प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथैकविंशोऽध्यायः
ऋषय ऊचुः
सूत सूत महाभाग व्यास शिष्य नमोस्तु ते।
सम्यगुक्तं त्वया तात पार्थिवार्चा विधानकम्।।1।।
कामना भेदमाश्रित्य सङ्ख्यां ब्रूहि विधानतः।
शिवपार्थिवलिङ्गानां कृपया दीनवत्सल।।2।।
ऋषि बोले-
हे महाभाग सूतजी! हे व्यास शिष्य! आपको नमस्कार है। आपने भली प्रकार पार्थिवपूजा का विधान कहा है। अब आप कामना भेद के अनुसार शिवजी के पार्थिव लिङ्ग की पूजा का वर्णन कीजिये। हे दीन वत्सल!आप हमारे ऊपर कृपा कीजिये।।1-2।।
सूत उवाच
श्रृणुध्वमृषयः सर्वे पार्थिवार्चा विधानकम्।
यस्यानुष्ठानमात्रेण कृतकृत्यो भवेन्नरः।।3।।
अकृत्वा पार्थिवं लिङ्गं योऽन्यदेवं प्रपूजयेत्।
वृथा भवति सा पूजा दमदानादिकं वृथा।।4।।
सूत जी बोले-हे समस्त ऋषियो ! पार्थिवपूजा का विधान सुनिये, जिसके अनुष्ठान से यह प्राणी कृतकृत्य जो जाता है। बिना पार्थिवलिङ्ग की पूजा किये जो दूसरे देवताओं की पूजा करता है, उसकी वह पूजा और दम-दानादिक वृथा हो जाते हैं।।3-4।।
सङ्ख्या पार्थिवलिङ्गानां यथाकामं निगद्यते।
सङ्ख्या सद्यो मुनिश्रेष्ठ निश्चयेन फलप्रदा।।5।।
पार्थिवलिङ्ग की संख्या कामना के अनुसार कही गयी है। हे मुनिश्रेष्ठो! विशेष करके यह संख्या निश्चय से अधिक फल देने वाली है।।5।।
प्रथमा वाहनं तत्र प्रतिष्ठा पूजनं पृथक।
लिङ्गाकारं समं तत्र सर्वं ज्ञेयं पृथक्पृथक।।6।।
पहले आवाहन, फिर प्रतिमा पूजन प्रतिष्ठा करनी चाहिये। लिंगाकार के समान पृथक पृथक पूजन करना चाहिये।।।।6।।
विद्यार्थी पुरुषः प्रीत्या सहस्त्रमितपार्थिवम्।
पूजयेच्छिवलिङ्गं हि निश्चयात्तत्फलप्रदम्।।7।।
विद्यार्थी पुरुष प्रसन्न होकर सहस्र पार्थिवलिङ्ग वनाकर पूजे तो निश्चय ही वह पूजन फल देने वाला होगा।।7।।
नरःपार्थिवलिङ्गानां धनार्थी च तदर्धकम्।
पुत्रार्थी सार्धसाहस्त्रं वस्त्रार्थी शतपञ्चकम्। ।8।।
धन की इच्छा वाला पांचसौ, पुत्रार्थी पन्द्रह सौ, वस्त्रार्थी पांच सौ पार्थिव शिवलिङ्गों का पूजन करे।।8।।
मोक्षार्थी कोटिगुणितं भूकामश्च सहस्त्रकम्।
दयार्थी च त्रिसाहस्त्रं तीर्थार्थी द्विसहस्त्रकम्।।9।।
सुहृत्कामी त्रिसाहस्त्रं वश्यार्थी शतमष्टकम्।
मारणार्थी सप्तशतं मोहनार्थी शताष्टकम्।।10।।
उच्चाटनपरश्चैव सहस्त्रं च यथोक्तः।
स्तम्भनार्थी सहस्त्रं तु द्वेषणार्थी तदर्धकम्।।11।।
निगडान्मुक्तिकामस्तु सहस्त्रं सार्धमुत्तमम्।
महाराजभये पञ्चशतं ज्ञेयं विचक्षणैः।।12।।
मोक्ष की इच्छा वाला एक करोड़, पृथ्वी की कामना वाला एक सहस्त्र,दया की इच्छा वाला तीन सहस्त्र, तीर्थ की इच्छा वाला दो सहस्त्र,सुहृदय की इच्छा वाला तीन सहस्त्र, वशीकरण की इच्छा वाला आठ सौ, मारण की इच्छा वाला सात सौ, मोहन की इच्छा वाला आठ सौ, उच्चाटन में एक सहस्त्र, स्तंभन में एक सहस्त्र, द्वेष में पाँच सौ, बंधन से छूटने की इच्छा वाला डेढ़ सहस्त्र, महाराज से भय होने में पाँच सौ पार्थिव शिवलिङ्ग पूजन करे।।।9-10-11-12।।
