Saturday, 9 May 2020

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ त्रयोविंशोऽध्यायः

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ त्रयोविंशोऽध्यायः

ऋषय ऊचुः

सूत सूत महाभाग व्यासशिष्य नमोऽस्तु ते।
तदेव व्यासतो ब्रूहि भस्ममाहात्म्यमुत्तमम्।।1।।

तथा रुद्राक्ष माहात्म्यं नाममाहात्म्य मुत्तमम्।
त्रितयं ब्रूहि सुप्रीत्या ममानन्दय मानसम्।।2।।

ऋषिबोले- महाभाग व्यासशिष्य सूतजी!आपको नमस्कार है। अब आप उस परम उत्तम भस्म माहात्म्य, रुद्राक्ष  माहात्म्य तथा उत्तम नाम माहात्म्य - इन तीनों का परम् प्रसन्नता पूर्वक प्रतिपादन कीजिये और हमारे हृदय को आनंद दीजिये।।1-2।।

सूत उवाच

साधु पृष्टं भवद्भिश्च लोकानां हितकारकम्।
भवन्तो वै महाधन्याः पवित्राः कुलभूषणाः।।3।।
येषां चैव शिवः साक्षाद् दैवतं परमं शुभम्।
सदाशिव कथा लोके वल्लभा भवतां सदा।।4।।

सूतजी ने कहा महर्षियो!आपने बहुत उत्तम बात पूछी है। यह समस्त लोकों के लिये हितकारक विषय है। वे धन्य, पवित्र और कुल के भूषण हैं जिनके साक्षात शिवजी ही परम देवता हैं और जिनको लोक में शिवजी की कथा सदैव प्रिय है।।3-4।।

ते धन्याश्च कृतार्थाश्च सफलं देहधारणम्।
उद्धृतं च कुलं तेषां ये शिवं समुपासते।।5।।

जो शिवजी की उपासना करते हैं वे धन्य हैं, कृतार्थ हैं। उनका मनुष्य देह धारण करना सफल है। उन्होंने अपने कुल का उद्धार किया है।।5।।

शिवनाम मुखे यस्य सदा शिवशिवेति च।
पापानि न स्पृशन्त्येव खदिराङ्गारकं तथा।।6।।

जिनके मुख में सदा शिव-शिव नाम है, उनको पाप ऐसे स्पर्श नहीं करते हैं जैसे खैर अंगार को स्पर्श नहीं कर सकते।।6।।

श्रीशिवाय नमस्तुभ्यं  मुखं व्याहरते यदा।
तन्मुखं पावनं तीर्थं सर्वपापविनाशनम्।।7।।

श्री शिवजी के निमित्त नमस्कार है-ऐसा जो कोई कहता है, उसका पावन मुख तीर्थ सब पापों का नाश करने वाला है।।7।।

तन्मुखं च तथा वै पश्यति प्रीतिमान्नरः।
तीर्थजन्यं फलं तस्य भवतीति सुनिश्चितम्।।8।

जो प्रीतिमान मनुष्य उस शिवभक्त के मुख को देखता है, उसे तीर्थ का फल प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।।8।।

यत्र त्रयं सदा तिष्ठेदेतच्छुभतरं द्विजाः।
तस्यदर्शन मात्रेण वेणीस्नानफलं लभेत्।।9।।

हे ब्राह्मणो! यह शुभ प्राणी जहाँ-जहाँ स्थित होता है, इसके दर्शन मात्र से त्रिवेणी स्नान का फल प्राप्त होता है।।9।।

शिवनामविभूतिश्च तथा रुद्राक्ष एव च।
एत्त्रयं महापुण्यं त्रिवेणी सदृशं स्मृतम्।।10।।

शिवनाम, विभूति तथा रुद्राक्ष  ये तीनों महापवित्र त्रिवेणी के फल के समान हैं।।10।।

एतत्त्रयं शरीरे च यस्य तिष्ठति  नित्यशः।
तस्यैव दर्शनं लोके दुर्लभं पापहारकं।।11।।

इन तीनों को जो शरीर में स्थित नित्य देखता है, उस पापहारी मनुष्य का दर्शन लोक में दुर्लभ है।।11।।

