Sunday, 16 June 2019

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ नवमोऽध्यायः

ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ  नवमोऽध्यायः

नन्दिकेश्वर उवाच

तत्रान्तरे तौच नाथं प्रणम्य विधिमाधवौ।
 बद्धाञ्जलिपुटौ तूष्णीं तस्थतुर्दक्षवामगौ।1।

नन्दीश्वर बोले

इस समय में ब्रह्मा और विष्णुजी शिवजी को प्रणाम करके, हाथ जोड़कर, मौन होकर क्रम से शिवजी के दक्षिण और वाम भाग में चुपचाप खड़े हो गए।1।

तत्र संस्थाप्य तौ देवं सकुटुम्बं वरासने।
पूजयामासतुः पूज्यं पुण्यैः पुरुषवस्तुभिः।2।

उन दोनों ने कुटुंब सहित शिवजी को सुन्दर आसन पर बैठाकर अन्य पवित्र पुरुषों के योग्य पदार्थों से उन पूज्य की पूजा की।2।

पौरुषं प्राकृतं वस्तुज्ञेयं दीर्घाल्पकालिकम्।
हारनूपुरकेयूरकिरीटमणि कुण्डलै।3।

यज्ञ सूत्रोत्तरीयस्त्रवक्षौम माल्याङ्गुलीयकैः।
पुष्प ताम्बूलकर्पूर चन्दनागुरु लेपनैः।4।

धूपदीपसितच्छत्रव्यजनध्वज चामरैः।
अन्यैर्दिव्योपहारैश्च वाङ्मनोतीतवैभवैः।5।

पतियोग्यैः पश्चलभ्यैस्तौ समार्चयतां पतिम्।
यद्यच्छ्रेष्ठतमं वस्तु पतियोग्यं हितध्वज।6।

और पुरुष के संकल्प से उत्पन्न हुई वस्तु कोई दीर्घ, कोई अल्प काल में जानी जाती है, वह भी देने योग्य सब वस्तु से हार, नूपुर,केयूर, किरीट, मणि, कुंडल, यज्ञसूत्र, उत्तरीय वस्त्र, माला, रेशमीवस्त्र, पुष्प माला, अंगूठी, चन्दन, फूल, ताम्बूल, कपूर, अगर, लेपन, धूप, दीप,  श्वेतछत्र, व्यंजन, ध्वजा, चमर और भी दिव्य उपहारों द्वारा, जिनका वैभव वाणी  और मन की पहुँच से परे था, जो केवल पशुपति(परमात्मा) के ही योग्य थे और जिन्हें पशु (बद्ध जीव) कदापि नहीं पा सकते थे, उन दोनों ने अपने स्वामी महेश्वर का पूजन किया।3-4-5-6।

तद्वस्त्वखिलमीशोऽपि
पारम्पर्यचिकीर्षया।
सभ्यानां प्रदहौ हृष्टः पृथक् तत्र यथाक्रमम्।7।

इस कारण परम्परा से चले आये क्रम को करने की इच्छा से उन सबके स्वामी ने भी प्रसन्नता पूर्वक सबके निमित्त पृथक-पृथक वस्तु प्रदान की।7।

कोलाहलो महानासीत्तत्र तद्वस्तु गृह्यताम्।
तत्रैव ब्रह्माविष्णुभ्यां चार्चितः शंकरः पुरा।8।

तब वहाँ उन वस्तुओं को ग्रहण करने वालों का बड़ा भारी कोलाहल हुआ। सबसे पहले वहाँ ब्रह्मा और विष्णुजी ने भगवान शंकर की पूजा की।8।

प्रसन्नः प्राह तौ नम्रौ सस्मितं भक्तिवर्धनः।

इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने भक्तिपूर्वक नम्रभाव से खड़े हुए उन दोनों देवताओं से मुस्कराकर कहा।

