का अर्थ विख्यात है।।31।।

नित्यं नैमित्तिकं कालात्सद्यः काम्ये स्वनुष्ठिते।
नित्यं मासं च पक्षं च वर्षं चैव यथाक्रमम्।।31।।

तत्तत्कर्मफलप्राप्तिस्ता दृक्पापक्षयः क्रमात्।
महागणपतेः पूजाचतुर्थ्यां कृष्णपक्षके।।32।।

नित्य और  नैमित्तिक कर्म कालान्तर में फल देते हैं, किन्तु काम्य कर्म का यदि भलीभांति अनुष्ठान हुआ हो तो वह तत्काल फलद होता है। प्रतिदिन एक पक्ष, एक मास और एक वर्ष तक लगातार पूजन करने से उन उन कर्मों के फल की प्राप्ति होती है और उनसे वैसे ही पापों का क्रमशः क्षय होता है। प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि को की हुई पूजा एक पक्ष के पापोंका नाश करने वाली है।।31-32।।

   पक्षपाप क्षयकरी पक्षभोग फलप्रदा।
चैत्रे चतुर्थ्यां पूजा च कृता मासफलप्रदा।।33।।

महागणपति की पूजा एक पक्ष के पापों का नाश करने वाली और एक पक्ष तक उत्तम भोग रूपी फल देने वाली होती है। चैत्र मास में चतुर्थी को की हुई पूजा एक मास तक किये गये पूजन का फल देने वाली होती है।।33।।

वर्षभोगप्रदा ज्ञेया कृता वै सिंहभाद्रके।
श्रावणादित्यवारे च सप्तम्यां हस्तभे दिने।।34।।
माघशुक्ले च सप्तम्यामादित्ययजनं चरेत्।
ज्येष्ठभाद्रकसौम्ये च द्वादश्यां श्रवणर्क्षके।।35।।

जब सूर्य सिंह राशि पर स्थित हों, उस समय भाद्रपद मास की चतुर्थी को की हुई गणेश जी की पूजा एक वर्ष तक मनोवांछित भोग प्रदान करती है। ऐसा जानना चाहिये। श्रावण मास के रविवार को हस्त नक्षत्र से युक्त सप्तमी तिथि को तथा माघ शुक्ला सप्तमी को भगवान् सूर्य का पूजन करना चाहिये। ज्येष्ठ तथा भाद्रपद मास के बुधवार को, श्रवण नक्षत्र से युक्त द्वादशी तिथि को तथा केवल द्वादशी तिथि को भी किया गया भगवान विष्णु का पूजन अभीष्ट सम्पत्ति को देने वाला माना गया है।।।34-35।।

   कृतं श्रीविष्णु यजनमिष्टसम्पत्करं विदुः।
श्रावणे विष्णुयजनमिष्टारोग्यप्रदं भवेत्।।36।।

भगवान विष्णु जी का यजन सम्पूर्ण सम्पत्ति का देने वाला है। श्रावण में भगवान विष्णुजी का पूजन इष्टफल और आरोग्य देने वाला है।।36।।

गवादीन्द्वादशानर्थान्साङ्गान्दत्त्वा तु यत्फलम्।
तत्फलं समवाप्नोतिद्वादश्यां विष्णुतर्पणात्।।37।।

द्वादश्यां द्वादशान्विप्रान् विष्णोर्द्वादशनामतः।
षोडशैरुपचारैश्च यजेत्तत्प्रीतिमाप्नुयात्।।38।।

अंगों एवं उपकरणों सहित पूर्वोक्त गौ आदि बारह वस्तुओं का दान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, उसी को द्वादशी तिथि में आराधना द्वारा श्रीविष्णु की तृप्ति करके मनुष्य प्राप्त कर लेता है। जो द्वादशी तिथि को भगवान् विष्णु के बारह नामों द्वारा बारह ब्राह्मणों का षोडशोपचार पूजन करता है, वह उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेता है।।37-38।।

  एवं च सर्वदेवानां तत्तदद्वादशनामकैः।
द्वादशब्रह्मयजनं तत्तत्प्रीतिकरं भवेत्।।39।।

इसी प्रकार सम्पूर्ण देवताओं के विभिन्न बारह नामों द्वारा किया हुआ, बारह ब्राह्मणों का पूजन उन उन देवताओं को प्रसन्न करने वाला होता है।।39।।

कर्कटे सोमवारे च नवम्यां मृगशीर्षके।
अम्बां यजेद भूतिकामः सर्वभोगफलप्रदाम।।40।।

कर्क की संक्रांति से युक्त श्रावण मास में नवमी तिथि को मृगशिरा नक्षत्र के योग में अम्बिका का पूजन करें।वे सम्पूर्ण मनोवांक्षित भोगों और फलों को देने वाला है।।40।।

