Saturday, 9 May 2020

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ द्वाविंशोऽध्यायः

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ द्वाविंशोऽध्यायः

ऋषय ऊचुः

अग्राह्यं शिवनैवेद्यमिति पूर्वं श्रुतं वचः।
ब्रूहि तन्निर्णयं बिल्व माहात्म्यमपि सन्मुने।।1।।

ऋषि बोले-  मुने!हमने पहले से यह बात सुन रखी है कि भगवान शिव का नैवेद्य ग्रहण नहीं करना चाहिये। इस विषय में शास्त्र का निर्णय क्या है, यह बताइये। साथ ही बिल्व का माहात्म्य भी प्रकट कीजिये।।1।।

सूत उवाच

श्रृणुध्वं मुनयः सर्वे सावधानतयाधुना।
सर्वं वदामि सम्प्रीत्या धन्या यूयं शिवव्रताः।।2।।

सूत जी ने कहा-- मुनियो!आप शिव सम्बन्धी व्रत का पालन करने वाले हैं। अतः आप सबको शतशः धन्यवाद है। मैं प्रसन्नता पूर्वक सब कुछ बताता हूँ। आप सावधान होकर सुनें।।2।।

शिवभक्तः शुचिः शुद्धः सद्व्रती दृणनिश्चयः।
भक्षयेच्छिवनैवेद्यं त्यजेदग्राह्यभावनाम्।।3।।

जो भगवान शिव का भक्त है, बाहर भीतर से पवित्र और शुद्ध है, उत्तम व्रत का पालन करने वाला तथा दृढ़ निश्चय से युक्त है, वह शिवनैवेद्य का अवश्य भक्षण करे। भगवान शिव का नैवेद्य अग्राह्य है, इस भावना को मन  से निकाल दे।।3।।

दृष्टवापि शिवनैवेद्यं यान्ति पापानि दूरतः।
भुक्ते तु शिवनैवेद्ये पुण्यान्यायान्ति कोटिशः।।4।।

शिव के नैवेद्य को देख लेने मात्र से भी सारे पाप दूर भाग जाते हैं, उसको खा लेने पर तो करोड़ों पुण्य अपने भीतर आ जाते हैं।।4।।

अलं  यागसहस्त्रेणाप्यलं यागार्बुदैरपि।
भक्षिते शिवनैवेद्यै शिवसायुज्यमाप्नुयात्।।5।।

सहस्र और अरब यज्ञ करने से  क्या है? शिवजी का नैवेद्य भक्षण करने से मनुष्य को शिवजी के सायुज्य की प्राप्ति होती है।।5।।

यदगृहे शिवनैवेद्यप्रचारोऽपि  प्रजायते।
तद्गृहं पावनं सर्वमन्यपावनकारणम्।।6।।

जिसके घर में शिवनैवेद्य का प्रचार है, वह घर महापवित्र है और वह दूसरे घरों को भी पवित्र कर देता है।।6।।

आगतं शिवनैवेद्यं गृहीत्वा शिरसा मुदा।
भक्षणीयं प्रयत्नेन शिवस्मरणपूर्वकम्।।7।।

आगतं शिवनैवेद्यमन्यदा ग्राह्यमित्यपि।
विलम्बे पापसम्बन्धो भवत्येव हि मानवः।।8।।

आये हुए शिवनैवेद्य को सिर झुकाकर प्रसन्नता के साथ ग्रहण करे और प्रयत्न करके शिव स्मरण पूर्वक उसका भक्षण करे। आये हुए शिवनैवेद्य को जो यह कहकर कि मैं इसे दूसरे समय में ग्रहण करूँगा, लेने में विलंब कर देता है, वह मनुष्य निश्चय ही पाप से बँध जाता है।।7-8।।

न यस्य शिवनैवेद्ये ग्रहणेच्छा प्रजायते।
स पापिष्ठः गरिष्ठः स्यान्नरकं यात्यपि ध्रुवम्।।9।।

शिवनैवेद्य ग्रहण में जिसकी इच्छा नहीं होती, वह महापापी अवश्य नरक में पड़ता है।।9।।