ईश्वर उवाच

तुष्टोऽहमद्य वां वत्सौ पूजयास्मिन् महादिने।9।

महेश्वर बोले ---

पुत्रो! आज का दिन एक महान् दिन है। इसमें  तुम्हारे द्वारा जो आज मेरी पूजा हुई है, इससे मैं तुम लोगों पर बहुत प्रसन्न हूँ।9।

दिनमेतत्ततः पुण्यं भविष्यति महत्तरम्।
शिवरात्रिरिति ख्याता तिथिरेषा मम प्रिया।10।

इसी कारण यह दिन परम् पवित्र और महान से महान होगा।आज की यह तिथि शिवरात्रि के नाम से विख्यात होकर मेरे लिए परम् प्रिय होगी।10।

एतत्काले तु यः कुर्यात् पूजां मल्लिङ्गवेरयोः।
कुर्यात् स जगतः कृत्यं स्थितसर्गादिकं पुमान्।11।

इस समय जो पुरूष लिङ्ग वा वेर स्वरूप की पूजा करेगा वह पुरुष जगत स्थित और सर्गादि कर्म कर सकेगा।11। 

शिवरात्रावहोरात्रं निराहारो जितेन्द्रियः।
अर्चयेद्वा यथान्यायं यथाबलमवञ्चकः।12।

यत्फलं मय पूजायां वर्षमेकं निरंतरम्।
तत्फलं लभते सद्यः शिवरात्रौ मदर्चनात्।13।

जो जो जितेंद्रिय होकर निराहार एक रात दिन यथान्याय यथाशक्ति प्रपंच रहित मेरा पूजन करेगा। जो फल मेरा निरंतर एक वर्ष तक पूजन करने से मिलता है वही फल शिवरात्रि के दिन मेरा अर्चन करने से मिल जाता है।12-13।

मद्धर्मवृद्धिकालोऽयं चन्द्रकाल इवाम्बुधेः।
प्रतिष्ठाद्युत्सवो यत्र मामको मङ्गलायनः।14।

जैसे पूर्ण चंद्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है, उसी प्रकार यह शिवरात्रि तिथि मेरेे धर्म की वृद्धि का समय है। इस तिथि में मेरी स्थापना आदि का मङ्गलमय उत्सव होना चाहिये।14।

यत्पुनः स्तम्भ रुपेण स्वाविरासमहं पुरा।
स कालो मागशीर्षे तु स्यादार्द्राऋक्षमभकौ।15।

पहले मै जब ज्योतिर्मय स्तंभरूप से प्राकट हुआ था, वह समय मार्गशीर्ष मास में आद्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा है।15।

आर्द्रायां मागशीर्षेतुयः पश्येन्मामुमासखम्।
मद्वेरमपि वा लिङ्गं स गुहादपि मे प्रियः।16।

 जो पुरुष मार्गशीर्ष मास में आद्रा नक्षत्र होने पर पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिङ्ग की ही झांकी करता है, वह मेरे लिए कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है।16।

अलं दर्शनमात्रेण फलं तस्मिन् दिने शुभे।
अभ्यर्चनं चेदधिकं फलं वाचामगोचरम्।17।

उस शुभ दिन को मेरे दर्शन मात्र से पूरा फल प्राप्त होता है। यदि दर्शन के साथ साथ मेरा पूजन भी किया जाय तो इतना अधिक फल प्राप्त होता है कि उसका वाणी द्वारा वर्णन नहीं हो सकता।17।
   
रणरङ्गतलेऽमुष्पिन् यदहं लिङ्गवष्र्मणा।
जृम्भितो लिङ्गवत्तस्मल्लिङ्ग स्थानमिदं भवेत्।18।

वहां पर में लिङ्गरुप से प्रकट होकर बहुत बड़ा हो गया था। अतः उस लिङ्ग के कारण यह भूतल लिङ्गस्थान के नाम् से प्रसिद्ध हुआ।18।

अनाद्यन्तमिदं स्तम्भमणुमात्रं भविष्यति।
दर्शनार्थंं हि जगतां पूजनार्थंं हि पुत्रकौ।19।

