Monday, 17 June 2019

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथैकादशोऽध्यायः

ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथैकादशोऽध्यायः
|| संकलन - बाबा चरणदास ||
ऋषय ऊचुः

कथं लिङ्गं प्रतिष्ठाप्यं कथं वा तस्य लक्षणम्।
कथं वा तत्समभ्यर्च्यं देशे काले च केन हि।।1।।

ऋषियों ने पूछा--

सूतजी ! शिवलिङ्गं की स्थापना कैसे करनी चाहिये ? उसका लक्षण क्या है ? तथा उसकी पूजा कैसे करनी चाहिये, किस देश काल में करनी चाहिये और किस द्रव्य के द्वारा उसका निर्माण होना चाहिये ? ।1।

सूत उवाच
युष्मदर्थं प्रवक्ष्यामि बुध्यतामवधानतः।
अनुकूले शुभे काले पुण्ये तीर्थे तटे तथा।।2।।

यथेष्टं लिङ्ग मारोप्यं यत्र स्यान्नित्यमर्चनम्।
पार्थिवेन तथाप्येन तैजसेन यथारुचि।।3।।

कल्पलक्षणसंयुक्तं लिङ्गं पूजा फलं लभेत्।
सर्वलक्षणसंयुक्तं सद्यः पूजाफलप्रदम्।4।

सूतजी ने कहा--

महर्षियो मैं तुम लोगों के लिये इस बिषय का वर्णन करता हूँ। ध्यान देकर सुनो और समझो। अनुकूल एवं शुभ समय में किसी पवित्र तीर्थ में, नदी आदि के तट पर अपनी रूचि के अनुसार ऐसी जगह शिवलिङ्ग की स्थापना करनी चाहिये, जहाँ नित्य पूजन हो सके। पार्थिव द्रव्य से, जलमय द्रव्य से अथवा तैजस पदार्थ से अपनी रूचि के अनुसार कल्पोक्त लक्षणों से युक्त शिव लिङ्ग का निर्माण करके उसकी पूजा करने से उपासक को उस पूजन का पूरा पूरा फल प्राप्त होता है।।2-3-4।।

चरे विशिष्यते सूक्ष्मं स्थावरे स्थथूलमेव हि।
सलक्षणं सपीठं च स्थापयेच्छिवनिर्मितम्।।5।।

यदि चल प्रतिष्ठा करनी हो तो   इसके लिए छोटा सा शिव  लिङ्गं, अथवा विग्रह श्रेष्ठ माना जाता है, और यदि अचल प्रतिष्ठा करनी हो तो स्थूल शिव लिङ्गं अथवा विग्रह श्रेष्ठ माना गया है। उत्तम लक्षणों से युक्त शिव लिङ्ग की पीठ सहित स्थापना करनी चाहिये।।5।।

मण्डलं चतुरस्त्रं वा त्रिकोणमथवा तथा।
खट्वाङ्गवन्मध्य सूक्ष्मंं लिङ्ग पीठं महाफलम्।।6।।

शिवलिङ्ग का पीठ मंडलाकार(गोल), चौकोर, त्रिकोण अथवा खाट के पाये की भांति ऊपर नीचे मोटा और बीच में पतला होना चाहिये। ऐसा लिङ्ग पीठ महान् फल देने वाला होता है।।6।।  

प्रथमं मृच्छिलादिभ्यो लिङ्गं लोहादिभिः कृतम्।
येन लिङ्गं तेन पीठं स्थावरे हि विशिष्यते।।7।।

पहले मिट्टी से, प्रस्तर आदि से अथवा लोहे आदि से शिव लिंङ्ग का निर्माण करना चाहिये। जिस द्रव्य से शिव लिंङ्ग का निर्माण हो, उसी से उसका पीठ भी बनाना चाहिये यही स्थावर ( अचल प्रतिष्ठा वाले) शिव लिङ्ग की विशेष बात है। चर ( चल प्रतिष्ठा वाले) शिव लिङ्ग में भी लिङ्ग और पीठ का एक ही उपादान होना चाहिये।।7।।

लिङ्गं पीठं चरे त्वेकं लिङ्गं बाणकृतं विना।
लिङ्गंप्रमाणं  कर्तॄणां द्वादशाङ्गुलमुत्तमम्।।8।।

किन्तु बाणलिङ्ग के लिए यह नियम नहीं है। लिङ्ग की लम्बाई निर्माणकर्ता या स्थापना करने वाले यजमान के बारह अंगुल के बराबर होनी चाहिये। ऐसे ही शिव लिङ्ग को उत्तम कहा गया है।।8।।

न्यूनं चेत्फलमल्पं स्यादधिकं नैव दुष्यते।
कर्तुरेकांगुलन्यूनं चरेऽपि च तथैव हि।।9।।

इससे कम लंबाई हो तो फल में कमी आ जाती है। अधिक हो तो कोई दोष की बात नहीं है। चर लिङ्ग में भी वैसा ही नियम है। उसकी लम्बाई कम से कम कर्ता के एक अंगुल के बराबर होनी चाहिये। उससे छोटा होने पर अल्प फल मिलता है, किन्तु उससे अधिक होना दोष की बात नहीं है।।।9।।

आदौ विमानं शिल्पेन कार्यं देवगणैर्युतम्।
तत्रगर्भगृहे रम्ये दृणे दर्पण सन्निभे।।10।।

यजमान को चाहिए कि वह पहले शिल्प शास्त्र के अनुसार एक विमान या देवालय बनवाये, जो देवगणों की मूर्तियों से अलंकृत हो। उसका गर्भगृह बहुत ही सुंदर, सुदृढ़ और दर्पण के समान स्वच्छ हो।।10।।

भूषिते नवरत्नैश्चदिग्द्वारे च प्रधानके।
नीलरक्तं च वैडूर्यं शयामं मारकतं तथा।।11।।

