प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथैकोनविंशोऽध्यायः
ऋषय ऊचुः
सूत सूत चिरञ्जीव धन्यस्त्वं शिवभक्तिमान्।
सम्यगुक्तस्त्वया लिङ्ग महिमा. सत्फलप्रदः।।1।।
ऋषि बोले-
हे सूतजी आप चिरकाल तक जियें। आप धन्य हो और शिवजी के भक्त हो। आपने शिवलिङ्ग की महिमा और फल विषय सम्यक प्रकार से कहा।।1।।
यत्र पार्थिवमाहेश लिङ्गस्य महिमाधुना।
सर्वोत्कृष्टश्च कथितो व्यासतो ब्रूहि तं पुनः।।2।।
पार्थिव महेश्वरजी की महिमा आपने सर्वोत्कृष्ट कही है। वह आपने व्यास जी से सुनी है और वह सुनने की हमारी इच्छा है।।2।।
सूत उवाच
श्रृणुध्वमृषयः सर्वे सदभक्त्यादरतोऽखिलाः।
शिवपार्थिवलिङ्गस्य महिमा प्रोच्यते मया।।3।।
सूतजी बोले- हे समस्त ऋषियो!आप सुनिये, मैं आपकी भक्ति और आदर से प्रसन्न होकर कहता हूँ। मैं आपसे शिवजी के पार्थिव शिवलिङ्ग की महिमा कहता हूँ।।3।।
उक्तेष्वेतेषू लिङ्गेषु पार्थिवंं लिङ्ग मुत्तमम्।
तस्य पूजनतो विप्रा बहवः सिद्धिमागताः।।4।।
हे ब्राह्मणो!कहे हुए सब लिङ्गों में पार्थिव शिवलिङ्ग श्रेष्ठ है, उसका पूजन करके बहुत शिवभक्त सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं।।4।।
हरिर्ब्रह्मा च ऋषयः सप्रजापतयस्तथा।
सम्पूज्य पार्थिवंं लिङ्गंं प्रापुः सर्वेप्सितं द्विजाः।।5।।
हरि,ब्रह्मा,ऋषि, प्रजापति पार्थिव शिवलिङ्ग का पूजन करके सब अपने मनोरथों को प्राप्त हुए हैं।।5।।
देवासुर मनुष्याश्च गन्धर्वोरगराक्षसाः।
अन्येऽपि बहवः सिद्धिं तं सम्पूज्य गताः पराम्।।6।।
देवता, असुर, मनुष्य, गंधर्व, उरग, राक्षस और भी बहुत पार्थिवलिङ्ग पूजन करके परम सिद्धि को प्राप्त हुये हैं।।6।।
कृते रत्नमयं लिङ्गं त्रेतायां हेमसम्भवम्।
द्वापरे पारदं श्रेष्ठं पार्थिवं तु कलौ युगे।।7।।
सतयुग में रत्न का लिङ्ग, त्रेता में सुवर्ण का लिङ्ग, द्वापर में पारे का लिङ्ग और कलयुग में पार्थिवलिङ्ग श्रेष्ठ है।।7।।
अष्टमूर्तिषु सर्वासु मूर्तिर्वै पार्थिवी वरा।
अनन्यपूजिता विप्रास्तपस्तस्मान्महत्फलम्।।8।।
सब आठ मुर्तियों में पार्थिव मूर्ति श्रेष्ठ है। हे ब्राह्मणो!उसका पूजन करने से तप से भी अधिक फल मिलता है।।8।।
यथा सर्वेषु देवेषु ज्येष्ठः श्रेष्ठः महेश्वरः।
एवं सर्वेषु लिङ्गेषु पार्थिवं श्रेष्ठ मुच्यते।।9।।
जैसे सब देवताओं में महेश्वर जी ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सभी शिवलिङ्ग में पार्थिव शिवलिङ्ग श्रेष्ठ है।।9।।
यथा नदीषु सर्वासु ज्येष्ठा श्रेष्ठा सुरापगा।
तथा सर्वेषु लिङ्गेषु पार्थिवं श्रेष्ठ मुच्यते।।10।।
जैसे सभी नदियों में गंगा श्रेष्ठ है,उसी प्रकार सभी शिवलिङ्ग में पार्थिव शिवलिङ्ग श्रेष्ठ है।।10।।
यथा सर्वेषु मन्त्रेषु प्रणवो हि महान्स्मृतः।
तथेदु पार्थिवं श्रेष्ठ माराध्यं पूज्यमेव हि।।11।।
जैसे सब मंत्रों में ॐ कार श्रेष्ठ है, उसी प्रकार पार्थिव शिवलिङ्ग श्रेष्ठ और पूजनीय है।।11।।
यथा सर्वेसछ वर्णेषु ब्राह्मणः श्रेष्ठ उच्यते।
तथा सर्वेषु लिङ्गेषु पार्थिवं श्रेष्ठ मुच्यते।।12।।
जैसे सब वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सब शिवलिङ्गों में पार्थिव शिवलिङ्ग श्रेष्ठ है।।12।।
यथा पुरीषु सर्वासु काशी श्रेष्ठतमा स्मृता।