भोगावहमिदं लिङ्गं भुक्तिमुक्त्यैकसाधनम्।
दर्शनस्पर्शनध्यानाज्जन्तूनां जन्ममोचनम्।20।

जगत् के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें, इसके लिये यह अनादि और अनन्त ज्योतिः स्तंभ अथवा ज्योतिर्मय लिङ्ग अत्यंत छोटा हो जायेगा। यह लिङ्गसब प्रकार के भोग सुलभ कराने वाला तथा भोग और मोक्ष का एकमात्र साधन है। इसका दर्शन, स्पर्श और ध्यान किया जाय तो यह प्राणियों को जन्म और मृत्यु के कष्ट से छुड़ाने वाला है।19-20।
अनलाचलसंकाशं यदिदं लिङ्गमुत्थितम्।
अरुणाचलमित्येव तदिदं ख्यातिमेष्यति।21।

अग्नि के पहाड़ जैसा जो यह शिव लिङ्ग यहाँ प्रकट हुआ है, इसके कारण यह स्थान अरुणाचल नाम् से प्रसिद्ध होगा।21।

अत्र तीर्थं च बहुधा भविष्यति महत्तरम।
मुक्तिरप्यत्र जन्तूनां वासेन मरणेन च।22।

     यहां अनेक प्रकार के बड़े बड़े तीर्थ प्रकट होंगे। इस स्थान में निवास करने या मारने से जीवों का मोक्ष तक हो जाएगा।22।

रथोत्सवादिकल्याणं जनावासं तु सर्वतः।
अत्र दत्तं हुतं जप्तं सर्वं कोटि गुणं भवेत।23।

रथयात्रा उत्सव कल्याण और जनों के निवास करने योग्य यह स्थान होगा। यहां किया हुआ तप,जप, हवन करोड़ गुणा हो जायेगा।23।

मत्क्षेत्रादपि सर्वस्मात् क्षेत्रमेतन्महत्तरम्।
अत्र संस्मृतिमात्रेण मुक्तिर्भवति देहिनाम्।।24।

हमारे समस्त क्षेत्रों में यह श्रेष्ठ होगा, यहाँ मेरा स्मरण करते ही प्राणी मुक्त हो जायेंगे।24।

तस्मान्महत्तरमिदं क्षेत्रमत्यन्तशोभन।
सर्वं कल्याणसम्पूर्णं सर्वमुक्तिकरं शुभम्।।25।

इस कारण यह क्षेत्र महान् और अत्यंत शोभित होगा। सब प्रकार से कल्याण दायक और सब प्रकार से मुक्ति दायक होगा।25।

अर्चयित्वात्र मामेव लिङ्गे लिङ्गिनमीश्वरम्।
सालोकयं चैव सामीप्यं सारूप्यं सार्ष्टिरेव च।26।

सायुज्यमिति पञ्चैते क्रियादीनां फलं मतम्।
सर्वेऽपि यूयं सकलं प्राप्स्यथासु मनोरथम्।27। 
जो यहाँ लिङ्गस्वरूप में मुझ लिङ्गेश्वर की पूजा करेंगे उन्हें सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सार्ष्टि, सायुज्य इन् पांचों मुक्तियों के क्रिया के फल  प्राप्त हो जाएंगे और यहाँ पूजन करने से आप भी सब मनोरथों को प्राप्त हो जाओगे।26--27।

नन्दिकेश्वर उवाच

इत्यनुग्रह्य भगवान् विनीतौ विधिमाधवौ।
यत्पूर्वं प्रहतं युद्धे तयोः सैन्यं परस्परम्।28।

नंदिकेश्वर जी बोले

इस प्रकार भगवान् शिवजी ने उन नम्र हुए ब्रह्मा और विष्णुजी पर अनुग्रह करके उनके परस्पर युद्ध में जो उनकी सेना मारी गई थी।28।