तद्दर्शनं यथा वेणी नोभयोरन्तरं मनाक्।
एवं यो न विजानाति स पापिष्ठो न संशयः।।12।।

उस शिवभक्त का दर्शन त्रिवेणी के समान है, इसमें कुछ भी अन्तर नहीं है। जो ऐसा नहीं जानता वह पापीष्ठ है, इसमें सन्देह नहीं है।।12।।

विभूतिर्यस्य नो भाले नाङ्गे रुद्राक्ष धारणम्।
नास्ये शिवमयी वाणी तं त्यजेदधमं यथा।।13।।

जिसके मस्तक पर विभूति नहीं, अङ्ग में रूद्राक्ष नहीं, मुख में शिवमयी वाणी नहीं,उसे अधम के समान त्याग दे।।13

शैवं नाम यथा गङ्गा विभूतिर्यमुना मता।
रुद्राक्षं विधिना प्रोक्ता सर्वपापविनाशिनी।।14।।

भगवान शिव का नाम गङ्गा है, विभूति यमुना मानी गयी हैं तथा रुद्राक्ष को सरस्वती कहा गया है। इन तीनों की संयुक्त त्रिवेणी समस्त पापों का नाश करने वाली है।।14।।

शरीरे च त्रयं यस्य तत्फलं चैकतः स्थितम्।
एकतो वेणिकायाश्च स्नानजं तु फलं बुधैः।।15।।

जिसके शरीर में यह तीनों हैं, उसका फल इसमें स्थित है, एक से ही त्रिवेणी के स्नान का फल पण्डितों ने कहा है।।15।।

तदेवं तुलितं पूर्वं ब्रह्मणा हितकारिणा।
समानंचैव तज्जातं तस्माद् धार्यं सदा बुधैः।।16।।

ब्रह्माजी ने जगत के हित के निमित्त इसकी तौल की है, तो बराबर ही हुआ था, इस कारण पण्डितों को सदा विभूति धारण करनी चाहिये।।16।।

तद्दिनं हि समारभ्य ब्रह्मविष्ण्वादिभिः सुरैः।
धार्यते त्रितयं तच्च दर्शनात्पापहारकम्।।17।।

 उस दिन से लेकर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने इन तीनों के धारण का नियम किया है, जो दर्शन से ही पाप हरने वाली है।।17।।

ऋषय ऊचुः

ईदृशं हि फलं प्रोक्तं नामादित्रितयोद्भवम्।
तन्माहात्म्यं विशेषेण वक्तुमर्हसि सुव्रत।।18।।

ऋषि बोले-जब तीनों के नामों का ऐसा फल कहा है, तो हे सुब्रत! विशेष करके उनका माहात्म्य आप हमसे कहिये।।18।।

सूत उवाच

ऋषयो हि महाप्राज्ञाः सच्छैवा ज्ञानिनां वराः।
तन्माहात्म्यं हि सद्भक्त्या श्रृणुतादरतो द्विजाः।।19।।

सूत जी बोले- हे ऋषियो आप महापण्डित, ज्ञानियों में श्रेष्ठ शिव जी के भक्त हो, आप आदर से इनका माहात्म्य श्रवण कीजिये।।19।।

सुगूढमपि शास्त्रेषु पुराणेषु श्रुतिष्वपि।
भवत्स्नेहान्मया विप्राः प्रकाशः क्रियतेऽधुना।।20।।

यह शास्त्र, पुराण और श्रुतियों में गूढ़ है। हे  ब्राह्मणो! आपके स्नेह से मैं अब प्रकट करता हूँ।।20।।

कस्तत्त्रितयमाहात्म्यं सञ्जानाति द्विजोत्तमाः।
महेश्वरं विना सर्वं ब्रह्माण्डे सदसत्परम्।।21।।

 हे ब्राह्मणो! कौन सम्पूर्णता से इन तीनों का माहात्म्य जान सकता है? इस ब्रह्मांड में केवल सत-असत से परे शिवजी ही जानते हैं।।21।।

वच्म्यहं नाम माहात्म्यं यथा भक्ति समासतः।
श्रृणुत प्रीतितो विप्राः सर्वपापहरं परम्।।22।।

यथाशक्ति संक्षेप से मैं नाम माहात्म्य कहता हूँ। हे ब्राह्मणो!उस सब पाप हरने वाले नाम की महिमा प्रीति से सुनिये।।22।।

शिवेति नामदावाग्नेर्महापातक पर्वताः।
भस्मीभवन्त्यनायासात्सत्यं सत्यं न  संशयः।।23।।