मुक्ताप्रवाल गोमेद वज्राणि नवरत्नकम्।
मध्ये लिङ्गं महद् द्रव्यं निःक्षिपेत्सहवैदिके।।12।।

उसे नौ प्रकार के रत्नों से विभूषित किया गया हो। उसमें पूर्व और पश्चिम दिशा में दो मुख्य द्वार हों। जहाँ शिवलिङ्ग की स्थापना करनी हो, उस स्थान के गर्त में नीलम, लाल वैदूर्य, श्याम, मरकत, मोती, मूंगा, गोमेद और हीरा इन नौ रत्नों को तथा अन्य महत्वपूर्ण द्रव्यों को वैदिक मन्त्रों के साथ छोड़ें।।11-12।।

सम्पूज्य लिङ्गं सद्याद्यैः पञ्चस्थाने यथाक्रमम्।
अग्नौ च हुत्वा बहुधा हविषा सकुलं च माम्।।13।।

सद्योजात आदि पाँच वैदिक मंत्रों द्वारा शिवलिङ्ग का पाँच स्थानों में क्रमशः पूजन करके अग्नि में हविष्य की अनेक आहुतियां दे।।13।।

अभ्यर्च्यं गुरुमाचार्यमर्थैः कामैश्च बान्धवम्।
दद्यादैश्वर्यमर्थिभ्यो जडमप्यजडं तथा।।14।।

 परिवार सहित मेरी पूजा करके गुरु स्वरूप आचार्य को धन से तथा भाई बंधुओं को मनचाही वस्तुओं से संतुष्ट करे। याचकों को जड ( सुवर्ण, गृह एवं भूसंपत्ति) तथा चेतन गाय आदि वैभव प्रदान करे।।14।।

स्थावरं जङ्गमं जीवं सर्वं सन्तोष्य यत्नतः।
सुवर्णपूरिते श्वभ्रे नवरत्नैश्च पूरिते।।15।।

सद्यादि ब्रह्म चोच्चार्य ध्यात्वा देवं परं शुभम्।
उदीर्य च महामन्त्रमोंकारं नादघोषितम्।।16।।

लिङ्गं तत्र प्रतिष्ठाप्य लिङ्गं पीठेन योजयेत्।
लिङ्गं सपीठं निक्षिप्य नित्य लेपेन बन्धयेत्।।17।।

स्थावर जंगम सभी जीवों को यत्न पूर्वक संतुष्ट करके एक गड्ढे में सुवर्ण तथा नौ प्रकार के रत्न भरकर सद्योजातादि वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके परम कल्याणकारी महादेव जी का ध्यान करे। तत्पश्चात नादघोष से युक्त महामंत्र ओंकार (ऊँ) का उच्चारण करके उक्त गड्ढे में शिवलिङ्ग की स्थापना करके उसे पीठ से संयुक्त करे। इस प्रकार पीठयुक्त लिङ्ग की स्थापना करके उसे नित्य लेप (दीर्घकाल तक टिके रहने वाले मसालेे) से जोड़कर स्थिर करे।।15-16-17।।

एवं वेरं च संस्थाप्यं तत्रैव परमं शुभम्।
पञ्चाक्षरेण वेरं तु उत्सवार्थं बहिस्तथा।।18।।

इसी प्रकार वहाँ परम सुन्दर वेर ( मूर्ति) की भी स्थापना करनी चाहिये। सारांश यह है कि भूमि संस्कार आदि की सारी विधि जैसी लिंङ्ग प्रतिष्ठा के लिए की गई है, वैसी ही वेर ( मूर्ति) प्रतिष्ठा के लिये भी समझनी चाहिये। अंतर इतना ही है कि लिंङ्ग प्रतिष्ठा के लिये प्रणवमन्त्र के उच्चारण का विधान है, परंतु वेर ( मूर्ति) की प्रतिष्ठा पञ्चाक्षर मंत्र से करनी चाहिये। जहाँ शिवलिङ्ग की प्रतिष्ठा हुई है। वहाँ भी उत्सव के लिये बाहर सवारी निकालने आदि के निमित्त वेर ( मूर्ति) को रखना आवश्यक है। वेर को बाहर से भी लिया जा सकता है।।18।।

वेरं गुरुभ्यो गृह्णीयात्साधुभिः पूजितं तु वा।
एवं लिङ्गे च वेरे च पूजा शिवपदप्रदा।।19।।

वेर ( मूर्ति) को गुरुजनों से ग्रहण करे। बाह्य वेर वही लेने योग्य है, जो साधु पुरुषों द्वारा पूजित हो। इस प्रकार लिङ्ग में और वेर ( मूर्ति) में भी की हुई महादेव जी की पूजा शिवपद प्रदान करने वाली होती है।।19।।

पुनश्च द्विविधंं प्रोक्तं स्थावरं जङ्गमं तथा।
स्थावरं लिङ्गमित्याहुस्तरुगुल्मादिकं तथा।।20।।

जङ्गमं लिङ्गमित्याहुः कृमिकीटादिकं तथा।
स्थावरस्य च शुश्रूषा जङ्गमस्य च तर्पणम्।।21।।

स्थावर और जङ्गम के भेद से लिङ्ग भी दो प्रकार का कहा गया है। वृक्ष, लता आदि को स्थावर लिङ्ग कहते हैं और कृमि कीट आदि को जङ्गम लिंङ्ग। स्थावर लिङ्ग की सींचने  आदि के द्वारा सेवा करनी चाहिये और जङ्गम लिङ्ग को आहार एवं जल आदि देकर तृप्त करना उचित है।।20-21।।

तत्तत्सुखानुरागेण शिवपूजां विदुर्बुधाः।
पीठमम्बामयं सर्वं शिवलिङ्गं च चिन्मयम्।।22।।

