Saturday, 9 May 2020

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ चतुर्विंशोऽध्यायः

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ चतुर्विंशोऽध्यायः

 सूत उवाच

द्विविधं भस्म सम्प्रोक्तं सर्वमङ्गलदं परम्।
तत्प्रकारमहं वक्ष्ये सावधानतया श्रृणु।।1।।

 सूत जी बोले- हे महर्षियो! भस्म सम्पूर्ण मंगलों को देने वाला तथा उत्तम है, उसके दो भेद बताये गये हैं। मैं उन भेदों का वर्णन करता हूंँ, आप लोग सावधान होकर सुनिये।।1।।

एकं ज्ञेयं महाभस्म द्वितीयं स्वल्पसंज्ञकम्।
महाभस्म इति प्रोक्तं भस्म नानाविधं परम्।।2।।

तद्भस्म त्रिविधं प्रोक्तं श्रौतं स्मार्तं च लौकिकम्।
भस्मैव स्वल्पसंज्ञं हि बहुधा परिकीर्तितम्।।3।।

श्रौतं भस्म तथा स्मार्तं द्विजनामेव कीर्तितम्।
अन्येषामपि सर्वेषामपरं भस्म लौकिकम्।।4।।

एक को 'महाभस्म' जानना चाहिये और दूसरे को 'स्वल्प भस्म'। महाभस्म के भी अनेक भेद हैं। वह तीन प्रकार का कहा गया है- श्रौत, स्मार्त और लौकिक। स्वल्प भस्म के भी बहुत से भेदों का वर्णन किया गया है। श्रौत और स्मार्त भस्म को केवल द्विजों के ही उपयोग में आने के योग्य कहा गया है। तीसरा जो लौकिक भस्म है, वह अन्य लोगों के भी उपयोग में आ सकता है।।2-3-4।।

धारणं मन्त्रतः प्रोक्तं द्विजानां मुनिपुङ्गवैः।
केवलं धारणं ज्ञेयमन्येषां मन्त्रवर्जितम्।।5।।

श्रेष्ठ महर्षियों ने यह बताया है कि द्विजों को वैदिक मंत्र के उच्चारण पूर्वक भस्म धारण करना चाहिये। दूसरे लोगों के लिए बिना मंत्र के ही केवल धारण करने का विधान है।।5।।

आग्नेयमुच्यते भस्म दग्धगोमयसम्भवम्।
तदपि द्रव्यमित्युक्तं त्रिपुण्ड्रस्य महामुने।।6।।

जले हुए गोबर से उत्पन्न होने वाला भस्म आग्नेय कहलाता है। हे महामुने! वह भी त्रिपुण्ड्रका द्रव्य है- ऐसा कहा गया है।।6।।

अग्निहोत्रोत्थितं भस्म सङ्ग्राह्यं वा मनीषिभिः।
अन्ययज्ञोत्थितं वापि त्रिपुण्ड्रस्य च धारणे।।7।।

अग्निहोत्र से उत्पन्न हुए भस्म का भी मनीषी पुरुषों को संग्रह करना चाहिये। अन्य यज्ञ से प्रकट हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड्र धारण के काम में आ सकता है।।7।।

अग्निरित्यादिभिर्मन्त्रैर्जाबालोपनिषद्गतैः।
सप्तभिर्धूलनं कार्यं भस्मना सजलेन च।।8।।

 जावालोपनिषद में आये हुए अग्निः इत्यादि सात मंत्रों द्वारा जल मिश्रित भस्म से धूलन (विभिन्न अंगों में मर्दन या लेपन) करना चाहिये।।8।।

वर्णानामाश्रमाणां च मन्त्रतोऽमन्त्रतोऽपि च।
त्रिपुण्ड्रोद्धूलनं प्रोक्तं जाबालैरादरेण च।।9।।

महर्षि जाबालि ने सभी वर्णों और आश्रमों के लिये मन्त्र से या बिना मन्त्र के भी आदरपूर्वक भस्म से त्रिपुण्ड्र लगाने की आवश्यकता बतायी है।।9।।

भस्मनोद्धूलनं चैव धृतं तिर्यक् त्रिपुण्ड्रकम्।
प्रमादादपि मोक्षार्थी न त्यजेदिति वै श्रुतिः।।10।।

समस्त अंगों में सजल भस्म को मलना अथवा विभिन्न अंगों में तिरछा त्रिपुण्ड्र लगाना-इन कार्यों को मोक्षार्थी पुरुष प्रमाद से भी न छोड़े। ऐसा श्रुति का आदेश है।।10।।

शिवेन विष्णुना चैव धृतं तिर्यक् त्रिपुण्ड्रकम्।
उमादेव्या च लक्ष्म्या च स्तुतमन्यैश्च नित्यशः।।11।।

भगवान शिव और विष्णु ने भी तिर्यक् त्रिपुण्ड्र धारण किया है। अन्य देवियों सहित भगवती उमा और लक्ष्मी देवी ने भी वाणी द्वारा इसकी प्रशंसा की है।।11।।

ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः शूद्रैरपि च सङ्करैः।
अपभ्रंशैर्धृतं भस्म त्रिपुण्ड्रोद्धूलनात्मना।।12

ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, वर्णसंकरों तथा जाति भ्रष्ट पुरुषों ने भी उद्धूलन एवं त्रिपुण्ड्र के रूप में भस्म को धारण किया है।।12।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषां नास्ति समाचारो वर्णाश्रम समन्वितः।।13।।

जो लोग श्रद्धा पूर्वक शरीर में भस्म का उद्धलन(लेप) तथा त्रिपुण्ड्र धारण करने का आचरण नहीं करते हैं, उनमें वर्णाश्रम समन्वित सदाचार की कमी है।।13।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषां नास्ति विनिर्मुक्तिः संसाराज्जन्मकोटिभिः।।14।।

जिनके द्वारा श्रद्धा पूर्वक   शरीर में भस्मलेप और त्रिपुण्ड्रधारण नहीं किया जाता है, उनकी विनिर्मुक्ति करोड़ों जन्मों में भी संसार से संभव नहीं है।।14।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषां नास्ति शिवज्ञानं कल्पकोटिशतैरपि।।15।।

जो श्रद्धा पूर्वक शरीर में भस्मलेप और त्रिपुण्ड्रधारण का आचार पालन नहीं करते हैं, उन्हें सौ करोड़ कल्पों में भी शिव का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है।।15।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
ते महापातकैर्युक्ता इति शास्त्रीयनिर्णयः।।16।।

जो श्रद्धा पूर्वक भस्मलेप तथा त्रिपुण्ड्रधारण का आचरण नहीं करते हैं, वे महापातकों से युक्त हो जाते हैं, ऐसा शास्त्रों का निर्णय है।।16।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषामाचरितं सर्वं विपरीतफलाय हि।।17।।

जो श्रद्धा पूर्वक भस्मोद्धूलन और त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करते हैं, उन लोगों का सम्पूर्ण आचरण विपरीत फल प्रदान करने वाला हो जाता है।।17।।

महापातकयुक्तानां जन्तूनां शर्वविद्विषाम्।
त्रिपुण्ड्रोद्धूलनद्वेषो जायते सुदृणं मुने।।18।।

हे मुनियों! जो महापातकों से युक्त और समस्त प्राणियों से द्वेष करने वाले हैं, वही त्रिपुण्ड्र धारण तथा भस्मोद्धूलन से अत्यधिक द्वेष करते हैं।।18।।

शिवाग्निकार्यं यः कृत्वा कुर्यात्त्रियायुषात्मवित्।
मुच्यते सर्वपापैस्तु स्पृष्टेन भस्मना नरः।।19।।

जो आत्मज्ञानी मनुष्य शिवाग्नि (अग्निहोत्र) का कार्य करके 'त्रयायुषं जमदग्नेः' इस मंत्र से भस्म का मात्र स्पर्श ही कर लेता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।।19।।

सितेन भस्मना कुर्यात्त्रिसन्ध्यं यस्त्रिपुण्ड्रकम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवेन सह मोदते।।20।।

जो मनुष्य तीनों संध्याकालों में श्वेत भस्म के द्वारा त्रिपुण्ड्र धारण करता है वह समस्त पापों से मुक्त होकर शिव सानिध्य का आनंद भोगता है।।20।।

सितेन भस्मना कुर्याल्ललाटे तु त्रिपुण्ड्रकम्।
योऽसावनादिभूतान्हि लोकानाप्तोयोऽमृतो भवेत्।।21।।

 जो व्यक्ति श्वेत भस्म से अपने मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह अनादि भूत लोकों को प्राप्त कर अमर हो जाता है।।21।।

अकृत्वा भस्मना स्नानं न जपेद्वै षडक्षरम्।
त्रिपुण्ड्रं च रचित्वा तु विधिना भस्मना जपेत्।।22।।

 बिना भस्म स्नान किये षडक्षर (ॐ नमः शिवाय) मन्त्र का जप नहीं करना चाहिये। विधिपूर्वक भस्म से त्रिपुण्ड्र धारण करके ही इसका जप करना चाहिये।।22।।

अदयो वाधमो वापि सर्वपापान्वितोऽपि वा।
उपपापान्वितो वापि मूर्खो वा पतितोऽपि वा।।23।।

यस्मिन्देशे वसेन्नित्यं भूतिशासनसंयुतः।
सर्वतीर्थैश्च क्रतुभिः सान्निध्यं क्रियते सदा।।24।।

 दयाहीन,अधम,महापापों से युक्त, उपपापों से युक्त, मूर्ख अथवा पतित व्यक्ति भी जिस देश में नित्य भस्म धारण करते रहते हैं, वह देश सदैव सम्पूर्ण तीर्थों और यज्ञ से परिपूर्ण ही रहता है।।23-24।।

त्रिपुण्ड्रसहितो जीवः पूज्यः सर्वैः सुरासुरैः।
पापान्वितोऽपि शुद्धात्मा किं पुनः श्रद्धया युतः।।25।।

त्रिपुण्ड्र धारण करने वाला पापी जीव भी समस्त देवताओं और असुरों के द्वारा पूज्य है। यदि पुण्यात्मा त्रिपुण्ड्र से युक्त है तो उसके लिए कहना ही क्या।।25।।

यस्मिन्देशे शिवज्ञानी भूतिशासनसंयुतः।
गतो यदृच्छयाद्यापि तस्मिंस्तीर्थाः समागताः।।26।।

भस्म धारण करने वाला शिव ज्ञानी जिस देश में स्वेच्छया चला जाता है, उस देश में समस्त तीर्थ आ जाते हैं।।26।।

बहुनात्र किमुक्तेन धार्यं भस्म सदा बुधैः।
लिङ्गार्चनं सदा कार्यं जप्यो मन्त्रः षडक्षरः।।27।।

इस विषय में और अधिक क्या कहा जाय! विद्वानों को सदैव भस्म धारण करना चाहिये एवं लिंगार्चन करके षडक्षर मंत्र का जप करना चाहिये।।27।।

ब्रह्मणा विष्णुना वापि रुद्रेण मुनिभिः सुरैः।
भस्मधारण माहात्म्यं न शक्यं परिभाषितुम्।।28।।

 ब्रह्मा,विष्णु, रुद्र, मुनि गण, और देवताओं के द्वारा भी भस्म धारण करने के महत्व का वर्णन किया जाना संभव नहीं है।।28।।

इति वर्णाश्रमाचारो लुप्तवर्णक्रियोऽपि च।
पापात्सकृत्त्रिपुण्ड्रस्य धारणात्सोऽपि मुच्यते।।29।।

जिसने अपने वर्ण तथा आश्रमधर्म से सम्बन्धित आचार तथा क्रियाएं लुप्त कर दी हैं, यदि वह भी त्रिपुण्ड्र धारण करता है, तो समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।।29।।

ये भस्मधारिणं त्यक्त्वा कर्म कुर्वन्ति मानवाः।
तेषां नास्ति विनिर्मोक्षः संसाराज्जन्मकोटिभिः।।30।।

जो भस्म धारण करने वाले को त्याग कर धार्मिक कृत्य करते हैं, उनको करोड़ों जन्म लेने पर भी संसार से मुक्ति प्राप्त नहीं हो पाती है।।30।।

तेनाधीतं गुरोः सर्वं तेन सर्वमनुष्ठितम्।
येन विप्रेण शिरसि त्रिपुण्ड्रं भस्मना कृतम्।।31।।

 जिस ब्राह्मण ने भस्म से अपने सिर पर त्रिपुण्ड्र धारण कर लिया है, उसने मानो गुरु से सब कुछ पढ़ लिया है और सभी धार्मिक अनुष्ठान कर लिये हैं।।31।।

ये भस्म धारिणं दृष्ट्वा नराः कुर्वन्ति ताडनम्।
तेषां चण्डालतो जन्म ब्रह्मन्नूह्यं विपश्चिता।।32।।

जो मनुष्य भस्म धारण करने वाले को देख कर उसे कष्ट देते हैं, वे निश्चित ही चाण्डाल से उत्पन्न हुए हैं, ऐसा विद्वानों को जानना चाहिये।।32।।

मानस्तोकेन मन्त्रेण मन्त्रितं भस्म धारयेत्।
ब्राह्मणः क्षत्रियश्चैव प्रोक्तेष्वङ्गेषु भक्तिमान्।।33।।

