ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ दशमोऽध्यायः
|| संकलन - बाबा चरणदास ||
ब्रह्मविष्णू ऊचतुः
सर्गादि पञ्चकृत्यस्य लक्षणं ब्रूहि नौ प्रभो।
ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा--
प्रभो! सृष्टि आदि पांच कृत्यों के लक्षण क्या है, यह हम दोनों को बताइये।
शिव उवाच
मत्कृत्यबोधनं गुह्यं कृपया प्रब्रवीमि वाम्।1।
मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन हैं, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उनके विषय में बता रहा हूँ।1।
सृष्टिः स्थितिश्च संहारस्तिरोभावोऽप्यनुग्रहः।
पञ्चैव मे जगत्कृत्यं नित्य सिद्धमजाच्युतौ।2।*
पञ्चैव मे जगत्कृत्यं नित्य सिद्धमजाच्युतौ।2।*
ब्रह्मा और अच्युत ! सृष्टि, पालन, संहार,तिरोभाव और अनुग्रह--ये पांच ही मेरे जगत् सम्बन्धी कार्य हैं। जो नित्य सिद्ध हैं।2।
सर्गः संसार संरम्भस्तत् प्रतिष्ठा स्थितिर्मता।
संसारो मर्दनं तस्य तिरोभावस्तदुक्रमः।3।
संसार की रचना का जो आरम्भ है, उसी को सर्ग या सृष्टि कहते हैं। मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रूप से रहना ही उसकी स्थिति है। उसका विनाश ही संहार है।प्राणों के उत्क्रमण को तिरोभाव कहते हैं।। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा अनुग्रह है।3।
तन्मोक्षोऽनुग्रहस्तन्मे कृत्यमेवः हि पञ्चकम्।
कृत्यमेतद्वहत्यन्यस्तूष्णीं गोपुरबिम्बवत्।4।
सर्गादि यच्चतुःकृत्यं संसारपरिजृम्भणम्।
पञ्चमं मुक्तिहेतुर्वै नित्यंमयि च सुस्थिरम्।5।
इस प्रकार मेरे पांच कृत्य हैं। सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करने वाले हैं। पाँचवा कृत्य अनुग्रह मोक्ष का हेतु है। वह सदा मुझमें ही अचल भाव से स्थिर रहता है।मेरे भक्तजन इन पाँचों कृत्यों को पाँचों भूतों में देखते हैं।4-5।
तदिदं पञ्चभूतेषु दृश्यते मामकैर्जनैः।
सृष्टिर्भूमौ स्थितिस्तोये संहारः पावके तथा।6।
तिरोभावोऽनिले तद्वदनुग्रह इहाम्बरे।
सृज्यते धरया सर्वमद्भिः सर्वं प्रवर्धते।7।
अर्द्यते तेजसा सर्वं वायुना चापनीयते।
व्योम्नानुग्रह्यते सर्वं ज्ञेयमेवं हि सूरिभिः।8।
मेरे भक्तजन इन पांचों कृत्यों को पाँचों भूतों में देखते हैं। सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है। जल से सबकी वृद्धि एवं जीवन रक्षा होती है। आग सबको जला देती है। वायु सबको एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है। और आकाश सबको अनुग्रहीत करता है। विद्वान पुरुषों को यह विषय इसी रूप में जानना चाहिये।6-7-8।
पञ्चकृत्यमिदं वोढं ममास्ति मुखपञ्चकम्।
चतुर्दिक्षु चतुर्वक्त्रं तन्मध्ये पञ्चमं मुखम्।9।
इन पाँच कृत्यों का भार वहन करने के लिये ही मेरे पाँच मुख है। चार दिशाओं में चार मुख हैं। और इनके बीच में पाँचवा मुख है।9।
युवाभ्यां तपसा लब्धमेतत्कृत्यद्वयं सुतौ।
सृष्टिस्थित्यभिधं भाग्यं मत्तः प्रीतादतिप्रियम्।10।
पुत्रो! तुम दोनों ने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वर से सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं। ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं।10।
