ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ सप्तदशोऽध्यायः
|| संकलन - बाबा चरणदास ||
ऋषय ऊचुः
प्रणवस्य च माहात्म्यंं षडलिङ्गस्य महामुने।
शिवभक्तस्य पूजां च क्रमशो ब्रूहि नः प्रभो।।1।।
ऋषि बोले प्रभो ! महामुने! आप हमारे लिए क्रमशः षडलिंग स्वरूप प्रणव का माहात्म्य तथा शिवभक्त के पूजन का प्रकार बताइए।।1।।
सूत उवाच
तपोधनैर्भवद्भिश्च सम्यक प्रश्नस्त्वं कृतः।
अस्योत्तरं महादेवो जानाति स्म न चापरः।।2।।
सूत उवाच
सूतजी नेकहा महर्षियो! आप लोग तपस्या के धनी हैं, आपने यह बडा़ सुन्दर प्रश्न उपस्थित किया है। किन्तु इसका ठीक ठीक उत्तर महादेव जी ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं।।2।।
तथापि वक्ष्ये तमहं शिवस्य कृपयैव हि।
शिवोऽस्माकं च युष्माकं रक्षां गृह्णातु भूरिशः।।3।।
तथापि भगवान शिव की कृपा से ही मैं इस विषय का वर्णन करूंगा। वे भगवान शिवजी हमारी और आप लोगों की रक्षा का भारी भार बारंबार स्वयं ही ग्रहण करें।।3।।
प्रो हि प्रकृतिजातस्य संसारस्य महोदधेः।
नवं नावांतरमिति प्रणवं वै विदुर्बुधाः।।4।।
प्र नाम है प्रकृति से उत्पन्न संसाररूपी महासागर का। प्रणव इससे पार करने वाली दूसरी(नव) नाव है।।4।।
प्र: प्रपञ्चो न नास्ति वो युष्माकं प्रणवं विंदु:।
प्रकर्षेण नयेद्यस्मान्मोक्षं व: प्रणवं विंदु:।।5।।
इसलिये इस ओंकार को प्रणव की संज्ञा देते है। ॐ कार अपने जप करने वाले साधकों से कहता है- प्र-प्रपञ्च, न - नहीं है, वः - तुम लोगों के लिये। अतः इस भाव को लेकर भी ज्ञानी पुरुष 'ओम' को प्रणव नाम से जानते हैं। इसका दूसरा। भाव यों है- प्र- प्रकर्षेण, न - नयेत, वः युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणवः। अर्थात यह तुम सब उपासकों को बलपूर्वक मोक्ष तक पहुंचा देगा। इस अभिप्राय से भी इसे ऋषि-मुनि प्रणव कहते हैं।।5।।
स्वमन्त्रजापकानां च पूजकानां च योगिनाम।
सर्वकर्मक्षयं कृत्वा दिव्यज्ञानं तु नूतनम।।6।।
अपना जप करने वाले योगियों के तथा अपने मंन्त्र की पूजा करने वाले उपासक के समस्त कर्मों का नाश करके यह दिव्य नूतन ज्ञान देता है, इसलिये भी इसका नाम प्रणव है।।6।।
त्वमेव मायारहित नूतनं परिचक्षते।
प्रकर्षेण महात्मानं नवं शुद्धस्वरुपकम।।7।।
उन मायारहित महेश्वर को ही नव अर्थात नूतन कहते हैं। वे परमात्मा प्रकृष्ट रूप से नव अर्थात शुद्धस्वरूप हैं, इसलिये प्रणव कहलाते हैं। प्रणव साधक को नव अर्थात नवीन (शिव स्वरूप) कर देता है। इसलिये भी विद्वान पुरुष उसे प्रणव के नाम से जानते हैं। अथवा प्रकृष्ट रूप से नव - दिव्य परमात्मज्ञान प्रकट करता है, इसलिये वह प्रणव है।।7।।
नूतनं वै करोतीति प्रणवं तं विदुर्बुधाः।
प्रणवं द्विविधं प्रोक्त सूक्ष्मस्थूलविभेदतः।।8।।
सूक्ष्म मैकाक्षरं विद्यात्स्थूलं पञ्चाक्षरं विदुः।
सूक्ष्ममव्यक्तपञ्चार्णं सुव्यक्तार्णं तथेतरत्।।9।।
उन मायारहित महेश्वर को ही नव अर्थात नूतन कहते हैं। वे परमात्मा प्रकृष्ट रूप से नव अर्थात शुद्धस्वरूप हैं, इसलिये प्रणव कहलाते हैं। प्रणव साधक को नव अर्थात नवीन (शिवस्वरूप) कर देता है। इसलिये भी विद्वान् पुरुष उसे प्रणव के नाम से जानते हैं। अथवा प्रकृष्ट रूप से नव - दिव्य परमात्मज्ञान प्रकट करता है, इसलिये वह प्रणव है। प्रणव के दो भेद बताये गये हैं- स्थूल और सूक्ष्म। एक अक्षर रूप जो ओम है, उसे सूक्ष्म प्रणव जानना चाहिये और नमः शिवाय इस पांच अक्षर वाले मंन्त्र को स्थूल प्रणव समझना चाहिये। जिसमें पांच अक्षर व्यक्त नहीं हैं, वह सूक्ष्म है और जिसमें पांचो अक्षर सुस्पष्ट रूप से व्यक्त हैं, वह स्थूल है।।8-9।।
जीवन्मुक्तस्य सूक्ष्मं हि सर्वसारं हितस्य हि।
मन्त्रेणार्थानुसन्धानं स्वदेहविलयावधि।।10।।
स्वदेहे गलिते पूर्णं शिवं प्राप्नोति निश्चयः।
केवलं मंन्त्रजापी तु योगं प्राप्नोति निश्चयः।।11।।
जीवन्मुक्त पुरुष के लिये सूक्ष्म प्रणव के जप का विधान है। वही उसके लिये समस्त साधनों का सार है। (यद्यपि जीवन्मुक्त के लिये किसी साधन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह सिद्ध रूप है, तथापि दूसरों की दृष्टि में जब तक उसका शरीर रहता है, तब तक उसके द्वारा प्रणव जप की सहज साधना स्वतः होती रहती है।) वह अपनी देह का विलय होने तक सूक्ष्म प्रणव मंन्त्र का जप और उसके अर्थभूत परमात्म- तत्व का अनुसंधान करता रहता है। जब शरीर नष्ट हो जाता है, तब वह पूर्ण ब्रह्मस्वरूप शिव को प्राप्त कर लेता है, यह सुनिश्चित बात है। जो अर्थ का अनुसंधान न करके केवल मंन्त्र का जप करता है, उसे निश्चय ही योग की प्राप्ति होती है।।10-11।।
षट्त्रिंशकोटिजापी तु निश्चयं योगमाप्नुयात्।
सूक्ष्मं च द्विविधं ज्ञेयं ह्रस्वदीर्घविभेदितः।।12।।
जिसने छत्तीस करोड़ मंन्त्र का जप कर लिया हो, उसे अवश्य ही योग प्राप्त हो जाता है। सूक्ष्म प्रणव के भी ह्रस्व और दीर्घ के भेद से दो रूप जानने चाहिये।।12।।
अकारश्च उकारश्च मकारश्च ततः परम्।
बिन्दुनादयुतं तद्धि शब्दकाल कलान्वितम्।।13।।
दीर्घप्रणवमेवं हि योगिनामेव हृदगतम्।
मकारं तन्त्रितत्त्वं हि ह्रस्वप्रणव उच्यते।।14।।
अकार, उकार, मकार, बिंदु, नाद, शब्द, काल और कला--इनसे युक्त जो प्रणव है, उसे दीर्घ प्रणव कहते हैं। वह योगियों के ही हृदय मैं स्थित होता है। मकार पर्यन्त जो ओम है, वह अ उ म्-इन तीन तत्त्वों से युक्त है। इसी को ह्रस्व प्रणव कहते हैं।।13-14।।
शिवः शक्तिस्तर्योरैक्यं मकारं तु त्रिकात्मकम्।
ह्रस्वमेवं हि जाप्यं स्यात्सर्वपापक्षयैषिणाम्।।15।।