'शिव' इतना नाम ही पाप रूपी महा पर्वतों को जलाने के लिए दावाग्नि है। नाम लेते ही पाप अनायास दग्ध हो जाते हैं, यह सत्य है, इसमें संदेह नहीं है।।23।।

पापमूलानि दुःखानि विविधान्यपि शौनक।
शिवनामैकनश्यानि नान्यनश्यानि सर्वथा।।24।।

हे शौनकजी! पाप से उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के दुख हैं, वे एक शिवजी के नाम से नष्ट हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है।।24।।

स वैदिकः स पुण्यात्मा स धन्यः स बुधो मतः।
शिवनामजपासक्तो यो नित्यं भुवि मानवः।।25।।

 वही वैदिक, वही पुण्यआत्मा, वही धन्य और पंडित है, जो नित्य पृथ्वी पर शिवनाम का जप करता है।।25।।

भवन्ति विविधा धर्मास्तेषां सद्यः फलोन्मुखाः।
येषां भवति विश्वासः शिवनाम जपे मुने।।26।।

मुने! जिनका शिवनाम जप में विश्वास है, उनके द्वारा आचरित नाना प्रकार के धर्म तत्काल फल देने के लिए उत्सुक हो जाते हैं।।26।।

पातकानि विनश्यन्ति यावन्ति शिवमानतः।
भुवि तावन्ति पापानि क्रियन्ते न नरैर्मुने।।27।।

महर्षे! भगवान शिव के नाम से जितने पाप नष्ट होते हैं उतने पाप मनुष्य इस भूतल पर कर नहीं सकते ।।27।।

ब्रह्महत्यादिपापानां राशीनप्रमितान्मुने।
शिवनाम द्रुतं प्रोक्तं नाशयत्यखिलान्नरैः।।28।।
हे मुने!ब्रह्महत्यादि पापों के ढेर भी शिवनाम के लेते ही नष्ट हो जाते हैं।।29।।

शिवनामतरीं प्राप्य संसाराब्धिं तरन्ति ये।
संसार मूलपापानि तानि नश्यन्त्यसंशयम्।।29।।

 जो शिव नाम रूपी नौका पर आरूढ़ हो संसार रूपी समुद्र को पार करते हैं, उनके जन्म मरण रूप संसार के मूलभूत वे सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं।इसमें संशय नहीं है।।29।।

संसारमूलभूतानां पातकानां महामुने।
शिवनामकुठारेण विनाशो जायते ध्रुवम्।।30।।

हे! महामुने संसार की मूलभूत पातक रूपी वृक्ष का शिव नाम रूपी कुठार से निश्चय ही नाश हो जाता है।।30।।

शिवनामामृतं पेयं पापदावानलार्दितैः।पापदावाग्नितप्तानां शान्तिस्तेन विना न हि।।31।।

जो पाप रूपी दावानल से पीड़ित हैं, उन्हें शिव नाम रूपी अमृत का पान करना चाहिये। पापों के दावानल से दग्ध होने वाले लोगों को उस शिव नामामृत के बिना शान्ति नहीं मिल सकती।।31।।


शिवेति नाम पीयूषवर्षधारापरिप्लुताः।
संसारदवमध्येऽपि न शोचन्ति कदाचन।।32।।

जो शिव नाम रूपी सुधा की वृष्टि जनित धारा में गोते लगा रहे हैं, वे संसार रूपी दावानल के बीच में खड़े होने पर भी कदापि शोक के भागी नहीं होते।।32।।

शिवनाम्नि महद्भक्तिर्जाता येषां महात्मनाम्।
तद्विधानां तु सहसा मुक्तिर्भवति सर्वथा।।33।।

 जिन महात्माओं के मन में शिव नाम के प्रति बड़ी भारी भक्ति है ऐसे लोगों की सहसा और सर्वथा मुक्ति होती है।।33।।

अनेकजन्मभिर्येन तपस्तप्तं मुनीश्वर।
शिवनाम्नि भवेद्भक्तिः सर्वपापहारिणी।।34।।

हे! मुनीश्वर जिसने अनेक जन्मों तक तपस्या की है, उसी की शिव नाम के प्रति भक्ति होती है, जो समस्त पापों का नाश करने वाली है।।34।।

यस्यासाधारणी शम्भुनाम्नि भक्तिरखण्डिता।
तस्यैवमोक्षः सुलभो नान्यस्येति मतिर्मम।।35।।

