Sunday, 16 June 2019

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ अथाष्टमोऽध्यायः

ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ अथाष्टमोऽध्यायः

नन्दिकेश्वर उवाच

ससर्जिथ महादेवः पुरुषं कञ्चिदद्भुतम्।
भैरवाख्यं भ्रुवोर्मध्याद् ब्रह्मदर्पजिघांसया।।1।।

नन्दिकेश्वरजी  बोले--

तब महादेव जी ने ब्रह्मा जी का मद दूर करने के निमित्त अपनी भृकुटी के मध्य से एक अद्भुत पुरुष भैरव जी की रचना की।।1।।

स वै तदा तत्र पतिं प्रणम्य शिवमङ्गणे।
किं कार्यं करवाण्यत्र शीघ्रमाज्ञापय प्रभो।।2।।

उत्पन्न होते ही समरांगण में उस पुरुष ने शिवजी को प्रणाम करके कहा--है भगवन! मैं क्या करूँ? शीघ्र आज्ञा दीजिये।।2।।

शिव उवाच

वत्स योऽयं विधिः साक्षाज्जगतामाद्यदैवतम्।
नूनमर्चय खडगेन तिग्मेन जवसा परम्।।3।।

शिवजी ने कहा--- हे वत्स! यह जो जगत के आदि देवता ब्रह्मा हैं, इनकी तीक्ष्ण धार वाले वेगवान खड्ग से अर्चा करो अर्थात प्रहार करो।।3।।

स वै गृहीत्वैककरेण केशं तत्पञ्चमं दृप्तमसत्यभाषिणम्।
छित्त्वा शिरो ह्यस्य निहन्तुमुद्यतः प्रकम्पयन् खड्गमतिस्फुटं करैः।।4।।

सो सुनते ही भैरव ने एक  हाथ से केश पकड़कर व ब्रह्मा जी का पांचवा असत्य भाषी सिर काटकर स्फुरायमान होते हुए खड्ग से उनके दूसरे भी सिर काटने की इच्छा की।।4।।

पिता तववोत्सृष्ट विभूषणाम्बर
स्त्रगुत्तरीयामलकेश संहतिः।
प्रवातरम्भेव लतेव चञ्चलः पपात वै भैरपादपंकजे।।5।।

तब आपके पिता ब्रह्माजी गहने, माला और उत्तरीय वस्त्र त्यागकर, केश खोले हुए हवा चलने से केले और वेल के समान कम्पित होकर भैरव जी के चरण कमलों में गिर पड़े।।5।।

तावद्विधिं तात  दिदृक्षुरच्युतः कृपालुरस्मत्पति पादपल्लवम्।
निषिच्य बाष्पैरवदत् कृताञ्जलिर्यथाशिशुः स्वं पितरं कलाक्षरम्।।6।।

ब्रह्माजी की यह दशा देखते ही विष्णुजी ने हमारे स्वामी के चरणकमलों में अश्रुमोचन करते करते हाथ जोड़कर कहा, जैसे बालक पिता से कहते हैं।।6।।

अच्युत उवाच

त्वया प्रयत्नेन पुरा हि दत्तं यदस्य पञ्चाननमीश चिह्नम्।
तस्मात् क्षमस्वाद्य मनुग्रहार्हं कुरु प्रसादं विधये ह्यमुष्मै।।7।।

विष्णुजी बोले -- हे भगवन! प्रथम आपने कृपा करके इनको पांच सिर दिये थे, अब एक जाता रहा, इस कारण क्षमा करके अब ब्रह्मा जी पर प्रसन्नता कीजिये।।7।।

इत्यर्थितोऽच्युतेनेशस्तुष्टः सुरगणाङ्गणे।
निवर्तयामास तदा भैरवं ब्रह्मदण्डतः।।8।।

जब विष्णुजी ने इस प्रकार कहा, तब शिवजी देवताओं से सेवित होकर गणों के मध्य स्थित हो गये और उ्न्होंने ब्रह्मा जी को दण्ड देने से भैरव  जी को निवृत किया।।8।।

अथाह देवः कितवं विधिं विगतकन्धरम्।
ब्रह्मंस्त्वमर्हणाकाङ्क्षी शठेशत्वं समास्थितः।।9।।

तब एक कन्धरा रहित ब्रह्माजी से शिवजी बोले कि, आपने कपट किया और अपनी पूजा और ईश्वर होनेकी इच्छा से छल किया।।9।।