चौरादिसंकटे ज्ञेयं पार्थिवानां शतद्वयम्।
डाकिन्यादिभये पञचशतमुक्तं च पार्थिवम्।।13।।
दारिद्र्ये पञ्साहस्त्रमयुतं सर्वकामदम्।
अथ नित्यविधिं वक्ष्ये श्रृणु्ध्वं मुनिसत्तमाः।।14।।
एकंपापहरं प्रोक्तं द्विलिंङ्गं चार्थसिद्धिदम्।
त्रिलिंङ्गं सर्वकामानां कारणं परमीरितम्।।15।।
उत्तरोत्तरमेवं स्यात्पूर्वोक्त गणनावधि।
*मतान्तरमथो वक्ष्ये सङ्ख्यायां मुनिभेदतः।।16।।
विद्वान पुरुष चोर और राजा की भय में दो सौ, डाकिनी आदि के भय में पांच सौ, दरिद्रता में पांच सहस्र, सब काम में दस सहस्र शिवलिङ्ग पूजे। हे मुनि श्रेष्ठो! अब मैं नित्य विधि कहता हूँ आप सुनिए एकलिंग पाप हारी, दो अर्थ सिद्ध करने वाले, तीन लिंग शुभकामनाओं के परम कारण कहे हैं। यह पूर्वोक्त गणना की विधि उत्तरोत्तर जाननी है। संख्या में मुनियों के भेद से मतान्तर का वर्णन करते हैं।।13-14-15-16।।
लिङ्गानामयुतं कृत्वा पार्थिवानां सुबुद्धि मान्।
निर्भयो हि भवन्नूनं महाराजभयं हरेत्।।17।।
कारागृहादिमुक्त्त्यर्थमयुतम् कारयेद् बुधः।
डाकिन्यादिभये सप्तसहस्त्रं कारयेत्तथा।।18।।
अपुत्रः पञ्चपश्चात् सहस्त्राणि प्रकारयेत्।
लिङ्गानामयुतेनैव कन्यकासन्ततिं लभेत्।।19।।
लिङ्गानामयुतेनैव विष्ण्वाद्यैश्वर्यमाप्नुयात्।
लिङ्गानाम प्रयुतेनैव ह्यतुलां श्रियमाप्नुयात्।।20।।
बुद्धिमान पुरूष दस सहस्त्र पार्थिव शिवलिङ्ग बनाकर निर्भय होकर महाराज के भय से दूर होता है। कारागृह से छूटने के निमित्त दस सहस्त्र पार्थिव शिवलिङ्ग पूजन करे। डाकिनी आदि के भय में सात सहस्त्र पार्थिव शिवलिङ्ग बनावे। पुत्र के निमित्त पचपन सहस्त्र पार्थिव शिवलिङ्ग का पूजन करें। दस सहस्त्र पार्थिव शिवलिङ्ग के पूजन से कन्या संतान होती है। दस सहस्त्र पार्थिव शिवलिङ्ग के पूजन से विष्णु जी के ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा दस सहस्त्र पार्थिव शिवलिङ्ग लिंगों के पूजन से अतुल ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।।17-18-19-20।।
कोटिमेकां तु लिङ्गानां यः करोति नरो भुवि।
शिव एव भवेत्सोऽपि नात्र कार्या विचारणा।।21।।
जो मनुष्य एक कोटि शिवलिङ्ग का पूजन करता है, वह शिवरूप हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है।।21।।
अर्चा पार्थिव लिङ्गानां कोटियज्ञ फलप्रदा।
भुक्तिदा मुक्तिदा नित्यं ततः कामार्थिनां नृणाम्।।22।।
पार्थिव शिवलिङ्ग की पूजा कोटि यज्ञों के फल देने वाली है। कामार्थी मनुष्यों को नित्य भुक्ति मुक्ति देने वाली है।।22।।
विना लिङ्गार्चनं यस्य कालो गच्छति नित्यशः।
महाहानिर्भवेत्तस्य दुर्वृत्तस्य दुरात्मनः।।23।।
जिसका समय लिङ्गार्चन के बिना व्यतीत होता है, उस दुरात्मा दुर्वृति की मानहानि होती है।।23।।
एकतः सर्वदानानि व्रतानि विविधानि च।
तीर्थानि नियमा यज्ञा लिङ्गार्चा चैकतः स्मृता।।24।।