अ शिव है, उ शक्ति है और मकार इन दोनों की एकता है। वह त्रितत्त्व रूप है, ऐसा समझकर ह्रस्व प्रणव का जप करना चाहिये। जो अपने समस्त पापों का क्षय करना चाहते हैं, उनके लिये इस ह्रस्व प्रणव का जप अत्यंत आवश्यक है।।15।।
भूवायुकनकार्णोद्यौः शब्दाधाश्च तथा दश।।
आशान्वये दश पुनः प्रवृत्ताऊ इति कथ्यते।।16।।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- ये पाँच भूत तथा शब्द, स्पर्श आदि इनके पाँच विषय- ये सब मिलकर दस वस्तुएँ मनुष्यों की कामना के विषय हैं। इनकी आशा मन में लेकर जो कर्मों के अनुष्ठान में संलग्न होते हैं, वे दस प्रकार के पुरुष प्रवृत्त (अथवा प्रवृत्ति मार्गी ) कहलाते हैं।।16।।
ह्रस्वमेव प्रवृत्तानां निवृत्तानां तु दीर्घकम्।
व्याहृत्यादौ च मन्त्रादौ कामं शब्दकलायुतम्।।17।।
जो निष्काम भाव से शास्त्रविहित कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, वे निवृत्त (अथवा निवृत्ति मार्गी) कहे गये हैं। प्रवृत्त पुरुषों को ह्रस्व प्रणव का ही जप करना चाहिये और निवृत्त पुरुषों को दीर्घ प्रणव का। व्याहृतियों तथा अन्य मंन्त्रों के आदि में इच्छानुसार शब्द और कला से युक्त प्रणव का उच्चारण करना चाहिये।।17।।
वेदादौ च प्रयोज्यं स्याद्वन्दने सन्ध्ययोरपि।
नवकोटिजपाञ्जप्त्वा संशुद्धः पुरुषो भवेत्।।18।।
वेद के आदि में और दोनों संध्याओं की उपासना के समय भी ओंकार का उच्चारण करना चाहिये। प्रणव का नौ करोड़ जप करने से मनुष्य शुद्ध हो जाता है।।18।।
पुनश्च नवकोट्या तु पृथिवीजयमाप्नुयात्।
पुनश्च नवकोट्या तु ह्यपां जयमाप्नुयात्।।19।।
फिर नौ करोड़ का जप करने से वह पृथ्वी तत्त्व पर विजय पा लेता है। तत्पश्चात पुनः नौ करोड़ का जप करके वह जल तत्त्व को जीत लेता है।।19।।
पुनश्च नवकोट्या तु तेजसां जयमाप्नुयात्।
पुनश्च नवकोट्या तुवायोर्जयमाप्नुयात्।
आकाशजयमाप्नोति नवकोटिजपेन वै।।20।।
पुनः नौ करोड़ का जप करके वह अग्नि तत्त्व पर विजय पाता है। तदनन्तर फिर नौ करोड़ का जप करके वह वायु तत्त्व पर विजयी होता है। नौ करोड़ का जप करने से आकाश को अपने अधिकार में कर लेता है।।20।।
गन्धादीनां क्रमेणैव नवकोटिजपेन वै।
अहंकारस्य च पुनर्नवकोटिजपेन वै।।21।।
इसी प्रकार नौ नौ करोड़ का जप करके वह क्रमशः गन्ध,रस, रूप स्पर्श और शब्द पर विजय पाता है, इसके बाद फिर नौ करोड़ का जप करके अहंकार को भी जीत लेता है।।21।।
सहस्त्रमन्त्रजप्तेन नित्यशुद्धो भवेत्पुमान्।
ततः परं स्वसिद्धयर्थं जपो भवति हि द्विजाः।।22।।
नित्य सहस्र मंन्त्र जप करने वाला नित्य शुद्ध रहता है, इसके उपरांत हे ब्राह्मणों!फिर आत्मज्ञान की सिद्धि के लिये जप होता है।।22।।
एवमष्टोत्तरशतकोटिजप्तेन वै पुनः।
प्रणवेन प्रबुद्धस्तु शुद्धयोगमवाप्नुयात।।23।।
इस प्रकार एक सौ आठ करोड़ जप करने वाला ॐ कार से प्रबुद्ध होकर शुद्धयोग को प्राप्त होता है।।23।।
शुद्ध योगेन संयुक्तो जीवन्मुक्तो न संशयः।
सदा जपन्सदा ध्यायञ्छिवं प्रणवरुपिणम्।।24।।
शुद्धयोग से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है। प्रणव रूप शिवजी का सदा जप और ध्यान करना चाहिये।।24।।
समाधिस्थो महायोगी शिव एव न संशयः।
ऋषिच्छन्दो देवतादि न्यय देहे पुनर्जपेत्।।25।।
सदा प्रणव का जप और प्रणवरूपी शिव का ध्यान करते करते समाधि में स्थित हुआ महायोगी पुरुष साक्षात शिव ही है, इसमें संशय नहीं है। पहले अपने शरीर में प्रणव के ऋषि, छन्द और देवता आदि का न्यास करके फिर जप आरम्भ करना चाहिये।।25।।
प्रणवं मातृकायुक्तं देहे न्यस्य ऋषिर्भवेत्।
दशमातृषडध्वादि सर्वं न्यासफलं लभेत्।।26।।
अकारादि मातृका वर्णों से युक्त प्रणव का अपने अंगों में न्यास करके मनुष्य ऋषि हो जाता है। मंन्त्रों के दशविध संस्कार, मातृकान्यास तथा षडध्वशोधन आदि के साथ सम्पूर्ण न्यासफल उसे प्राप्त हो जाता है।।26।।
प्रवृत्तानां च मिश्राणां स्थूलप्रणवमिष्यते।
क्रियातपोजपैर्युक्तास्त्रिविधाः शिवयोगिनः।।27।।
प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति-निवृत्ति से मिश्रित भाववाले पुरुषों के लिए स्थूल प्रणव का जप ही अभीष्ट साधन होता है। क्रिया, तप और जप के योग से शिवयोगी तीन प्रकार के होते हैं। जो क्रमशः क्रियायोगी, तपोयोगी और जपयोगी कहलाते हैं।।27।।
धनादिविभवैश्चैव कराद्यङ्गैर्नमादिभिः।
क्रियया पूजया युक्तः क्रियायोगीति कथ्यते।।28।।
जो धन आदि वैभवों से पूजा सामग्री का संचय करके हाथ आदि अंगों से नमस्करादि क्रिया करते हुऐ इष्टदेव की पूजा में लगा रहता है, वह 'क्रियायोगी' कहलाता है।।28।।
पूजायुक्तश्च मितभुग्बाह्येन्द्रियजयान्वितः।
परद्रोहादिरहितस्तपोयोगीति कथ्यते।।29।।
पूजा में संलग्न रहकर जो परिमिति भोजन करता है, बाह्य इंद्रियों को जीतकर वश में किये रहता है और मन को भी वश में करके परद्रोह आदि से दूर रहता है, वह 'तपयोगी' कहलाता है।।29।।
एतैर्युक्तः सदा शुद्धः सर्वकामादिवर्जितः।
सदा जपपरः शान्तोजपयोगीति तं विदुः।।30।।
इन सभी सद्गुणों से युक्त होकर जो सदा शुद्धभाव से रहता है तथा समस्त काम आदि दोषों से रहित हो शान्तचित्त से निरन्तर जप किया करता है, उसे महात्मा पुरुष 'जपयोगी' मानते हैं।।30।।
उपचारैः षोडशभिः पूजया. शिवयोगिना।
सालोक्यादिक्रमणैवशुद्धो मुक्तिं लभेन्नरः।।31।।
जो मनुष्य षोडस उपचारों से शिवयोगी महात्माओं की पूजा करता है, वह मनुष्य शुद्ध होकर क्रम से सलोक्ययादि मुक्ति को प्राप्त होता है।।31।।
जपयोगमथो वक्ष्ये गदतः श्रृणुत द्विजाः।