भक्ति परायण ब्राह्मण और क्षत्रिय को "मानस्तोके तनये मान आयुषि मानो गोषु मानो अश्वेषुरीरिषः। मानो वीरान्न रुद्र भामिनो वधीरिहविष्मन्तः सदमित्वाहवामहे।।" इस मंत्र से अभिमन्त्रित भस्म को शास्त्रसम्मत कहे गये अंगों पर धारण करना चाहिये।।33।।

वैश्यस्त्रियम्बकेनैव शूद्रः पञ्चाक्षरेण तु।
अन्यासां विधवास्त्रीणां विधिः प्रोक्तश्च शूद्रवत्।।34।।

 वैश्य "त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिम पुष्टि वर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।"इस मंत्र से और शूद्र "शिवाय नमः" इस पंचाक्षर मन्त्र से भस्म को अभिमन्त्रित  कर धारण करें, विधवा स्त्रियों के लिये भस्म धारण की विधि शूद्रों के समान कही गई है।।34।।

पञ्चब्रह्मादिमनुभिर्गृहस्थस्य विधीयते।
त्रियम्बकेन मनुना विधिर्वै ब्रह्मचारिणः।।35।।

अघोरेणाथ मनुना विपिनस्थविधिः स्मृतः।
यतिस्तु प्रणवेनैव त्रिपुण्ड्रादीनि कारयेत्।।36।।

 पांँच ब्रह्मादि(अघोर,ईशान,तत्पुरुष,सद्योजात, वामदेव ) मंत्रों से अभिमंत्रित भस्म के द्वारा गृहस्थ त्रिपुण्ड्र धारण करे। ब्रह्मचारी 'त्रयम्बकं यजामहे' है इस मंत्र से भस्म को अभिमंत्रित करके और वानप्रस्थी 'अघोरेभ्योऽथ०'  इस मंत्र से भस्म को अभिमंत्रित करके त्रिपुण्ड्र धारण करे, किंतु यति सन्यासी प्रणव के मंत्र से भस्म को अभिमंत्रित करके त्रिपुण्ड्र धारण करे।।35-36।।

अतिवर्णाश्रमी नित्यं शिवोऽहं भावनात्परात्।
शिवयोगी च नियतमीशानेनापि धारयेत्।।37।।

जो वर्णाश्रम धर्म से परे हैं, वह 'शिवोऽहं' इस भावना से नित्य त्रिपुण्ड्र धारण करें और जो शिवयोगी है, वह ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम् ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदा शिवोम्।। इस भावना को करता हुआ त्रिपुण्ड्र धारण करे।।37।।

न त्याज्यं सर्ववर्णैश्च भस्मधारणमुत्तमम्।
अन्यैरपि यथा जीवैः सदेति शिवशासनम्।।38।।

सभी वर्णों के द्वारा भस्म धारण करने के इस उत्तम कार्य को नहीं छोड़ना चाहिये। जीवों को सदा भस्म धारण करना चाहिये, ऐसा भगवान शिव का आदेश है।।38।।

भस्मस्नानेन यावन्तः कणाः स्वाङ्गे प्रतिष्ठिताः।
तावन्ति शिवलिङ्गानि तनौ धत्ते हि धारकः।।39।।

भस्म स्नान करने से जितने कण शरीर में प्रवेश करते हैं, उतने ही शिव लिंगों को वह धारक अपने शरीर में धारण करता है।।39।।

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चापि च सङ्कराः।
स्त्रियोऽथ विधवा बालाः प्राप्ता पाखण्डिकास्तथा।।40।।

ब्रह्मचारी गृही वन्यः सन्यासी वा व्रती तथा।
नार्यो भस्मत्रिपुण्ड्राङ्का मुक्ता एव न संशयः।।41।।

 ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, स्त्री (सधवा, विधवा) बालक, पाखंडी, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी, व्रती और सन्यासिनी स्त्रियां ये सभी भस्म के त्रिपुण्ड्र धारण के प्रभाव के द्वारा मुक्त हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है।।40-41।।

ज्ञाना ज्ञान धृतो वापि वह्निदाहसमो यथा।
ज्ञानाज्ञानधृतं भस्म पावयेत्सकलं नरम्।।42।।

 जैसे ज्ञान या अज्ञानवश धारण की गयी अग्नि सबको समान रूप से जलाती है, वैसे ही ज्ञान या अज्ञान वश धारण किया गया भस्म भी समान रूप से सभी मनुष्यों को पवित्र करता है।।42।।

नाश्नीयाज्जलमन्नमल्पमपि वा भस्माक्षधृत्या विना भुक्त्वा वाथ गृही वनीपतियतिर्वर्णी तथा सङ्करः।
एनोभुङ् नरकं प्रयाति स तदा गायत्रिजापेन तद् वर्णानां तु यतेस्तु मुख्यप्रणवाजापेन मुक्तिर्भवेत्।।43।।

भस्म तथा रुद्राक्ष धारण के बिना जल अथवा अन्न को अंश मात्र भी नहीं खाना चाहिये। गृहस्थ, वानप्रस्थ सन्यासी और वर्णसंकर जाति का व्यक्ति यदि भस्म एवं रुद्राक्ष को धारण किए बिना भोजन करता है, तो वह मात्र पाप ही खाता है और नरक की ओर प्रस्थान करता है। ऐसे समय में उक्त वर्ण धर्मों का वह व्यक्ति गायत्री मंत्र के जप से तथा यति(सन्यासी) मुख्य प्रणव मंत्र के जप से प्रायश्चित करके मुक्ति प्राप्त कर सकता है।।43।। 

त्रिपुण्ड्रं ये विनिन्दन्ति निन्दन्ति शिवमेव ते।
धारयन्ति  च ये भक्त्या धारयन्ति तमेव ते।।44।।

जो त्रिपुण्ड्र धारण की निंदा करते हैं वे साक्षात शिव  की ही निंदा करते हैं और जो त्रिपुण्ड्र को धारण करते हैं वे साक्षात उन्हीं शिव को ही धारण करते हैं।।44।।

धिग्भस्मरहितं भालं धिग्ग्राममशिवालयम्।
धिगनीशार्चनं जन्म धिग्विद्यामशिवाश्रयाम्।।45।।

 भस्म रहित भाल को धिक्कार है, शिवालय (शिव मंदिर) रहित ग्राम को धिक्कार है, शिवार्चन से रहित जन्म को धिक्कार है और शिव ज्ञान रहित विद्या को धिक्कार है।।45।।

ये निन्दन्ति महेश्वरं त्रिजगतामाधारभूतं हरं ये निन्दन्ति त्रिपुण्ड्रधारणकरं दोषस्तु तद्दर्शने।
ते वै सङ्करसूकरासुरखरश्वक्रोष्टुकीटोपमा जाता एव भवन्ति पापपरमास्ते नारकाः केवलम्।।46।।

जो लोग तीनों लोकों के आधार स्वरूप महेश्वर भगवान शिव की निंदा करते हैं और त्रिपुण्ड्र धारण करने वाले की निंदा करते हैं, उनको तो देखने से ही पाप लगता है। वर्णसंकर, सूअर, असुर, खर (गधा), स्वान, क्रोष्टु (सियार) तथा कीड़े मकोड़ों के समान ही उत्पन्न होते हैं और उन नरकगामी व्यक्तियों का यह जन्म मात्र पाप करने के लिए ही होता है।।46।।

ते दृष्ट्वा शशिभास्करौ निशि दिने स्वपनेऽपि नो केवलं पश्यन्तु श्रुतिरुद्रसूक्तजपतो मुच्येत तेनादृताः।
तत्सम्भाषणतो भवेद्धि नरकं निस्तारवानास्थितं ये भस्मादिविधारणं हि पुरुषं  निन्दन्ति मन्दा हि  ते।।47।।

 भगवान शिव की तथा त्रिपुण्ड्र धारण करने वाले उनके भक्तों की जो निन्दा करते हैं, उन्हें रात में देखने पर चंद्रमा के दर्शन से और दिन में देखने पर सूर्य के दर्शन से शुद्धि प्राप्त होती है। मात्र इतना ही नहीं स्वप्न में भी उन्हें देखने से पाप लगता है, अतः स्वप्न में जो उन्हें देखे, उसको अपनी शुद्धि के लिए श्रुति में कहे गए रुद्र सूक्त का आदर पूर्वक पाठ करना चाहिये, तभी उससे छुटकारा मिल सकता है। उनसे बात करने से नरक होता है। उस नरक से मुक्ति प्राप्त करना असम्भव है। जो भस्म, त्रिपुण्ड्र आदि धारण करने वाले पुरुष की निन्दा करते हैं, वे निश्चित ही मूर्ख हैं।।47।।

न तान्त्रिकस्त्वधिकृतो नोर्ध्वपुण्ड्रधरो मुने।
सन्तप्तचक्रचिह्नोऽत्र शिवयज्ञे बहिष्कृतः।।48।।

हे मुने! तांत्रिक, उर्ध्वत्रिपुण्ड्र धारण करने वाले तथा तपाये हुए चक्र आदि चिह्नों को धारण  करने वाले इस शिवयज्ञ  के अधिकारी नहीं है, वे इस यज्ञ से बहिष्कृत हैं।।48।।

तत्रैते बहवो लोका बृहज्जाबालचोदिताः।
ते विचार्याः प्रयत्नेन ततो भस्मरतो भवेत्।।49।।

बृहज्जाबालोपनिषद में कहे गये वे लोग ही उस यज्ञ में अधिकारी हैं। प्रयत्न पूर्वक उन्हें शिव यज्ञ के कार्य में सम्मिलित करना चाहिये। उन्हें भस्म लगाना चाहिये।।49।।

यच्चन्दनैश्चन्दनकेऽपि मिश्रं धार्यं हि भस्मैव त्रिपुण्ड्र भस्मना।
विभूतिभालोपरि किञ्चनापि धार्यं सदा नो यदि सन्ति बुद्धयः।।50।।

 विभूति का चंदन से या चंदन में विभूति का मिश्रण कर बनाये गये मिश्रित भस्म से मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये। कुछ भी हो मस्तक पर विभूति धारण करना आवश्यक है। यदि बुद्धि नहीं है तो भी यह करना सदा लोगों के लिए आवश्यक ही है।।50।।

स्त्रीभिस्त्रिपुण्ड्रमलकखवधि धारणीयं भस्म द्विजादिभिरथो विधवाभिरेवम्।
तद्वत्सदाश्रमवतां विशदा विभूतिर्धार्यापवर्गफलदा सकलाघहन्त्री।।51।।

ब्रह्मचारिणी,सधवा तथा विधवा स्त्रियों और ब्राह्मण द्विजों  को केशपर्यन्त भस्म धारण करना चाहिये। इसी प्रकार ब्रह्मचर्यादि आश्रम वालों को भी स्वच्छ विभूति धारण करना उचित है, क्योंकि विभूति मोक्ष देने वाली और समस्त पापों का नाश करने वाली है।।51।।

त्रिपुण्ड्रं कुरुते यस्तु भस्मना विधिपूर्वकम्।
महापातकसङ्घातैर्मुच्यते चोपपातकैः।।52।।

जो भस्म द्वारा विधिपूर्वक त्रिपुण्ड्रधारण करता है वह ब्रह्महत्यादि महापातक समूहों और उच्छिष्ट अन्नादिभक्षण उपपातकों से मुक्त हो जाता है।।52।।

ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थो थवा यतिः।
ब्रह्मक्षत्राश्च विट्शूद्रास्तथान्ये पतिताधमाः।।53।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च धृत्वा शुद्धा भवन्ति च।
भस्मनो विधिना सम्यक् पापराशिं विहाय च।।54।।

 ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी और सन्यासी ये चारों आश्रम, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य वर्णसंकर ये चारों वर्ण और उपवर्ण के लोग पतित अथवा नीच मनुष्य भी विधिपूर्वक शरीर पर भस्म  उद्धूलन और त्रिपुण्ड्र धारण करके शुद्ध हो जाते हैं। क्योंकि सम्यक रूप से धारण की गई भस्म से तत्काल ही पाप राशि से मुक्ति प्राप्त हो जाती है।।53-54।।

भस्मधारी विशेषेण स्त्रीगोहत्यादिपातकैः।
वीरहत्याश्वहत्याभ्यां मुच्यते नात्र संशयः।।55।।
भस्म धारण करने वाला व्यक्ति विशेष रूप से स्त्री हत्या,गौ हत्या, वीर हत्या और अश्वहत्या आदि पापों से मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।।55।।

परद्रव्यापहरणं परदाराभिमर्शनम्।
परनिन्दां परक्षेत्रहरणं परपीडनम्।।56।।

सस्यारामादिहरणं गृहदाहादिकर्म च।
गोहिरण्यमहिष्यादितिलकम्बलवाससाम्।।57।।

अन्नधान्यजलादीनां नीचेभ्यश्च परिग्रहः।
दाशवेश्यामतङ्गीषु वृषलीषु नटीषु च।।58।।

रजस्वलासु कन्यासु विधवासु च मैथुनम्।
मांसचर्मरसादीनां लवणस्य च विक्रयः।।59।।

पैशुन्यं कूटवादश्च साक्षिमिथ्याभिलाषिणाम्।
एवमादीन्यसङ्ख्यानि पापानि  विविधानि च।
सद्य एव विनश्यन्ति त्रिपुण्ड्रस्य च धारणात्।।60।।