एक ओर तो सब दान और व्रत हैं तथा तीर्थ, नियम और यज्ञ हैं और एक ओर शिवलिङ्ग पूजन है।।24।।
कलौ लिङ्गार्चनं श्रेष्ठं यथा लोके प्रदृश्यते।
तथान्यन्नास्ति शास्त्राणामेष सिद्धान्त निश्चयः।।25।।
पार्थिव शिवलिङ्ग की पूजा कोटि कोटि यज्ञों का फल देने वाली है। कलियुग में लोगों के लिए शिवलिङ्ग पूजन जैसा श्रेष्ठ दिखाई देता है वैसा दूसरा कोई साधन नहीं है। यह समस्त शास्त्रों का निश्चित सिद्धांत है।।25।।
भुक्ति मुक्तिप्रदं लिङ्गं विविधापन्निवारणम्।
पूजयित्वानरो नित्यं शिवसायुज्यमाप्नुयात्।।26।।
शिवलिङ्ग भोग और मोक्ष देने वाला है तथा अनेक विपत्तियों का निवारण करता है। नित्य शिवलिङ्ग पूजन करके मनुष्य शिवजी के सायुज्य को प्राप्त होता है।।26।।
शिवनाममयं लिङ्गं नित्यं पूज्यं महर्षिभिः।
यतश्च सर्व लिङ्गेषु तस्मात्पूज्यं विधानतः।।27।।
शिवनाममय शिवलिङ्ग की पूजा महर्षियों को नित्य करनी चाहिये, जैसा कि शिवलिङ्ग में विधान से पूजन कहा गया है।।27।।
उत्तमं मध्यमं नीचं त्रिविधं लिङ्गमीरितम्।
मानतो मुनिशार्दूलास्तच्छृणुध्वं वदाम्यहम्।।28।।
शिवलिङ्ग तीन प्रकार के कहे गए हैं उत्तम, मध्यम और अधम। यह इसका मान है। हे मुनिजनो ! इसका प्रमाण श्रवण कीजिये।।28।।
चतुरङ्गुलमुशच्छृयं रम्यं वेदिकया युतम्।
उत्तमं लिङ्गमाख्यातं मुनिभिः शास्त्रकोविदैः।।29।।
शास्त्र जानने वालों ने मनोहर वेदी से युक्त चार अंगुल ऊँचा शिवलिङ्ग उत्तम कहा है।।29।।
तदर्द्धं मध्यमंप्रोक्तं तदर्द्धंमधमं स्मृतम्।
इत्थं त्रिविधमाख्यातमुत्तरोत्तरतः परम्।।30।।
उससे आधा मध्यम और उससे आधा अधम है। इस प्रकार उत्तरोत्तर शिवलिङ्ग तीन प्रकार का कहा है।।30।।
अनेक लिङ्गं यो नित्यं भक्तिश्रद्धासमन्वितः।
पूजयेत्स लभेत्कामान्मनसा मानसेप्सितान्।।31।।
जो भक्ति और श्रद्धा से युक्त होकर अनेक शिवलिङ्ग का पूजन करता है। वह सम्पूर्ण मनोकामनाओं को प्राप्त होता है।।31।।
न लिङ्गाराधनादन्यत्पुण्यं वेदचतुष्टये।
विद्यते सर्वशास्त्राणामेष एव विनिश्चयः।।32।।
शिवलिङ्ग की आराधना करने के समान चारों वेदों में कोई दूसरा पुण्य नहीं है, यह सब शास्त्रों का निश्चय है।।32।।
सर्वमेतत्यपरित्यज्य कर्मजालमशेषतः।
भक्त्या परमया विद्वाँल्लिङ्गमेकं प्रपूजयेत्।।33।।
यह.सब कर्मजाल छोड़कर विद्वान पुरुष परम भक्ति से एक ही शिवलिङ्ग का आराधन करे।।33।।
लिङ्गेऽर्चितेऽर्चितं सर्वं जगत्स्थावर जङ्गमम्।
संसाराम्बुधिमग्नानां नान्यत्तसाधनम्।।34
शिवलिङ्ग के अर्चन करने से स्थावर जङ्गात्मक सम्पूर्ण जगत पूजित हो जाता है। जो संसार सागर में मगन हुओं को तारने का साधन है।।34।।
अज्ञानतिमिरान्धानां विषयासक्तचेतसाम्।
प्लवोनान्योऽस्ति जगति लिङ्गाराधनमन्तरा।।35।।
अज्ञान तिमिर से अन्धे हुए लोगों को तथा विषयासक्त चित्त वालों के लिये शिवलिङ्ग आराधन के सिवाय और कोई उपाय नहीं है।।35।।
हरिब्रह्मादयो देवा मुनयो यक्षराक्षसाः।