यथा देवीमुमामंके धृत्वा तिष्ठति शंकरः।
तथा लिङ्गमिदं पीठं धृत्वा तिष्ठति सन्ततम्।।23।।

उन स्थावर जङ्गम जीवों को सुख पहुंचाने में अनुरक्त होना भगवान् शिव का पूजन है, ऐसा विद्वान पुरुष मानते हैं। ( यों चराचर जीवों को ही भगवान् शंकर के प्रतीक मानकर उनका पूजन करना चाहिये।) पीठ प्रकृतिमय है और शिवलिङ्ग ज्ञान स्वरूप है। जिस प्रकार शिवजी पार्वती देवी को अंक में लेकर स्थित रहते हैं, उसी प्रकार से शिवलिङ्ग इस पीठ को धारण करके स्थित रहता है।।22-23।।

एवं स्थाप्य महालिङ्गं पूजयेदुपचारकैः।
नित्यपूजा यथाशक्ति ध्वजादिकरणं तथा।।24।।

इति संस्थापयेल्लिङ्गं साक्षाच्छिवपदप्रदम्।
अथवा चर लिङ्गं तु षोडशैरुपचारकैः।।25।।

इस तरह महालिङ्ग की स्थापना करके विविध उपचारों द्वारा उसका पूजन करे। अपनी शक्ति के अनुसार नित्य पूजा करनी चाहिये तथा देवालय के पास ध्वजारोपण आदि करने चाहिये। शिवलिङ्ग साक्षात शिव का पद प्रदान करने वाला है। अथवा चरलिङ्ग में षोडशोपचारों द्वारा यथोचित रीति से क्रमशः पूजन करे। यह पूजन भी शिवपद प्रदान करने वाला है।।24-25।।

  पूजयेच्च यथान्यायं क्रमाच्छिवपदप्रदम्।
आवाहनं चासनं च अर्घ्यं पाद्यं तथैव च।।26।

तदङ्गाचमनं चैव स्नानमभ्यङ्गपूर्वकं।
वस्त्रं गन्धं तथा पुष्पं धूपं दीपं निवेदनम्।।27।।

नीराजनं च ताम्बूलं नमस्कारो विसर्जनम्।
अथवार्घ्यादिकं कृत्वा नैवेद्यान्तं यथाविधि।।28।।

यथायोग्य पूजन करने से शिवजी के पद की प्राप्ति हो जाती है। आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, पाद्याङ्ग, आचमन, अभ्यङ्ग पूर्वक स्नान, वस्त्र, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, समर्पण, नीराजन, नमस्कार और विसर्जन ये सोलह उपचार हैं। अथवा अर्घ्य से लेकर नैवेद्य तक विधिवत पूजन करे।।26-27-28।। 

अथाभिषेकं नैवेद्यं नमस्कारं च तर्पणम्।
यथाशक्ति सदा कुर्यात्क्रमाच्छिवपदप्रदम्।।29।।

अभिषेक, नैवेद्य,नमस्कार और तर्पण ये सब यथाशक्ति नित्य करे। इस तरह किया हुआ शिव का पूजन शिवपद की प्राप्ति कराने वाला होता है।।29।।

अथवा मानुषे  लिङ्गेऽप्यार्षे दैवे स्वयम्भुवि।
स्थापितेऽपूर्वके लिङ्गे सोपचारं यथा तथा।।30।।

पूजोपकरणे दत्ते यत्किञ्चित्फलमश्नुते।
प्रदक्षिणानमस्कारैः क्रमाच्छिवपदप्रदम्।।31।।

किसी मनुष्य के द्वारा स्थापित शिवलिङ्ग में,ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिङ्ग में, देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिङ्ग में, अपने आप प्रकट हुए स्वयम्भू शिवलिङ्ग में तथा अपने द्वारा नूतन स्थापित हुए शिवलिङ्ग में भी उपचार समर्पण पूर्वक जैसे तैसे पूजन करने से या पूजन की सामग्री देने से भी मनुष्य ऊपर जो कुछ कह गया है, वह सारा फल प्राप्त कर लेता है। क्रमशः परिक्रमा और नमस्कार भी शिवलिङ्ग शिवपद की प्राप्ति कराने वाला होता है।।30-31।।

लिङ्ग दर्शनमात्रं वा नियमेन शिवपदप्रदम्।
मृत्पिष्टगोशकृत्पुष्पैः करवीरेण वा फलैः।।32।।

गुडेन नवनीतेन भस्मनान्नैर्यथारुचि।
लिङ्गं यत्नेन कृत्वान्ते यजत्तदनुसारतः।।33।।

यदि नियमपूर्वक शिवलिङ्ग का दर्शन मात्र कर लिया जाय तो वह भी कल्याणप्रद होता है। मिट्टी, आटा, गाय के गोबर, फूल, कनेर पुष्प, फल गुड़, मक्खन, भस्म अथवा अन्न से भी अपनी रुचि के अनुसार शिवलिङ्ग बनाकर तदनुसार उसका पूजन करे।।32-33।।

अंगुष्ठादावपि तथा पूजामिच्छन्ति केचन।
लिङ्ग कर्मणि सर्वत्र निषेधोऽस्ति न कर्हिचित्।।34।

इसी प्रकार कोई अंगुष्ठ में ही शिवजी की पूजा करते हैं। लिंग स्वरूप की पूजा चाहे जहाँ करे इसका निषेध नहीं है।।34।।

सर्वत्र फलदाता हि प्रयासानुगुणं शिवः।
अथवा लिङ्गदानं वा लिङ्ग मौल्यमथापि वा।।35।।