नातस्ते सत्कृतिर्लोके भूयात् स्थानोत्सवादिकम्।
ब्रह्मोवाच

स्वामिन् प्रसीदाद्य महाविभूते मन्ये वरं मे शिरशः प्रमोक्षम्।।10।।

इस कारण लोक में आपका सत्कार न होगा। आपका स्थान और उत्सवादिक न होगा।
ब्रह्मा जी बोले---
हे स्वामी! हे महाविभूति युक्त! प्रसन्न हो, और हे वर देने वाले! मेरा शिर मोक्ष हो, यही वर दीजिये।।10।।
नमस्तुभ्यं भगवते बन्धवे विश्वयोनये।
सहिष्णवे च दोषाणां शम्भवे शैलधन्वने।।11।।

हे भगवन! है जगदबंधु! संसार के कारण सब दोषों को सहने वाले, हे शैल धनुषधारी शंभुजी! आपको नमस्कार है।।11।।
ईश्वर उवाच

अराजभयमेतद्वै जगत् सर्वं नशिष्यति।
ततस्त्ववं जहि दण्डार्हं वह लोकधुरं शिशो।।12।।

शिवजी बोले---
अराज के भय से यह सब जगत् स्थिर न रहेगा, इस कारण से जो दण्ड के योग्य है, आप उनको दण्ड दो और लोक की धुरी धारण करो।।12।।

वरं ददामि ते तत्र गृहाण दुर्लभं परम्।
वैतानिकेषु गृह्येषु यज्ञेषु च भवान् गुरूः।13।

हे पुत्र! मैं आपको दुर्लभ वर देता हूँ, सो ग्रहण करो। अग्निहोत्र, स्मार्तकर्म और यज्ञों के गुरू आप ही होंगे, उसमें आपका सत्कार होगा।।13।।

निष्फलस्त्वदृते यज्ञः साङ्गश्च सहदक्षिणः।
अथाह देवः कितवं केतकं कूटसाक्षिणम्।।14।।

सांग और दक्षिणा सहित भी यज्ञ आपके बिना पूर्ण न होगा, किन्तु निष्फल हो जायेगा। यह कहकर देव ने असत्य भाषी केतकी पुष्प से कहा।।14।।

रे रे केतक दुष्टस्त्वं शठ दूरमितो व्रज ।
ममापि प्रेम ते पुष्पे माभूत्पूजास्वितः परम्।।15।।

अरे असत्य भाषी केतक, दुष्ट! तू यहाँ से दूर हो, आज से मेरा प्रेम तुझमें नहीं और मेरी पूजा में तू न होगा।।15।।

इत्युक्ते तत्र देवेन केतकं देवजातयः।
सर्वां निवारयामासुस्तत्पा र्श्वादन्यतस्तदा।।16।।

देव के ऐसा कहते ही शिवजी के निकटवर्ती देवजाती केतक  को वहां से दूर करने लगी।।16।।

केतक उवाच
नमस्ते नाथ मे जन्म निष्फलं भवदाज्ञया।
सफलं क्रियतां तात क्षम्यतां मम किल्बिषम्।।17।।

केतक बोला--
हे नाथ! नमस्कार है। आज से आपकी आज्ञा से मेरा जन्म निष्फल हुआ। हे स्वामिन्! कुछ तो सफल कीजिये। अब मेरा पाप दूर कीजिये।।17।।

ज्ञानाज्ञान कृतं पापं नाशयत्येव ते स्मृतिः।
तादृशे त्वयि दृष्टे मे मिथ्या दोषः कुतो भवेत्।।18।।

आपके तो स्मरण से ही ज्ञान होता है और अज्ञान कृत पाप नष्ट हो जाते हैं, फिर आपका दर्शन करने से मेरा मिथ्या भाषण दोष क्यों न नष्ट होगा?।।18।।

तथा स्तुतस्तु भगवान केतकेन  सभास्थले।
न मे त्वद्धारणं योग्यं सत्यवागमहीश्वरः।।19।।

जब केतक ने सभा में भगवान शिव की इस प्रकार प्रार्थना की, तब शिवजी ने कहा-- हमारी वाणी असत्य नहीं होती, हम तुझे धारण नहीं करेंगे।।19।।

मदीयास्त्वां धरिष्यन्ति जन्म ते सफलं ततः।
त्वं वै वितानव्याजेन ममोपरि भविष्यसि।।20।।
परंतु विष्णुजी आदि हमारे भक्त देवता तुझे धारण करेंगे। इससे तेरा जन्म सफल होगा और मण्डप रचना के निमित्त मेरे भी ऊपर तू होगा।।20।।

इत्यनुगृह्य भगवान केतकं विधिमाधवौ।
विरराज सभामध्ये सर्वदेवैरभिष्टुतः।।21।।

इस प्रकार केतक, ब्रह्मा और विष्णुजी पर अनुग्रह करके भगवान शिवजी सब देवताओं से पूजित होकर सभा में विराजे।।21।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां शिवानुग्रहवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः।।8।।

🙏जय बाबा की🙏

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