गन्धर्वाश्चारणाः सिद्धा दैतेया दानवास्तथा।।36।।
नागाः शेषप्रभृतयो गरुडाद्याः खगास्तथा।
सप्रजापतयश्चान्ये मनवः किन्नरा नराः।।37।।
हरि, ब्रह्मादिक देवता, मुनि, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, चारण,सिद्धि, दैत्य,दानव, नाग, शेष, गरुण पक्षी, प्रजापति, मनु, किन्नर, नर।।36-37।।
पूजयित्वा महाभक्त्या लिङ्गं सर्वार्थसिद्धिदम्।
प्राप्ताः कामानभीष्टांश्च तांस्तान्सर्वान्हृदि स्थितान्।।38।।
महाभक्ति से सर्वार्थ साधक शिवलिङ्ग का पूजन करके अपने हृदय में स्थित कामनाओं को प्राप्त होते हैं।।38।।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो वा प्रतिलोमजः।
पूजयेत्सततं लिङ्गं तत्तन्मन्त्रेण सादरम्।।39।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा दूसरी जाति उस उस मन्त्र से आदरपूर्वक शिवलिङ्ग का पूजन करते हैं।।39।।
किं बहूक्तेन मुनयः स्त्रीणामपि तथान्यतः।
अधिकारोऽस्ति सर्वेषां शिवलिङ्गार्चने द्विजाः।।40।।
हे मुनियो! बहुत कहने से क्या है?स्त्री तथा अन्य जाति हो, शिवजी के पूजन का सबको अधिकार है।।40।।
द्विजानां वैदिकेनापि मार्गेणाराधनं वरम्।
अन्येषामपि जन्तूनां वैदिकेन न सम्मतम्।।41।।
ब्राह्मणों को वैदिक मार्ग से पूजन करना श्रेष्ठ है, दूसरे प्राणियों को वेद से पूजन का अधिकार नहीं है।।41।।
वैदिकानां द्विजानां च पूजा वैदिक मार्गतः।
कर्तव्या नान्यमार्गेण इत्याह भगवान शिवः।।42।।
वैदिक ब्राह्मणों के लिये वेदिकमार्ग से पूजा कही है, उनको अन्य मार्ग से पूजा नहीं करनी चाहिये। यह भगवान शिवजी ने कहा है।।42।।
दधीचि गौतमादीनां शापेनादग्धचेतसाम्।
द्विजानां जायते श्रद्धा नैव वैदिककर्मणि।।43।।
दधीचि, गौतम आदि ब्राह्मणों के शाप से दग्धचित्त वालों की वैदिककर्म में श्रद्धा नहीं होती वा शाप से दग्धचित्त दधीचि, गौतमादि के वंशोत्पन्नों की वैदिककर्म में श्रद्धा नहीं होती।।43।।
यो वैदिक मनादृत्य कर्म स्मार्तमथापि वा।
अन्यत्समाचरेन्मर्त्यो न संकल्प फलं लभेत।।44।।
जो कोई वेद और स्मृति के कर्म को अनादर करके दूसरा कर्म करता है, उसे उस कर्म का फल नहीं मिलता है।।44।।
इत्थं कृत्वार्चनं शम्भोर्नैवेद्यान्तं विधानतः।
पूजयेदष्टमूर्तीश्च तत्रैव त्रिजगन्मयीः।।45।।
इस प्रकार शिवजी का विधिपूर्वक नैवेद्य पर्यन्त अर्चन करके त्रिजगन्मयी आठ मूर्तियों का पूजन करे।।45।।
क्षितिरापोऽनलो वायुराकाशः सूर्यसोमकौ।
यजमान इति त्वष्टौ मूर्तयः परिकीर्तिताः।।46।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, सूर्य, और यजमान, ये आठ मूर्तियां पूज्यमान हैं।।46।।
शर्वो भवश्च रुद्रश्च उग्रो भीम इतीश्वरः।
महादेवः पशुपतिरेतान्मूर्तिभिरर्चयेत्।।47।।
शर्व, भव, रुद्र, उग्र,भीम, ईश्वर, महादेव, पशुपति इनका मूर्ति द्वारा अर्चन करे।।47।।
पूजयेत्परिवारं च ततः शम्भोः शुभक्तितः।