 दूसरे के द्रव्य का अपहरण, पराई स्त्री का अभिमर्शन, दूसरे की निंदा, पराये खेत का अपहरण, दूसरे को कष्ट देना, फसल और बाग आदि का अपहरण, घर फूँकना (जलाना) आदि कर्म,नीचों से गाय, सोना, भैंस, तिल कंबल, वस्त्र, अन्न,धान्य तथा जल आदि का परिग्रह, दाश( मछुवारा) वेश्या, मतंगी, चाण्डाली, शूद्रा,  नटी, रजस्वला, कन्या और विधवा स्त्रियों से मैथुन, मांस, चर्म,रस तथा नमक का विक्रय, पैशुन्य(चुगली) और अस्पष्ट बात, असत्य गवाही आदि देना। इस प्रकार से अन्य असंख्य विभिन्न प्रकार के पाप त्रिपुण्ड्र धारण करने के प्रभाव से तत्काल ही नष्ट हो जाते हैं।।56-57-58-59-60।।

शिवद्रव्यापहरणं शिवनिन्दख च कुत्रचित्।
निन्दा च शिवभक्तानां प्रायश्चत्तैर्न शुध्यति।।61।।

भगवान शिव के द्रव्य का अपहरण और जहाँ कहीं शिव की निंदा करने वाला तथा शिव के भक्तों की निंदा करने वाला व्यक्ति प्रायश्चित करने पर भी शुद्ध नहीं होता है।।61।।

रुद्राक्षं यस्य गात्रेषु ललाटे तु त्रिपुण्ड्रकम्।
स चाण्डाल़ोऽपि सम्पूज्यः सर्ववर्णोत्तमोत्तमः।।62।।

जिसने शरीर पर रुद्राक्ष और मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण किया है, ऐसा मनुष्य यदि चाण्डाल भी है, तो भी वह सभी वर्णों में श्रेष्ठतम और सम्पूज्य है।।62।।

यानि तीर्थानि लोकेऽस्मिन् गङ्गाद्याः सरितश्च याः।
स्नातो भवति सर्वत्र ललाटे यस्त्रिपुण्ड्रकम्।।63।।

 जो मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह इस संसार में जितने भी तीर्थ है और गंगा आदि जितनी नदियांँ हैं, उन सब में स्नान किए हुए के समान पुण्य फल प्राप्त करने वाला होता है।।63।।

 सप्तकोटिमहामन्त्राः पञ्चाक्षरपुरस्सराः।
तथान्ये कोटिशो मन्त्राः शैवकैवल्यहेतवः।।64।।

पञ्चाक्षर मन्त्र से लेकर सात करोड़ महामन्त्र और अन्य करोड़ो मन्त्र शिवकैवल्य को प्रदान करनेवाले होते हैं।।64।।

अन्ये मन्त्राश्च देवानां सर्वसौख्यकरा मुने।
ते सर्वे तस्य वश्याः स्युर्यो बिभर्ति त्रिपुण्ड्रकम्।।65।।

हे मुने! विष्णु आदि देवताओं के लिए प्रतिपादित अन्य जो मन्त्र हैं, वे सभी सुखों को देने वाले हैं, जो त्रिपुण्ड्र धारण करता है, उसके वश में वे सब मन्त्र स्वतः ही हो जाते हैं।।65।।

सहस्त्र पूर्वजातानां सहस्त्रं जनयिष्यताम्।
स्ववंशजानां ज्ञातीनामुद्धरेद्यस्त्रिपुण्ड्रकृत्।।66। 

त्रिपुण्ड्र धारण करने वाला मनुष्य अपने वंश और गोत्र में उत्पन्न हजारों पूर्वजों का और भविष्य में उत्पन्न होने वाली हजारों सन्तानों का उद्धार करता है।।66।।

इह भुक्त्वा खिलान्भोगान्दीर्घायुव्र्याधिवर्जितः।
जीवितान्ते च मरणं सुखेनैव प्रपद्यते।।67।।
अष्टैश्वर्यगणोपेतं प्राप्य दिव्यवपुः शिवम्।
दिव्यं विमानमारुह्य दिव्यत्रिदशसेवितम्।।68।।

 जो त्रिपुंड धारण करता है, उसे इस लोक में रोग रहित दीर्घायु प्राप्त होती है और वह सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके जीवन के अन्तिम समय में सुख पूर्वक ही मृत्यु को प्राप्त करता है। वह मृत्यु के पश्चात अणिमा, महिमा आदि आठों ऐश्वर्यों और सद्गुणों से युक्त दिव्य शरीर वाले शिव को प्राप्त करता है और दिव्यलोक के देवों से सेवित दिव्य विमान पर चढ़कर शिवलोक को जाता है।।67-68।।

विद्याधराणां सर्वेषां गन्धर्वाणां महौजसाम्।
इन्द्रादि लोकपालानां लोकेषु च यथाक्रमम्।।69।।

भुक्त्वा भोगान्सुविपुलान्प्रजेशानां पदेषु च।
ब्रह्मणः पदमासाद्य तत्र कन्याशतं रमेत्।।70।।

 वहांँ पर वह सभी विद्याधरों और महापराक्रमी गन्धर्वों, इन्द्रादि लोकपालों के लोकों में क्रमशः जाकर बहुत से भोगों का उपभोग करता हुआ प्रजापतियों के पदों तथा ब्रह्मा के पद पर आसीन होकर वहां दिव्यलोक की सैकड़ों कन्याओं के साथ आनन्दित होता है।।69-70।।

तत्र ब्रह्मायुषो मानं भुक्त्वा भोगाननेकशः।
विष्णोर्लोके लभेद्भोगं यावद् ब्रह्मशतात्ययः।।71।।
शिवलोकं ततः प्राप्य लब्ध्वेष्टं काममक्षयम्।
शिवसायुज्यमाप्नोति संशयो नात्र जायते।।72।।

वह उस लोक में ब्रह्मा की आयु के बराबर आयु को प्राप्त कर अनेक सुखों का भोग करके विष्णुलोक को जाता है और ब्रह्मा के सौ वर्षों तक सुखों का भोग प्राप्त करता है। तदनन्तर वह शिवलोक को जाकर इच्छानुकूल अक्षय कामनाओं को प्राप्त कर शिव का सानिध्य प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं है।।71-72।।

सर्वोपनिषदां सारं समालोक्य मुहुर्मुहुः।
इदमेव हि निर्णीतं परं श्रेयस्त्रिपुण्ड्रकम्।।73।।

सभी उपनिषदों के सार को बार बार सम्यक रूप से देखकर यही निर्णय लिया गया है कि त्रिपुण्ड्र धारण करना ही परम श्रेष्ठ है।।73।।

विभूतिं निन्दते यो वै ब्राह्मणः सोऽन्यजातकः।
प्रयाति नरके घोरे यावद् ब्रह्मा चतुर्मुखः।।74।।

 जो ब्राह्मण विभूति की निन्दा करता है, वह ब्राह्मण नहीं है, अपितु अन्य जाति का है और विभूति निन्दा के कारण उसे चतुर्मुख ब्रह्मा की आयु सीमा तक नरक भोगना पड़ता है।।74।।

श्राद्धे यज्ञे जपे होमे वैश्वदेवे सुरार्चने।
धृतत्रिपुण्ड्र पूतात्मा मृत्यं जयति मानवः।।75।।

 श्राद्ध, यज्ञ, जप, होम, बलिवैश्वदेव और देव पूजन के समय जो पूतात्मा मनुष्य त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह मृत्यु को भी जीत लेता है।।75।।

जलस्नानं मलत्यागे भस्मस्नानं सदा शुचिः।
मन्त्रस्नानं हरेत्पापं ज्ञानस्नानं परं पदम्।।76।।

 मल त्याग करने पर शुद्धि के लिये जल स्नान किया जाता है, भस्म स्नान करने पर सदा पवित्रता आती है, मन्त्र स्नान पाप का हरण करता है और ज्ञानरूपी जल में अवगाहन करने पर परम पद की प्राप्ति होती है।।76।।

भस्मस्नानं परं तीर्थं गङ्गास्नानं दिने दिने।
भस्मरुपी शिवः साक्षाद्भस्म त्रैलोक्यपावनम्।।77।।

 भस्म स्नानही परमश्रेष्ठ तीर्थ है, जो प्रतिदिन गङ्गा तीर्थ स्नान के समान है, भस्म तो भस्मरुपी साक्षात शिव है, भस्म त्रैलोक्य को पवित्र करने वाला है।।77।।

सर्वतीर्थेषु यत्पुण्यं सर्वतीर्थेषु यत्फलम्।
तत्फलं समवाप्नोति भस्मस्नान करो नरः।।78।।

समस्त तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य और फल प्राप्त होता है, वह फल, भस्म स्नान करने वाले को प्राप्त हो जाता है।।78।।

नतत्स्नानं न तद्ध्यानं न तद्दानं जपो न सः।
त्रिपुण्ड्रेण विना येन विप्रेण यदनुष्ठितम्।।79।।

बिना त्रिपुण्ड्र धारण किए हुए जो ब्राह्मण स्नान, ध्यान, दान और जप आदि अनुष्ठान कर्म करता है, वह न तो स्नान है, न ध्यान है, न दान है, और न जप, आदि अन्य अनुष्ठित कर्म ही हैं।।79।।

वानप्रस्थस्य कन्यानां दीक्षाहीननृणां तथा।
मध्याह्नात्प्राग्जलैर्युक्तं परतो जलवर्जितम्।।80।।
एवं त्रिपुण्ड्रं यः कुर्यान्नित्यं नियतमानसः।
शिवभक्तः स विज्ञेयो भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति।।।81।।

वानप्रस्थ, कन्या और दीक्षा रहित मनुष्यों को मध्याह्न के पूर्व ही जल से युक्त त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये, किंतु मध्याह्न के पश्चात जलरहित भस्म से त्रिपुण्ड्र धारण करना उचित है। इस प्रकार श्रद्धा पूर्वक दृढ़ निश्चय वाला जो व्यक्ति नित्य त्रिपुण्ड्र धारण करता है, उसे ही शिवभक्त जानना चाहिये, उसी को भुक्ति तथा मुक्ति भी प्राप्त होती है।।80-81।।

यस्याङ्गे नैव रुद्राक्ष एकोऽपि बहुपुण्यदः।
तस्य जन्म निरर्थं स्यात्त्रिपुण्ड्ररहितो यदि।।82।।

जिसके अंग पर प्रचुर पुण्य देने वाला एक भी रुद्राक्ष नहीं है और वह त्रिपुण्ड्र से भी रहित है, उसका जन्म लेना व्यर्थ है।।82।।

एवं त्रिपुण्ड्र माहात्म्यं समासात् कथितं मया।
रहस्यं सर्वजन्तूनां गोपनीयमिदं त्वया।।83।।

इसके पश्चात भस्म धारण तथा त्रिपुण्ड्र की महिमा एवं विधि बताकर सूत जी ने फिर कहा। हे महर्षियो! इस प्रकार मैंने संक्षेप से त्रिपुण्ड्र का माहात्म्य बताया है। यह समस्त प्राणियों के लिये गोपनीय रहस्य है। अतः आपको भी इसे गुप्त ही रखना चाहिये।।83।।

तिस्त्रो रेखा भवन्त्येव स्थानेषु मुनिपुङ्गवाः।
ललाटादिषु सर्वेषु यथोक्तेषच बुधैर्मुने।।84।।

मुनिवरो! ललाट आदि सभी निर्दिष्ट स्थानों में जो भस्म से तीन तिरछी रेखाएं बनायी जाती हैं, उन्ही को विद्वानों ने त्रिपुण्ड्र कहा है।।84।।

भ्रुवोर्मध्यं समारभ्य यावदन्तो भवेद् भ्रुवोः।
तावत्प्रमाणं सन्धार्यं ललाटे च त्रिपुण्ड्रकम्।।85।।

भौहों के के मध्य भाग से लेकर जहां तक भौहों का अन्त है, उतना बड़ा त्रिपुण्ड्र ललाट में धारण करना चाहिये।।85।।

मध्यमानामिकाङ्गुल्या मध्ये तु प्रतिलोमतः।
अङ्गुष्ठेन कृता रेखा त्रिपुण्ड्राख्याभिधीयते।।86।।

मध्येऽङ्गुलिभिरादाय तिसृभिर्भस्म यत्नतः।
त्रिपुण्ड्रं धारयेद्भक्त्या भुक्तिमुक्तिप्रदं परम्।।87।।

मध्यमा और अनामिका अँगुली से दो रेखाएं करके बीच में अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से की गई रेखा त्रिपुण्ड्र कहलाती है अथवा बीच की तीन अँगुलियों से भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्ति भाव से ललाट में त्रिपुण्ड्र धारण करे। त्रिपुण्ड्र अत्यन्त उत्तम तथा भोग और मोक्ष को देने वाला है।।86-87।।

 त्रिसृणामपि रेखानां प्रत्येकं नवदेवताः।
सर्वत्राङ्गेषु ता वक्ष्ये सावधानतया श्रृणु।।88।।