श्रद्धया शिवभक्ताय दत्तं शिवपदप्रदम्।
अथवा प्रणवं नित्यं जपेद्दशसहस्त्रकम्।।36।।

प्रयास के अनुसार शिवजी सर्वत्र ही फल देते हैं और शिवलिंङ्ग का दान अथवा शिवलिंङ्ग  मूल्य श्रद्धा पूर्वक शिवजी के भक्त को देने से भी महाफल की प्राप्ति होती है, शिवजी का पद ही मिल जाता है अथवा नित्यप्रति दश सहस्र ऊँ कार का जप करे।।35-36।।

सन्ध्योश्च सहस्त्रं वा ज्ञेयं शिवपदप्रदम्।
जपकाले मकारान्तं मनःशुद्धिकरं भवेत्।।37।।

अथवा दोनों संध्याओं के समय एक एक सहस्त्र प्रणव का जप किया करे। यह क्रम भी शिवपद की प्राप्ति कराने वाला है, ऐसा जानना चाहिए। जपकाल में मकारान्त प्रणव का उच्चारण मन की शुद्धि करने वाला होता है।।37।।
समाधौ मानसं प्रोक्तमुपांशु सार्वकालिकम्।
समान प्रणवं चेमं बिन्दुनादयुतं विदुः।।38।।

समाधि में मानसिक जप का विधान है। तथा अन्य सब समय भी उपांशु जप (जो दूसरे को सुनाई न पड़े)ही करना चाहिये। नाद और बिन्दु से युक्त ओंकार के उच्चारण को विद्वान पुरुष समान प्रणव कहते हैं जो सर्व काल में एक ही है।।38।।

अथ पञ्चाक्षरं नित्यं जपेदयुतमादरात्।
सन्ध्ययोश्च सहस्त्रं वा ज्ञेयं शिवपदप्रदम्।।39।।

यदि प्रतिदिन आदरपूर्वक दस हजार पञ्चाक्षर मन्त्र का जप किया जाय अथवा दोनों संध्याओं के समय एक एक सहस्र का ही जप किया जाय तो उसे शिवपद की प्राप्ति कराने वाला समझना चाहिये।।39।

प्रणवेनादिसंयुक्तं ब्राह्मणानां विशिष्यते।
दीक्षायुक्तं गुरोर्ग्राह्यं मन्त्रं ह्यथ फलाप्तये।।40।।

ब्राह्मणों को पञ्चाक्षर मन्त्र के जप में ऊँ लगाना उचित है। और फल की प्राप्ति निमित्त गुरू से दीक्षा पूर्वक मंन्त्र ग्रहण करना चाहिए।।40।।

कुम्भस्नानं मन्त्रदीक्षां मातृकान्यासमेव च।
ब्राह्मणः सत्यपूतात्मा गुरुर्ज्ञानी विशिष्यते।।41।।

कलश से किया हुआ स्नान, मन्त्र की दीक्षा, मातृकान्यास करना और सत्य बोलने से पवित्र अन्तः करण वाला ब्राह्मण तथा ज्ञानी इन सबको उत्तम माना गया है।।41।।

द्बिजानां च नमः पूर्वमन्येषां च नमोऽन्तकम्।
स्त्रीणां च केचिदिच्छन्ति नमोऽन्तं च यथाविधि।।42।।

द्विजों के लिए नमः शिवाय के उच्चारण का विधान है। द्विजेतरों  के लिए अन्त में नमः पद के प्रयोग की विधि है। अर्थात वे शिवाय नमः इस मंन्त्र का उच्चारण करें।  स्त्रियों के लिये भी कहीं कहीं विधिपूर्वक नमोऽन्त उच्चारण का ही विधान है। अर्थात वे भी शिवाय नमः का ही जप करें।।42।।

विप्रस्त्रीणां नमः पूर्वमिदमिच्छन्ति केचन।
पञ्चकोटिजपं कृत्वा सदाशिवसमो भवेत्।।43।।

कोई कोई ऋषि ब्राह्मण की स्त्रियों के लिये नमः पूर्वक शिवाय के जप की अनुमति देते हैं। अर्थात वे नमः शिवाय का जप करें। पञ्चाक्षर मंन्त्र का पांच करोड़ जप करके मनुष्य भगवान् सदाशिव के समान हो जाता है।।43।।

एकद्बित्रिचतुः कोट्या ब्रह्मादीनां पदं व्रजेत्।
जपेदक्षरलक्षं वा अक्षराणां पृथक्पृथक।।44।।

अथवाक्षरलक्षं वा ज्ञेयं शिवपदप्रदम् ।
सहस्त्रं तु सहस्त्राणां सहस्त्रेण दिनेन हि।।45।।

जपेन्मन्त्रादिष्टसिद्धिर्नित्यं ब्राह्मण भोजनात।
अष्टोत्तर सहस्त्रं वै गायत्रीं प्रातरेव हि।।46।।

एक, दो,तीन अथवा चार करोड़ जप करने से क्रमशःब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा महेश्वर का पद प्राप्त होता है। अथवा मंन्त्र में जितने अक्षर हैं, उनका पृथक  पृथक एक एक लाख जप करे अथवा समस्त अक्षरों का एक साथ ही जितने अक्षर हों  उतने लाख जप करे। इस तरह के जप को शिव पद की प्राप्ति कराने वाला समझना चाहिये। यदि एक हजार दिनों में प्रतिदिन एक सहस्त्र जप के क्रम से पञ्चाक्षर मंन्त्र का दस लाख जप पूरा कर लिया जाय और प्रतिदिन ब्राह्मण भोजन कराया जाय तो उस मंन्त्र से अभीष्ट कार्य की सिद्धि होने लगती है।ब्राह्मण को चाहिए कि वह प्रातःकाल एक हजार आठ गायत्री मंत्र जप करे।।44-45-46।।

ब्राह्मणस्तु जपेन्नित्यं क्रमाच्छिवपदप्रदाम्।
वेदमन्त्रांश्च सूक्तानि जपेन्नियममास्थितः।।47।।