तपः कर्तुर्जपः। प्रोक्तो यज्जपन्परिमार्जते।।32।।
द्विजो!अब मैं जपयोग का वर्णन करता हूँ। तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो। तपस्या करने वाले के लिये जप का उपदेश किया गया है, क्योंकि वह जप करते करते अपने आपको सर्वथा शुद्ध (निष्पाप) कर लेता है।।32।।
शिवनाम नमःपूर्वं चतुर्थ्यां पञ्चतत्त्वकम।
स्थूलप्रणवरूपं हि शिवपञ्चाक्षरं द्विजाः।।33।।
ब्राह्मणों!पहले नमः पद हो, उसके बाद चतुर्थी विभक्ति में शिव शब्द हो तो पंचतत्त्वात्मक नमः शिवाय मंन्त्र होता है। इसे शिव पञ्चाक्षर कहते हैं। यह स्थूल प्रणव रूप है।।33।।
पञ्चाक्षरजपेनैव सर्वसिद्धिं लभेन्नरः।
प्रणवेनादि संयुक्तं सदा पञ्चाक्षरं जपेत्।।34।।
इस पञ्चाक्षर के जप से ही मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। पञ्चाक्षर मंन्त्र के आदि में ओंकार लगाकर ही सदा उसका जप करना चाहिये।।34।।
गुरुपदेशं सङ्गम्य सुखवासे सुभूतले।
पूर्वपक्षे समारभ्य कृष्णभूतावधि द्विजाः।।35।।
द्विजो!गुरु के मुख से पञ्चाक्षरमंन्त्र का उपदेश पाकर जहाँ सुखपूर्वक निवास किया जा सके, ऐसी उत्तम भूमि पर महीने के पूर्वपक्ष(शुक्ल) में प्रतिपदा से आरम्भ करके कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तक निरन्तर जप करता रहे।।35।।
माघं भाद्रं विशिष्टं तु सर्वकालोत्तमोत्तमम्।
एकवारं मिताशी तु वाग्यतो नियतेन्द्रियः।।36।।
माघ और भादों के महीने अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं। यह समय सब समयों से उत्तमोत्तम माना गया है। साधक को चाहिये कि वह प्रतिदिन एकबार परिमिति भोजन करे, मौन रहे, इन्द्रियों को वश में रखे।।36।।
स्वस्य राजपितृणां च नित्यं शुश्रूषणं चरेत्।
सहस्त्रजपमात्रेण भवेच्छुद्धोऽ न्यथा ऋणी।।37।।
अपने स्वामी एवं माता पिता की नित्य सेवा करे। इस नियम से रहकर जप करने वाला पुरुष एक सहस्र जप से ही शुद्ध हो जाता है, अन्यथा वह ऋणी होता है।।37।।
पञ्चाक्षरं पञ्चलक्षं जपेच्छिवमनुस्मरन्।
पद्मासनस्थं शिवदं गङ्गाचन्द्रकलान्वितम्।।38।।
वामोरुस्थितशक्त्या च विराजन्तं महागणैः।
मृगटंकधरं देवं वरदाभयपाणिकम्।।39।।
सदानुग्रहकर्तारं सदाशिव मनुस्मरन्।
सम्पूज्य मनसा पूर्वं हृदि वा सूर्यमण्डले।।40।।
भगवान शिव का निरंतर चिंतन करते हुए पञ्चाक्षर मंन्त्र का पांच लाख जप करे। जपकाल में इस प्रकार ध्यान करे। कल्यानदाता भगवान शिव कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनका मस्तक श्री गङ्गाजी तथा चंद्रमा की कला से सुशोभित है। उनकी बायीं जाँघ पर आदिशक्ति भगवती उमा बैठी हैं। वहाँ खड़े हुये बड़े बड़े गण भगवान शिव की शोभा बढ़ा रहे हैं। महादेवजी अपने चार हाथों में मृगमुद्रा, टंक तथा वर एवं अभय की मुद्राएं धारण किये हुए हैं। इस प्रकार सदा सब पर अनुग्रह करने वाले भगवान सदाशिव का बारंबार स्मरण करते हुए हृदय अथवा सूर्यमण्डल में पहले उनकी मानसिक पूजा करे।।38-39-40।।
जपेत्पञ्चाक्षरीं विद्यां प्राङ्मुखः शुद्धकर्मकृत्।
प्रातः कृष्णचतुर्दश्यां नित्यकर्म समाप्य च।।41।।
मनोरमे शुचौ देशे नियतः शुद्ध मानसः।
पञ्चाक्षरस्य मन्त्रस्य सहस्त्रं द्वादशं जपेत्।।42।।
फिर पूर्वाभिमुख हो पूर्वोक्त पञ्चाक्षरी विद्या का जप करे। उन दिनों साधक सदा शुद्ध कर्म ही करे (और दुष्कर्म से बचा रहे)। जप की समाप्ति के दिन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को प्रातःकाल नित्यकर्म करके शुद्ध एवं सुन्दर स्थान में शौच संतोषादि नियमों से युक्त हो शुद्ध हृदय से पञ्चाक्षर मंन्त्र का बारह सहस्र जप करे।41-42।।
वरयेच्च सपत्नीकान् शैवान्वै ब्राह्मणोत्तमान्।
एकं गुरुवरं शिष्टं वरयेत्साम्बमूर्तिकम्।।43।।
तत्पश्चात पांच सपत्नीक ब्राह्मणों का, जो श्रेष्ठ एवं शिवभक्त हों, वरण करे। इनके अतरिक्त एक श्रेष्ठ आचार्यप्रवर का भी वरण करे और उसे साम्ब सदाशिव का स्वरूप समझे।
ईशानं चाथ पुरुषमघोरं वाममेव च।
सद्योजातं च पञ्चैव शिवभक्तान्द्विजोत्तमान्।।44।।
पूजाद्रव्याणि सम्पाद्य शिवपूजां समारभेत्।
शिवपूजां च विधिवत्कृत्वा होमं समारभेत्।।45।।
ईशान, तत्पुरुष, अघोर तथा सद्योजात इन पाँचो के प्रतीक स्वरूप पांच ही श्रेष्ठ और शिवभक्त ब्राह्मणों का वरण करने के पश्चात पूजन सामग्री को एकत्र करके भगवान शिव का पूजन आरम्भ करे। विधिपूर्वक शिव की पूजा सम्पन्न करके होम आरम्भ करे।।44-45।।
मुखान्तं च स्वसूत्रेण कृत्वाहोमं समाचरेत्।
दशैकं वा शतैकं वा सहस्त्रैकमथापि वा।।46।।
कापिलेन घृतेनैव जुहुयात्स्वयमेव हि।
कारयेच्छिव भक्तैर्वाप्यष्टोत्तरशतं बुधः।।47।।
अपने गृह्य सूत्र के अनुसार सुखांत कर्म करके अर्थात परिसमूहन, उपलेपन, उल्लेखन, मृदुउद्धरण और अभ्युक्षण इन पञ्चभू संस्कारों के पश्चात वेदी पर स्वाभिमुख अग्नि को स्थापित करके कुशकुण्डिका के अनन्तर प्रज्वलित अग्नि में आज्यभागान्त आहुति देकर प्रस्तुत होम का कार्यारम्भ करे। कपिला गाय के घी से ग्यारह, एक सौ एक अथवा एक हजार एक आहुतियां स्वयं ही दे अथवा विद्वान पुरुष शिवभक्त ब्राह्मणों से एक सौ आठ आहुतियां दिलाये।।46-47।
होमान्ते दक्षिणा देया गुरोर्गोमिथुनं तथा।
ईशानादिस्वरुपांस्तान्गुरूं साम्बं विभाव्य च।।48।।
होमकर्म समाप्त होने पर गुरु को दक्षिणा के रूप में एक गाय और एक बैल देने चाहिए। ईशान आदि के प्रतीक रूप जिन पाँच ब्राह्मणों का वरण किया गया हो, उनको ईशान आदि का स्वरूप ही समझे तथा आचार्य को साम्बसदाशिव का स्वरूप माने।।48।।
तेषां पत्सिक्ततोयेन सवशिरः स्नानमाचरेत्।