 त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाओं में से प्रत्येक के नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अंगों में स्थित हैं, मैं उनका परिचय देता हूंँ सावधान होकर सुनें।।88।।

अकारो गार्हपत्याग्निर्भूर्धर्मश्च रजोगुणः।
ऋगवेदश्च क्रियाशक्तिः प्रातः सवनमेव च।।89।।

महादेवश्च रेखायाः प्रथमायाश्च देवता।
विज्ञेया मुनिशार्दूलाः शिवदीक्षापरायणैः।।90।।

हे मुनिवरो! प्रणव का प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋगवेद, क्रियाशक्ति, प्रातःसवन तथा महादेव- ये त्रिपुण्ड्र की प्रथम रेखा के नौ देवता हैं, यह बात शिवदीक्षापरायण  पुरुषों को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये।।89-90।।

उकारो दक्षिणाग्निश्च नभस्तत्त्वं यजुस्तथा।
मध्यन्दिनं च सवनमिच्छाशक्त्यन्तरात्मकौ।।91।।

महेश्वरश्च रेखाया द्वितीयायाश्च देवता।
विज्ञेया मुनिशार्दूल शिवदीक्षापरायणैः।।92।।

हे मुनिश्रेष्ठो! प्रणव का दूसरा अक्षर उकार दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्त्वगुण, यजुर्वेद, माध्यन्दिनसवन, इच्छाशक्ति अन्तरात्मा तथा महेश्वर- यह दूसरी रेखा के नौ देवता हैं ऐसा शिव दीक्षित लोगों को जानना चाहिये।।91-92।।

मकाराहवनीयो च परमात्मा तमो दिवौ।
ज्ञानशक्तिः सामवेदस्तृतीयं सवनं तथा।।93।।
शिवश्चैव च रेखायास्तृतीयायाश्च देवता।
विज्ञेया मुनिशार्दूल शिवदीक्षापरायणैः।।94।।

हे मुनिश्रेष्ठो! प्रणव का तीसरा अक्षर मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीय सवन तथा शिव- ये तीसरी रेखा के नौ देवता हैं, ऐसा शिव दीक्षित भक्तों को जानना चाहिये।।93-94।।

एवं नित्यं नमस्कृत्य सद्भक्त्या स्थानदेवताः।
त्रिपुण्ड्रं धारयेच्छुद्धो भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति।।95।।

इस प्रकार स्थान देवताओं को उत्तम भक्तिभाव से नित्य नमस्कार करके स्नान आदि से शुद्ध हुआ पुरुष यदि त्रिपुण्ड्र धारण करे, तो भोग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है।।95।।

इत्युक्ताः स्थान देवाश्च सर्वाङ्गेषु मुनीश्वराः।
तेषां सम्बन्धिनो भक्त्या स्थानानि श्रृणु साम्प्रतम्।।96।।

हे मुनीश्वरो! ये सम्पूर्ण अंगों  में स्थान देवता बताये गये हैं, अब उनसे सम्बन्धित स्थान बताता हूंँ, भक्ति पूर्वक सुनिये।।96।।

द्वात्रिंशत्स्थानके वार्धषोडसशस्थानकेऽपि च।
अष्टस्थाने तथा चैव पञ्चस्थानेऽनान्यसेत्।।97।।
उत्तमाङ्गे ललाटे च कर्णयोर्नेत्रयोस्तथा।
नासावक्त्रगलेष्वेवं हस्तयोरुभयोस्ततः।।98।।
कूर्परे मणिबन्धे च ह।दये पार्श्वयोर्द्वयोः।
नाभौ मुष्कद्वये चैवमूर्वोर्गुल्फे च जानुनि।।99।।
जङ्घाद्वये पदद्वन्द्वे द्वात्रिंशत्स्थान मुत्तमम्।
अग्न्यब्भूवायुदिग्देश दिक्पालान् वसुभिः सह।।100।।

बत्तीस,सोलह, आठ अथवा पाँच स्थानों में मनुष्य त्रिपुण्ड्र का न्यास करे। मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों हाथ, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, दोनों पार्श्वभाग,नाभि,दोनों अण्डकोष, दोनों उरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिण्डली और दोनों पैर - ये बत्तीस उत्तम स्थान हैं, इनमें क्रमशः अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, दिक्प्रदेश,दस दिक्पाल तथा आठ वसुओं का निवास है।।97-98-99-100।।

धरा ध्रुवश्च सोमश्च आपश्चैवानिलोऽनलः।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्ट प्रकीर्तिताः।।101।।
एतेषां नाममात्रेण त्रिपुण्ड्रं धारयेद् बुधः।
कुर्याद्वा षोडशस्थाने त्रिपुण्ड्रं तु समाहितः।।102।।

धरा (धर), ध्रुव, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास ये आठ वसु कहे गये हैं। इन सबका नाममात्र लेकर इनके स्थानों में विद्वान पुरुष त्रिपुण्ड्र धारण करे अथवा एकाग्रचित्त होकर सोलह स्थानों में ही त्रिपुण्ड्र धारण करे।।101-102।।

शीर्षके च ललाटे च कण्ठे चांसद्वये भुजे।
कूर्परे मणिबन्धे च हृदये नाभिपार्श्वके।।103।।
पृष्ठे चैवं प्रतिष्ठाप्य यजेत्तत्राश्विदैवते।
शिवं शक्तिं तथा रुद्रमीशं नारदमेव च।।104।।

वामादिनवशक्तीश्च एता षोडश देवताः।
नसत्यौ दस्त्रकश्चैव अश्विनौ द्वौ प्रकीर्तितौ।।105।।

 मस्तक, ललाट, कण्ठ, दोनों कन्धों, दोनों भुजाओं, दोनों कोहनियों, दोनों कलाइयों में, हृदय में,नाभि में, दोनों पसलियों में, तथा पृष्ठ भाग में त्रिपुण्ड्र लगाकर वहांँ दोनों अश्विनी कुमारों, शिव,शक्ति, रुद्र, ईश तथा नारद का और वामा आदि नौ शक्तियों का पूजन करे। ये सब मिलकर सोलह देवता हैं। अश्विनी कुमार युगल कहे गये हैं-नासत्य और दस्त्र।।103-105।।

 अथवा मूर्ध्नि केशे च कर्णयोर्वदने तथा।
बाहुद्वये च हृदये नाभ्यामूरुयुगे तथा।।106।।
जानुद्वये च पदयोः पृष्ठभागे च षोडश।
शिवश्चन्द्रश्च रुद्रः को विघ्नेशो विष्णुरेव वा।।107।।

श्रीश्चैव हृदये शम्भुस्तथा नाभौ प्रजापतिः।
नागश्च नागकन्याश्च उभयोर्ऋषिकन्यकाः।।108।।
पादयोश्च समुद्राश्च तीर्थाः पृष्ठे विशालतः।
इत्येवं षोडशस्थानमष्टस्थानम  थोच्यते।।109।।

अथवा मस्तक, केश, दोनों कान, मुख, दोनों भुजा, हृदय, नाभि, दोनों उरू, दोनों जानु, दोनों पैर और पृष्ठभाग -इन सोलह स्थानों में सोलह त्रिपुण्ड्र का न्यास करे। मस्तक में शिव, केशों में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा, मुख में विघ्नराज गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, हृदय में शम्भू, नाभि में प्रजापति, दोनों ऊरुओं में नाग और  नाग कन्यायें, दोनों घुटनों में ऋषि कन्यायें, दोनों पैरों में समुद्र तथा विशाल पृष्ठ भाग में सम्पूर्ण तीर्थ देवता रूप से विराजमान हैं। इस प्रकार सोलह स्थानों का परिचय दिया गया। अब आठ स्थान बताये जा रहे हैं।।106-107-108-109।।

 गुह्यस्थानं ललाटश्च कर्णद्वयमनुत्तमम्।
अंसयुग्मं च हृदयं नाभिरित्येवमष्टकम्।।110।।
ब्रह्मा च ऋषयः सप्त देवताश्च प्रकीर्तिताः।
इत्येवं तु समुद्दिष्टं भस्म विद्भिर्मुनीश्वराः।।111।।
अथवा मस्तकं बाहू हृदयं नाभिरेव च।
पञ्चस्थानान्यमून्याहुर्धारणे भस्मविज्जनाः।।112।।
यथासम्भवनं कुर्याद्देशकालाद्यपेक्षया।
उद्धूलनेऽप्यशक्तश्चेत्त्रिपुण्ड्रादीनि कारयेत्।।113।।

गुह्यस्थान, ललाट, परम उत्तम कर्ण युगल, दोनों कन्धे,हृदय और नाभि  ये आठ स्थान हैं। इनमें ब्रह्मा तथा सप्तऋषि ये आठ देवता बताये गये हैं। हे मुनीश्वरो भस्म के स्थान को जानने वाले विद्वानों ने इस तरह आठ स्थानों का परिचय दिया है। अथवा मस्तक, दोनों भुजायें, हृदय और नाभि इन पांँच स्थानों को भस्मवेत्ता पुरुषों ने भस्म धारण के योग्य बताया है। यथासम्भव देश, काल आदि की अपेक्षा रखते हुए उद्धूलन (भस्म) को अभिमन्त्रित करना और जल में मिलाना आदि कार्य करे। यदि उद्धूलन में भी असमर्थ हो, तो त्रिपुण्ड्र आदि लगाये।।110-111-112-113।।

 त्रिनेत्रं त्रिगुणाधारं त्रिदेव जनकं शिवम्।
स्मरन्नमः शिवायेति ललाटे तु त्रिपुण्ड्रकम्।।114।।

ईशाभ्यां नम इत्युक्त्वा पार्श्वयोश्च त्रिपुण्ड्रकम्।बीजाभ्यां नम इत्युक्त्वा धारयेत्तु प्रकोष्ठयोः।।15।।*

कुर्यादधः पितृभ्यां च उमेशाभ्यां तथोपरि।
भीमायेति ततः पृष्ठे शिरसः पश्चिमे तथा।।116।।

त्रिनेत्रधारी तीनों गुणों के आधार तथा तीनों देवताओं के जनक भगवान शिव का स्मरण करते हुए 'नमः शिवाय' कहकर ललाट में त्रिपुण्ड्र लगाये। 'ईशाभ्या नमः' ऐसा कहकर दोनों पार्श्वभागों में त्रिपुण्ड्र धारण करे। 'वीजाभ्यां नमः' बोलकर दोनों प्रकोष्ठों में भस्म लगाये। 'पितृभ्यां नमः' कहकर नीचे के अंग में, 'उमेशाभ्यां नमः' कहकर ऊपर के अंग में तथा 'भीमाय नमः' कहकर पीठ में और सिर के पिछले भाग में त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिए।।114-115-116।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां भस्मधारण वर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः।।24।।

 🙏🏿जय बाबा की🙏🏿
बाबाचरण दास

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ त्रयोविंशोऽध्यायः

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ त्रयोविंशोऽध्यायः

ऋषय ऊचुः

सूत सूत महाभाग व्यासशिष्य नमोऽस्तु ते।
तदेव व्यासतो ब्रूहि भस्ममाहात्म्यमुत्तमम्।।1।।

तथा रुद्राक्ष माहात्म्यं नाममाहात्म्य मुत्तमम्।
त्रितयं ब्रूहि सुप्रीत्या ममानन्दय मानसम्।।2।।

ऋषिबोले- महाभाग व्यासशिष्य सूतजी!आपको नमस्कार है। अब आप उस परम उत्तम भस्म माहात्म्य, रुद्राक्ष  माहात्म्य तथा उत्तम नाम माहात्म्य - इन तीनों का परम् प्रसन्नता पूर्वक प्रतिपादन कीजिये और हमारे हृदय को आनंद दीजिये।।1-2।।

सूत उवाच

साधु पृष्टं भवद्भिश्च लोकानां हितकारकम्।
भवन्तो वै महाधन्याः पवित्राः कुलभूषणाः।।3।।
येषां चैव शिवः साक्षाद् दैवतं परमं शुभम्।
सदाशिव कथा लोके वल्लभा भवतां सदा।।4।।

सूतजी ने कहा महर्षियो!आपने बहुत उत्तम बात पूछी है। यह समस्त लोकों के लिये हितकारक विषय है। वे धन्य, पवित्र और कुल के भूषण हैं जिनके साक्षात शिवजी ही परम देवता हैं और जिनको लोक में शिवजी की कथा सदैव प्रिय है।।3-4।।

ते धन्याश्च कृतार्थाश्च सफलं देहधारणम्।
उद्धृतं च कुलं तेषां ये शिवं समुपासते।।5।।

जो शिवजी की उपासना करते हैं वे धन्य हैं, कृतार्थ हैं। उनका मनुष्य देह धारण करना सफल है। उन्होंने अपने कुल का उद्धार किया है।।5।।

शिवनाम मुखे यस्य सदा शिवशिवेति च।
पापानि न स्पृशन्त्येव खदिराङ्गारकं तथा।।6।।

जिनके मुख में सदा शिव-शिव नाम है, उनको पाप ऐसे स्पर्श नहीं करते हैं जैसे खैर अंगार को स्पर्श नहीं कर सकते।।6।।

श्रीशिवाय नमस्तुभ्यं  मुखं व्याहरते यदा।
तन्मुखं पावनं तीर्थं सर्वपापविनाशनम्।।7।।