गायत्री मंन्त्र जप करने पर गायत्री क्रमशः शिव का पद प्रदान करने वाली होती है। वेद मंत्रों और वैदिक सूक्तों का भी नियम पूर्वक जप करना चाहिये।।47।।

एकं दशार्णमन्त्रं च शतोनं च तदूर्ध्वकम्।
अयुतं च सहस्त्रं च शतमेकं विना भवेत्।।48।।

एक दशार्ण अर्थात दस अक्षर मंन्त्र सौ से अधिक सहश्रादि जपे, सौ से कमती न जपे, दशसहस्त्र अथवा सहस्त्र एक सौ के बिना करे।।48।।

वेदपारायणं चैव ज्ञेयं शिवपदप्रदम्।
अन्यान्बहुतरान्मन्त्राञ्जपेदक्षरलक्षतः।।49।।

वेदपारायण होने से भी शिवपद की प्राप्ति हो जाती है। और भी बहुत मंन्त्र हैं, उनके जितने अक्षर हों उतने ही लाख जप करे। इस प्रकार जो यथा शक्ति जप करता है वह क्रमशः शिवपद प्राप्त कर लेता है।।49।।

एकाक्षरांस्तथा मन्त्राञ्जपेदक्षरकोटितः।
ततःपरं जपेच्चैव सहस्त्रं भक्तिपूर्वकम्।।50।।

एकाक्षर मंन्त्र को एक करोड़ जपे, उसके उपरान्त भक्तिपूर्वक सहस्त्र ऊँ कार का जप करे।।50।।

 एवं कुर्याद्यथाशक्ति क्रमाच्छिवपदं लभेत्।
नित्यं रुचिकरं त्वेकं मन्त्रमामरणान्तिकम्।।51।।

सहस्त्रमोमिति जपेत् सर्वाभीष्टं शिवाज्ञया।
पुष्पारामादिकं वापि तथा सम्मार्जनादिकम्।।52।।

इस प्रकार जो यथाशक्ति जप करता है, वह क्रमशः शिवपद प्राप्त कर लेता है। अपनी रूचि के अनुसार किसी एक मंन्त्र को अपनाकर मृत्यु पर्यन्त प्रतिदिन उसका जप करना चाहिये अथवा ओम (ॐ) इस मंन्त्र का प्रतिदिन एक सहस्र जप करना चाहिये। ऐसा करने पर भगवान शिव की आज्ञा से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है। जो मनुष्य भगवान् शिव के लिये फुलवारी, बाग बगीचे आदि लगाता है तथा शिव के सेवा कार्य के लिये मंदिर में झाड़ने बुहारने आदि की व्यवस्था करता है।।51-52।।

शिवाय शिवकार्यार्थे कृत्वा शिवपदं लभेत्।
शिवक्षेत्रे तथा वासं नित्यं कुर्याच्च भक्तितः।।53।।

वह इस पुण्य कर्म को करके शिवपद प्राप्त कर लेता है। भगवान् शिव के जो काशी आदि क्षेत्र हैं, उनमें भक्ति पूर्वक नित्य निवास करे।।53।।

जडानामजडानां च सर्वेषां भुक्तिमुक्तिदम्।
तस्माद्वासं शिवक्षेत्रे कुर्यादामरणं बुधः।।54।।

वह जड़ चेतन सभी को भोग और मोक्ष देने वाला होता है। अतः विद्वान पुरुष को भगवान् शिव के क्षेत्र में आमरण निवास करना चाहिये।।54।।

 लिङ्गाद्धस्तशतं पुण्यं क्षेत्रे मानुषके विदुः।
सहस्त्रारत्निमात्रं तु पुण्यं क्षेत्रे तथार्षके।।55।।

जहाँ मनुष्यों ने शिवलिङ्ग स्थापित किया है, वहाँ सौ हाथ तक पुण्यजनक स्थान होता है और पुण्य क्षेत्र में जहाँ ऋषियों ने शिवलिङ्ग स्थापित किया है, वहाँ सहस्र हाथ भर तक स्थान पवित्र होता है।।55।।

दैवलिङ्गे तथा ज्ञेयं सहस्त्रारत्निमानतः।
धनुष्प्रमाणसाहस्त्रं पुण्यं क्षेत्रे स्वयम्भुवि।।56।।

देवताओं के स्थापित शिवलिङ्ग के चारों ओर सहस्र हाथ भर तक स्थान पवित्र होता है और स्वयंभू शिवलिङ्ग  अर्थात जहाँ शिवलिङ्ग स्वयं प्रादुर्भूत हुआ है, वहां सहस्र धनुष तक स्थान पवित्र हो जाता है(चार हाथ का एक धनुष होता है) ।।56।।

पुण्य क्षेत्रे स्थिता वापी कूपाद्यं  पुष्कराणि च।
शिवगङ्गेति विज्ञेयं शिवस्य वचनं यथा।।57।।

पुण्य क्षेत्र में स्थित बावड़ी, कुआँ और पोखरे आदि को शिवगंगा समझना चाहिये। भगवान शिव का ऐसा वचन है।।57।।

तत्र स्नात्वा तथा दत्त्वा जपित्वा हि शिवं व्रजेत्।
शिवक्षेत्रं समाश्रित्य वसेदामरणं तथा।।58।।

वहाँ स्नान, दान और जप करके मनुष्य भगवान् शिव को प्राप्त कर लेता है। अतः मनुष्य को मृत्युपर्यन्त शिव के क्षेत्र का आश्रय लेकर रहना चाहिये।।58।।

द्वाहं दशाहं मास्यं वा सपिण्डीकरणं तु वा।
आब्दिकं वा शिवक्षेत्रे क्षेत्रे पिण्डमथापि वा।।59।।