तथा रूद्रमहेशाभ्यामन्यत्कृत्य द्वयं परम्।
अनुग्रहाख्यं केनापि लब्धं नैव हि शक्यते।11।
तत्सर्वं पौर्विकं कर्म युवाभ्यां कालविस्मृतम्।
न तद् रुद्रमहेशाभ्यां विस्मृतं कर्म तादृशम्।12।
इसी प्रकार मेरी विभूति स्वरूप रुद्र और महेश्वर में दो अन्य उत्तम कृत्य संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं। परन्तु अनुग्रह नामक कृत्य दूसरा कोई नहीं पा सकता। रुद्र और महेश्वर अपने करम् को भूले नहीं हैं। इसलिये मैंने उनके लिये अपनी समानता प्रदान की है।11--12।
रुपे वेषे च कृत्ये च वाहने चासने तथा।
आयुधादौ च मत्साम्यमस्माभिस्तत्कृते कृतम।13।
वे रूप ,वेष्,कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदि में मेरे समान ही हैं।13।
मद्धयानविरहाद्वत्सौ मौढ्यं वामेवमागतम्।
मज्ज्ञाने सति मैवं स्यान्मानं रुपं महेशवत्।14।
हे सौम्य! मेरे ज्ञान के विमुख होने से आपमें अज्ञानता आ गई। मेरा ज्ञान होने से ऐसा नही होता है। ज्ञान और रूप महेश के तुल्य हो जाता है।14।
तस्मान्मज्ज्ञानसिद्धयर्थं मन्त्रमोंकारनामकम्।
इतः परं प्रजपतं मामकं मानभञ्जनम्।15।
इस कारण उस ज्ञान की सिद्धि के निमित्त ऊँ कार नामक मन्त्र का जाप करो, यह अभिमान को दूर करने वाला है।15।
उपादिशं निजं मन्त्रमोंकारमुरुमङ्गलम्।
ऊँकारो मन्मुखाज्जगे प्रथमं मत्प्रबोधकः।16।
वाचकोऽयमहं वाच्यो मंत्रोऽयं हि मदात्मकः।
तदनुस्मरणं नित्यं ममानुस्मरणं भवेत्।17।
मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मन्त्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है। वह महा मंगलकारी मन्त्र है। सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार (ऊँ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध कराने वाला है। ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ। यह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है। प्रतिदिन ओंकार का निरंतर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है।16--17।
अकार उत्तरात् पूर्वमुकारः पश्चिमाननात्।
मकारो दक्षिणमुखाद् बिन्दुः प्राङ़़मुखतस्तथा।।18।
नादो मध्यमुखादेवं पञ्चधासौ विजृम्भितः।
एकीभूतः पुनस्तद्वदोमित्येकाक्षरोऽ भवत्।19।
नामरुपात्मकं सर्वं वेदभूतकुलद्वयम्।
व्याप्तमेतेन मन्त्रेण शिवशक्त्योश्च बोधकः।20।
मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से विंदु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। इस प्रकार पाँच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ है। इन सभी अवयवों से एकीभूत होकर वह प्रणव ऊँ नामक एक अक्षर हो गया। यह नाम रूपात्मक सारा जगत् तथा वेद उत्पन्न स्त्री पुरुष वर्गरूप दोनों कुल इस प्रणव मन्त्र से व्याप्त हैं। यह मंत्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है।18-19-20।
अस्मात् पञ्चाक्षरं जज्ञे बोधकं सकलस्य तत्।
अकारादिक्रमेणैेव नकारादि यथाक्रमम्।21।
इसी से पञ्चाक्षर मंत्र की उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूप का बोधक है। वह अकारादि क्रम से और मकारादि क्रम से क्रमशः प्रकाश में आया है।21।