श्री शिवजी के निमित्त नमस्कार है-ऐसा जो कोई कहता है, उसका पावन मुख तीर्थ सब पापों का नाश करने वाला है।।7।।

तन्मुखं च तथा वै पश्यति प्रीतिमान्नरः।
तीर्थजन्यं फलं तस्य भवतीति सुनिश्चितम्।।8।

जो प्रीतिमान मनुष्य उस शिवभक्त के मुख को देखता है, उसे तीर्थ का फल प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।।8।।

यत्र त्रयं सदा तिष्ठेदेतच्छुभतरं द्विजाः।
तस्यदर्शन मात्रेण वेणीस्नानफलं लभेत्।।9।।

हे ब्राह्मणो! यह शुभ प्राणी जहाँ-जहाँ स्थित होता है, इसके दर्शन मात्र से त्रिवेणी स्नान का फल प्राप्त होता है।।9।।

शिवनामविभूतिश्च तथा रुद्राक्ष एव च।
एत्त्रयं महापुण्यं त्रिवेणी सदृशं स्मृतम्।।10।।

शिवनाम, विभूति तथा रुद्राक्ष  ये तीनों महापवित्र त्रिवेणी के फल के समान हैं।।10।।

एतत्त्रयं शरीरे च यस्य तिष्ठति  नित्यशः।
तस्यैव दर्शनं लोके दुर्लभं पापहारकं।।11।।

इन तीनों को जो शरीर में स्थित नित्य देखता है, उस पापहारी मनुष्य का दर्शन लोक में दुर्लभ है।।11।।

तद्दर्शनं यथा वेणी नोभयोरन्तरं मनाक्।
एवं यो न विजानाति स पापिष्ठो न संशयः।।12।।

उस शिवभक्त का दर्शन त्रिवेणी के समान है, इसमें कुछ भी अन्तर नहीं है। जो ऐसा नहीं जानता वह पापीष्ठ है, इसमें सन्देह नहीं है।।12।।

विभूतिर्यस्य नो भाले नाङ्गे रुद्राक्ष धारणम्।
नास्ये शिवमयी वाणी तं त्यजेदधमं यथा।।13।।

जिसके मस्तक पर विभूति नहीं, अङ्ग में रूद्राक्ष नहीं, मुख में शिवमयी वाणी नहीं,उसे अधम के समान त्याग दे।।13

शैवं नाम यथा गङ्गा विभूतिर्यमुना मता।
रुद्राक्षं विधिना प्रोक्ता सर्वपापविनाशिनी।।14।।

भगवान शिव का नाम गङ्गा है, विभूति यमुना मानी गयी हैं तथा रुद्राक्ष को सरस्वती कहा गया है। इन तीनों की संयुक्त त्रिवेणी समस्त पापों का नाश करने वाली है।।14।।

शरीरे च त्रयं यस्य तत्फलं चैकतः स्थितम्।
एकतो वेणिकायाश्च स्नानजं तु फलं बुधैः।।15।।

जिसके शरीर में यह तीनों हैं, उसका फल इसमें स्थित है, एक से ही त्रिवेणी के स्नान का फल पण्डितों ने कहा है।।15।।

तदेवं तुलितं पूर्वं ब्रह्मणा हितकारिणा।
समानंचैव तज्जातं तस्माद् धार्यं सदा बुधैः।।16।।

ब्रह्माजी ने जगत के हित के निमित्त इसकी तौल की है, तो बराबर ही हुआ था, इस कारण पण्डितों को सदा विभूति धारण करनी चाहिये।।16।।

तद्दिनं हि समारभ्य ब्रह्मविष्ण्वादिभिः सुरैः।
धार्यते त्रितयं तच्च दर्शनात्पापहारकम्।।17।।

 उस दिन से लेकर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने इन तीनों के धारण का नियम किया है, जो दर्शन से ही पाप हरने वाली है।।17।।

ऋषय ऊचुः

ईदृशं हि फलं प्रोक्तं नामादित्रितयोद्भवम्।
तन्माहात्म्यं विशेषेण वक्तुमर्हसि सुव्रत।।18।।

ऋषि बोले-जब तीनों के नामों का ऐसा फल कहा है, तो हे सुब्रत! विशेष करके उनका माहात्म्य आप हमसे कहिये।।18।।

सूत उवाच

ऋषयो हि महाप्राज्ञाः सच्छैवा ज्ञानिनां वराः।
तन्माहात्म्यं हि सद्भक्त्या श्रृणुतादरतो द्विजाः।।19।।

सूत जी बोले- हे ऋषियो आप महापण्डित, ज्ञानियों में श्रेष्ठ शिव जी के भक्त हो, आप आदर से इनका माहात्म्य श्रवण कीजिये।।19।।

सुगूढमपि शास्त्रेषु पुराणेषु श्रुतिष्वपि।
भवत्स्नेहान्मया विप्राः प्रकाशः क्रियतेऽधुना।।20।।

यह शास्त्र, पुराण और श्रुतियों में गूढ़ है। हे  ब्राह्मणो! आपके स्नेह से मैं अब प्रकट करता हूँ।।20।।

कस्तत्त्रितयमाहात्म्यं सञ्जानाति द्विजोत्तमाः।
महेश्वरं विना सर्वं ब्रह्माण्डे सदसत्परम्।।21।।

 हे ब्राह्मणो! कौन सम्पूर्णता से इन तीनों का माहात्म्य जान सकता है? इस ब्रह्मांड में केवल सत-असत से परे शिवजी ही जानते हैं।।21।।

वच्म्यहं नाम माहात्म्यं यथा भक्ति समासतः।
श्रृणुत प्रीतितो विप्राः सर्वपापहरं परम्।।22।।

यथाशक्ति संक्षेप से मैं नाम माहात्म्य कहता हूँ। हे ब्राह्मणो!उस सब पाप हरने वाले नाम की महिमा प्रीति से सुनिये।।22।।

शिवेति नामदावाग्नेर्महापातक पर्वताः।
भस्मीभवन्त्यनायासात्सत्यं सत्यं न  संशयः।।23।।

'शिव' इतना नाम ही पाप रूपी महा पर्वतों को जलाने के लिए दावाग्नि है। नाम लेते ही पाप अनायास दग्ध हो जाते हैं, यह सत्य है, इसमें संदेह नहीं है।।23।।

पापमूलानि दुःखानि विविधान्यपि शौनक।
शिवनामैकनश्यानि नान्यनश्यानि सर्वथा।।24।।

हे शौनकजी! पाप से उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के दुख हैं, वे एक शिवजी के नाम से नष्ट हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है।।24।।

स वैदिकः स पुण्यात्मा स धन्यः स बुधो मतः।
शिवनामजपासक्तो यो नित्यं भुवि मानवः।।25।।

 वही वैदिक, वही पुण्यआत्मा, वही धन्य और पंडित है, जो नित्य पृथ्वी पर शिवनाम का जप करता है।।25।।

भवन्ति विविधा धर्मास्तेषां सद्यः फलोन्मुखाः।
येषां भवति विश्वासः शिवनाम जपे मुने।।26।।

मुने! जिनका शिवनाम जप में विश्वास है, उनके द्वारा आचरित नाना प्रकार के धर्म तत्काल फल देने के लिए उत्सुक हो जाते हैं।।26।।

पातकानि विनश्यन्ति यावन्ति शिवमानतः।
भुवि तावन्ति पापानि क्रियन्ते न नरैर्मुने।।27।।

महर्षे! भगवान शिव के नाम से जितने पाप नष्ट होते हैं उतने पाप मनुष्य इस भूतल पर कर नहीं सकते ।।27।।

ब्रह्महत्यादिपापानां राशीनप्रमितान्मुने।
शिवनाम द्रुतं प्रोक्तं नाशयत्यखिलान्नरैः।।28।।
हे मुने!ब्रह्महत्यादि पापों के ढेर भी शिवनाम के लेते ही नष्ट हो जाते हैं।।29।।

शिवनामतरीं प्राप्य संसाराब्धिं तरन्ति ये।
संसार मूलपापानि तानि नश्यन्त्यसंशयम्।।29।।

 जो शिव नाम रूपी नौका पर आरूढ़ हो संसार रूपी समुद्र को पार करते हैं, उनके जन्म मरण रूप संसार के मूलभूत वे सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं।इसमें संशय नहीं है।।29।।

संसारमूलभूतानां पातकानां महामुने।
शिवनामकुठारेण विनाशो जायते ध्रुवम्।।30।।

हे! महामुने संसार की मूलभूत पातक रूपी वृक्ष का शिव नाम रूपी कुठार से निश्चय ही नाश हो जाता है।।30।।

शिवनामामृतं पेयं पापदावानलार्दितैः।पापदावाग्नितप्तानां शान्तिस्तेन विना न हि।।31।।

जो पाप रूपी दावानल से पीड़ित हैं, उन्हें शिव नाम रूपी अमृत का पान करना चाहिये। पापों के दावानल से दग्ध होने वाले लोगों को उस शिव नामामृत के बिना शान्ति नहीं मिल सकती।।31।।


शिवेति नाम पीयूषवर्षधारापरिप्लुताः।
संसारदवमध्येऽपि न शोचन्ति कदाचन।।32।।

जो शिव नाम रूपी सुधा की वृष्टि जनित धारा में गोते लगा रहे हैं, वे संसार रूपी दावानल के बीच में खड़े होने पर भी कदापि शोक के भागी नहीं होते।।32।।

शिवनाम्नि महद्भक्तिर्जाता येषां महात्मनाम्।
तद्विधानां तु सहसा मुक्तिर्भवति सर्वथा।।33।।

 जिन महात्माओं के मन में शिव नाम के प्रति बड़ी भारी भक्ति है ऐसे लोगों की सहसा और सर्वथा मुक्ति होती है।।33।।

अनेकजन्मभिर्येन तपस्तप्तं मुनीश्वर।
शिवनाम्नि भवेद्भक्तिः सर्वपापहारिणी।।34।।

हे! मुनीश्वर जिसने अनेक जन्मों तक तपस्या की है, उसी की शिव नाम के प्रति भक्ति होती है, जो समस्त पापों का नाश करने वाली है।।34।।

यस्यासाधारणी शम्भुनाम्नि भक्तिरखण्डिता।
तस्यैवमोक्षः सुलभो नान्यस्येति मतिर्मम।।35।।

जिसके मन में भगवान शिव के नाम के प्रति कभी खण्डित न होने वाली असाधारण भक्ति प्रकट हुई है, उसी के लिये मोक्ष सुलभ है। यह मेरा मत है।।35।।

कृत्वाप्यनेकपापानि शिवनाम जपादरः।
सर्वपापविनिर्मुक्तो भवत्येव न संशयः।।36।।

जो अनेक पाप करके भी भगवान शिव के नामजप में आदरपूर्वक लग गया है, वह समस्त पापों से मुक्त हो ही जाता है, इसमें संशय नहीं है।।36।।

भवन्ति भस्मसाद् वृक्षा दवदग्धा यथा वने।
तथा तावन्ति दग्धानि पापानि शिवनामतः।।37।।

जैसे वन में दावानल से दग्ध हुए वृक्ष भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार शिवनाम रूपी दावानल से दग्ध होकर उस समय तक के सारे पाप भस्म हो जाते हैं।।37।।

यो नित्यं भस्मपूताङ्गः शिवनामजपादरः।
स तरत्येव संसारमघोरमपि शौनक।।38।।

शौनक! जिसके अंग नित्य भस्म लगाने से पवित्र हो गये हैं तथा जो शिव नामजप का आदर करने लगा है, वह घोर संसार सागर को भी पार कर ही लेता है।।38।।

ब्रह्मस्वहरणं कृत्वा हत्वापि ब्राह्मणान्बहून।
न लिप्यते नरः पापैः शिवनामजपादरः।।39।।

ब्राह्मणों का द्रव्य हरण करके, ब्राह्मणों को मारकर भी शिव नाम भक्ति से जपने वाला पाप से लिप्त नहीं होता है।।39।।

विलोक्य वेदानखिलान् शिवनामजपः परः।
संसारतरणोपाय इति पूर्वैर्विनिश्चतम्।।40।।

 संपूर्ण वेदों का अवलोकन करके पूर्ववर्ती महर्षियों ने यही निश्चित किया है कि भगवान शिव के नाम का जप संसार सागर को पार करने के लिए सर्वोत्तम उपाय है।।40।।

किं बहूक्त्त्या मुनिश्रेष्ठाः शलोकेनैकेन वच्म्यहम्।
शिवाभिधान माहात्म्यं सर्वपापापहारणम्।।41।।

पापानां हरणे शम्भोर्नाम्नः शक्तिर्हि यावती।
शक्नोति पातकं तावत्कर्तुं नापि नरः क्वचित्।।42।।

मुनिवरो! अधिक कहने से क्या लाभ, मैं शिव नाम के सर्व पापहारी माहात्म्य का एक ही श्लोक में वर्णन करता हूंँ।भगवान शंकर के एक नाम में भी पाप हरण की जितनी शक्ति है, उतना पातक मनुष्य कभी कर ही नहीं सकता।।41-42।।

शिवनामप्रभावेण लेभे सद्गतिमुत्तमाम्।
इन्द्रद्युम्ननृपः पूर्वं महापापयुतो मुने।।43।।