षट्त्रिंशत्कोटितीर्थेषु सद्यः स्नान फलं लभेत्।।49।।
इसी भावना के साथ उन सबके चरण धोये और उनके चरणोदक से अपने मस्तक को सींचे। ऐसा करने से वह साधक अगणित तीर्थों में तत्काल स्नान करने का फल प्राप्त कर लेता है।।49।।
दशाङ्गमन्नं तेषां वै दद्याद्वै भक्तिपूर्वकम्।
पराबुद्धया गुरोः पत्नीमीशानादिक्रमेण तु।।50।।
ईशानादि क्रम से उन सभी ब्राह्मणों का उत्तम अन्न से पूजन करे। उन ब्राह्मणों को भक्तिपूर्वक दशांश अन्न देना चाहिये। गुरुपत्नी को पराशक्ति मानकर उनका भी पूजन करे।।50।।
परमान्नेन सम्पूज्य यथाविभवविस्तरम्।
रुद्राक्ष वस्त्रपूर्वं च वटकापूपकैर्युतम्।।51।।
ईशानादि क्रम से उन सभी ब्राह्मणों का उत्तम अन्न से पूजन करके अपने वैभव विस्तार के अनुसार रुद्राक्ष, वस्त्र, बड़ा और पुआ आदि अर्पित करे।।51।।
बलिदानं ततः कृत्वा भूरि भोजनमाचरेत्।
ततः सम्प्रार्थ्य देवेशं जपं तावत्समापयेत्।।52।।
तदनंतर दिक्पालादि को बलि देकर ब्राह्मणों को भरपूर भोजन कराये। इसके बाद देवेश्वर शिव से प्रार्थना करके अपना जप समाप्त करे।।52।।
पुरश्चरणमेवं तु कृत्वा मन्त्री भवेन्नरः।
पुनश्च पञ्चलक्षेण सर्वपाप क्षयो भवेत्।।53।।
इस प्रकार पुरश्चरण करके मनुष्य उस मंत्र को सिद्ध कर लेता है। फिर पांच लाख जप करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है।।53।।
अतलादि समारभ्य सत्य लोकावधि क्रमात्।
पञचलक्ष जपात्तत्तल्लोकैश्वर्यमवाप्नुयात्।।54।।
तदनंतर पुनः पांच लाख जप करने पर अतल से लेकर सत्यलोक तक चौदह भुवनों पर क्रमशः अधिकार प्राप्त हो जाता है।।54।।
मध्ये मृतश्चेद्भोगान्ते भूमौ तज्जापको भवेत्।
पुनश्च पञ्चलक्षेण ब्रह्मसामीप्यमाप्नुयात्।।55।।
यदि अनुष्ठान पूर्ण होने के पहले बीच में ही साधक की मृत्यु हो जाये तो वह परलोक में उत्तम भोग भोगने के पश्चात पुनः पृथ्वी पर जन्म लेकर पंचाक्षर मंत्र के जप का अनुष्ठान करता है। समस्त लोकों का ऐश्वर्य पाने के पश्चात वह मंत्र को सिद्ध करने वाला पुरुष यदि पुनः पांच लाख जप करे तो उसे ब्रह्मा जी का सामीप्य प्राप्त होता है।।55।।
पुनश्च पञ्चलक्षेण सारुप्यैश्वर्यमाप्नुयात्।
आहत्य शतलक्षेण साक्षाद् ब्रह्मसमो भवेत्।।56।।
पुनः पांच लाख जप करने से सारूप्य नामक ऐश्वर्य प्राप्त होता है सौ लाख जप करने से वह साक्षात ब्रह्मा के समान हो जाता है।।56।।
कार्य ब्रह्मण एवं हि सायुज्यं प्रतिपद्य वै।
यथेष्टं भोगमाप्नोति तद्ब्रह्मप्रलयावधि।।57।।
पुनः कल्पान्तरे वृते ब्रह्मपुत्र:सजायते।
पुनश्च तपसादीप्त: क्रमानमुक्तो भविष्यति।।58।।
पृथ्व्यादिकार्यभूतेभ्यो रोका वै निर्मिता: क्रमात।
पातालादि च सत्यातं ब्रह्मलोकाश्चतुर्दश।।59।।
इस तरह कार्य ब्रह्म (हिरण्यगर्भ) का सायुज्य प्राप्त करके वह उस ब्रह्मा का प्रलय होने तक उस लोक में यथेष्ट भोग भोगता है। फिर दूसरे कल्प का आरंभ होने पर वह ब्रह्मा जी का पुत्र होता है। उस समय फिर तपस्या करके दिव्य तेज से प्रकाशित हो वह क्रमशः मुक्त हो जाता है। पृथ्वी आदि कार्य स्वरुप भूतों द्वारा पाताल से लेकर सत्यलोक पर्यंत ब्रह्मा जी के चौदह लोक क्रमशः निर्मित हुए हैं।।57-58-59।।
सत्यादूर्ध्व क्षमांतं वै विष्णुलोकाश्चतुर्दश।
क्षमा लोके कार्यविष्णुर्वैकुंठे वरपत्तने।।60।।
कार्यलक्ष्म्या महाभोगिरक्षां कृत्वाSधिष्ठति।।
तदूर्ध्वगाश्चशुच्यतां लोकाष्टाविंशति: स्थिता:।।61।।
शुचौ लोके तु कैलासे रुद्रो वै भूत हृत्स्थित:।
षडत्तराश्च पंचाशदहिंसांतास्तदूर्ध्वगा:।।62।।
सत्यलोक से ऊपर क्षमा लोक तक जो चौदह भुवन हैं, वे भगवान विष्णु के लोक हैं। क्षमा लोक से ऊपर शुचि लोक पर्यंत अट्ठाइस भुवन स्थित हैं। शुचि लोक के अंतर्गत कैलाश में प्राणियों का संहार करने वाले रुद्रदेव विराजमान हैं।।60-61-62।।
अहिंसालोकमास्थाय ज्ञानकैलाशके पुरे।
कार्येश्वरस्तिरोभावं सर्वान्कृत्वाधितिष्ठति।।63।।
तदंते कालचक्रं कालातीतस्ततःपरम्।
शिवेनाधिष्ठितस्तत्रः कालश्चक्रेश्वराहृय:।।64।।
माहिषं धर्ममास्थाय सर्वान्कालेन युन्जति।
असत्यश्चाशुचिश्चैव हिंसा चैवाथ निर्घृणा।।65।।
शुचि लोक से ऊपर अहिंसा लोक पर्यंत छप्पन भुवनों की स्थिति है। अहिंसा लोक का आश्रय लेकर जो ज्ञान कैलाश नामक नगर शोभा पाता है, उसमें कार्यभूत महेश्वर सबको अदृश्य करके रहते हैं। अहिंसा लोक के अंत में कालचक्र की स्थिति है। यहां तक महेश्वर के विराट स्वरूप का वर्णन किया गया। और धर्म में स्थित होकरसबको काल से संयुक्त करते हैं ।।63-64-65 ।।
असत्यादिचतुष्पाद: सर्वांश: कामरुपधृक।
नास्तिक्यलक्ष्मीर्दु:संगो वेदबाह्य ध्वनि: सदा।।66।।
क्रोधसंग: कृष्णवर्णो महामहिषवेषवान।
तावन्महेश्वर: प्रोक्तस्तिरोधास्तावदेव हि।।67।।
तदवाक्कर्मभोगो हि तदूर्ध्वं ज्ञानभोगकम।
तदवाक्कर्ममाया हि ज्ञानमायातदूर्ध्वंकम।।68।।
असत्य, हिंसा, निघृण यह असत्यादि चतुष्पाद कामरूपधारी शिवजी का अंश है, नास्तिक्यमयी लक्ष्मी दुःसंग और वेदबाह्य शब्द, क्रोध का संग कृष्णवर्ण यह महामहिष के रूप वाले हैं। इनके अधिपति महेश्वर जी हैं, इन्ही की कृपा से इनका तिरोधान होता है। इसके आगे कर्म भोग,उससे आगे ज्ञान भोग, उसके आगे कर्ममाया आगे ज्ञानमाया 66-67-68।।
मा लक्ष्मीः कर्मभोगो वै याति मायेति कथ्यते।
मा लक्ष्मीर्ज्ञानभोगो वै याति मायेति कथ्यते।।69।।
माया शब्द का अर्थ कहते हैं-(मा) लक्ष्मी ज्ञान का भोग को (या) प्राप्त होती है अर्थात जो कर्मभोग अनुसार लक्ष्मी को प्राप्त कराके मोहित करती है, इसी से उसे माया कहते हैं, अथवा -(मा) लक्ष्मी (या) ज्ञान भोग करने के निमित्त प्राणियों को प्राप्त होती है, इस कारण उसे माया कहते हैं।।69।।