तथा सर्वेषु लिङ्गेषु पार्थिवं श्रेष्ठ मुच्यते।।13।।
जैसे सब पुरियों में काशी श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सब शिवलिङ्गों में पार्थिव शिवलिङ्ग श्रेष्ठ है।।13।।
यथा व्रतेषु सर्वेषु शिवरात्रि वृतं परम्।
तथा सर्वेषु लिङ्गेषु पार्थिवं श्रेष्ठ मुच्यते।।14।।
जैसे सब व्रतों में शिवरात्रि व्रत श्रेष्ठ है। उसी प्रकार सब शिवलिङ्गों में पार्थिव शिवलिङ्ग श्रेष्ठ है।।14।।
यथा देवीषु सर्वासु शैवी शक्तिः परा स्मृता।
तथा सर्वेषु लिङ्गेषु पार्थिवं श्रेष्ठ मुच्यते।।15।।
जिस प्रकार सब शक्तियों में शैवी पराशक्ति श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सब शिवलिङ्गों में पार्थिव शिवलिङ्ग श्रेष्ठ है।।15।।
प्रकृत्य पार्थिवं लिङ्गं योऽन्यदेवं प्रपूजयेत्।
वृथाभवति सा पूजा स्नानदानादिकं वृथा।।16।।
पार्थिव शिवलिङ्ग करके जो अन्य देवताओं की पूजा करता है, उसकी वह पूजा और स्नानदानादिक वृथा होता है।।16।।
पार्थिवाराधनं पुण्यं धन्यमायुर्विवर्धनम्।
तुष्टिदं पुष्टिदं श्रीदं कार्यं साधकसत्तमैः।।17।।
पार्थिव आराधन पवित्र और पुण्यरूप है, धन तथा आयु को बढ़ाने वाला है। तुष्टि, पुष्टि तथा लक्ष्मी का देने वाला और कार्य को साधन करने वाला है।।17।।
यथालब्धोपचारैश्च भक्तिश्रद्धासमन्वितः।
पूजयेत्पार्थिवं लिङ्गं सर्वकामार्थसिद्धिदम्।।18।।
यः कृत्वा पार्थिवं लिङ्गं पूजयेच्छुभवेदिकम्।
इहैव धनवाञ्छ्रीमानन्ते रुद्रोऽभिजायते।।19।।
जो अच्छे उपचार और भक्ति, श्रद्धा के सहित सब कामनाओं को प्रदान करने वाले पार्थिव शिवलिङ्ग का पूजन करता है और जो पार्थिव शिवलिङ्ग और वेदी का पूजन करता है, वह धनवान लक्ष्मीवान होकर अन्त में रुद्रलोक को जाता है।।18-19।।
त्रिसन्ध्यं योऽर्चरेल्लिङ्गं कृत्वा बिल्वेन पार्थिवम्।
दशैकादशकं यावत्तस्य पुण्यफलं श्रृणु।।20।।
अनेनैव स्वदेहेन रुद्रलोके महीयते।
पापहं सर्वमर्त्यानां दर्शनात्स्पर्शनादपि।।21।।
जो बिल्वपत्र से तीनों संध्याओं में दस, ग्यारह या बारह बार पूजन करता है, उसके पुण्य का फल सुनिये। इसी देह से वह रुद्रलोक को प्राप्त होता है, उसके दर्शन और स्पर्श से मनुष्यों के सब पाप जाते रहते हैं।।20-21।।
जीवन्मुक्तः स वै ज्ञानी शिव एव न संशयः।
तस्य दर्शनमात्रेण भुक्तिर्मुक्तिश्च जायते।।22।।
जीवन्मुक्त हुआ वह ज्ञानी शिवरूप ही है, इसमें सन्देह नहीं, उसके दर्शनमात्र से भुक्ति मुक्ति हो जाती है।।22।।
शिवं यः पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिङ्गं तु पार्थिवम्।
यावज्जीवनपर्यन्तं स याति शिवमन्दिरम्।।23।।
जो पार्थिव शिवलिङ्ग बनाकर नित्य शिवजी का पूजन करता है और जीवनपर्यंत शिवजी का पूजन करने वाला शिवजी के लोक में जाता है।।23।।
मृडेनाप्रमितान्वर्षाञ्छिवलोके हि तिष्ठति।
सकामः पुनरागत्य राजेन्द्रो भारते भवेत्।।24।।
वह शिवपूजन से अनन्त वर्षों तक शिवलोक में स्थित होता है और सकाम पूजन करने से भरतखण्ड का राजा होता है।।24।।
निष्कामः पूजयेन्नित्यं पार्थिवं लिङ्ग मुत्तमम्।
शिवलोके सदा तिष्ठेत्तस्य सायुज्यमाप्नुयात्।।25।।
और जो नित्य पार्थिव शिवलिङ्ग की कामना रहित पूजन करता है, वह सदा शिवलोक में स्थित होकर सायुज्य मुक्ति को प्राप्त होता है।।25।।