 मुने! पूर्व काल में महा पापी राजा इंद्रद्युम्न ने शिवनाम के प्रभाव से ही उत्तम सद्गति प्राप्त की थी।।43।।

तथा काचिद् द्विजा योषाऽसौ मुने बहुपापिनी।
शिवनाम प्रभावेण लेभे सद्गतिमुत्तमाम।।44।।

इत्युक्तं वो द्विजश्रेष्ठा नाम माहात्म्य मुत्तमम्।
श्रृणुध्वं भस्ममाहात्म्यं सर्वपावनपावनम्।।45।।

इसी तरह कोई ब्राह्मणी युवती भी जो बहुत पाप कर चुकी थी, शिव नाम के प्रभाव से ही उत्तम गति को प्राप्त हुई। द्विजवरो! इस प्रकार मैंने तुमसे भगवान नाम के उत्तम माहात्म्य का वर्णन किया है। अब तुम भस्म का माहात्म्य सुनो, जो समस्त पावन वस्तुओं को भी पावन करने वाला है।।44-45।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां साध्यसाधन खण्डे शिवनाम माहात्म्यवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः।।23।।

🙏🏿जय बाबा की।🙏🏿
बाबाचरण दास

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ द्वाविंशोऽध्यायः

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ द्वाविंशोऽध्यायः

ऋषय ऊचुः

अग्राह्यं शिवनैवेद्यमिति पूर्वं श्रुतं वचः।
ब्रूहि तन्निर्णयं बिल्व माहात्म्यमपि सन्मुने।।1।।

ऋषि बोले-  मुने!हमने पहले से यह बात सुन रखी है कि भगवान शिव का नैवेद्य ग्रहण नहीं करना चाहिये। इस विषय में शास्त्र का निर्णय क्या है, यह बताइये। साथ ही बिल्व का माहात्म्य भी प्रकट कीजिये।।1।।

सूत उवाच

श्रृणुध्वं मुनयः सर्वे सावधानतयाधुना।
सर्वं वदामि सम्प्रीत्या धन्या यूयं शिवव्रताः।।2।।

सूत जी ने कहा-- मुनियो!आप शिव सम्बन्धी व्रत का पालन करने वाले हैं। अतः आप सबको शतशः धन्यवाद है। मैं प्रसन्नता पूर्वक सब कुछ बताता हूँ। आप सावधान होकर सुनें।।2।।

शिवभक्तः शुचिः शुद्धः सद्व्रती दृणनिश्चयः।
भक्षयेच्छिवनैवेद्यं त्यजेदग्राह्यभावनाम्।।3।।

जो भगवान शिव का भक्त है, बाहर भीतर से पवित्र और शुद्ध है, उत्तम व्रत का पालन करने वाला तथा दृढ़ निश्चय से युक्त है, वह शिवनैवेद्य का अवश्य भक्षण करे। भगवान शिव का नैवेद्य अग्राह्य है, इस भावना को मन  से निकाल दे।।3।।

दृष्टवापि शिवनैवेद्यं यान्ति पापानि दूरतः।
भुक्ते तु शिवनैवेद्ये पुण्यान्यायान्ति कोटिशः।।4।।

शिव के नैवेद्य को देख लेने मात्र से भी सारे पाप दूर भाग जाते हैं, उसको खा लेने पर तो करोड़ों पुण्य अपने भीतर आ जाते हैं।।4।।

अलं  यागसहस्त्रेणाप्यलं यागार्बुदैरपि।
भक्षिते शिवनैवेद्यै शिवसायुज्यमाप्नुयात्।।5।।

सहस्र और अरब यज्ञ करने से  क्या है? शिवजी का नैवेद्य भक्षण करने से मनुष्य को शिवजी के सायुज्य की प्राप्ति होती है।।5।।

यदगृहे शिवनैवेद्यप्रचारोऽपि  प्रजायते।
तद्गृहं पावनं सर्वमन्यपावनकारणम्।।6।।

जिसके घर में शिवनैवेद्य का प्रचार है, वह घर महापवित्र है और वह दूसरे घरों को भी पवित्र कर देता है।।6।।

आगतं शिवनैवेद्यं गृहीत्वा शिरसा मुदा।
भक्षणीयं प्रयत्नेन शिवस्मरणपूर्वकम्।।7।।

आगतं शिवनैवेद्यमन्यदा ग्राह्यमित्यपि।
विलम्बे पापसम्बन्धो भवत्येव हि मानवः।।8।।

आये हुए शिवनैवेद्य को सिर झुकाकर प्रसन्नता के साथ ग्रहण करे और प्रयत्न करके शिव स्मरण पूर्वक उसका भक्षण करे। आये हुए शिवनैवेद्य को जो यह कहकर कि मैं इसे दूसरे समय में ग्रहण करूँगा, लेने में विलंब कर देता है, वह मनुष्य निश्चय ही पाप से बँध जाता है।।7-8।।

न यस्य शिवनैवेद्ये ग्रहणेच्छा प्रजायते।
स पापिष्ठः गरिष्ठः स्यान्नरकं यात्यपि ध्रुवम्।।9।।

शिवनैवेद्य ग्रहण में जिसकी इच्छा नहीं होती, वह महापापी अवश्य नरक में पड़ता है।।9।।

हृदये चन्द्रकान्ते च स्वर्णरूप्यादिनिर्मिते।
शिवदीक्षावता भक्तेनेदं भक्ष्यमितीर्यते।।10।।

हृदय में सुवर्ण, चाँदी आदि की बनी हुई चन्द्रकान्त वाले शिवभक्त से यह भक्षण करने योग्य है, ऐसा कहा जाता है।।10।।

शिवदीक्षान्वितो भक्तो महाप्रसादसंज्ञकम्।
सर्वेषामपि लिङ्गानां नैवेद्यं भक्षयेच्छुभम्।।11।।

अन्यदीक्षायुजां नृणां शिवभक्तिरतात्मनाम्।
श्रृणुध्वं निर्णयं प्रीत्या शिवनैवेद्यभक्षणे।।12।।

जिसने शिव पूजन की दीक्षा ली हो, उस शिवभक्त के लिये यह शिव नैवेद्य अवश्य भक्षणीय है। शिव की दीक्षा से युक्त शिवभक्ति पुरुष के लिये सभी शिवलिङ्गों का ,नैवेद्य शुभ एवं महाप्रसाद है, अतः वह उसका अवश्य भक्षण करे। परंतु जो अन्य देवताओं की दीक्षा से युक्त हैं और शिवभक्ति में भी मन को लगाये हुए हैं, उनके लिये शिवनैवेद्य  भक्षण के विषय में क्या निर्णय है इसे आप लोग प्रेमपूर्वक सुनें।।11-12।।

शालग्रामोद्भवे लिङ्गे रसलिङ्गे तथा द्विजाः।
पाषाणे राजते स्वर्णे सुरसिद्धप्रतिष्ठिते।।13।।

काश्मीरे स्फाटिके रात्ने ज्योतिर्लिङ्गेषु सर्वशः।
चान्द्रायणसमं प्रोक्तं शम्भोर्नैवेद्यभक्षणम्।।14।।

ब्राह्मणों! जहाँ से शालग्राम शिला की उत्पत्ति होती है, वहाँ के उत्पन्न लिङ्ग में, रसलिङ्ग (पारदलिङ्ग) में, पाषाण, रजत तथा सुवर्ण से निर्मित लिङ्ग में, देवताओं तथा सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित शिवलिङ्ग में, केसर निर्मित शिवलिङ्ग में, स्फटिक लिङ्ग में, रत्ननिर्मित लिङ्ग में तथा समस्त ज्योतिर्लिङ्गों में विराजमान भगवान शिव के नैवेद्य का भक्षण चान्द्रायण व्रत के समान पुण्यजनक है।।13-14।।

ब्रह्महापि शुचिर्भूत्वा निर्माल्यं यस्तु धारयेत्।
भक्षयित्वा द्रुतं तस्य सर्वपापं प्रणश्यति।।15।।

ब्रह्महत्या करने वाला पुरुष भी यदि पवित्र होकर शिव निर्माल्य का भक्षण करके उसे (सिर पर) धारण करे तो उसका सारा पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।।15।।

चण्डाधिकारो यत्रास्ति  तद्भोक्तव्यं न मानवैः।
चण्डाधिकारो नो यत्र भोक्तव्यं तच्च भक्तितः।।16।।

पर जहाँ चण्ड का अधिकार है, वहाँ जो शिव निर्माल्य हो , उसे साधारण मनुष्यों को नहीं खाना चाहिये। जहाँ चण्ड का अधिकार नहीं है, वहाँ के शिव निर्माल्य का सभी को भक्तिपूर्वक भोजन करना चाहिये।।16।।

बाणलिङ्गे च लौहे च सिद्धे लिङ्गे स्वयम्भुवि।
प्रतिमासु च सर्वासु न चण्डोऽधिकृतो भवेत्।।17।।

बाणलिङ्ग(नर्मदेश्वर), लोहनिर्मित (स्वर्णादि धातुमय) लिङ्ग, सिद्धलिङ्ग (जिन लिङ्गों की उपासना से किसी ने सिद्धि प्राप्ति की है अथवा जो सिद्धों द्वारा स्थापित हैं वे शिवलिङ्ग) स्वयम्भूलिङ्ग इन सब लिङ्गों में  तथा शिवजी की प्रतिमाओं में चण्ड का अधिकार नहीं है।।17।।

स्नापयित्वा विधानेन यो लिङ्गस्नपनोदकम्।
त्रिःपिबेत्त्रिविधं पापं तस्येहाशु विनश्यति।।18।।

जो मनुष्य शिवलिङ्ग को विधिपूर्वक स्नान कराकर उस स्नान के जल का तीन बार आचमन करता है, उसके कायिक, वाचिक एवं मानसिक तीनों प्रकार के पाप यहाँ शीघ्र नष्ट हो जाते हैं।।18।।

अग्राह्यं शिवनैवेद्यं पत्रं पुष्पं फलं जलम्।
शालग्राम शिलासङ्गात्सर्वं याति पवित्रताम्।।19।।

जो शिवनैवेद्य, पत्र, पुष्प, फल और जल अग्राह्य है, वह सब भी शालग्राम शिला के स्पर्श से पवित्र, ग्रहण के योग्य हो जाता है।।19।।

लिङ्गोपरि च यद् द्रव्यं तदग्राह्यं मुनीश्वराः।
सुपवित्रं च तज्ज्ञेयं यल्लिङ्गस्पर्शबाह्यतः।।20।।

मुनिवरो! शिवलिङ्ग के ऊपर चढ़ा हुआ जो द्रव्य है, वह अग्राह्य है। जो वस्तु शिव लिङ्ग स्पर्श से रहित है अर्थात जिस वस्तु को अलग रखकर शिवजी को निवेदित किया जाता है, लिङ्ग के ऊपर नहीं चढ़ाया जाता, उसे अत्यंत पवित्र जानना चाहिये।।20।।

नैवेद्य निर्णयः प्रोक्त इत्थं वो मुनिसत्तमाः।
श्रृणुध्वं बिल्वमाहात्म्यं सावधानतयादरात्।।21।।

महादेवस्वरूपोऽयं बिल्वो देवैरपि स्तुतः।
यथाकथञ्चिदेतस्य महिमा ज्ञायते कथम्।।22।।

अब तुम लोग सावधान हो आदरपूर्वक बिल्व का माहत्म्य सुनो। यह बिल्व वृक्ष महादेव का ही रूप है। देवताओं ने भी इसकी स्तुति की है। फिर जिस किसी तरह से इसकी महिमा कैसे जानी जा सकती है।।21-22।। 

पुण्यतीर्थानि यावन्ति लोकेषु प्रथितान्यपि।
तानि सर्वाणि तीर्थानि बिल्वमूले वसन्ति हि।।23।।

बिल्वमूले महादेवं लिङ्ग रूपिणमव्ययम्।
यः पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्राप्नुयाद् ध्रुवम्।।24।।

तीनों लोकों में जितने पुण्यतीर्थ प्रसिद्ध हैं, वे सम्पूर्ण तीर्थ बिल्व के मूल भाग में निवास करते हैं। जो पुण्य आत्मा मनुष्य बिल्व के मूल में  लिङ्गस्वरूप अविनाशी महादेव जी का पूजन करता है, वह निश्चय ही शिव पद को प्राप्त कर लेता है।।23-24।।

बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति।
स सर्वतीर्थस्नातः स्यात्स एव भुवि पावनः।।25।।

एतस्य बिल्व मूलस्याथालवालमनुत्तमम्।
जलाकुलं महादेवो दृष्ट्वा तुष्टो भवत्यलम्।।26।।

जो बिल्व की जड़ के पास जल से अपने मस्तक को सींचता है, वह सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का फल पा लेता है और वही इस भूतल पर पावन माना जाता है। इस बिल्व की जड़ के परम उत्तम थाले को जल से भरा हुआ देखकर महादेव जी पूर्णतया संतुष्ट होते हैं।25-26।।

पूजयेद् बिल्वमूलं यो गन्धपुष्पादिभिर्नरः।
शिवलोकमवाप्नोति सन्ततिर्वधते सुखम्।।27।।