तदुत्थापयदत्यर्थं स्वशक्त्यामृतधारया।
तयोर्मौढ्यं च वैरं च व्यपनेतुमुवाच तौ।29।

उन सबको जिस शक्ति में अमृत की धारा रहती है उस अपनी शक्ति से जीवित कर उठाया और उन दोनों ब्रह्मा और विष्णुजी की अज्ञानता और बैर को दूर करने के निमित्त दोनों से कहा।29।

सकलं निष्कलं चेति स्वरुप द्वयमस्ति मे।
नान्यस्य कस्यचित्तस्मादन्यः सर्वोऽप्यनीश्वरः।30।

मेरे सकल और निष्कल भेद के दो स्वरूप हैं, परन्तु और ईश्वर नहीं, इस कारण उनके दो रूप नहीं हो सकते।30।

पुरस्तात स्तम्भरुपेण पश्चाद् रुपेण चार्भकौ।
ब्रह्मत्वंं निष्कलं प्रोक्तमीशत्वं सकलं तथा।31।

पहला स्तंभरूप और पश्चात् मूर्तिमान रूप धारण किया है इसमें ब्रह्म रूप निष्कल है और ईश्वर रूप सगुण है।31।

द्वयं ममैव संसिद्धं न मदन्यस्य कस्यचित्।
तस्मादीशत्वमन्येषां युवयोरपि न क्वचित्।32।

मेरे यह दोनों रूप सिद्ध हैं, दूसरे किसी के नहीं हो सकते। इस कारण आप दोनों को अथवा दूसरों को ईश्वरत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती।32।

तदज्ञानेन वां वृत्तमीशमानं महाद्भूतम्।
तन्निराकर्तुमत्रैवमुत्थितोऽहं रणक्षितौ।33।

आपने जो अज्ञान से अपने को ईश माना यह बड़ा अद्भुत हुआ। उसे दूर करने को ही मैं रण स्थान में आया हूँ।33।

त्यजतं मानमात्मीयं मयीशे कुरुतं मतिम्।
मत्प्रसादेन लोकेषु सर्वोऽप्यर्थः प्रकाशते।34।

अब आप अपने अभिमान को त्यागकर मुझ ईश्वर में अपनी बुद्धि लगाओ। मेरे प्रसाद से लोक में सब अर्थ प्रकाश करते हैं।34।

गुरुक्तिर्व्यञ्जकं तत्र प्रमाणंं वा पुनः पुनः।
ब्रह्मतत्त्वमिदं गूढं भवत्प्रीत्या भणाम्यहम्।35।

मुझ गुरू के वचन से ही आपको बारंबार प्रणाम है, आपकी प्रीति से ही यह गूढ़ ब्रह्मत्व मैं आपसे कहता हूँ।35।

अहमेव परं ब्रह्म मत्स्वरुपं कलाकलम्।
ब्रह्मत्विदीश्वश्चाहं कृत्यं मेऽनुग्रहादिकम्।36।

मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूँ। कलायुक्त और अकल मेरे ही स्वरूप हैं।  ब्रह्मरूप होने के कारण मैं ईश्वर भी हूँ। जीवों पर अनुग्रह आदि करना मेरा कार्य है।36।

बृहत्त्वाद् बृंहणत्वाच्च ब्रह्माहं ब्रह्मकेशवौ।
समत्वाद्वयापकत्वाच्च तथैवात्माहमर्भकौ।37।

ब्रह्मा और केशव! मैं सबसे बृहत और जगत् की वृद्धि करने वाला होने के कारण ब्रह्म कहलाता हूँ। सर्वत्र समरूप से स्थित  और व्यापक होने से मैं ही सबका आत्मा हूँ।37।

अनात्मानः परे सर्वे जीवा एव न संशयः।
अनुग्रहाद्यं सर्गान्तं जगत्कृतयंं च पञ्चकम्।38।

ईशत्वादेव मे नित्यं न मदन्यस्य कस्यचित्।
आदौ ब्रह्मत्वबुद्धयर्थं निष्कलं लिङ्ग मुत्थितम्।39।