तदूर्ध्वं नित्यभोगो हि तदर्वाङ् नश्वरं विदुः।
तदर्वाक्च तिरोधानंं तदूर्ध्वं न तिरोधानम्।।70।।
तदर्वाक् पाशबन्धो हि तदूर्ध्वं नहि बन्धनम्।
तदर्वाक् परिवर्तन्ते काम्यकर्मानुसारिणः।।71।।
उपरोक्त सीमा से नीचे नश्वर भोग है और ऊपर नित्य भोग। उससे नीचे ही तिरोधन अथवा लय है,.ऊपर नहीं।वहां से नीचे ही कर्म मय पासों द्वारा बंधन होता है। ऊपर बंधन का सदा अभाव है। उससे नीचे ही जीव सकाम कर्मों का अनुसरण करते हुए विभिन्न लोकों और योनियों में चक्कर काटते हैं।।70-71।।
निष्काम कर्मभोगस्तु तदूर्ध्वं परकीर्तितः।
तदर्वाक् परिवर्तंन्ते बिन्दुपूजा परायणाः।।72।।
तदूर्ध्वं हि व्रजन्त्येव निष्कामा लिङ्ग पूजकाः।
तदर्वाक् परिवर्तन्ते शिवान्यसुरपूजकाः।।73।।
शिवैकनिरताये च तदूर्ध्वं सम्प्रयान्ति ते।
तदर्वाग्जीवकोटिः स्यात्तदूर्ध्वं परकोटिकाः।।74।।
उससे ऊपर के लोकोंं में निष्काम कर्म का ही भोग बताया गया है। बिंदु पूजा में तत्पर रहने वाले उपासक वहां से नीचे के लोकों में ही घूमते हैं। उसके ऊपर तो निष्काम भाव से शिवलिंग की पूजा करने वाले उपासक ही जाते हैं जो एकमात्र शिव की उपासना में तत्पर हैं वे उससे ऊपर के लोकों में जाते हैं वहां से नीचे जीव कोटि है और ऊपर ईश्वर कोटि।।72-73-74।।
सांसारिकास्तदर्वाक च मुक्ताः खलु तदूर्ध्वगाः।
तदर्वाक् परिवर्तन्ते प्राकृतद्रव्यपूजकाः।।75।।
तदूर्ध्वं हि व्रजन्त्येते पौरुषद्रव्यपूजकाः।
तदर्वाक्छक्ति लिङ्गं तु शिवलिङ्गं तदूर्ध्वकम्।।76।।
तदर्वागावृतं लिङ्गं तदूर्ध्वं हि निराकृति।
तदर्वाक्कल्पितं लिङ्गं तदूर्ध्वं वै न कल्पितम्।।77।।
नीचे संसारी जीव रहते हैं और ऊपर मुक्त पुरुष। उसके पहले प्राकृतद्रव्यों के पूजक, उसके आगे पौरुष द्रव्य के पूजक जाते हैं, उसके पहले शक्तिलिंग, उसके पीछे शिवलिङ्ग। उसके पहले सगुणलिंग, उसके आगे निर्गुणलिङ्ग, उसके आगे कल्पितलिङ्ग, उसके आगे अकल्पितलिङ्ग।।75-76-77।।
तदर्वाग्बाह्यलिङ्गं स्यादन्तरङ्गं तदूर्ध्वकम्।
तदर्वाक्छक्तिलोका हि शतं वै द्बादिशाधिकम्।।78।।
तदर्वाग्बिन्दुरुपं हि नादरुपं तदुत्तरम्।
तदर्वाक्कर्मलोकस्तु तदूर्ध्वं ज्ञानलोककः।।79।।
नमस्कारस्तदूर्ध्वं मदाहंकारनाशनः।
जनं तस्मात् तिरोधानं प्रत्यायाति न ना यतः।।80।।
उसके आगे आधिभौतिक बाह्यलिङ्ग, उसके आगे आध्यात्मिक अन्तरंगलिङ्ग, उसके आगे एकसौ बारह शक्तिलोक। उसके आगे बिन्दुरुप, उसके आगे नादरुप, उसके आगे कर्मलोक, उसके आगे ज्ञानलोक। उसके आगे नामस्कारलोक मद और अहंकार का नाशक है। उसके आगे जन, उसके आगे तिरोधान जहाँ से फिर आगमन नहीं होता है।।78-79-80।।
ज्ञानशब्दार्थ एवं हि तिरोधान निवारणात्।
तदर्वाक् परिवर्तन्ते ह्याधिभौतिकपूजकाः।।81।।
ज्ञान शब्द का अर्थ यही है कि, तिरोधान (अहंकार) का निवारण करना। आधिभौतिक पूजा वाले लोग उससे नीचे के लोकों में ही चक्कर काटते हैं।।81।।
आध्यात्मिकार्चका एव तदूर्ध्वं सम्प्रयान्ति वै।
तावद्वै वेदिभागं तन्महालोकात्मलिङ्गके।।82।।
जो आध्यात्मिक पूजा करने वाले हैं, वे ही उससे ऊपर को जाते हैं, वे आत्मलिंग महालोक में सुख भोगते हैं।।82।।
प्रकृत्याद्यष्टबन्धोऽपि वेद्यते सम्प्रतिष्ठितः।
एवमेतादृशं ज्ञेयं सर्वं लौकिकवैदिकम्।।83।।
प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, पंचतन्मात्रा इन आठ बन्धनों को वहाँ स्थिति होने वाले जानते है। इस प्रकार से इसे सम्पूर्ण लौकिक और वैदिक जानना।।83।।
अधर्ममहिषारुढ़ं कालचक्रं तरन्ति ते।
सत्यादि धर्मयुक्ता ये शिवपूजापराश्च ये।।84।।
तदूर्ध्वं वृषभो धर्मो ब्रह्मचर्य स्वरुपधृक्।
सत्यादि पादयुक्तस्तु शिवलोकाग्रतः स्थितः।।85।।
क्षमाश्रङ्गः शमश्रोत्रो वेदध्वनि विभूषितः।
आस्तिक्यचक्षुर्निश्वास गुरुबुद्धिमना वृषः।।86।।
क्रियादि वृषभा ज्ञेयाः कारणादिषु सर्वदा।
तं क्रिया वृषभं धर्मं कालातीतोऽधितिष्ठति।।87।।
जो सत्य अहिंसा और धर्मों से युक्त हो भगवान शिव के पूजन में तत्पर रहते हैं, वे कालचक्र को पार कर जाते हैं कालचक्रेश्वर की सीमा तक जो विराट महेश्वर लोक बताया गया है उससे ऊपर वृषभ के आकार में धर्म की स्थिति है। वह ब्रह्मचर्य का मूर्तिमान रूप हैं। उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दया ये चार पद हैं। वह साक्षात शिव लोग के द्वार पर खड़ा है, क्षमा उसके सींग हैं, शम कान हैं। वह वेद ध्वनि रूपी शब्द से विभूषित है। आस्तिकता उसके दोनों नेत्र हैं। विश्वास ही उसकी श्रेष्ठ बुद्धि एवं मन है। क्रिया आदि धर्म रूपी जो वृषभ हैं, वे कारण आदि में स्थित हैं ऐसा जानना चाहिए। उस क्रिया रूप वृषभाकार धर्म पर कालातीत शिव आरुढ़ होते हैं।।84-85-86-87।।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां स्वस्वायुर्दिनमुच्यते।
तदूर्ध्वं न दिनं रात्रिर्नं जन्ममरणादिकम्।।88।।
पुनः कारण सत्यान्ताः कारणब्रह्मणस्तथा।
गन्धादिभ्यस्तु भूतेभ्यस्तदूर्ध्वं निर्मिताः सदा।।89।।
सूक्ष्मगन्धस्वरुपा हि स्थिता लोकाश्चतुर्दश।
पुनः कारण। विष्णोर्वै स्थिता लोकाश्चतुर्दश।।90।।
पुनः कारण रुद्रस्य लोकाष्टाविंशका मताः।
पुनश्च कारणेशस्य षट्पञ्चाशत्तदूर्ध्वगाः।।91।।
ब्रह्मा विष्णु और महेश्वर की जो अपनी-अपनी आयु है उसी को दिन कहते हैं। जहां धर्म रूपी वृषभ की स्थिति है, उससे ऊपर न दिन है न रात्रि। वहाँ जन्म मरण आदि भी नहीं है। वहां फिर से कारण स्वरूप ब्रह्मा के कारण सत्यलोक पर्यंत चौदह लोक स्थित हैं, जो पाञ्चभौतिक गन्ध आदि से परे हैं। उनकी सनातन स्थिति है। सूक्ष्म गंध ही उनका स्वरूप है। उनसे ऊपर फिर कारण स्वरूप विष्णु के चौदह लोक स्थित हैं। उनसे भी ऊपर फिर कारण रूपी रुद्र के अट्ठाइस लोकों की स्थिति मानी गई है। फिर उनसे भी ऊपर कारणेश शिव के छप्पन लोक विद्यमान हैं।।88-89-90-91।।