बिल्वमूले दीपमालां यः कल्पयति सादरम्।
स तत्त्वज्ञान सम्पन्नो महेशान्तर्गतो भवेत्।।28।।

जो मनुष्य गन्ध, पुष्प आदि से बिल्व के मूल भाग का पूजन करता है वह शिवलोक को पाता है और इस लोक में भी उसकी सुख संतति बढ़ती है। जो बिल्व की जड़ के समीप आदर पूर्वक दीपावली जलाकर रखता है, वह तत्वज्ञान से संपन्न हो भगवान महेश्वर में मिल जाता है।।27-28।।

बिल्व शाखां समादाय हस्तेन नवपल्लवम्।
गृहीत्वा पूजयेद् बिल्वं स च पापैः प्रमुच्यते।।29।।

बिल्वमूले शिवरतं भोजयेद्यस्तु भक्तितः।
एकं वा कोटिगुणितं तस्य पुण्यं प्रजायते।।30।।

जो बिल्व की शाखा थामकर हाथ से उसके नये-नये पल्लव उतारता और उनसे उस बिल्व की पूजा करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।जो बिल्व की जड़ के समीप भगवान शिव में अनुराग रखने वाले एक भक्त को भी भक्ति पूर्वक भोजन कराता है, उसे कोटि गुना पुण्य प्राप्त होता है।।29-30।।

बिल्वमूले क्षीरयुक्तमन्नमाज्येन    संयुतम्।
यो दद्याच्छिवभक्ताय स  दरिद्रो न जायते।।31।।

साङ्गोपाङ्गमिति प्रोक्तं शिवलिङ्ग प्रपूजनम्।
प्रवृत्तानां निवृत्तानां भेदतो द्विविधं द्विजाः।।32।।

जो बिल्व की जड़ के पास शिव भक्त को खीर और घृत से युक्त अन्न देता है, वह कभी दरिद्र नहीं होता। ब्राह्मणो! इस प्रकार मैंने  साङ्गोपाङ्ग  शिवलिङ्ग पूजन का वर्णन किया। यह प्रवृत्ति मार्गी तथा निवृति मार्गी पूजकों के भेद से दो प्रकार का होता है।।31-32।।

प्रवृत्तानां पीठपूजा सर्वाभीष्टप्रदा भुवि।
पात्रेणैव प्रवृत्तस्तु सर्वपूजां समाचरेत्।।33।।

नैवेद्यमभिषेकान्ते शाल्यन्नेन समाचरेत्।
पूजान्ते स्थापयेल्लिङ्गं पुटे शुद्धे पृथग्गृहे।।34।।

प्रवृत्ति मार्गी लोगों के लिए पीठ पूजा इस भूतल पर सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली होती है। प्रवृत्त पुरुष सुपात्र गुरु आदि के द्वारा ही सारी पूजा सम्पन्न करे और अभिषेक के अन्त में अगहनी के चावल से बना हुआ नैवेद्य निवेदन करे। पूजा के अंत में शिवलिंङ्ग को शुद्ध सम्पुट में विराजमान करके घर के भीतर कहीं अलग रख दे।।33-34।।

करपूजानिवृत्तानां स्वभोज्यं तु निवेदयेत्।
निवृत्तानां परं सूक्ष्मं लिङ्गमेव विशिष्यते।।35।।

विभूत्यभ्यर्चनं कुर्याद्विभूतिं च निवेदयेत्।
पूजां कृत्वा तथा लिङ्गं शिरसा धारयेत्सदा।।36।।

निवृत्ति मार्गी उपासकों के लिए हाथ पर ही शिव पूजन का विधान है। उन्हें भिक्षा आदि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्य रूप में निवेदित कर देना चाहिए। निवृत्त पुरुषों के लिए सूक्ष्म लिङ्ग ही श्रेष्ठ बताया जाता है। वे विभूति से पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्य रूप से निवेदित भी करें। पूजा करके उस शिवलिङ्ग को सदा अपने मस्तक पर धारण करें।।35-36।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां साध्यसाधन खण्डे शिवनैवेद्यवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः।।22।।

🙏🏿जय बाबा की।🙏🏿
बाबाचरण दास

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथैकविंशोऽध्यायः

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथैकविंशोऽध्यायः

ऋषय ऊचुः

सूत सूत महाभाग व्यास शिष्य नमोस्तु ते।
सम्यगुक्तं त्वया तात पार्थिवार्चा विधानकम्।।1।।
कामना भेदमाश्रित्य सङ्ख्यां ब्रूहि विधानतः।
शिवपार्थिवलिङ्गानां कृपया दीनवत्सल।।2।।

ऋषि बोले-
हे महाभाग सूतजी! हे व्यास शिष्य! आपको नमस्कार है। आपने भली प्रकार पार्थिवपूजा का विधान कहा है। अब आप कामना भेद के अनुसार शिवजी के पार्थिव लिङ्ग की पूजा का वर्णन कीजिये। हे दीन वत्सल!आप हमारे ऊपर कृपा कीजिये।।1-2।।

सूत उवाच

श्रृणुध्वमृषयः सर्वे पार्थिवार्चा विधानकम्।
यस्यानुष्ठानमात्रेण कृतकृत्यो भवेन्नरः।।3।।

अकृत्वा पार्थिवं लिङ्गं योऽन्यदेवं प्रपूजयेत्।
वृथा भवति सा पूजा दमदानादिकं वृथा।।4।।

सूत जी बोले-हे समस्त ऋषियो ! पार्थिवपूजा का विधान सुनिये, जिसके अनुष्ठान से यह प्राणी कृतकृत्य जो जाता है। बिना पार्थिवलिङ्ग की पूजा किये जो दूसरे देवताओं की पूजा करता है, उसकी वह पूजा और दम-दानादिक वृथा हो जाते हैं।।3-4।।

सङ्ख्या पार्थिवलिङ्गानां यथाकामं निगद्यते।
सङ्ख्या सद्यो मुनिश्रेष्ठ निश्चयेन फलप्रदा।।5।।

पार्थिवलिङ्ग की संख्या कामना के अनुसार कही गयी है। हे मुनिश्रेष्ठो! विशेष करके यह संख्या निश्चय से अधिक फल देने वाली है।।5।।

प्रथमा वाहनं तत्र प्रतिष्ठा पूजनं पृथक।
लिङ्गाकारं समं तत्र सर्वं ज्ञेयं पृथक्पृथक।।6।।

पहले आवाहन, फिर प्रतिमा पूजन प्रतिष्ठा करनी चाहिये। लिंगाकार के समान पृथक पृथक पूजन करना चाहिये।।।।6।।

विद्यार्थी पुरुषः प्रीत्या सहस्त्रमितपार्थिवम्।
पूजयेच्छिवलिङ्गं हि निश्चयात्तत्फलप्रदम्।।7।।

विद्यार्थी पुरुष प्रसन्न होकर सहस्र पार्थिवलिङ्ग वनाकर पूजे तो निश्चय ही वह पूजन फल देने वाला होगा।।7।।

नरःपार्थिवलिङ्गानां धनार्थी च तदर्धकम्।
पुत्रार्थी सार्धसाहस्त्रं वस्त्रार्थी शतपञ्चकम्। ।8।।

धन की इच्छा वाला पांचसौ, पुत्रार्थी पन्द्रह सौ, वस्त्रार्थी पांच सौ पार्थिव शिवलिङ्गों का पूजन करे।।8।।

मोक्षार्थी कोटिगुणितं भूकामश्च सहस्त्रकम्।
दयार्थी च त्रिसाहस्त्रं तीर्थार्थी द्विसहस्त्रकम्।।9।।
सुहृत्कामी त्रिसाहस्त्रं वश्यार्थी  शतमष्टकम्।
मारणार्थी सप्तशतं मोहनार्थी शताष्टकम्।।10।।
उच्चाटनपरश्चैव सहस्त्रं च यथोक्तः।
स्तम्भनार्थी सहस्त्रं तु द्वेषणार्थी तदर्धकम्।।11।।
निगडान्मुक्तिकामस्तु सहस्त्रं सार्धमुत्तमम्।
महाराजभये पञ्चशतं ज्ञेयं विचक्षणैः।।12।।

मोक्ष की इच्छा वाला एक करोड़, पृथ्वी की कामना वाला  एक सहस्त्र,दया की इच्छा वाला तीन सहस्त्र, तीर्थ की इच्छा वाला दो सहस्त्र,सुहृदय की इच्छा वाला तीन सहस्त्र, वशीकरण की इच्छा वाला आठ सौ, मारण की इच्छा वाला सात सौ, मोहन की इच्छा वाला आठ सौ, उच्चाटन में एक सहस्त्र, स्तंभन में एक सहस्त्र, द्वेष में पाँच सौ,  बंधन से छूटने की इच्छा वाला डेढ़ सहस्त्र, महाराज से भय होने में पाँच सौ पार्थिव शिवलिङ्ग पूजन करे।।।9-10-11-12।।

चौरादिसंकटे ज्ञेयं पार्थिवानां  शतद्वयम्।
डाकिन्यादिभये पञचशतमुक्तं  च पार्थिवम्।।13।।
दारिद्र्ये पञ्साहस्त्रमयुतं सर्वकामदम्।
अथ नित्यविधिं वक्ष्ये श्रृणु्ध्वं मुनिसत्तमाः।।14।।
एकंपापहरं प्रोक्तं द्विलिंङ्गं चार्थसिद्धिदम्।
त्रिलिंङ्गं सर्वकामानां कारणं परमीरितम्।।15।।
उत्तरोत्तरमेवं स्यात्पूर्वोक्त गणनावधि।
*मतान्तरमथो वक्ष्ये सङ्ख्यायां मुनिभेदतः।।16।।

विद्वान पुरुष चोर और राजा की भय में दो सौ, डाकिनी आदि के भय में पांच सौ,  दरिद्रता में पांच सहस्र, सब काम में दस सहस्र शिवलिङ्ग पूजे। हे मुनि श्रेष्ठो! अब मैं नित्य विधि कहता हूँ आप सुनिए एकलिंग पाप हारी, दो अर्थ सिद्ध करने वाले, तीन लिंग शुभकामनाओं के परम कारण कहे हैं। यह पूर्वोक्त गणना की विधि उत्तरोत्तर जाननी है। संख्या में मुनियों के भेद से मतान्तर का वर्णन करते हैं।।13-14-15-16।।

लिङ्गानामयुतं कृत्वा पार्थिवानां सुबुद्धि मान्।
निर्भयो हि भवन्नूनं महाराजभयं हरेत्।।17।।
कारागृहादिमुक्त्त्यर्थमयुतम् कारयेद् बुधः।
डाकिन्यादिभये सप्तसहस्त्रं कारयेत्तथा।।18।।
अपुत्रः पञ्चपश्चात् सहस्त्राणि  प्रकारयेत्।
लिङ्गानामयुतेनैव कन्यकासन्ततिं लभेत्।।19।।

लिङ्गानामयुतेनैव विष्ण्वाद्यैश्वर्यमाप्नुयात्।
लिङ्गानाम प्रयुतेनैव ह्यतुलां श्रियमाप्नुयात्।।20।।

 बुद्धिमान पुरूष दस सहस्त्र  पार्थिव  शिवलिङ्ग बनाकर निर्भय होकर महाराज के भय से दूर होता है। कारागृह से छूटने के निमित्त दस सहस्त्र पार्थिव  शिवलिङ्ग पूजन करे। डाकिनी आदि के भय में सात सहस्त्र पार्थिव  शिवलिङ्ग बनावे। पुत्र के निमित्त पचपन सहस्त्र पार्थिव  शिवलिङ्ग का पूजन करें। दस सहस्त्र पार्थिव  शिवलिङ्ग के पूजन से कन्या संतान होती है। दस सहस्त्र पार्थिव शिवलिङ्ग के पूजन से विष्णु जी के ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा दस सहस्त्र पार्थिव  शिवलिङ्ग लिंगों के पूजन से अतुल ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।।17-18-19-20।।

कोटिमेकां तु लिङ्गानां यः करोति नरो भुवि।
शिव एव भवेत्सोऽपि नात्र कार्या विचारणा।।21।।

जो मनुष्य एक कोटि शिवलिङ्ग का पूजन करता है, वह शिवरूप हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है।।21।।

अर्चा पार्थिव लिङ्गानां कोटियज्ञ फलप्रदा।
भुक्तिदा मुक्तिदा नित्यं ततः कामार्थिनां नृणाम्।।22।।

पार्थिव शिवलिङ्ग की पूजा कोटि यज्ञों के फल देने वाली है। कामार्थी मनुष्यों को नित्य भुक्ति मुक्ति देने वाली है।।22।।

विना लिङ्गार्चनं यस्य कालो गच्छति नित्यशः।
महाहानिर्भवेत्तस्य दुर्वृत्तस्य दुरात्मनः।।23।।

जिसका समय लिङ्गार्चन के बिना व्यतीत होता है, उस दुरात्मा दुर्वृति की मानहानि होती है।।23।।

एकतः सर्वदानानि व्रतानि विविधानि च।
तीर्थानि नियमा यज्ञा लिङ्गार्चा चैकतः स्मृता।।24।।

एक ओर तो सब दान और व्रत हैं तथा तीर्थ, नियम और यज्ञ हैं और एक ओर शिवलिङ्ग पूजन है।।24।।