हृदये चन्द्रकान्ते च स्वर्णरूप्यादिनिर्मिते।
शिवदीक्षावता भक्तेनेदं भक्ष्यमितीर्यते।।10।।

हृदय में सुवर्ण, चाँदी आदि की बनी हुई चन्द्रकान्त वाले शिवभक्त से यह भक्षण करने योग्य है, ऐसा कहा जाता है।।10।।

शिवदीक्षान्वितो भक्तो महाप्रसादसंज्ञकम्।
सर्वेषामपि लिङ्गानां नैवेद्यं भक्षयेच्छुभम्।।11।।

अन्यदीक्षायुजां नृणां शिवभक्तिरतात्मनाम्।
श्रृणुध्वं निर्णयं प्रीत्या शिवनैवेद्यभक्षणे।।12।।

जिसने शिव पूजन की दीक्षा ली हो, उस शिवभक्त के लिये यह शिव नैवेद्य अवश्य भक्षणीय है। शिव की दीक्षा से युक्त शिवभक्ति पुरुष के लिये सभी शिवलिङ्गों का ,नैवेद्य शुभ एवं महाप्रसाद है, अतः वह उसका अवश्य भक्षण करे। परंतु जो अन्य देवताओं की दीक्षा से युक्त हैं और शिवभक्ति में भी मन को लगाये हुए हैं, उनके लिये शिवनैवेद्य  भक्षण के विषय में क्या निर्णय है इसे आप लोग प्रेमपूर्वक सुनें।।11-12।।

शालग्रामोद्भवे लिङ्गे रसलिङ्गे तथा द्विजाः।
पाषाणे राजते स्वर्णे सुरसिद्धप्रतिष्ठिते।।13।।

काश्मीरे स्फाटिके रात्ने ज्योतिर्लिङ्गेषु सर्वशः।
चान्द्रायणसमं प्रोक्तं शम्भोर्नैवेद्यभक्षणम्।।14।।

ब्राह्मणों! जहाँ से शालग्राम शिला की उत्पत्ति होती है, वहाँ के उत्पन्न लिङ्ग में, रसलिङ्ग (पारदलिङ्ग) में, पाषाण, रजत तथा सुवर्ण से निर्मित लिङ्ग में, देवताओं तथा सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित शिवलिङ्ग में, केसर निर्मित शिवलिङ्ग में, स्फटिक लिङ्ग में, रत्ननिर्मित लिङ्ग में तथा समस्त ज्योतिर्लिङ्गों में विराजमान भगवान शिव के नैवेद्य का भक्षण चान्द्रायण व्रत के समान पुण्यजनक है।।13-14।।

ब्रह्महापि शुचिर्भूत्वा निर्माल्यं यस्तु धारयेत्।
भक्षयित्वा द्रुतं तस्य सर्वपापं प्रणश्यति।।15।।

ब्रह्महत्या करने वाला पुरुष भी यदि पवित्र होकर शिव निर्माल्य का भक्षण करके उसे (सिर पर) धारण करे तो उसका सारा पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।।15।।

चण्डाधिकारो यत्रास्ति  तद्भोक्तव्यं न मानवैः।
चण्डाधिकारो नो यत्र भोक्तव्यं तच्च भक्तितः।।16।।

पर जहाँ चण्ड का अधिकार है, वहाँ जो शिव निर्माल्य हो , उसे साधारण मनुष्यों को नहीं खाना चाहिये। जहाँ चण्ड का अधिकार नहीं है, वहाँ के शिव निर्माल्य का सभी को भक्तिपूर्वक भोजन करना चाहिये।।16।।

बाणलिङ्गे च लौहे च सिद्धे लिङ्गे स्वयम्भुवि।
प्रतिमासु च सर्वासु न चण्डोऽधिकृतो भवेत्।।17।।

बाणलिङ्ग(नर्मदेश्वर), लोहनिर्मित (स्वर्णादि धातुमय) लिङ्ग, सिद्धलिङ्ग (जिन लिङ्गों की उपासना से किसी ने सिद्धि प्राप्ति की है अथवा जो सिद्धों द्वारा स्थापित हैं वे शिवलिङ्ग) स्वयम्भूलिङ्ग इन सब लिङ्गों में  तथा शिवजी की प्रतिमाओं में चण्ड का अधिकार नहीं है।।17।।