अस्मात् पञ्चाक्षराज्जाता मातृकाः पञ्चभेदतः।
तस्माच्छिरश्चतुर्वक्त्रात्त्रिपाद्गायत्रिरेव हि।22।
(ऊँ नमःशिवाय यह पञ्चाक्षर मन्त्र है) इस पञ्चाक्षर मन्त्र से मातृका वर्ण प्रकट हुए हैं। जो पाँच भेद वाले हैं। उसी से शिरोमन्त्र सहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ है।22।
वेदः सर्वस्ततो जज्ञे ततो वै मन्त्र कोटयः।
तत्तमन्त्रेण तत्सिद्धिः सर्वसिद्धिरितो भवेत्।23।
उस गायत्री से संपूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदों से करोड़ो मन्त्र निकले हैं। उन उन मंत्रों से भिन्न भिन्न कार्यों की सिद्धि होती है,परन्तु इस प्रणव एवं पञ्चाक्षर मन्त्र से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है।23।
अनेन मन्त्रकन्देन भोगो मोक्षश्च सिद्धयति।
सकला मन्त्रराजानः साक्षाद्भोगप्रदाः शुभाः।24।
इस मन्त्र समुदाय से भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते है। मेरे सकल स्वरूप से सम्बंध रखने वाले सभी मन्त्रराज साक्षात भोग प्रदान करने वाले और शुभकारक (मोक्ष प्रद) हैं ।24।
नंदिकेश्वर उवाच
पुनस्तयोस्तत्र तिरः पटं गुरूः प्रकल्प्य मन्त्रं च समादिशत् परम्।
निधाय तच्छीर्ष्णि कराम्बुजं शनै रूद्रङ़मुखं संस्थितयोः सहाम्बिकः।25।
नंदिकेश्वर कहते हैं--
तदनन्तर जगदम्बा पार्वती के साथ बैठे हुए गुरुवर महादेवजी ने उत्तराभिमुख बैठे हुए ब्रह्मा और विष्णुजी को पर्दा करने वाले वस्त्र से आच्छादित करके उनके मस्तक पर अपना करकमल रखकर धीरे धीरे उच्चारण करके उन्हें उत्तम मन्त्र का उपदेश किया।25।
त्रिरुच्चार्याग्रहीन्मन्त्रं यन्त्रतन्त्रोक्तिपूर्वकम्।
शिष्यौ च तौ दक्षिणायामात्मानं च समार्पयत्।26।
प्रबद्धहस्तौ किल तौ तदन्तिके तमूचतुर्देववरं जगद्गुरुम्।27।
मन्त्र तंत्र में बताई हुई विधि के पालन पूर्वक तीन बार मन्त्र का उच्चारण करके भगवान शिव ने उन दोनों शिष्यों को मन्त्र की दीक्षा दी। फिर दोनों शिष्यों ने गुरु दक्षिणा के रुप में अपने आपको ही समर्पित कर दिया और दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो उन देवेश्वर जगद्गुरू का स्तवन किया।26-27।
ब्रह्माच्युतावूचतुः ---
नमो निष्कल रुपाय नमो निष्कल तेजसे।
नमः सकलनाथाय नमस्ते सकलात्मने।28।
ब्रह्मा और विष्णुजी बोले--
प्रभो! आप निष्कलरुप हैं। आपको नमस्कार है। आप निष्कल तेज से प्रकाशित होते हैं। आपको नमस्कार है। आप सबके स्वामी हैं। आपको नमस्कार है। आप सर्वात्मा को नमस्कार है। अथवा सकल स्वरूप आप महेश्वर को नमस्कार है।28।
नमः प्रणववाच्याय नमः प्रणव लिङ्गिने।
नमः सृष्टयादिकर्त्रे च नमःपञ्चमुखाय ते।29।
आप प्रणव के वाच्यार्थ हैं।आपको नमस्कार है। आप प्रणवलिङ्ग वाले हैं। आपको नमस्कार है। सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करने वाले आपको नमस्कार है। आपके पाँच मुख हैं। आप परमेश्वर को नमस्कार है।29।
पञ्चब्रह्मस्वरूपाय पञ्चकृत्याय ते नमः।
आत्मने ब्रह्मणे तुभ्यमनन्तगुणशक्तये।30।