आश्वयुक्छुक्लनवमी सर्वाभीष्टफलप्रदा।
आदिवारे चतुर्दश्यां कृष्णपक्षे विशेषतः।।41।। 

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देने वाली है। उसी मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को यदि रविवार पड़ा हो तो उस  दिन का महत्व विशेष बड़ जाता है।।41।।

  आद्रायां च महार्द्रायां शिवपूजा विशिष्यते।

माघकृष्णचतुर्दश्यां सर्वाभीष्टफलप्रदा।।42।।

आयुष्करी मृतयुहरा सर्व सिद्धिकरी नृणाम्।
जयेष्ठमासे महार्द्रायां चतुर्दशीदिनेऽपि च।।43।।

मार्गशीर्षार्द्रकायां वा षोडशैरूपचारकैः।
तत्तन्मूर्तिशिवं पूज्य तस्य वै पाददर्शनम्।।44।।

उसके साथ ही यदि साथ ही आद्राऔर महाआद्रा(सूर्य संक्रांति से युक्तआद्रा)  का योग हो तो उक्त अवसरों पर की हुई शिव पूजा का विशेष महत्व माना गया है माघ कृष्णा चतुर्दशी को की हुई शिव की पूजा संपूर्ण अभीष्ट फलों को देने वाली है। वह मनुष्यों की आयु बढ़ाती, मृत्यु कष्ट को दूर हटाती है।और समस्त सिद्धियों की प्राप्ति कराती है  जयेष्ठ मास में चतुर्दशी को यदि महाआद्रा योग हो अथवा मार्गशीर्ष मास में किसी भी तिथि को यदि आद्रा नक्षत्र हो तो उस अवसर पर विभिन्न वस्तुओं की बनी हुई मूर्ति के रूप में शिव की जो सोलह उपचारों से पूजा करता है उस पुण्य आत्मा के चरणों का दर्शन करना चाहिए।।42-43-44

  शिवस्य यजनं ज्ञेयं भोग मोक्षप्रदं नृणाम।
वारादिदेव यजनं कार्तिके हि विशिष्यते।।४५।।

कार्तिकेय मासि सम्प्रातेसर्वान्देवान्यजेद् बुध:।
दानेन तपस्या होमैर्जपेन नियमेन च।।४६।।

षोडशैरुपचारैश्च प्रतिमा विप्रमन्त्रकै:।
ब्राह्मणानां भोजनेन निष्कामार्तिहरो भवेत्।।४७।।

भगवान शिव की पूजा मनुष्यों को भोग और मोक्ष देने वाली है, ऐसा जानना चाहिए। कार्तिक मास में प्रत्येक वार और तिथि आदि में महादेव जी की पूजा का विशेष महत्व है। कार्तिक मास आने पर विद्वान पुरुष दान, तप, होम,जप और नियम आदि के द्वारा समस्त देवताओं का षोडशोपचारों से पूजन करे। उस पूजन में देव प्रतिमा ब्राह्मण तथा मंत्रों का उपयोग आवश्यक है। ब्राह्मणों को भोजन कराने से भी वह पूजन कर्म संपन्न होता है।।४५-४६-४७।।

  कार्तिके देवयजनं सर्वभ़ोगप्रदं भवेत्।
व्याधीनां हरणं चैव भवेद्भूतग्रहक्षयः।।48।।

कार्तिकादित्यवारेषु नृणामादित्यपूजनात्।
तैलकार्पासदानात्तु भवेत्कुष्ठादिसड्क्षयः।।49।।

हरीतकीमरीचीनां वस्त्रक्षीरादिदानतः।
ब्रह्यप्रतिष्ठया चैव क्षयरोगक्षयो  भवेत्।।50।।

कार्तिक मास में देवताओं का यजन पूजन समस्त भोगों को देने वाला, व्याधियों को हर लेने वाला, तथा भूतों और ग्रहों का विनाश करने वाला है। कार्तिक मास के रविवारों को भगवान सूर्य की पूजा करने और तेल तथा सूती वस्त्र देने से मनुष्यों के कोढ़ आदि रोगों का नाश होता है। हर्रै, काली मिर्च,  वस्त्र और खीरा आदि का दान और ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा करने से क्षय के रोगों का नाश होता है।।48-49-50।।