पार्थिवं शिवलिङ्गं च विप्रो यदि न पूजयेत्।
स याति नरकं घोरं शूलप्रोतं सुदारुणम्।।26।।
यदि ब्राह्मण शिवजी के पार्थिव लिङ्ग स्वरूप का पूजन न करे, तो वह शूल नामक घोर नरक को प्राप्त होता है।।26।।
यथाकथञ्चिद्विधिना रम्यं लिङ्गं प्रकारयेत्।
पञ्चसूत्रविधानं च पार्थिवे न विचारयेत्।।27।।
जिस किसी विधि से हो शिवलिङ्ग को मनोहर बनावें, पञ्चसूत्र का विचार पार्थिवलिङ्ग में न करें।।27।।
अखण्डं तद्धि कर्तव्यं न विखण्डं प्रकारयेत्।
विखण्डं तु प्रकुर्वाणो नैव पूजाफलं लभेत्।।28।।
अखण्ड शिवलिङ्ग का निर्माण करना चाहिये, शिवलिङ्ग दो खण्ड का करने से पूजा- फल की प्राप्ति नहीं होती है।।28।।
रत्नजं हेमजं लिङ्गं पारदं स्फाटिकं तथा।
पार्थिवं पुष्प रागोत्थमखण्डं तु प्रकारयेत्।।29।।
रत्न, सुवर्ण, पारद, स्फटिक, पार्थिव, पुष्पराग से उत्पन्न अखण्ड लिङ्ग की कल्पना करें।।29।।
अखण्डं तु चरं लिङ्गं द्विखण्डमचरं स्मृतम्।
खण्डाखण्डविचारोऽयं सचराचरयोः स्मृतः।।30।।
चरलिङ्ग अखण्ड और अचर द्विखण्ड कहलाता है। यह खण्ड-अखण्ड का विचार चराचर में होता है।।30।।
वेदिका तु महाविद्या लिङ्गं देवो महेश्वरः।
अतो हि स्थावरे लिङ्गे स्मृता श्रेष्ठा द्विखण्डता।।31।।
वेदिका महाविद्या है, महेश्वरदेव लिङ्गरूप है, इस कारण स्थावर लिङ्ग में द्विखण्डता कही है।।31।।
द्विखण्डं स्थावरं लिङ्गं कर्तव्यं हि विधानतः।
अखण्डं जङ्गमं प्रोक्तं शैवसिद्धान्तवेदिभिः।।32।।
विधान से स्थावरलिङ्ग दो खण्ड का करना चाहिये। शैवसिद्धान्त के जानने वालों ने जंगम शिवलिङ्ग को अखण्ड कहा है।।32।।
द्विखण्डं तु चरं लिङ्गं कुर्वन्त्यज्ञानमोहिताः।
नैव सिद्धान्तवेत्तारो मुनयः शास्त्रकोविदाः।।33।।
चरलिङ्ग को अज्ञान से मोहित हुए दो खण्ड का करते हैं, वे मुनि शास्त्र में पण्डित और सिद्धांत के जानने वाले नहीं है।।33।।
अखण्डं स्थावरं लिङ्गं द्विखण्डं चरमेव च।
ये कर्वन्ति नरा मूढा न पूजाफलभागिनः।।34।।
स्थावरलिङ्ग अखण्ड और चरलिङ्ग द्विखण्ड है। जो विधि का उल्लंघन करते हैं वे पूजा के फलभागी नहीं हैं।।34।।
तस्माच्छास्त्रोक्तविधिना अखण्डं चरसंज्ञकम्।
द्विखण्डं स्थावरं लिङ्गं कर्तव्यं परयामुदा।।35।।
इस कारण शास्त्रोक्त विधान से अखण्ड चरसंज्ञक शिवलिङ्ग का और दो खण्ड युक्त स्थावर शिवलिङ्ग का निर्माण करें।।35।।
अखण्डे तु चरे पूजा सम्पूर्णफलदायिनी।
द्विखण्डे तु चरे पूजा महाहानि प्रदा स्मृता।।36।।
अखण्ड रूप चर शिवलिङ्ग में की हुई पूजा सम्पूर्णतः फल को देने वाली है। दो खण्ड युक्त चर शिवलिङ्ग में कई हुई पूजा महाहानि देती है।।36।।
अखण्डे स्थावरे पूजा न कामफलदायिनी।
प्रत्यवायकरी नित्यमित्युक्तं शास्त्रवेदिभिः।।37।।
अखण्ड स्थावर शिवलिङ्ग में की हुई पूजा कामयुक्त फल को नहीं देती है और विघ्न करने वाली है, ऐसा शास्त्र जानने वालों ने कहा है।।37।।
इति शिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां साध्य साधन खण्डे पार्थिव शिवलिङ्ग पूजन माहात्म्य वर्णनं नामैकोनविंशोऽ ध्यायः।।19।।
🙏जय बाबा की🙏
बाबाचरण दास
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