ततः परं ब्रह्मचर्य लोकाख्यं शिवसम्मतम्।
तत्रैव ज्ञान कैलाशे पञ्चावरणसंयुते।।92।।
पञ्चमण्डलसंयुक्तं पञ्चब्रह्मकलान्वितम्।
आदिशक्ति समायुक्तमादिलिङ्गंं तु तत्र वै।।93।।
शिवालयमिदं प्रोक्तं शिवस्य परमात्मनः।
परशक्त्या समायुक्तस्तत्रैव परमेश्वरः।।94।।
सृष्टि स्थितिश्च संहारस्तिरोभावोऽप्यनुग्रहः।
पञ्चकृत्यप्रवीणोऽसौ सच्चिदानन्दविग्रहः।।95।।
तदनन्तर शिवसम्मत ब्रह्मचर्य लोक है और वही पांच आवरणों से युक्त ज्ञानमय कैलाश है, जहां पांच मंडलों, पांच ब्रह्म कलाओं और आदिशक्ति से संयुक्त आदिलिङ्ग प्रतिष्ठित है।उसे परमात्मा शिव का शिवालय कहा गया है। वहीं पराशक्ति से युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं। वे सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह इन पांचों कृत्यों में प्रवीण हैं। उनका श्री विग्रह सच्चिदानंद स्वरूप है।।92-93-94-95।।
ध्यानधर्मः सदा यस्य सदानुग्रहतपरः।
समाध्यासनमासीनः स्वात्मारामो विराजते।।96।।
तस्य सन्दर्शनं साध्यं कर्मध्यानादिभिः क्रमात्।
नित्यादिकर्मयजनाच्छिवकर्ममतिर्भवेत्।।97।।
क्रियादिशिवकर्मभ्यः शिवज्ञानं प्रसाधयेत्।
तद्दर्शनगताः सर्वे मुक्ता एव न संशयः।।98।।
वे सदा ध्यान रुपी धर्म में ही स्थित रहते हैं और सदा सब पर अनुग्रह किया करते हैं। वे स्वात्माराम हैं और समाधि रूपी आसन पर आसीन हो नित्य विराजमान होते हैं। कर्म एवं ध्यान आदि का अनुष्ठान करने से क्रमशः साधनपथ में आगे बढ़ने पर उनका दर्शन साध्य होता है। नित्य नैमित्तिक आदि कर्मों द्वारा देवताओं का यजन करने से भगवान् शिव के समाराधान कर्म में मन लगता है। क्रिया आदि जो शिव सम्बन्धी कर्म हैं, उनके द्वारा शिवज्ञान सिद्ध करे। जिन्होंने शिवतत्त्व का साक्षात्कार कर लिया है अथवा जिनपर शिव की कृपादृष्टि पड़ चुकी है, वे सब मुक्त ही हैं, इसमें संशय नहीं है।।96-97-98।।
मुक्तिरात्मस्वरूपेण स्वात्माराम त्वमेव हि।
क्रियातपोजपज्ञानध्यान धर्मेषु सुथितः।।99।।
शिवस्य दर्शनं लब्ध्वा यथारविः स्वात्माराम त्वमेव हि।
स्वकिरणादशुद्धिमपनेष्यति।।100।।
कृपाविचक्षणः शम्भु शम्भु रज्ञानमपनेष्यति।
अज्ञानविनिवृत्तौ तु शिवज्ञानं प्रवर्तते।।101।।
आत्मस्वरूप से जो स्थिति है, वही मुक्ति है । एकमात्र अपने आत्मा में रमण या आनंद का अनुभव करना ही मुक्ति का स्वरूप है। जो पुरुष क्रिया,तप, जप,ज्ञान और ध्यान रूपी धर्मों में भली-भांति स्थित है,वह शिव का साक्षात्कार करके स्वात्मारामत्व रूप मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है। जैसे सूर्यदेव अपनी किरणों से अशुद्धि को दूर कर देते हैं उसी प्रकार कृपा करने में कुशल भगवान शिव अपने भक्त के अज्ञान को मिटा देते हैं। अज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर शिवज्ञान स्वतः प्रकट हो जाता है।।99-100-101।।
शिवज्ञानात्स्वस्वरुपमात्मारामत्वमेष्यति।
आत्मारामत्वसंसिद्धौ कृतकृत्यो भवेन्नरः।।102।।
शिवज्ञान से अपना विशुद्ध स्वरूप आत्मारामत्व प्राप्त होता है और आत्मारामत्व की सम्यक सिद्धि हो जाने पर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है।।102।।
पुनश्च शतलक्षेण ब्रह्मणः पदमाप्नुयात्।
पुनश्च शतलक्षेण विष्णोःपदमवाप्नुयात्।103।।
सौ लाख जपने से ब्रह्मपद और फिर सौ लाख जपने से विष्णुजी के पद की प्राप्ति होती है, इसमें संदेह नहीं है।।103।।
पुनश्च शतलक्षेण रुद्रस्य पदमाप्नुयात्।
पुनश्च शतलक्षेण ऐश्वर्यं पदमाप्नुयात्।।104।।
फिर सौ लाख जपने से रुद्र पद और फिर सौ लाख जपने से ऐश्वर्य पद की प्राप्ति होती है।।104।।
पुनश्चैवंविधेनैव जपेन सुसमाहितः।
शिवलोकादिभूतं हि कालचक्रमवाप्नुयात्।।105।।
कालचक्रं पञ्चचक्रमेकैकेन क्रमोत्तरे।
सृष्टिमोहौ ब्रह्मचक्रं भोगमोहौ तु वैष्णवम्।।106।।
कोपमोहौ रौद्रचक्रं भ्रमणं चैश्वरं विदुः।
शिवचक्रं ज्ञानमोहौ पञ्चचक्रं विदुर्बुधाः।।107।।
फिर सावधान होकर इसी प्रकार का जप करने से शिवलोकादि से प्रादुर्भूत हुए कालचक्र को, फिर काल पंचचक्र को क्रम से प्राप्त होता है। सृष्टि और मोह, ब्रह्मचक्र, भोग और मोह, वैष्णवचक्र, कोप और मोह रौद्रचक्र और भ्रमण नाम ईश्वरचक्र, ज्ञान और मोह, शिवचक्र इस प्रकार यह पाँच चक्र कहलाते हैं, ऐसा पंडितजन कहते हैं।।105-106-107।।
पुनश्च दशकोट्या हि कारणब्रह्मणः पदम्।
पुनश्च दशकोट्या हि तत्पदैश्वर्यमाप्नुयात्।।108।।
फिर दश करोड़ के जप से कारण ब्रह्म की प्राप्ति होती है। फिर दश करोड़ के जप से तत्पद ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।।108।।
एवं क्रमेण विष्ण्वादेः पदं लब्ध्वा महौजसः।
क्रमेण तत्पदैश्वर्यं लब्ध्वा चैव महात्मनः।।109।।
इस प्रकार क्रम से विष्णुजी आदि के पद को प्राप्त होकर क्रम से उन महात्माओं के ऐश्वर्य पद को प्राप्त होता है।।109।।
शतकोटिमनुं जप्त्वा पञचोत्तरमतन्द्रितः।
शिवलोकमवाप्नोति पञ्चमावरणाद् बहिः।।110।।
फिर जितेंद्रिय होकर एक सौ पाँच करोड़ जप करके पाँच आवरणों से बाहर शिवलोक को प्राप्त हो जाता है।।110।।
राजसं मण्डपं तत्र नन्दिसंस्थानमुत्तमम्।
तपोरूपश्च वृषभस्तत्रैव परिदृश्यते।।111।।
वहाँ राजमण्डप है और उत्तम नंदी स्थान है। तप रूपी बृषभ भी वहीं दीखता है।।111।।