 दीपसर्सदानाच्च अपपस्मारक्षयो भवेत्।
कृत्तिकासोमवारेषु शिवस्य यजनं नृणाम।।५१।।

महादारिद्रयशमनं  सर्वसम्पत्करं भवेत्।
गृहक्षेत्रादिदानाच्च गृहोपकरणादिना।।५२।।

कृत्तिकाभौमवारेषु स्कन्दस्य यजनान्नृणाम।
दीपघण्टादिदानाद्वै वाक्सिद्धिरचिराद्भवेत।।५३।।

दीप और सरसों के दान से मिर्गी का रोग मिट जाता है। कृतिका नक्षत्र से युक्त सोमवार को किया हुआ शिवजी का पूजन मनुष्य के महान दारिद्रय को मिटाने वाला और संपूर्ण संपत्तियों को देने वाला है। घर की आवश्यक सामग्रियों के साथ गृह और क्षेत्र आदि का दान करने से भी उक्त फल की प्राप्ति होती है कृत्तिका युक्त मंगलवार को श्री स्कंद का पूजन करने से तथा दीपक एवं घंटा आदि का दान देने से मनुष्य को शीघ्र ही वाक् सिद्धि प्राप्त हो जाती है।।५१-५२-५३।।  

 कृत्तिका सौम्यवारेषु विष्णोर्वै यजनं  नृणाम्।
दध्योदनस्य दानं च सतसन्तानकरं भवेत्।।54।।

कृत्तिका युक्त बुधवारों को किया हुआ श्री विष्णु का यजन तथा दही भात का दान मनुष्य को उत्तम संतान की प्राप्ति कराने वाला होता है।।54।।

कृत्तिका गुरूवारेषु ब्रह्मणो यजनाद्धनैः।
मधुस्वर्णाज्यदानेन भोगवृद्धिर्भवेन्नृणाम्।।55।।

कृतिका युक्त गुरुवारों को धन से ब्रह्मा जी का पूजन तथा मधु, सोना और घी का दान करने से मनुष्य के भोग-वैभव  की वृद्धि होती है।।55।।

कृत्तिका शुक्रवारेषु गजतुण्डस्य याजनात्।
गन्धपुष्पान्नदानेन भोगवृद्धिर्भवेन्नृणाम्।।56।।

   कृतिका युक्त शुक्रवारों को गजानन गणेशजी की पूजा करने से तथा गन्ध, पुष्प एवं अन्न का दान देने से मानवों के भोग्य पदार्थों की वृद्धि होती है। उस दिन सोना, चांदी आदि का दान करने से बन्ध्या को भी उत्तम पूत्र की प्राप्ति होती है।।56।।

 वन्ध्या सुपुत्रं लभते स्वर्ण रौप्यादिदानतः।
कृत्तिकाकाशनिवारेषु दिक्पालानां च वन्दनम्।।57।।

दिग्गजानां च नागानां सेतुपानां च पूजनम्।
त्रयम्बकस्य च रूद्रस्य विष्णोः पापहरस्य च।।58।।

ज्ञानदं ब्रह्मणश्चैव धन्वन्तर्यश्विनोस्तथा।
रोगपापमृत्युहरणं तत्काल व्याधि शान्तिदम्।।59।।

उस दिन सोना, चाँदी आदि का दान करने से बन्ध्या को भी उत्तम पुत्र की प्राप्ति होती है। कृत्तिका युक्त शनिवारों को दिक्पालों की वंदना, दिग्गजों, नागों और सेतुपालों का पूजन, त्रिनेत्रधारी रूद्र, पापहारी विष्णु तथा ज्ञानदाता ब्रह्मा का आराधन और धन्वंतरि एवं दोनों अश्विनी कुमारों का पूजन करने से रोग, दुर्मृत्यु एवं अकाल मृत्यु का निवारण होता है तथा तात्कालिक व्याधियों की शान्ति हो जाती है।।59।।
  
 लवणायसतैलानां माषादीनां च दानतः।
त्रिकटु फलगन्धानां जलादीनां च दानतः।।60।।
द्रवाणां कठिनानां च प्रस्थेन पलमानतः।
स्वर्ग प्राप्तिर्धनुर्मासे ह्युषःकाले च पूजनम्।।61।।

शिवादीनां च सर्वेषां क्रमाद्वै सर्वसिद्धये।
शाल्यन्नस्य हविष्यस्य नैवेद्यं शस्तमुच्यते।।62।।