सर्वपापविनिर्मुक्तः सद्यः शिवपदं लभे।
अथवा सप्तरात्रं वा वसेद्वा पञ्चरात्रकम्।।60।।

जो शिव के क्षेत्र में अपने किसी मृत सम्बन्धी का दाह, दशाह, मासिक श्राद्ध, सपिंडीकरण अथवा वार्षिक श्राद्ध करता है अथवा शिव क्षेत्र में अपने पितरों को पिंड देता है, वह तत्काल सब पापों से मुक्त हो जाता है और अंत में शिव पद पाता है।।59-60।।

त्रिरात्रमेकरात्रं वा क्रमाच्छिवपदं लभेत्।
स्ववर्णानुगुणं लोके स्वाचारात्प्राप्नुते नरः।।61।।

 शिव के क्षेत्र में सात, पाँच, तीन या एक ही रात निवास कर ले। ऐसा करने से भी क्रमशः शिव पद की प्राप्ति होती है। लोक में अपने अपने  वर्ण के अनुरूप सदाचार का पालन करने से भी मनुष्य शिवपद को प्राप्त कर लेता है।।61।।

वर्णोद्धारेण भक्त्या च तत्फलातिशयं नरः।
सर्वं कृतं कामनया सद्यः फलमवाप्नुयात्।।62।।

वर्णानुकूल आचरण से तथा भक्तिभाव से वह अपने सत्कर्म का अतिशय फल पाता है। कामना पूर्वक किये हुए अपने कर्म के अभीष्ट फल को शीघ्र ही पा लेता है।।62।।

सर्वं कृतमकामेन साक्षाच्छिवपदप्रदम्।
प्रात्मध्याह्नसायानमहस्त्रिष्वेकतः क्रमात।।63।।

निष्काम भाव से किया हुआ सारा कर्म साक्षात शिवपद की प्राप्ति कराने वाला होता है। दिन के तीन विभाग होते हैं। प्रातः, मध्याह्न और सायाह्न।।63।।

प्रातर्विधिकरं ज्ञेयं मध्याह्नं कामिकं तथा।
सायाह्नं शान्तिकं ज्ञेयं रात्रावपि तथैव हि।।64।।

इन तीनों में क्रमशः एक एक प्रकार के कर्म का संपादन किया जाता है। प्रातः काल को शास्त्रविहित नित्यकर्म के अनुष्ठान का समय जानना चाहिये। मध्याह्न काल सकाम  कर्म के लिये उपयोगी है तथा सायंकाल शान्तिकर्म के लिये उपयुक्त है। इसी प्रकार रात्रि में भी समय का विभाजन किया गया है।।64।।

कलो निशीथो वै प्रोक्तो मध्ययामद्वं निशि।
शिवपूजा विशेषेण तत्कालेऽभीष्टसिद्धिदा।।65।।

रात के चार प्रहरों में से जो बीच के दो प्रहर हैं, उन्हें निशीथ काल कहा गया है। विशेषतः उसी काल में की हुई भगवान शिव की पूजा अभीष्ट फल देने वाली होती है।।65।।

एवं ज्ञात्वा नरः कुर्वन्यथोक्तफलभाग्वेत्।
कलौ युगे विशेषेण फलसिद्धिस्तु कर्मणा।।66।।

ऐसा जानकर कर्म करने वाला मनुष्य यथोक्त फल का भागी होता है। विशेषतः कलियुग में कर्म से ही फल की सिद्धि होती है।।66।।

उक्तेन केनचिद्वापि ह्यधिकारविभेदततः।
सद्वृत्तिः पापभीरुश्चेत्तत्तत्फलम वाप्नुयात्।।67।।

अपने अपने अधिकार के अनुसार ऊपर कहे गये किसी भी कर्म के द्वारा शिवाराधन करने वाला पुरुष यदि  सदाचारी है और पाप से डरता है तो वह उन उन कर्मों का पूरा पूरा फल अवश्य प्राप्त कर लेता है।।67।।

ऋषय ऊचुः
अथ क्षेत्राणि पुण्यानि समासात्कथयस्व नः।
सर्वाः स्त्रियश्च पुरुषा यान्याश्रिय पदं लभेत।।68।

सूत उवाच
सूत योगिवरश्रेष्ठ शिवक्षेत्रागमांस्तथा।
श्रृणुत श्रद्धया सर्वक्षेत्राणि च तदागमान्।।69।।

ऋषियों ने कहा सूत जी!पुण्य क्षेत्र कौन कौन से हैं, जिनका आश्रय लेकर सभी स्त्री पुरुष शिवपद प्राप्त कर लें यह हमें संक्षेप से बताईये।

सूतजी बोले-
आप श्रद्धा से उन सब क्षेत्रों और उनके माहात्म्य प्रतिपादक वेदविभाग को श्रवण कीजिये।।68-69।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां शिवलिङ्गपूजादिवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः।।11।।
|| ॐ जय बाबा की ॐ || 

Sunday, 16 June 2019

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ दशमोऽध्यायः

ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ  दशमोऽध्यायः
|| संकलन - बाबा चरणदास || 
ब्रह्मविष्णू ऊचतुः

सर्गादि पञ्चकृत्यस्य लक्षणं ब्रूहि नौ प्रभो।

ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा--
प्रभो! सृष्टि आदि पांच कृत्यों के लक्षण क्या है, यह हम दोनों को बताइये।

शिव उवाच

मत्कृत्यबोधनं गुह्यं कृपया प्रब्रवीमि वाम्।1।

मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन हैं, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उनके विषय में बता रहा हूँ।1।

सृष्टिः स्थितिश्च संहारस्तिरोभावोऽप्यनुग्रहः।
पञ्चैव मे जगत्कृत्यं नित्य सिद्धमजाच्युतौ।2।*