ईशानादिक्रमात्तत्र चन्दनाक्षतपत्रकैः।।48।।
विद्वान पुरुष भक्तिभाव से शिवजी के परिवार की पूजा करे। ईशानादि के क्रम से चंदन, अक्षत, पत्र चढ़ावे।।48।।
ईशानं नन्दिनं चण्डं महाकालं च भृङ्गिणम्।
वृषं स्कंदं कपर्दीशं सोमं शुक्रं च तत्क्रमात्।।49।।
ईशान, नन्दी, चण्ड, महाकाल, भृङ्गि, वृष, स्कंद, कपर्दी, सोम, शुक्र इनको क्रम से पूजे।।49।।
अग्रतो वीरभद्रं च पृष्ठे कीर्त्तिमुखं तथा।
तत एकादशान् रुद्रान्पूजयेद्विधिना ततः।।50।।
फिर वीरभद्र का पूजन करे, पीठ की ओर कीर्तिमुख का पूजन करके फिर ग्यारह रुद्रों का विधिपूर्वक पूजन करें।।50।।
ततः पञ्चाक्षरं जप्त्वा शतरुद्रियमेव च।
स्तुतीर्नानाविधाः कृत्वा पञ्चाङ्ग पठनं तथा।।51।।
फिर पञ्चाक्षर मन्त्र का जप करके, शतरुद्रिय पाठ करके, अनेक प्रकार की स्तुति करके पञ्चाङ्ग पाठ करें।।51।।
ततः प्रदक्षिणां कृत्वा नत्वा लिङ्गं विसर्जयेत्।
इति प्रोक्तमशेषं च शिवपूजनमादरात्।।52।।
फिर प्रदिक्षणा करके शिवलिङ्ग को प्रणाम कर विसर्जन करें। यह आदर सहित शिवजी का सम्पूर्ण पूजन कथन हुआ।।52।।
रात्रावुदङ्मुखः कुर्याद् देवकार्यं सदैव हि।
शिवार्चनं सदाप्येवं शुचिः कुर्यादुदङ्मुखः।।53।।
यह कर्म रात्रि में सदैव उत्तर की ओर मुख करके करना चाहिए। इसी प्रकार उत्तर की ओर मुख करके सदाशिव का पूजन करे।।53।।
न प्राचीमग्रतः शम्भोर्नोदीचीं शक्तिसंहिताम्।।
न प्रतीचीं यतः पृष्ठमतो ग्राह्यं समाश्रयेत्।।54।।
जहाँ शिवलिङ्ग स्थापित हो, उससे पूर्व दिशा का आश्रय लेकर नहीं बैठना या खड़ा होना चाहिये, क्योंकि वह दिशा भगवान शिवजी के आगे या सामने पड़ती है। (इष्टदेव का सामना रोकना ठीक नहीं) शिवलिङ्ग से उत्तर दिशा में भी न बैठें, क्योंकि वह भगवान शिव का वामांग है, जिसमें शक्तिरूपा देवी उमा विराजमान हैं। पूजक को शिवलिङ्ग से पश्चिम दिशा में भी नहीं बैठना चाहिये, क्योंकि वह आराध्यदेव का पृष्ठभाग है (पीछे की ओर से पूजा करना उचित नहीं है) अतः अवशिष्ट दक्षिण दिशा ही ग्राह्य है। तात्पर्य यह है कि शिवलिङ्ग से दक्षिण दिशा में उत्तराभिमुख होकर बैठे और पूजा करे।।54।।
विना भस्म त्रिपुण्ड्रेण विना रुद्राक्षमालया।
बिल्वपत्रं विना नैव पूजयेच्छंकरं बुधः।।55।।
विद्वान पुरूष को चाहिये कि वह भस्म का त्रिपुण्ड्र लगाकर, रूद्राक्ष की माला लेकर तथा बिल्वपत्र का संग्रह करके ही भगवान शंकर की पूजा करे, इनके बिना नहीं।।55।।
भस्माप्राप्तौ मुनिश्रेष्ठाः प्रवृत्ते शिवपूजने।
तस्मान्मृदापि कर्तव्यं ललाटे च त्रिपुण्ड्रकम्।।56।।
मुनिवरो! शिवपूजन आरम्भ करते समय यदि भस्म न मिले तो मिट्टी से भी ललाट में त्रिपुण्ड्र अवश्य कर लेना चाहिये।।56।।
इति श्री शिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां साध्यसाधन खण्डे पार्थिवपूजनवर्णनं नामैकविंशोऽध्यायः।।21।।
🙏🏿जय बाबा की।🙏🏿
बाबाचरण दास
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