नमक,लोहा, तिल और उड़द आदि,  त्रिकटु (सोंठ, पीपल और गोल मिर्च) फल, गंध और जल आदि का तथा घृत आदि द्रव पदार्थों का और सुवर्ण, मोती आदि कठोर वस्तुओं का भी दान देने से स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है। इनमें से नमक आदि का‌ मान कम से कम एक प्रस्थ ( सेर) होना चाहिए और स्वर्ण आदि का मान कम से कम एक पल। धन की संक्रांति से युक्त पौष मास में उष: काल में  शिवा आदि  समस्त देवताओं का पूजन क्रमशः समस्त सिद्धियों की प्राप्ति कराने वाला होता है। इस पूजन में अगहनी के चावल से तैयार किए गए हविष्य का नैवेद्य उत्तम बताया गया है।। 60-61-62।।
 विविधान्नस्य  नैवेद्यंं धनुर्मासे विशिष्यते।
मार्गशीर्षैऽन्नदस्यैव सर्वमिष्टफलं भवेत्।।63।।

पापक्षयं चेष्टसिद्धिं चारोग्यं धर्ममेव च।
सम्यग्वेदपरिज्ञानं सदनुष्ठानमेव च।।64।।

इहामुत्र महाभोगानन्ते योगं च शाश्वतम्।
वेदान्तज्ञानसिद्धिं च मार्गशीर्षान्नदो लभेत्।।65।।

पौष मास में नाना प्रकार के अन्न का नैवेद्य विशेष महत्व रखता है। मार्गशीर्ष मास में केवल अन्न का दान करने वाले मनुष्यों को ही संपूर्ण अभीष्ट फलों की प्राप्ति हो जाती है। मार्गशीर्ष मास में अन्न का दान करने वाले मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। वह अभीष्ट सिद्धि, आरोग्य, धर्म, वेद का सम्यक ज्ञान, उत्तम अनुष्ठान का फल, यह लोक और परलोक में महान भोग,अंत में सनातन योग (मोक्ष) तथा वेदांत ज्ञान की सिद्धि प्राप्त कर लेता है।।63-64-65।।

मार्गशीर्षे ह्यषु काले दिनत्रयमथापि वा।
यजेद् देवान्भोगकामो नाधनुर्मासिकोभवे।।66।।

यावत्सङ्गवकालं तु धनुर्मासो विधीयते।
धनुर्मासे निराहारो मासमात्रं जितेन्द्रियः।।67।।

आमध्याह्नं जपेद् विप्रो गायत्रीं वेदमातरम्।
पञ्चाक्षरादिकान्मन्त्रान्पश्चादासुप्तिकं जपेत्।।68।।

 जो भोग की इच्छा रखने वाला है वह मनुष्य मार्गशीर्ष मास आने पर कम से कम तीन दिन भी उषःकाल में अवश्य देवताओं का पूजन करे और पौष माष को पूजन से खाली न जाने दे। उषःकाल से  से लेकर संगव काल तक ही पौष मास में पूजन का विशेष महत्व बताया गया है। पौषमास में पूरे महीनेभर जितेन्द्रिय और निराहार रहकर द्विज प्रातः काल से मध्याह्न काल तक वेदमाता गायत्री का जप करे। तत्पश्चात रात को सोने के समय तक पञ्चाक्षर आदि मन्त्रों का जप करे।।66-67-68।।

ज्ञानं लब्ध्वा च देहान्ते विप्रो मुक्तिमवाप्नुयात्।
अन्येषां नरनारीणाम त्रिःस्नानेन जपेन च।।69।।
सदा पञ्चाक्षरस्यैव विशुद्धं ज्ञानमाप्यते।
इष्टमन्त्रान्सदा जप्त्वा महापापक्षयं लभेत्।।70।।
ऐसा करने वाला ब्राह्मण ज्ञान पाकर शरीर छूटने के बाद मोक्ष प्राप्त कर लेता है। द्विजेतर  नर नारियों को त्रिकाल स्नान और पंचाक्षर मंत्र के ही निरंतर जप से विशुद्ध ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इष्ट मन्त्रों का सदा जप करने से बड़े-बड़े पापों का भी नाश हो जाता है।।69-70।।

धनुर्मासे विशेषेण महानैवेद्यमाचरेत्।
शालितण्डुलभारेण मरीच प्रस्थकेन च ।।71।।

धनु के सूर्य होने में विशेष कर उस मास में महानैवेद्य से पूजन करे। धान्य तंडुल एक भार, मिर्च काली एक प्रस्थ।।71।।

गणनाद् द्वादशं सर्वं मध्वाज्यकुडवेन हि।
द्रोणयुक्तेन मुद्गेन द्वादश व्यञ्जनेन च।।72।।

और आगे कहे हुये सब गुणन में बारह से गुणा करना चाहिये। शहद और घी पावभर, मूंग द्रोण भर(16 सेर) और बारह व्यञ्जन।।72।।

घृतपक्वैरपूपैश्च मोदकै: शालिकादिभि:।
द्वादश्चैव दधिक्षीरर्द्वादशप्रस्थकेन च।।73।।