सद्योजातस्य तत्स्थानं पञ्चमावरणं परम्।
वामदेवस्य च स्थानं चतुर्थावरणं पुनः।।112।।
वह पाँच आवरणों से परे सद्योजात का स्थान है, चौथे आवरण में वामदेव का स्थान है।।112।।
अघोरनिलयं पश्चात् तृतीयावरणं परम्।
पुरूषस्यैव साम्बस्य द्वितीयावरणं शुभम्।।113।।
पीछे तीसरे आवरण से परे अघोर का स्थान है, साम्बपुरुष का स्थान दूसरे आवरण में है।।113।।
ईशानस्य परस्यैव प्रथमावरणं ततः।
ध्यानधर्मस्य च स्थानं पञ्चमं मण्डपं ततः।।114।।
ईशान पर का स्थान प्रथमावरण कहलाता है, पीछे ध्यानधर्म का स्थान पांचवा मण्डप है।।114।।
बलिनाथस्य संथानं तत्र पूर्णिमृतप्रदम्।
चतुर्थं मण्डपं पश्चाच्चन्द्रशेखर मूर्तिमत्।।115।।
बलिनाथ का शिवजी का स्थान पूर्ण अमृत का देने वाला है, यह पांचवा मण्डप है, पीछे चौथा मण्डप चंद्रशेखर का मूर्तियुक्त है।।115।।
सोमस्कन्दस्य च स्थानंं तृतीयं मण्डपं परम्।
द्वितीयं मण्डपं नृत्य मण्डपं प्राहुरास्तिकाः।।116।।
सोमस्कन्द का स्थान तृतीय मण्डप और दुसरा नृत्यमण्डप आस्तिक पुरुषों द्वारा कहा गया है।।116।।
प्रथमं मूलमायायाः स्थानं तत्रैव शोभनम्।
तत परं गर्भगृहं लिङ्ग स्थानं परं शुभम्।।117।।
प्रथम मण्डप में मूलमाया का सुंदर स्थान है, उसके परे गर्भगृह, पीछे लिङ्ग का स्थान है।।117।।
नन्दिसंस्थानतः पश्चान्त विदुः शिववैभवम्।
नन्दीश्वरो बहिस्तिष्ठन्पञ्चाक्षरमुपासते।।118।।
उसके पीछे नंदी का स्थान है, नंदीस्थान के आगे शिववैभव को कोई नहीं जानता, वहाँ नंदिकेश्वर जी बाहर स्थित होकर शिवपंचाक्षर मंन्त्र की उपासना करते हैं।।118।।
एवं गुरुक्रमाल्लब्धं नन्दीशाच्च मया पुनः।
ततः परं स्वसंवेद्यं शिवेनैवानुभावितम्।।119।।
इस प्रकार सनत्कुमार जी और नंदीश्वर जी के संवाद को गुरुक्रम से मैंने जाना है। इसके आगे शिवजी से अनुभावित परम स्थान परमानन्द होकर स्वयं जाना जाता है।।119।
शिवस्य कृपया साक्षाच्छिवलोकस्य वैभवम्।
विज्ञातुं शक्यते सर्वैर्नान्यथेत्याहुरास्तिकाः।।120।।
ऐसा महात्माओं ने कहा है कि शिवलोक का वैभव साक्षात शिवजी की कृपा से ही जाना जाता है और किसी प्रकार से नहीं।।120।।
एवं क्रमेण मुक्ताः स्युर्ब्राह्मणा वै जितेन्द्रियाः।
अन्येषां च क्रमं वक्ष्ये गदतः श्रृणुतादरात्।।121।।
इस प्रकार जितेन्द्रिय ब्राह्मण क्रम से मुक्त हो जाते हैं। अब आप दूसरे क्षत्रियादिकों का क्रम सुनिये।।121।।
गुरुपदेशाज्जाप्यं वै ब्राह्मणानां नमोऽन्तकम्।
पञ्चलक्षमायुष्यं प्रजपेद्विधिः।।122।।
ब्राह्मणों को गुरु के उपदेश से अन्त में नमः लगाकर पाँच लाख जप करना चाहिये, इस प्रकार करने से मनुष्य की आयु बढ़ती है।।122।।
स्त्रीत्वापनयनार्थं तु पञ्चलक्षं जपेत्पुनः।
मन्त्रेण पुरुषो भूत्वा क्रमान्मुक्तो भवेद् बुधः।।123।।
स्त्री इसे पाँच लाख जपकर पुरुष रूप को प्राप्त होकर क्रम से मुक्त हो जाती है अर्थात पाँच लाख जपने से स्त्रीभाव दूर हो जाता है।।123।।
क्षत्रिय पञ्चलक्षेण क्षत्रत्वमपनेष्यति।
पुनश्च पञ्चलक्षेण क्षत्रियो ब्राह्मणो भवेत्।।124।।
पाँच लाख से क्षत्रिय का क्षत्रीपन दूर होकर फिर पाँच लाख जपने वह ब्राह्मण के तुल्य होता है वा परजन्म में ब्राह्मण हो जाता है।।124।।
मन्त्रसिद्धिर्जपाच्चैव क्रमान्मुक्तो भवेन्नरः।
वैश्यस्तु पञ्चलक्षेण वैश्यत्वमपनेष्यति।।125।।
फिर जप करने से मंत्रसिद्धि और क्रम से वह पुरुष मुक्त हो जाता है, पाँच लाख जप से वैश्य वैश्यत्व से छूट जाता है।।125।।
पुनश्च पञ्चलक्षेण मन्त्रक्षत्रिय उच्यते।
पुनश्च पञ्चलक्षेण क्षत्रत्वमपनेष्यति।।126।।
फिर पाँच लाख मंन्त्र जपने से वह मंन्त्र क्षत्रिय कहलाता है। फिर पाँच लाख मंन्त्र जपने से क्षत्रियत्व से छूटता है।।126।।
पुनश्च पञ्चलक्षेण मन्त्रब्राह्मण उच्यते।
शूद्रश्चैव नमोऽन्तेन पञ्चविंतिलक्षतः।।1127।।
मन्त्रविप्रत्वमापद्य पश्चाच्छुद्धो भवेद् द्विजः।
नारी वाथ नरो वाथ ब्राह्मणो वान्य एव वा।।128।।
फिर पाँच लाख मंन्त्र जपने से वह मंन्त्रब्राह्मण कहलाता है, इसी प्रकार शूद्र अन्त में नमः लगाकर पच्चीस लाख मंन्त्र जपे तो मंन्त्र ब्राह्मणता को प्राप्त होकर शुद्ध हो जाता है। स्त्री, पुरुष, ब्राह्मण अथवा अन्य कोई हो, सब शुद्ध हो जाते हैं।।127-128।।
नमोऽन्तं वा नमः पूर्वमातुरः सर्वदा जपेत्।
तत्र स्त्रीणां तथैवोह्य गुरुर्निर्दर्शयेत्क्रमात्।।129।।
आतुर पुरुष नमः चाहे आदि में लगाकर जप करे। गुरु को उचित है कि स्त्री और शूद्र को प्रणव रहित मंन्त्र का उपदेश करे।।129।।
साधकः पञ्चलक्षान्ते शिवप्रीत्यर्थमेव हि।
महाभिषेक नैवेद्यं कृत्वा भक्तांश्च पूजयेत्।।130।।
साधक जब पाँच लाख जप कर चुके तो शिवजी की प्रीति के निमित्त महाभिषेक और नैवेद्य करके शिवजी के भक्तों का पूजन करे।।130।।
पूजया शिवभक्तस्य शिवः प्रीततरो भवेत्।
शिवस्य शिवभक्तस्य भेदो नास्ति शिवो हि सः।।131।।
शिवभक्त की पूजा करने से शिवजी महाप्रसन्न होते हैं। शिवजी में और शिवभक्त में कुछ भेद नहीं है। वह साक्षात शिवस्वरूप ही होते हैं।।131।।
शिवस्वरूप मन्त्रस्य धारणाच्छिव एव हि।
शिवभक्तशरीरे हि शिवे तत्परमो भवेत्।।132।।
शिव और उनके भक्त में कोई भेद नहीं है। वह साक्षात शिव स्वरूप ही है। शिव स्वरूप मंत्र को धारण करके वह शिव ही हो गया रहता है। शिव भक्त का शरीर शिव रूप ही है। अतः उसकी सेवा में तत्पर रहना चाहिए।।132।।
शिवमक्ताः क्रियाः सर्वा वेद सर्वक्रियां विदुः।
यावद्यावच्छिवं मन्त्रं येन जप्तं भवेत्क्रमात्।।133।।
तावद्वै शिवसान्निध्यं तस्मिन्देहे न संशयः।