पञ्चब्रह्म स्वरूप पाँच कृत्य वाले आपको नमस्कार है। आप सबके आत्मा हैं, ब्रह्म हैं। आपके गुण और शक्तियां अनन्त हैं, आपको नमस्कार है।30।
सकलाकलरुपाय शम्भवे गुरवे नमः।
इति स्तुत्वा गुरुं पद्यैर्ब्रह्मा विष्णुश्च नमतुः।31।
आपके सकल और निष्कल दो रूप हैं। आप सद्गुरु एवं शम्भु हैं, आपको नमस्कार है। इन पद्यों द्वारा अपने गुरु महेश्वर की स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों में प्रणाम किया।31।
ईश्वर उवाच--
वत्सकौ सर्वतत्त्वं च कथितं दर्शितं च वाम्।
जपतं प्रणवं मन्त्रं देवी दिष्टं मदात्मकम्।32।
ईश्वर बोले--
हे पुत्र ! आपको सब तत्त्व कहा और दिखाया भी, इसी दिव्य पवित्र मन्त्र का जप करना, यह साक्षात मेरा ही स्वरूप है।32।
ज्ञानं च सुस्थिरं भाग्यं सर्वं भवति शाश्वतम्।
आर्द्रायां च चतुर्दश्यां तज्जयं त्वक्षयं भवेत्।33।
इससे ज्ञान सुस्थिर होता है तथा सर्वत्र श्रेष्ठ भाग्य होता है। आर्द्रा नक्षत्र से युक्त चतुर्दशी को प्रणव का जप किया जाये तो वह अक्षय फल देने वाला होता है।33।
सूर्यगत्या महार्द्रायामेकं कोटि गुणं भवेत्।
मृगशीर्षान्तिमो भागः पुनर्वस्वादिमस्तथा।34।
आर्द्रासमं सदा ज्ञेयं पूजाहोमादितर्पणे।
दर्शनं तु प्रभाते च प्रातः सङ्गवकालयोः।35।
सूर्य की संक्रांति से युक्त महा आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया हुआ प्रणव जप कोटिगुने जप का फल देता है। मृगशिरा नक्षत्र का अन्तिम भाग तथा पुनर्वसु का आदिम भाग पूजा, होम और तर्पण आदि के लिए सदा आर्द्रा के समान ही होता है। यह जानना चाहिये। मेरा या शिवलिङ्ग दर्शन प्रभातकाल में ही प्रातः और संगव (मध्याह्न के पूर्व) काल में करना चाहिये।34-35।
चतुर्दशी तथा ग्राह्या निशीथ व्यापिनी भवेत्।
प्रदोष व्यापिनी चैव परयुक्ता प्रशस्यते।36।
मेरे दर्शन-पूजन के लिये चतुर्दशी तिथि निशीथ व्यापिनी अथवा प्रदोष व्यापिनी लेनी चाहिये, क्योंकि परवर्तिनी तिथि से संयुक्त चतुर्दशी की ही प्रशंसा की जाती है।36।
लिङ्गं वेरं च मे तुल्यं यजतां लिङ्ग मुत्तमम्।
तस्मालिंङ्गं परं पूज्यं वेरादपि मुमुक्षुभिः।37।
पूजा करने वालों के लिये मेरी मूर्ति तथा शिवलिङ्ग समान हैं। फिर भी मूर्ति की अपेक्षा शिवलिङ्ग का स्थान ऊंचा है। इसलिये मुमुक्षु पुरुषों को चाहिये कि वे वेर(मूर्ति) से भी श्रेष्ठ समझकर शिवलिङ्ग का ही पूजन करें ।37।
लिङ्गमोंकार मन्त्रेण वेरं पञ्चाक्षरेण तु।
स्वयमेव हि सद्द्रव्यैः प्रतिष्ठा प्यं परैरपि।38।
पूजयेदुपचारैश्च मत्पदं सुलभं भवेत्।
इति शास्य तथा शिष्यौ तत्रैवान्तर्हितः शिवः।39।
शिवलिङ्ग का ऊँ कार मन्त्र से और वेर ( मूर्ति) का पञ्चाक्षर मन्त्र से पूजन करना चाहिये। शिवलिङ्ग की स्वयं ही स्थापना करके अथवा दूसरों से भी स्थापना करवाकर उत्तम द्रव्यमय उपचारों से पूजा करनी चाहिये। इससे मेरा पद सुलभ हो जाता है। इस प्रकार दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान शिव वहीं अंतर्ध्यान हो गये।38-39।
इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां ओंकारोपदेशवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः
ॐ जय बाबा की ॐ
No comments:
Post a Comment