घृत में उतारे हुए पुए, मोदक, शाली आदि बारह अन्न, दही और दूध बारह सेर।।73।।

नारिकेलफलादीनां तथा गणना सह।
द्वादशक्रमुकैर्युक्तं षट्त्रिंशत्पत्रकैर्युतम।।74।।

तथा नारियल फलों की गणना करके बारह क्रमुक(सुपारी) से युक्त छत्तीस ताम्बूल के पत्र।।74।।

   कपूरखुरचूर्णेन पञ्चसौगन्धिकैर्युतम्।
ताम्बूलयुक्तं तु यदा महानैवेद्यलक्षणम।।75।।

कपूर और खुरनाम वृक्ष का चूर्ण, इलाइची, कंकोल, लवंगपुष्प, जायफल यह पांच सुगंधि और ताम्बूल यह महानैवेद्य का लक्षण है।।75।।

महानैवेद्यमेतद्वै देवतार्पण   पूर्वकम।
वर्णानुक्रमपूर्वेण तद्भक्तेभ्य: प्रदापयेत।।76।।

यह महानैवेद्य देवताओं को अर्पण करके वर्ण के अनुसार क्रम से उन देवताओं के भक्तों को इसका प्रसाद बाँटना चाहिये।।76।।

एवं चौदननैवेद्याद्भूमौ राष्ट्रपतिर्भवेत्।
महानैवेद्यदानेन नरः स्वर्गमवाप्नुयात्।।77।।

इस प्रकार भात और नैवेद्य के दान से पृथ्वी के राज्य की प्राप्ति होती है। महानैवेद्य के दान से मनुष्य स्वर्ग लोक को जाता है।।77।।

महानैवेद्यदानेन सहस्त्रेण द्विजर्षभाः।
सत्यलोकं च तल्लोके पूर्णमायुरवाप्नुयात्।।78।।

हे ब्राह्मणों!सहस्र महानैवेद्य के दान से सत्यलोक में निवास और पूर्ण आयु की प्राप्ति होती है।।78।।

सहस्त्राणां च त्रिशंत्या महानैवेद्यदानतः।
तदूर्ध्वलोकमाप्यैव न पुनर्जन्मभाग्भवेत्।।79।।

जो तीस सहस्र महानैवेद्य दान करते हैं, वह ऊर्ध्वलोक लोक को प्राप्त होकर फिर संसार में जन्म नहीं लेते।।79।।

सहस्त्राणां च षट्त्रिंशज्जन्मनैवेद्यमीरितम्।
तावन्नैवेद्यदानं तु महापूर्णं तदुच्यते।।80।।

छत्तीस सहस्र महानैवेद्य को जन्मनैवेद्य कहते हैं, उतने नैवेद्य का दान महापूर्ण कहलाता है।।80।।

महापूर्णस्य नैवेद्यंं जन्मनैवेद्य मिष्यते।
 जन्मनैवेद्यदानेन पुनर्जन्म न विद्यते।।81।।

शिवजी का महापूर्ण नैवेद्य जन्मनैवेद्य कहलाता है। जन्मनैवेद्य के दान से पुनर्जन्म नहीं होता।।81।।

   ऊर्जे मासे दिने पुण्ये जन्मनैवेद्यमाचरेत।
सङ्क्रांन्तिपातजन्मर्क्षपौर्णमास्यादिसंयुते।।82।।

कार्तिक मास के पवित्र दिन में जन्मनैवेद्य का विधान करे, उस दिन संक्रांति व्यतीपात, जन्मनक्षत्र अथवा पूर्णमासी हो।।82।।

अब्दजन्मदिने कुर्याज्जन्मनैवेद्यमुत्तमम्।
मासान्तरेषु जन्मर्क्षपूर्णयोगदिनेऽपि च।।83।।

अथवा वर्ष जन्मदिन में जन्मनैवेद्य करे अथवा दूसरे महीनों में अपने जन्मनक्षत्र और पूर्णयोगदिन में।।83।।

मेलने च शनैर्वापि तावसाहस्त्रमाचरेत।
जन्मनैवेद्य दानेन जन्मार्पणफलं लभेत।।84।।

अथवा पुन्ययोगों के संयोग में अथवा शनि के योग होने में उतने ही सहस्र नैवेद्य दे। जन्मनैवेद्य के दान से जन्मार्पण के फल की प्राप्ति होती है।।84।।

  जन्मार्पणाच्छिवः प्रीतः स्वसायुज्यं ददाति हि।
इदं तज्जन्मनैवेद्यं शिवस्यैव प्रदापयेत्।।85।।