स्नापयित्वा विधानेन यो लिङ्गस्नपनोदकम्।
त्रिःपिबेत्त्रिविधं पापं तस्येहाशु विनश्यति।।18।।

जो मनुष्य शिवलिङ्ग को विधिपूर्वक स्नान कराकर उस स्नान के जल का तीन बार आचमन करता है, उसके कायिक, वाचिक एवं मानसिक तीनों प्रकार के पाप यहाँ शीघ्र नष्ट हो जाते हैं।।18।।

अग्राह्यं शिवनैवेद्यं पत्रं पुष्पं फलं जलम्।
शालग्राम शिलासङ्गात्सर्वं याति पवित्रताम्।।19।।

जो शिवनैवेद्य, पत्र, पुष्प, फल और जल अग्राह्य है, वह सब भी शालग्राम शिला के स्पर्श से पवित्र, ग्रहण के योग्य हो जाता है।।19।।

लिङ्गोपरि च यद् द्रव्यं तदग्राह्यं मुनीश्वराः।
सुपवित्रं च तज्ज्ञेयं यल्लिङ्गस्पर्शबाह्यतः।।20।।

मुनिवरो! शिवलिङ्ग के ऊपर चढ़ा हुआ जो द्रव्य है, वह अग्राह्य है। जो वस्तु शिव लिङ्ग स्पर्श से रहित है अर्थात जिस वस्तु को अलग रखकर शिवजी को निवेदित किया जाता है, लिङ्ग के ऊपर नहीं चढ़ाया जाता, उसे अत्यंत पवित्र जानना चाहिये।।20।।

नैवेद्य निर्णयः प्रोक्त इत्थं वो मुनिसत्तमाः।
श्रृणुध्वं बिल्वमाहात्म्यं सावधानतयादरात्।।21।।

महादेवस्वरूपोऽयं बिल्वो देवैरपि स्तुतः।
यथाकथञ्चिदेतस्य महिमा ज्ञायते कथम्।।22।।

अब तुम लोग सावधान हो आदरपूर्वक बिल्व का माहत्म्य सुनो। यह बिल्व वृक्ष महादेव का ही रूप है। देवताओं ने भी इसकी स्तुति की है। फिर जिस किसी तरह से इसकी महिमा कैसे जानी जा सकती है।।21-22।। 

पुण्यतीर्थानि यावन्ति लोकेषु प्रथितान्यपि।
तानि सर्वाणि तीर्थानि बिल्वमूले वसन्ति हि।।23।।

बिल्वमूले महादेवं लिङ्ग रूपिणमव्ययम्।
यः पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्राप्नुयाद् ध्रुवम्।।24।।

तीनों लोकों में जितने पुण्यतीर्थ प्रसिद्ध हैं, वे सम्पूर्ण तीर्थ बिल्व के मूल भाग में निवास करते हैं। जो पुण्य आत्मा मनुष्य बिल्व के मूल में  लिङ्गस्वरूप अविनाशी महादेव जी का पूजन करता है, वह निश्चय ही शिव पद को प्राप्त कर लेता है।।23-24।।

बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति।
स सर्वतीर्थस्नातः स्यात्स एव भुवि पावनः।।25।।

एतस्य बिल्व मूलस्याथालवालमनुत्तमम्।
जलाकुलं महादेवो दृष्ट्वा तुष्टो भवत्यलम्।।26।।

जो बिल्व की जड़ के पास जल से अपने मस्तक को सींचता है, वह सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का फल पा लेता है और वही इस भूतल पर पावन माना जाता है। इस बिल्व की जड़ के परम उत्तम थाले को जल से भरा हुआ देखकर महादेव जी पूर्णतया संतुष्ट होते हैं।25-26।।

पूजयेद् बिल्वमूलं यो गन्धपुष्पादिभिर्नरः।
शिवलोकमवाप्नोति सन्ततिर्वधते सुखम्।।27।।