कलौ लिङ्गार्चनं श्रेष्ठं यथा लोके प्रदृश्यते।
तथान्यन्नास्ति शास्त्राणामेष सिद्धान्त निश्चयः।।25।।

पार्थिव शिवलिङ्ग की पूजा कोटि कोटि यज्ञों का फल देने वाली है। कलियुग में लोगों के लिए शिवलिङ्ग पूजन जैसा श्रेष्ठ दिखाई देता है वैसा दूसरा कोई साधन नहीं है। यह समस्त शास्त्रों का निश्चित सिद्धांत है।।25।।

भुक्ति मुक्तिप्रदं लिङ्गं विविधापन्निवारणम्।
पूजयित्वानरो नित्यं शिवसायुज्यमाप्नुयात्।।26।।

शिवलिङ्ग भोग और मोक्ष देने वाला है तथा अनेक विपत्तियों का निवारण करता है। नित्य शिवलिङ्ग पूजन करके मनुष्य शिवजी के सायुज्य को प्राप्त होता है।।26।।

शिवनाममयं लिङ्गं नित्यं पूज्यं महर्षिभिः।
यतश्च सर्व लिङ्गेषु तस्मात्पूज्यं विधानतः।।27।।

शिवनाममय शिवलिङ्ग की पूजा महर्षियों को नित्य करनी चाहिये, जैसा कि  शिवलिङ्ग में विधान से पूजन कहा गया है।।27।।

उत्तमं मध्यमं नीचं त्रिविधं लिङ्गमीरितम्।
मानतो मुनिशार्दूलास्तच्छृणुध्वं वदाम्यहम्।।28।।

शिवलिङ्ग तीन प्रकार के कहे गए हैं उत्तम, मध्यम और अधम। यह इसका मान है। हे मुनिजनो ! इसका प्रमाण श्रवण कीजिये।।28।।

चतुरङ्गुलमुशच्छृयं रम्यं वेदिकया युतम्।
उत्तमं लिङ्गमाख्यातं मुनिभिः शास्त्रकोविदैः।।29।।

शास्त्र जानने वालों ने मनोहर वेदी से युक्त चार अंगुल ऊँचा शिवलिङ्ग उत्तम कहा है।।29।।

तदर्द्धं मध्यमंप्रोक्तं तदर्द्धंमधमं स्मृतम्।
इत्थं त्रिविधमाख्यातमुत्तरोत्तरतः परम्।।30।।

उससे आधा मध्यम और उससे आधा अधम है। इस प्रकार उत्तरोत्तर  शिवलिङ्ग तीन प्रकार का कहा है।।30।।

अनेक  लिङ्गं यो नित्यं भक्तिश्रद्धासमन्वितः।
पूजयेत्स लभेत्कामान्मनसा मानसेप्सितान्।।31।।

जो भक्ति और श्रद्धा से युक्त होकर अनेक शिवलिङ्ग  का पूजन करता है। वह सम्पूर्ण मनोकामनाओं को प्राप्त होता है।।31।।

न लिङ्गाराधनादन्यत्पुण्यं वेदचतुष्टये।
विद्यते सर्वशास्त्राणामेष एव विनिश्चयः।।32।।

शिवलिङ्ग की आराधना करने के समान चारों वेदों में कोई दूसरा पुण्य नहीं है, यह सब शास्त्रों का निश्चय है।।32।।

 सर्वमेतत्यपरित्यज्य कर्मजालमशेषतः।
भक्त्या परमया विद्वाँल्लिङ्गमेकं   प्रपूजयेत्।।33।।

यह.सब कर्मजाल छोड़कर विद्वान पुरुष परम भक्ति से एक ही शिवलिङ्ग का आराधन करे।।33।।

लिङ्गेऽर्चितेऽर्चितं सर्वं जगत्स्थावर जङ्गमम्।
संसाराम्बुधिमग्नानां नान्यत्तसाधनम्।।34

शिवलिङ्ग के अर्चन करने से स्थावर जङ्गात्मक सम्पूर्ण जगत पूजित हो जाता है। जो संसार सागर में मगन हुओं को तारने का साधन है।।34।।

अज्ञानतिमिरान्धानां विषयासक्तचेतसाम्।
प्लवोनान्योऽस्ति जगति लिङ्गाराधनमन्तरा।।35।।

अज्ञान तिमिर से अन्धे हुए लोगों को तथा विषयासक्त चित्त वालों के लिये शिवलिङ्ग आराधन के सिवाय और कोई उपाय नहीं है।।35।।

 हरिब्रह्मादयो देवा मुनयो यक्षराक्षसाः।
गन्धर्वाश्चारणाः सिद्धा दैतेया दानवास्तथा।।36।।

नागाः शेषप्रभृतयो गरुडाद्याः खगास्तथा।
सप्रजापतयश्चान्ये मनवः किन्नरा नराः।।37।।

हरि, ब्रह्मादिक देवता, मुनि, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, चारण,सिद्धि, दैत्य,दानव, नाग, शेष, गरुण पक्षी, प्रजापति, मनु, किन्नर, नर।।36-37।।

पूजयित्वा महाभक्त्या लिङ्गं सर्वार्थसिद्धिदम्।
प्राप्ताः कामानभीष्टांश्च तांस्तान्सर्वान्हृदि स्थितान्।।38।।

महाभक्ति से सर्वार्थ साधक शिवलिङ्ग का पूजन करके अपने हृदय में स्थित कामनाओं को प्राप्त होते हैं।।38।।

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो वा प्रतिलोमजः।
पूजयेत्सततं लिङ्गं तत्तन्मन्त्रेण सादरम्।।39।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा दूसरी जाति उस उस मन्त्र से आदरपूर्वक शिवलिङ्ग का पूजन करते हैं।।39।।

 किं बहूक्तेन मुनयः स्त्रीणामपि तथान्यतः।
अधिकारोऽस्ति सर्वेषां शिवलिङ्गार्चने द्विजाः।।40।।

हे मुनियो! बहुत कहने से क्या है?स्त्री तथा अन्य जाति हो, शिवजी के पूजन का सबको अधिकार है।।40।।

द्विजानां वैदिकेनापि मार्गेणाराधनं वरम्।
अन्येषामपि जन्तूनां वैदिकेन न सम्मतम्।।41।।

ब्राह्मणों को वैदिक मार्ग से पूजन करना श्रेष्ठ है, दूसरे प्राणियों को वेद से पूजन का अधिकार नहीं है।।41।।

वैदिकानां द्विजानां च पूजा वैदिक मार्गतः।
कर्तव्या नान्यमार्गेण इत्याह भगवान  शिवः।।42।।

वैदिक ब्राह्मणों के लिये वेदिकमार्ग से पूजा कही है, उनको अन्य मार्ग से पूजा नहीं करनी चाहिये। यह भगवान शिवजी ने कहा है।।42।।

दधीचि गौतमादीनां शापेनादग्धचेतसाम्।
द्विजानां जायते श्रद्धा नैव वैदिककर्मणि।।43।।

दधीचि, गौतम आदि ब्राह्मणों के शाप से दग्धचित्त वालों की वैदिककर्म में श्रद्धा नहीं होती वा शाप से दग्धचित्त दधीचि, गौतमादि के वंशोत्पन्नों की वैदिककर्म में श्रद्धा नहीं होती।।43।।

 यो वैदिक मनादृत्य कर्म स्मार्तमथापि वा।
अन्यत्समाचरेन्मर्त्यो न संकल्प फलं लभेत।।44।।

जो कोई वेद और स्मृति के कर्म को अनादर करके दूसरा कर्म करता है, उसे उस कर्म का फल नहीं मिलता है।।44।।

इत्थं कृत्वार्चनं शम्भोर्नैवेद्यान्तं विधानतः।
पूजयेदष्टमूर्तीश्च तत्रैव त्रिजगन्मयीः।।45।।

इस प्रकार शिवजी का विधिपूर्वक नैवेद्य पर्यन्त अर्चन करके त्रिजगन्मयी आठ मूर्तियों का पूजन करे।।45।।

क्षितिरापोऽनलो वायुराकाशः सूर्यसोमकौ।
यजमान इति त्वष्टौ मूर्तयः परिकीर्तिताः।।46।।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, सूर्य, और यजमान, ये आठ मूर्तियां पूज्यमान हैं।।46।।

शर्वो भवश्च रुद्रश्च उग्रो भीम इतीश्वरः।
महादेवः पशुपतिरेतान्मूर्तिभिरर्चयेत्।।47।।

शर्व, भव, रुद्र, उग्र,भीम, ईश्वर, महादेव, पशुपति इनका मूर्ति द्वारा अर्चन करे।।47।।

 पूजयेत्परिवारं च ततः शम्भोः   शुभक्तितः।
ईशानादिक्रमात्तत्र चन्दनाक्षतपत्रकैः।।48।।

विद्वान पुरुष भक्तिभाव से शिवजी के परिवार की पूजा करे। ईशानादि के क्रम से चंदन, अक्षत, पत्र चढ़ावे।।48।।

ईशानं नन्दिनं चण्डं महाकालं च भृङ्गिणम्।
वृषं स्कंदं कपर्दीशं सोमं शुक्रं च तत्क्रमात्।।49।।

ईशान, नन्दी, चण्ड, महाकाल, भृङ्गि, वृष, स्कंद, कपर्दी, सोम, शुक्र इनको क्रम से पूजे।।49।।

अग्रतो वीरभद्रं च पृष्ठे कीर्त्तिमुखं तथा।
तत एकादशान् रुद्रान्पूजयेद्विधिना ततः।।50।।

फिर वीरभद्र का पूजन करे, पीठ की ओर कीर्तिमुख का पूजन करके फिर ग्यारह रुद्रों का विधिपूर्वक पूजन करें।।50।।

ततः पञ्चाक्षरं जप्त्वा शतरुद्रियमेव च।
स्तुतीर्नानाविधाः कृत्वा पञ्चाङ्ग पठनं तथा।।51।।

फिर पञ्चाक्षर मन्त्र का जप करके, शतरुद्रिय पाठ करके, अनेक प्रकार की स्तुति करके पञ्चाङ्ग पाठ करें।।51।।

 ततः प्रदक्षिणां कृत्वा नत्वा लिङ्गं विसर्जयेत्।
इति प्रोक्तमशेषं च शिवपूजनमादरात्।।52।।

फिर प्रदिक्षणा करके शिवलिङ्ग को प्रणाम कर विसर्जन करें। यह आदर सहित शिवजी का सम्पूर्ण पूजन कथन हुआ।।52।।

रात्रावुदङ्मुखः कुर्याद् देवकार्यं सदैव हि।
शिवार्चनं सदाप्येवं शुचिः कुर्यादुदङ्मुखः।।53।।

यह कर्म रात्रि में सदैव उत्तर की ओर मुख करके करना चाहिए। इसी प्रकार उत्तर की ओर मुख करके सदाशिव का पूजन करे।।53।।

न प्राचीमग्रतः शम्भोर्नोदीचीं  शक्तिसंहिताम्।।
न प्रतीचीं यतः पृष्ठमतो ग्राह्यं समाश्रयेत्।।54।।

 जहाँ शिवलिङ्ग स्थापित हो, उससे पूर्व दिशा का आश्रय लेकर नहीं बैठना या खड़ा होना चाहिये, क्योंकि वह दिशा भगवान शिवजी के आगे  या सामने पड़ती है। (इष्टदेव का सामना रोकना ठीक नहीं) शिवलिङ्ग से उत्तर दिशा में भी न बैठें, क्योंकि वह भगवान शिव का वामांग है, जिसमें शक्तिरूपा देवी उमा विराजमान हैं। पूजक को शिवलिङ्ग से पश्चिम दिशा में भी नहीं बैठना चाहिये, क्योंकि वह आराध्यदेव का पृष्ठभाग है (पीछे की ओर से पूजा करना उचित नहीं है) अतः अवशिष्ट दक्षिण दिशा ही ग्राह्य है। तात्पर्य यह है कि शिवलिङ्ग से दक्षिण दिशा में  उत्तराभिमुख होकर बैठे और पूजा करे।।54।।

विना भस्म त्रिपुण्ड्रेण विना रुद्राक्षमालया।
बिल्वपत्रं विना नैव पूजयेच्छंकरं बुधः।।55।।

विद्वान पुरूष को चाहिये कि वह भस्म का त्रिपुण्ड्र लगाकर, रूद्राक्ष की माला लेकर तथा बिल्वपत्र का संग्रह करके ही भगवान शंकर की पूजा करे, इनके बिना नहीं।।55।।

भस्माप्राप्तौ मुनिश्रेष्ठाः प्रवृत्ते शिवपूजने।
तस्मान्मृदापि कर्तव्यं ललाटे च त्रिपुण्ड्रकम्।।56।।

मुनिवरो! शिवपूजन आरम्भ करते समय यदि भस्म न मिले तो मिट्टी से भी ललाट में त्रिपुण्ड्र अवश्य कर लेना चाहिये।।56।।

इति श्री शिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां साध्यसाधन खण्डे पार्थिवपूजनवर्णनं नामैकविंशोऽध्यायः।।21।।

🙏🏿जय बाबा की।🙏🏿
बाबाचरण दास