जन्मार्पण से प्रसन्न होकर शिवजी अपनी सायुज्य मुक्ति प्रदान करते हैं, यह जन्मनैवेद्य शिवजी को ही देना उचित है।।85।।

योनिलिङ्गस्वरुपेण शिवो जन्मनिरुपकः।
तस्माज्जन्मनिवृत्त्यर्थं जन्मपूजा शिवस्य हि।।86।।

योनि और लिङ्ग के स्वरूप शिवजी ही जन्म के देने वाले हैं, इस कारण जन्मनिवृत्ति के निमित्त जन्मनैवेद्य से शिवजी की ही पूजा करे।।86।।

बिन्दु नादात्मकं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्।
बिन्दुः शक्तिः शिवो नादः शिवशक्त्यात्मकं जगत्।।87।।

सब स्थावर जंगमात्मक संसार बिन्दु और नादरूप हैं। बिंदु शक्ति, शिव नादरूप हैं, इस प्रकार यह जगत् शिव शक्ति स्वरूप ही है।।87।।

   नादाधारमिदं बिन्दुर्बिन्द्वाधारमिदं जगत्।
जगदाधारभूतौ हि बिन्दुनादौ व्यवस्थितौ।।88।।

बिन्दुनादयुतं सर्वं सकलीकरणं भवेत्।
सकलीकरणाज्जन्म जगत्प्राप्नोत्यसंशयम्।।89।।

नाद बिंदु का और बिन्दु इस जगत का आधार है, ये बिन्दु और नाद (शक्ति और शिव)  संपूर्ण जगत के आधार रूप से स्थित हैं। बिन्दुऔर नाद से युक्त सब कुछ शिव स्वरूप है, क्योंकि वही सब का आधार है। आधार में ही आधेय का समावेश अथवा लय होता है। यही सकलीकरण है।  इस सकलीकरण की स्थिति से ही सृष्टिकाल में जगत का प्रादुर्भाव होता है, इसमें संशय नहीं है।।88-89।।

बिन्दुनादात्मकं लिङ्गं जगत्कारणमुच्यते।
बिन्दुर्देवी शिवोनादः शिवलिङ्गं तु कथ्यते।।90।।

शिवलिंग बिंदु नाद स्वरूप है। अतः उसे जगत का कारण बताया जाता है। बिंदु देव है और नाद शिव, इन दोनों का संयुक्त रूप ही शिवलिंग कहलाता है।।90।। 

तस्माज्जन्मनिवृत्त्यर्थं शिव लिङ्गं प्रपूजयेत्।
माता देवी बिन्दुरुपा नादरुपः शिव: पिता।।91।।

  अतः जन्म के संकट से छुटकारा पाने के लिए शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए। बिन्दुरुपा देवी उमा माता हैं और नादस्वरुप भगवान शिव पिता।।91।।

पूजिताभ्यां पितृभ्यां तु परमानन्द एव हि।
परमानन्दलाभार्थं शिवलिङ्गंं प्रपूजयेत्।।92।।

इन माता पिता के पूजित होने से परमानंद की ही प्राप्ति होती है। अतः परमानंद का लाभ लेने के लिये शिवलिङ्ग का विशेष रूप से पूजन करें।।92।।

सा देवी जगतां माता स शिवो जगतः पिता।
पित्रोः शुश्रूषके नित्यं कृपाधिक्यं हि वर्धते।।93।।

देवी उमा जगत् की माता हैं और भगवान शिव जगत के पिता। जो इनकी सेवा करता है, उस पुत्र पर इन  दोनों माता पिता की कृपा नित्य अधिकाधिक बढ़ती जाती है।।93।।

कृपयान्तर्गतैश्वर्यं पूजकस्य ददाति हि।
तस्मादन्तर्गतानन्दलाभार्थं मुनिपुङ्गवाः।।94।।

पितृमातृस्वरुपेण शिवलिङ्गं प्रपूजयेत।
भर्गः पुरुषरुपो हि भर्गां प्रकृतिरुच्यते।।95।।

वह पूजक पर कृपा करके उसे अपना आन्तरिक ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। अतः मुनिश्वरो! आन्तरिक आनन्द की प्राप्ति के लिये, शिवलिङ्ग को माता-पिता का स्वरूप मानकर उसकी पूजा करनी चाहिये। भर्ग (शिव) पुरुष रूप हैं और भर्ग (शिवा अथवा शक्ति) प्रकृति कहलाती है।।94-95।।

अव्यक्तान्तरधिष्ठानं गर्भः पुरुष उच्यते।
सुव्यक्तान्तरधिष्ठानं गर्भः प्रकृतिरुच्यते।।96।।