बिल्वमूले दीपमालां यः कल्पयति सादरम्।
स तत्त्वज्ञान सम्पन्नो महेशान्तर्गतो भवेत्।।28।।

जो मनुष्य गन्ध, पुष्प आदि से बिल्व के मूल भाग का पूजन करता है वह शिवलोक को पाता है और इस लोक में भी उसकी सुख संतति बढ़ती है। जो बिल्व की जड़ के समीप आदर पूर्वक दीपावली जलाकर रखता है, वह तत्वज्ञान से संपन्न हो भगवान महेश्वर में मिल जाता है।।27-28।।

बिल्व शाखां समादाय हस्तेन नवपल्लवम्।
गृहीत्वा पूजयेद् बिल्वं स च पापैः प्रमुच्यते।।29।।

बिल्वमूले शिवरतं भोजयेद्यस्तु भक्तितः।
एकं वा कोटिगुणितं तस्य पुण्यं प्रजायते।।30।।

जो बिल्व की शाखा थामकर हाथ से उसके नये-नये पल्लव उतारता और उनसे उस बिल्व की पूजा करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।जो बिल्व की जड़ के समीप भगवान शिव में अनुराग रखने वाले एक भक्त को भी भक्ति पूर्वक भोजन कराता है, उसे कोटि गुना पुण्य प्राप्त होता है।।29-30।।

बिल्वमूले क्षीरयुक्तमन्नमाज्येन    संयुतम्।
यो दद्याच्छिवभक्ताय स  दरिद्रो न जायते।।31।।

साङ्गोपाङ्गमिति प्रोक्तं शिवलिङ्ग प्रपूजनम्।
प्रवृत्तानां निवृत्तानां भेदतो द्विविधं द्विजाः।।32।।

जो बिल्व की जड़ के पास शिव भक्त को खीर और घृत से युक्त अन्न देता है, वह कभी दरिद्र नहीं होता। ब्राह्मणो! इस प्रकार मैंने  साङ्गोपाङ्ग  शिवलिङ्ग पूजन का वर्णन किया। यह प्रवृत्ति मार्गी तथा निवृति मार्गी पूजकों के भेद से दो प्रकार का होता है।।31-32।।

प्रवृत्तानां पीठपूजा सर्वाभीष्टप्रदा भुवि।
पात्रेणैव प्रवृत्तस्तु सर्वपूजां समाचरेत्।।33।।

नैवेद्यमभिषेकान्ते शाल्यन्नेन समाचरेत्।
पूजान्ते स्थापयेल्लिङ्गं पुटे शुद्धे पृथग्गृहे।।34।।

प्रवृत्ति मार्गी लोगों के लिए पीठ पूजा इस भूतल पर सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली होती है। प्रवृत्त पुरुष सुपात्र गुरु आदि के द्वारा ही सारी पूजा सम्पन्न करे और अभिषेक के अन्त में अगहनी के चावल से बना हुआ नैवेद्य निवेदन करे। पूजा के अंत में शिवलिंङ्ग को शुद्ध सम्पुट में विराजमान करके घर के भीतर कहीं अलग रख दे।।33-34।।

करपूजानिवृत्तानां स्वभोज्यं तु निवेदयेत्।
निवृत्तानां परं सूक्ष्मं लिङ्गमेव विशिष्यते।।35।।

विभूत्यभ्यर्चनं कुर्याद्विभूतिं च निवेदयेत्।
पूजां कृत्वा तथा लिङ्गं शिरसा धारयेत्सदा।।36।।

निवृत्ति मार्गी उपासकों के लिए हाथ पर ही शिव पूजन का विधान है। उन्हें भिक्षा आदि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्य रूप में निवेदित कर देना चाहिए। निवृत्त पुरुषों के लिए सूक्ष्म लिङ्ग ही श्रेष्ठ बताया जाता है। वे विभूति से पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्य रूप से निवेदित भी करें। पूजा करके उस शिवलिङ्ग को सदा अपने मस्तक पर धारण करें।।35-36।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां साध्यसाधन खण्डे शिवनैवेद्यवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः।।22।।

🙏🏿जय बाबा की।🙏🏿
बाबाचरण दास

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