देवीलिङ्गंं भवेद् रुपं शिवभक्तस्त्रियास्तथा।।134।।
जो शिव के भक्त हैं वे लोक और वेद की सारी क्रियाओं को जानते हैं। जो क्रमशः जितना जितना शिव मंत्र का जप कर लेता है, उसके शरीर को उतना ही शिव का सामीप्य प्राप्त होता जाता है, इसमें संशय नहीं है। शिवभक्त स्त्री का रूप देवी पार्वती का ही स्वरूप है।।133-134।।
यावन्मन्त्रं जपेद्देव्यास्तावत्सान्निध्यमस्ति हि।
शिवं सम्पूजयेद्धीमान्स्वयं वै शब्दरुपभाक्।।135।।
स्वयं चैव शिवो भूत्वा परां शक्तिं प्रपूजयेत।
शक्तिं वेरं च लिङ्गंं च ह्यालेख्या मायया यजेत्।।136।।
वह जितना मंत्र जपती है उसे उतना ही देवी का सांनिध्य प्राप्त होता जाता है। साधक स्वयं शिव स्वरूप होकर परा शक्ति का पूजन करे। शक्ति, वेर तथा शिवलिंग का चित्र बनाकर अथवा मिट्टी आदि से इनकी आकृति का निर्माण करके प्राण प्रतिष्ठा पूर्वक निष्कपट भाव से इनका पूजन करे।।135-136।।
शिवलिङ्गंं शिवं मत्वा स्वात्मानं शक्तिरुपकम्।
शक्तिलिङ्गंं च देवीं च मत्वा स्वं शिवरुपकम्।।137।।
शिवलिङ्गंं नाद रुपं बिन्दु रुपं सशक्तिकम्।
उपप्रधान भावेन अन्योन्यासक्त लिङ्गकम्।।138।।
पूजयेच्च शिवं शक्तिं स शिवोमूलभावनात्।
शिवभक्ताञ्छिव मन्त्रेरुपकाञ्छिव रुपकान्।।139।।
शिवलिंग को शिव मानकर अपने को शक्ति रूप समझकर, शक्ति लिंग को देवी मानकर और अपने को शिव रूप समझकर, शिवलिंग को नाद रुप तथा शक्ति को बिंदुरुप मानकर परस्पर सटे हुए शक्ति लिंग और शिवलिंग के प्रति उपप्रधान और प्रधान की भावना रखते हुए जो शिव और शक्ति का पूजन करता है, वह मूल रूप की भावना करने के कारण शिवरूप ही है। शिव भक्त शिव मंत्र रूप होने के कारण शिव के ही स्वरूप हैं।।137-138-139।।
षोडशैरुपचारैश्च पूजयेदिष्टमाप्नुयात्।
येन शुश्रूषणाद्यैश्च शिवभक्तस्य लिङ्गिनः।।140।।
जो सोलह उपचारों से उनकी पूजा करता है, उसे अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है। जो शिवलिंग उपासक शिव भक्त की सेवा आदि करके उसे आनंद प्रदान करता है। उस विद्वान पर भगवान बड़े प्रसन्न होते हैं।।140।।
आनन्दं जनयेद्विद्वाञ्छिवः प्रीततरो भवेत्।
शिवभक्तान्सपत्नीकान्पत्न्या सह सदैव तत्।।141।।
पूजयेद्भोजनाद्यैश्च पञ्च वा दश वा शतम्।
धने देहे च मन्त्रे च भावनायामवञ्चकः।।142।।
विद्वान को आनंद की प्राप्ति होती है और शिवजी बड़े प्रसन्न होते हैं। पांच, दस या सौ सपत्नीक शिव भक्तों को बुलाकर भोजन आदि के द्वारा पत्नी सहित उनका सदैव समादर करे। धन में, देह में और मंत्र में शिव भावना रखते हुए उन्हें शिव और शक्ति का स्वरूप जानकर निष्कपट भाव से उनकी पूजा करे।141-142।।
शिवशक्तिस्वरुपेण न पुनर्जायते भुवि।
नाभेरधो ब्रह्मभागमाकण्ठं विष्णुभागकम्।।143।।
ऐसा करने वाला पुरुष इस भूतल पर फिर जन्म नहीं लेता। नाभि से नीचे ब्रह्मा जी का और नाभि से कण्ठ पर्यन्त विष्णुजी का स्थान है।।143।।
मुखं लिङ्गमिति प्रोक्तं शिवभक्त शरीरकम्।
मृतान्दाहादियुक्तान्वा दाहादिरहितान्मृतान्।।144।।
उद्दिश्य पूजयेदादिपितरं शिवमेव हि।
पूजां कृत्वादिमातुश्च शिवभक्तांश्च पूजयेत्।।145।।
पितृलोकं समासाद्य क्रमान्मुक्तो भवेन्मृतः।
क्रियायुक्तदशभ्यश्च तपोयुक्तो विशिष्यते।।146।।
शिवभक्त का मुख शिवलिङ्ग स्वरूप है, इस प्रकार शिवभक्त का शरीर शिवस्वरूप है। मृत हुए दाहादि युक्त अथवा दाहादि रहित मृतक हुए पितरों के उद्देश्य से आदि पितर शिवजी का पूजन करें, पश्चात आदिमाता शिवशक्ति का पूजन करके पितृलोक को प्राप्त होकर मर कर क्रम से मुक्त हो जाता है। कृपा युक्त दस ब्राह्मणों में से एक अधिक तप करने वाला विशेष है।।144 -145 - 146।।
तपोयुक्तशतेभ्यश्च जपयुक्तो विशिष्यते।
जपयुक्त सहस्त्रेभ्यः शिवज्ञानी विशिष्यते।।147।।
सौ तपस्वियों से एक जप करने वाला श्रेष्ठ है, सहस्र जप करने वालों से एक ज्ञानी श्रेष्ठ है।।147।।
शिववज्ञानिषु लक्षेषु ध्यानयुक्तो विशिष्यते।
ध्यानयुक्तेषु कोटिभ्यः समाधिस्थो विशिष्यते।।148।।
लाख शिवज्ञानियों से ध्यानयोगी श्रेष्ठ है, करोड़ ध्यानयोगियों से समाधिवाला श्रेष्ठ है।।148।।
उत्तरोत्तरवैशिष्ट्यात्पूजाया मुत्तरोत्तरम्।
फलं वैशिष्ट्यरुपं च दुर्विज्ञेयं मनीषिभिः।।149।।
इनकी उत्तरोत्तर श्रेष्ठता से और उत्तरोत्तर पूजन से जो फल मिलता है, उसे विद्वान भी नहीं जान सकते।।149।।
तस्माद्वै शिवभक्तस्य माहात्म्यं वेत्ति को नरः।
शिवशक्त्योः पूजनं च शिवभक्तस्य पूजनम् ।।150।।
इस कारण शिवभक्त की महिमा को कौन मनुष्य जान सकता है। शिवभक्त का पूजन ही शिव और शक्ति का पूजन है।।150।।
कुरुते यो नरो भक्त्या स शिवः शिवमेधते।
य इमं पठतेऽध्यायमर्थवद्वेद सम्मतम्।।151।।
शिवज्ञानी भवेद्विप्रः शिवेन सह मोदते।
श्रावयेच्छिव भक्तांश्च विशेषज्ञो मुनीश्वराः।।152।।
शिवप्रसादसिद्धिः स्याच्छिवस्य कृपया बुधाः।।153।।
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक यजन करता है, वह शिवरूप होकर शिवजी को प्राप्त होता है। जो इस वेदसम्मत अध्याय को अर्थ सहित पढ़ता है वह ब्राह्मण शिवज्ञानी होकर शिवजी के संग आनन्द करता है। हे मुनीश्वरो विशेष जानने वाले को यह अध्याय शिवभक्तों को सुनाना चाहिये। हे ब्राह्मणो उसे शिवजी के प्रसाद और कृपा से सिद्धि हो जाती है।।151 152 153।।
इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां प्रणवपञ्चाक्षरमन्त्रमाहात्म्य वर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः।।17।।
जय बाबा की -बाबाचरण दास
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