पुरुषस्त्वादिगर्भो हि गर्भवाञ्जनको यतः।
पुरुषात्प्रकृतौ युक्तं प्रथमं जन्म कथ्यते।।97।।

अव्यक्त आन्तरिक अधिष्ठान रूप गर्भ को पुरुष कहते हैं और सुव्यक्त आन्तरिक अधिष्ठानभूत गर्भ को प्रकृति। पुरुष आदिगर्भ है, वह प्रकृतिरूप गर्भ से युक्त होने के कारण गर्भवान है, क्योंकि वही प्रकृति में जो पुरुष का संयोग होता है, यही पुरुष से उसका प्रथम जन्म कहलाता है।।96-97।।

प्रकृतेर्व्यक्ततां यातं द्वितीयं जन्म कथ्यते।
जन्म जन्तुर्मृत्युजन्म पुरुषात्प्रतिपद्यते।।98।।

अव्यक्त प्रकृति से महत्तत्त्वादि के क्रम से जो जगत् का व्यक्त होना है, यही उस प्रकृति का द्वितीय जन्म कहलाता है। जीव पुरुष से ही  बारम्बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता है।।98।।

अन्यतो भाव्यतेऽवश्यं मायया जन्म कथ्यते।
जीर्यते जन्मकालाद्यत्तस्माज्जीव इति स्मृतः।।99।।

माया द्वारा अन्य रूप से प्रकट किया जाना ही उसका जन्म कहलाता है, जीव का शरीर जन्मकाल से ही जीर्ण (छः भाव विकारों से युक्त) होने लगता है, इसलिए उसे जीव  संज्ञा दी गयी है।।99।।

जन्यते तन्यते पाशैर्जीवशब्दार्थं एव हि।
जन्मपाशनिवृत्त्यर्थं जन्म लिङ्गंं प्रपूजयेत।।100।।

जो जन्म लेता और विविध पाशों द्वारा तनाव (बंधन) में पड़ता है, उसका नाम जीव है, जन्म और बंधन जीव शब्द का अर्थ ही है। अतः जन्ममृत्यु रूपी बंधन की निवृत्ति के लिये जन्म के अधिष्ठानभूत मातृ-पितृ स्वरूप शिवलिंग का पूजन करना चाहिये।।100।।

भं वृद्धिं गच्छतीत्यर्थाद्भगः प्रकृतिरुच्यते।
प्राकृतैः शब्दमात्राद्यैः प्राकृतेन्द्रिय भोजनात्।।101।।

भगस्येदं भोगमिति शब्दार्थो मुख्यतः श्रुतः।
मुख्यो भगस्तु प्रकृतिर्भगवाञ्छिव उच्यते।।102।।

(भं) वृद्धि को (गच्छति) प्राप्त होता है, जिसमें इस कारण उसे प्रकृति कहते हैं।  प्रकृत शब्द मात्रादिकों से इन्द्रिय भोग कारण से जो यह (भग) प्रकृति का है, इसी से भोग कहलाता है, यही भग शब्द का शब्दार्थ है, मुख्य भगरूप प्रकृति से है और भगवान् शिव कहलाते हैं।।101-102।।

भगवान्भोगदाता हि नान्यो भोगप्रदायकः।
भगस्वामी च भगवान्भर्ग इत्युच्यते बुधैः।।103।।

भोगदाता भगवान ही हैं और भोग देने वाला दूसरा कोई नहीं है। भगवान भग के स्वामी हैं, भर्ग कहलाते हैं।।103।।

भगेन सहितं लिङ्गंं भगं लिङ्गेन संयुतम्।
इहामुत्र च भोगार्थं नित्यभोगार्थमेव च।।104।।

भग सहित लिङ्ग और लिङ्ग सहित भग यही दोनों भोग के निमित्त और नित्य भोग के निमित्त हैं।।104।।

भगवन्तं महादेवं शिवलिङ्गं प्रपूजयेत।
लोकप्रसविता सूर्यस्तच्चिह्नं प्रसवाद्भवेत्।।105।।

शिवलिंग स्वरूप भगवान शिवजी का पूजन करे, उस लोक में उत्पन्न करने वाले का चिह्न होने से और लोक उत्पन्न करने से सूर्य का नाम भी भग है।।105।।

लिङ्गे प्रसूतिकर्तारं लिङ्गिनंं पुरुषो यजेत्।
लिङ्गार्थंंगमकं चिह्नं लिङ्ग मित्यभिधीयते।।106।।

शिवलिंग स्वरूप में जगत् को उत्पन्न करने वाले शिवजी का यजन करे, लिङ्ग अर्थ में जानने वाला चिह्न लिङ्ग कहलाता है।।106।।