ब्रह्मा और अच्युत ! सृष्टि, पालन, संहार,तिरोभाव और अनुग्रह--ये पांच ही मेरे जगत् सम्बन्धी कार्य हैं। जो नित्य सिद्ध हैं।2।

सर्गः संसार संरम्भस्तत् प्रतिष्ठा स्थितिर्मता।
संसारो मर्दनं तस्य तिरोभावस्तदुक्रमः।3।

संसार की रचना का जो आरम्भ है, उसी को सर्ग या सृष्टि कहते हैं। मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रूप से रहना ही उसकी स्थिति है। उसका विनाश ही संहार है।प्राणों के उत्क्रमण को तिरोभाव कहते हैं।। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा अनुग्रह है।3।

तन्मोक्षोऽनुग्रहस्तन्मे कृत्यमेवः  हि पञ्चकम्।
कृत्यमेतद्वहत्यन्यस्तूष्णीं गोपुरबिम्बवत्।4।

सर्गादि यच्चतुःकृत्यं संसारपरिजृम्भणम्।
पञ्चमं मुक्तिहेतुर्वै नित्यंमयि च सुस्थिरम्।5।
  
इस प्रकार मेरे पांच कृत्य हैं। सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करने वाले हैं। पाँचवा कृत्य अनुग्रह मोक्ष का हेतु है। वह सदा मुझमें ही अचल भाव से स्थिर रहता है।मेरे भक्तजन इन पाँचों  कृत्यों को पाँचों भूतों में देखते हैं।4-5।

तदिदं पञ्चभूतेषु दृश्यते मामकैर्जनैः।
सृष्टिर्भूमौ स्थितिस्तोये संहारः पावके तथा।6।

तिरोभावोऽनिले तद्वदनुग्रह इहाम्बरे।
सृज्यते धरया सर्वमद्भिः सर्वं प्रवर्धते।7।

अर्द्यते तेजसा सर्वं वायुना चापनीयते।
व्योम्नानुग्रह्यते सर्वं ज्ञेयमेवं हि सूरिभिः।8।

मेरे भक्तजन इन पांचों कृत्यों को पाँचों भूतों में देखते हैं। सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है। जल से सबकी वृद्धि एवं जीवन रक्षा होती है। आग सबको जला देती है। वायु सबको एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है। और आकाश सबको अनुग्रहीत करता है। विद्वान पुरुषों को यह विषय इसी रूप में जानना चाहिये।6-7-8।

पञ्चकृत्यमिदं वोढं ममास्ति मुखपञ्चकम्।
चतुर्दिक्षु चतुर्वक्त्रं तन्मध्ये पञ्चमं मुखम्।9।

इन पाँच कृत्यों का भार वहन करने के लिये ही मेरे पाँच मुख है। चार दिशाओं में चार मुख हैं। और इनके बीच में पाँचवा मुख है।9।

युवाभ्यां तपसा लब्धमेतत्कृत्यद्वयं सुतौ।
सृष्टिस्थित्यभिधं भाग्यं मत्तः प्रीतादतिप्रियम्।10।

पुत्रो! तुम दोनों ने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वर से सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं। ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं।10।

तथा रूद्रमहेशाभ्यामन्यत्कृत्य द्वयं परम्।
अनुग्रहाख्यं केनापि लब्धं नैव हि शक्यते।11।

तत्सर्वं पौर्विकं कर्म युवाभ्यां कालविस्मृतम्।
न तद् रुद्रमहेशाभ्यां विस्मृतं कर्म तादृशम्।12।

इसी प्रकार मेरी विभूति स्वरूप रुद्र और महेश्वर  में दो अन्य उत्तम कृत्य संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं। परन्तु अनुग्रह नामक कृत्य दूसरा कोई नहीं पा सकता। रुद्र और महेश्वर अपने करम् को भूले नहीं हैं। इसलिये मैंने उनके लिये अपनी समानता प्रदान की है।11--12।

रुपे वेषे च कृत्ये च वाहने चासने तथा।
आयुधादौ च मत्साम्यमस्माभिस्तत्कृते कृतम।13।

वे रूप ,वेष्,कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदि में मेरे समान ही हैं।13।

मद्धयानविरहाद्वत्सौ मौढ्यं वामेवमागतम्।
मज्ज्ञाने सति मैवं स्यान्मानं रुपं महेशवत्।14।

हे सौम्य! मेरे ज्ञान के विमुख होने से आपमें अज्ञानता आ गई। मेरा ज्ञान होने से ऐसा नही होता है। ज्ञान और रूप महेश के तुल्य हो जाता है।14।

तस्मान्मज्ज्ञानसिद्धयर्थं मन्त्रमोंकारनामकम्।
इतः परं प्रजपतं मामकं मानभञ्जनम्।15।

इस कारण उस ज्ञान की सिद्धि के निमित्त ऊँ कार नामक मन्त्र का जाप करो, यह अभिमान को दूर करने वाला है।15।

उपादिशं निजं मन्त्रमोंकारमुरुमङ्गलम्।
ऊँकारो मन्मुखाज्जगे प्रथमं मत्प्रबोधकः।16।

वाचकोऽयमहं वाच्यो मंत्रोऽयं हि मदात्मकः।
तदनुस्मरणं नित्यं ममानुस्मरणं भवेत्।17।

मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मन्त्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है। वह महा मंगलकारी मन्त्र है। सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार (ऊँ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध कराने वाला है। ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ। यह मन्त्र मेरा  स्वरूप ही है। प्रतिदिन ओंकार का निरंतर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है।16--17।

अकार उत्तरात् पूर्वमुकारः पश्चिमाननात्।
मकारो दक्षिणमुखाद् बिन्दुः प्राङ़़मुखतस्तथा।।18।

नादो मध्यमुखादेवं पञ्चधासौ विजृम्भितः।
एकीभूतः पुनस्तद्वदोमित्येकाक्षरोऽ भवत्।19।