जिसके मन में भगवान शिव के नाम के प्रति कभी खण्डित न होने वाली असाधारण भक्ति प्रकट हुई है, उसी के लिये मोक्ष सुलभ है। यह मेरा मत है।।35।।

कृत्वाप्यनेकपापानि शिवनाम जपादरः।
सर्वपापविनिर्मुक्तो भवत्येव न संशयः।।36।।

जो अनेक पाप करके भी भगवान शिव के नामजप में आदरपूर्वक लग गया है, वह समस्त पापों से मुक्त हो ही जाता है, इसमें संशय नहीं है।।36।।

भवन्ति भस्मसाद् वृक्षा दवदग्धा यथा वने।
तथा तावन्ति दग्धानि पापानि शिवनामतः।।37।।

जैसे वन में दावानल से दग्ध हुए वृक्ष भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार शिवनाम रूपी दावानल से दग्ध होकर उस समय तक के सारे पाप भस्म हो जाते हैं।।37।।

यो नित्यं भस्मपूताङ्गः शिवनामजपादरः।
स तरत्येव संसारमघोरमपि शौनक।।38।।

शौनक! जिसके अंग नित्य भस्म लगाने से पवित्र हो गये हैं तथा जो शिव नामजप का आदर करने लगा है, वह घोर संसार सागर को भी पार कर ही लेता है।।38।।

ब्रह्मस्वहरणं कृत्वा हत्वापि ब्राह्मणान्बहून।
न लिप्यते नरः पापैः शिवनामजपादरः।।39।।

ब्राह्मणों का द्रव्य हरण करके, ब्राह्मणों को मारकर भी शिव नाम भक्ति से जपने वाला पाप से लिप्त नहीं होता है।।39।।

विलोक्य वेदानखिलान् शिवनामजपः परः।
संसारतरणोपाय इति पूर्वैर्विनिश्चतम्।।40।।

 संपूर्ण वेदों का अवलोकन करके पूर्ववर्ती महर्षियों ने यही निश्चित किया है कि भगवान शिव के नाम का जप संसार सागर को पार करने के लिए सर्वोत्तम उपाय है।।40।।

किं बहूक्त्त्या मुनिश्रेष्ठाः शलोकेनैकेन वच्म्यहम्।
शिवाभिधान माहात्म्यं सर्वपापापहारणम्।।41।।

पापानां हरणे शम्भोर्नाम्नः शक्तिर्हि यावती।
शक्नोति पातकं तावत्कर्तुं नापि नरः क्वचित्।।42।।

मुनिवरो! अधिक कहने से क्या लाभ, मैं शिव नाम के सर्व पापहारी माहात्म्य का एक ही श्लोक में वर्णन करता हूंँ।भगवान शंकर के एक नाम में भी पाप हरण की जितनी शक्ति है, उतना पातक मनुष्य कभी कर ही नहीं सकता।।41-42।।

शिवनामप्रभावेण लेभे सद्गतिमुत्तमाम्।
इन्द्रद्युम्ननृपः पूर्वं महापापयुतो मुने।।43।।

 मुने! पूर्व काल में महा पापी राजा इंद्रद्युम्न ने शिवनाम के प्रभाव से ही उत्तम सद्गति प्राप्त की थी।।43।।

तथा काचिद् द्विजा योषाऽसौ मुने बहुपापिनी।
शिवनाम प्रभावेण लेभे सद्गतिमुत्तमाम।।44।।

इत्युक्तं वो द्विजश्रेष्ठा नाम माहात्म्य मुत्तमम्।
श्रृणुध्वं भस्ममाहात्म्यं सर्वपावनपावनम्।।45।।

इसी तरह कोई ब्राह्मणी युवती भी जो बहुत पाप कर चुकी थी, शिव नाम के प्रभाव से ही उत्तम गति को प्राप्त हुई। द्विजवरो! इस प्रकार मैंने तुमसे भगवान नाम के उत्तम माहात्म्य का वर्णन किया है। अब तुम भस्म का माहात्म्य सुनो, जो समस्त पावन वस्तुओं को भी पावन करने वाला है।।44-45।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां साध्यसाधन खण्डे शिवनाम माहात्म्यवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः।।23।।

🙏🏿जय बाबा की।🙏🏿
बाबाचरण दास

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