अन्य सम्पूर्ण जीव आत्मा नहीं है, इसमें संदेह नहीं है। सर्ग से लेकर अनुग्रह तक (आत्मा या ईश्वर से भिन्न) जो जगत् सम्बन्धी पाँच कृत्य हैं, वे सदा मेरे ही हैं, मेरे अतरिक्त दूसरे किसी के नहीं हैं, क्योंकि मैं ही सबका ईश्वर हूँ। पहले मेरी ब्रह्मरूपता का बोध कराने के लिये निष्कल लिङ्ग प्रकट हुआ था।38--39।

तस्मादज्ञातमीशत्वं व्यक्तं द्योतयितुं हि वाम।
सकलोऽहमतो जातः साक्षादीशस्तु तत्क्षणात्।40।

सकलत्वमतो ज्ञेयमीशत्वं मयि सत्वरम्।
यदिदं निष्कलं स्तंभं मम ब्रह्मत्वबोधकम्ः41।

फिर अज्ञात ईश्वरत्व का साक्षात्कार कराने के निमित्त मैं साक्षात जगदीश्वर ही सकल रूप में तत्काल प्रकट हो गया। अतः मुझमें जो ईशत्व है, उसे ही मेरा सकलरूप जानना चाहिये तथा जो मेरा यह निष्कल स्तम्भ है, वह मेरे ब्रह्मस्वरूप का बोध कराने वाला है।40-41।

लिङ्गलक्षणयुक्तत्वान्मम लिङ्गं भवेदिदम्।
तदिदं नित्यमभ्यर्थं युवाभ्यामत्र पुत्रकौ।42।

मदात्मकमिदं नित्यं मम सान्न्ध्यि कारणम्।
महत्पूज्यमिदं नित्यमभेदाल्लिङ्गलिंङ्गिनौ।43।

हे पुत्रो तुम दोनों प्रतिदिन यहाँ रहकर इसका पूजन करो। यह मेरा ही स्वरुप है और मेरे सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है। लिङ्ग और मूर्तिस्वरूप में नित्य अभेद होने के कारण मेरे इस लिंङ्गस्वरूप का महान् पुरुषों को भी पूजन करना चाहिये।42-43।

यत्र प्रतिष्ठितं येन मदीयं लिङ्ग मीदृशम्।
तत्र प्रतिष्ठितः सोऽहमप्रतिष्ठोऽपि वत्सकौ।44।

जहाँ कहीं किसी ने मेरे इस लिंङ्ग की प्रतिष्ठा की है, हे  पुत्रो! वहाँ मैं अप्रतिष्ठित भी स्थित हूँ।44।

मत्साम्यमेक लिङ्गस्य स्थापने फलमीरितम्।
द्वितीये स्थापिते लिङ्गे मदैक्यं फलमेव हि।45।

मेरे एक लिङ्ग की स्थापना करने का यह फल बताया गया है कि उपासक को मेरी समानता की प्राप्ति हो  जाती है। यदि एक के बाद दूसरे शिवलिङ्गं की भी स्थापना कर दी गयी, तब तो उपासक को फल रूप से मेरे साथ एकत्व (सायुज्य मोक्ष) रूप फल प्राप्त होता है।45।

लिङ्गं प्राधान्यतः स्थाप्यं तथा वेरं तु गौणकम्।
लिङ्गा भावे न तत्क्षेत्रं सवेरमपि सर्वतः।46।

प्रधानतया शिवलिङ्ग की ही स्थापना करनी चाहिये। मूर्ति की स्थापना शिवलिङ्ग की अपेक्षा गौण कर्म है। शिवलिङ्ग के अभाव में सब ओर से सवेर(मूर्तियुक्त) होने पर भी वह स्थान क्षेत्र नहीं कहलाता।46।

इति श्री शिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां शिवस्य महेश्वराभिधान वर्णनं नाम नवमोऽध्यायः।।9।।

🙏जय बाबा की🙏

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