लिङ्गमर्थंं हि पुरुषं शिवं गमयतीत्यदः।
शिवशक्त्योश्च चिह्नस्य मेलनं लिङ्गमुच्यते।।107।।

लिङ्ग अर्थ में पुरुष शिवजी में जाने वाला है। शिवशक्ति के चिह्न के मेलन का नाम शिवलिंग है।।107।।

स्वचिह्नपूजनात्प्रीतश्चिह्नकार्यं न वीयते।
चिह्नकार्यं तु जन्मादि जन्माद्यं विनिवर्तते।।108।।

शिवजी अपने चिह्न के पूजन करने से प्रसन्न हो जाते हैं। इससे चिह्न कार्य नहीं प्राप्त होता किन्तु चिह्नकार्य जन्मादि है, इस चिह्न के पूजन करने से जन्मादि निवृत्त हो जाता है।।108।।

प्राकृतैः पुरुषैश्चापि बाह्याभ्यन्तरसम्भवैः।
षोडशैरुपचारैश्च शिवलिङ्गंं प्रपूजयेत।।109।।

प्राकृत्य पुरूषों को भी बाह्य और आभ्यांतर शिवलिङ्गं का षोडश उपचारों से पूजन करना चाहिये।।109।।

एवमादित्यवारे हि पूजा जन्मनिवर्तिका।
आदिवारे महालिङ्गंं प्रणवेनैव पूजयेत्।।110।।

इस प्रकार आदित्यवार के दिन पूजा करने से फिर जन्म नहीं होता। आदित्यवार के दिन महालिंग का ॐ कार पूर्वक पूजन करे।।110।।

आदिवारेपञ्चगव्यैरभिषेको विशिष्यते।
गोमयं गोजलं क्षीरं दध्याज्यं पञ्चगव्यकम् ।।111।।

आदित्यवार के दिन पंचगव्य से शिवजी को स्नान कराना चाहिये। (गोबर, गोमूत्र,  गाय का दूध, दही और घी ये पाँच वस्तुएं पंचगव्य कहलाती हैं) ।।111।।

क्षीराद्यं च पृथक्चैव मधुना चेक्षुसारकैः।
गव्यक्षीरान्ननैवेद्यं प्रणवेनैव कारयेत्।।112।।

क्षीरादि से पृथक स्नान करावे। शहद, गन्ने का रस और गाय के दूध से अन्न नैवेद्य बनाकर ओंकार पूर्वक चढ़ावे।।112।।

   प्रणवं ध्वनिलिङ्गंं तु नादलिङ्गंं स्वयम्भुवः।
बिन्दुलिङ्गंं तु यन्त्रं स्यान्मकारं तु प्रतिष्ठतम्।।113।।

प्रणव की ध्वनि लिङ्ग है, बिन्दुलिंग यन्त्र है, नादलिङ्ग स्वयम्भू है, उसमें मकार प्रतिष्ठत है।।113।।

उकारं चरलिङ्गंं स्यादकारं गुरुविग्रहम्।
षड्लिङ्गपूजया नित्यं जीवन्मुक्तो न संशयः।।114।।

उकार चरलिंग है, अकार गुरु शरीर है, इस प्रकार षडलिंग की पूजा करने से निःसंदेह यह प्राणी जीवनमुक्त हो जाता है।।114।।

शिवस्य भक्त्या पूजा हि जन्ममुक्तिकरी नृणाम्।
रुद्राक्ष धारणात्पादमर्धं वै भूतिधारणात्।।115।।

भक्तिपूर्वक शिवजी की पूजा करने से मनुष्य जीवन मरण से मुक्त हो जाता है। रुद्राक्ष धारण करने से चौथाई, विभूति धारण करने से आधा।।115।।

त्रिपादं मन्त्रजाप्याच्च पूजया पूर्ण भक्तिमान।
लिङ्गंं च भक्तं च पूज्य मोक्षं लभेन्नरः।।116।।

मंन्त्र जपने से पौन और पूजा से सम्पूर्ण भक्तिमान होता है। शिवलिंग  और उनके भक्त का पूजन करके मनुष्य मुक्त हो जाता है। इसमें सन्देह नहीं है।।116।।

य इमं पठतेऽध्यायं श्रृणुयाद्वा समाहितः।
तस्यैव शिवभक्तिश्च वर्धते सुदृणा द्विजाः।।117।।

जो इस अध्याय को पढ़ते अथवा सावधान होकर सुनते हैं, हे ब्राह्मणो!उनकी शिवजी में दृढ़ भक्ति हो जाती है।।117।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां पार्थिव पूजाप्रकारादिवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः।।16।।

जय बाबा की - बाबाचरण दास

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