नामरुपात्मकं सर्वं वेदभूतकुलद्वयम्।
व्याप्तमेतेन मन्त्रेण शिवशक्त्योश्च बोधकः।20।

मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का,  पूर्ववर्ती मुख से विंदु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। इस प्रकार पाँच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ है। इन सभी अवयवों से एकीभूत होकर वह प्रणव  ऊँ नामक एक अक्षर हो गया। यह नाम रूपात्मक सारा जगत् तथा वेद उत्पन्न स्त्री पुरुष वर्गरूप दोनों कुल इस प्रणव मन्त्र से व्याप्त हैं। यह मंत्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है।18-19-20।

अस्मात् पञ्चाक्षरं जज्ञे बोधकं सकलस्य तत्।
अकारादिक्रमेणैेव नकारादि यथाक्रमम्।21।

इसी से पञ्चाक्षर मंत्र की उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूप का बोधक है। वह अकारादि क्रम से और मकारादि क्रम से क्रमशः प्रकाश में आया है।21।

अस्मात् पञ्चाक्षराज्जाता मातृकाः पञ्चभेदतः।
तस्माच्छिरश्चतुर्वक्त्रात्त्रिपाद्गायत्रिरेव हि।22।

(ऊँ नमःशिवाय यह पञ्चाक्षर मन्त्र है) इस पञ्चाक्षर मन्त्र से मातृका वर्ण प्रकट हुए हैं। जो पाँच भेद वाले हैं। उसी से शिरोमन्त्र सहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ है।22।

वेदः सर्वस्ततो जज्ञे ततो वै मन्त्र कोटयः।
तत्तमन्त्रेण तत्सिद्धिः सर्वसिद्धिरितो भवेत्।23।

उस गायत्री से संपूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदों से करोड़ो मन्त्र निकले हैं। उन उन मंत्रों से भिन्न भिन्न कार्यों की सिद्धि होती है,परन्तु इस प्रणव एवं पञ्चाक्षर मन्त्र से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है।23।

अनेन मन्त्रकन्देन भोगो मोक्षश्च सिद्धयति।
सकला मन्त्रराजानः साक्षाद्भोगप्रदाः शुभाः।24।

इस मन्त्र समुदाय से भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते है। मेरे सकल स्वरूप से सम्बंध रखने वाले  सभी मन्त्रराज साक्षात भोग प्रदान करने वाले और शुभकारक (मोक्ष प्रद) हैं ।24।

नंदिकेश्वर उवाच

पुनस्तयोस्तत्र तिरः पटं गुरूः प्रकल्प्य मन्त्रं च समादिशत् परम्।
निधाय तच्छीर्ष्णि कराम्बुजं शनै रूद्रङ़मुखं संस्थितयोः सहाम्बिकः।25।

नंदिकेश्वर कहते हैं--

तदनन्तर जगदम्बा पार्वती के साथ बैठे हुए गुरुवर महादेवजी ने उत्तराभिमुख बैठे हुए ब्रह्मा और विष्णुजी को पर्दा करने वाले वस्त्र से आच्छादित करके उनके मस्तक पर अपना करकमल रखकर धीरे धीरे उच्चारण करके उन्हें उत्तम मन्त्र का उपदेश किया।25।

त्रिरुच्चार्याग्रहीन्मन्त्रं यन्त्रतन्त्रोक्तिपूर्वकम्।
शिष्यौ च तौ दक्षिणायामात्मानं च समार्पयत्।26।

प्रबद्धहस्तौ किल तौ तदन्तिके तमूचतुर्देववरं जगद्गुरुम्।27।

मन्त्र तंत्र में बताई हुई विधि के पालन पूर्वक तीन बार मन्त्र का उच्चारण करके भगवान शिव ने उन दोनों शिष्यों को मन्त्र की दीक्षा दी। फिर दोनों शिष्यों ने गुरु दक्षिणा के रुप में अपने आपको ही समर्पित कर दिया और दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो उन देवेश्वर जगद्गुरू का स्तवन किया।26-27।

ब्रह्माच्युतावूचतुः ---

नमो निष्कल रुपाय नमो निष्कल तेजसे।
नमः सकलनाथाय नमस्ते सकलात्मने।28।

ब्रह्मा और विष्णुजी बोले--

प्रभो! आप  निष्कलरुप हैं। आपको नमस्कार है। आप निष्कल  तेज से प्रकाशित होते हैं। आपको नमस्कार है। आप सबके स्वामी हैं। आपको नमस्कार है। आप सर्वात्मा को नमस्कार है। अथवा सकल स्वरूप आप महेश्वर को नमस्कार है।28।

नमः प्रणववाच्याय नमः प्रणव लिङ्गिने।
नमः सृष्टयादिकर्त्रे च नमःपञ्चमुखाय ते।29।

आप प्रणव के वाच्यार्थ हैं।आपको नमस्कार है। आप प्रणवलिङ्ग वाले हैं। आपको नमस्कार है। सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करने वाले आपको नमस्कार है। आपके पाँच मुख हैं। आप परमेश्वर को नमस्कार है।29।

पञ्चब्रह्मस्वरूपाय पञ्चकृत्याय ते नमः।
आत्मने ब्रह्मणे तुभ्यमनन्तगुणशक्तये।30।

पञ्चब्रह्म स्वरूप पाँच कृत्य वाले आपको नमस्कार है। आप सबके आत्मा हैं, ब्रह्म हैं। आपके गुण और शक्तियां अनन्त हैं, आपको नमस्कार है।30।

सकलाकलरुपाय शम्भवे गुरवे नमः।
इति स्तुत्वा गुरुं पद्यैर्ब्रह्मा विष्णुश्च नमतुः।31।

आपके सकल और निष्कल दो रूप हैं। आप सद्गुरु एवं शम्भु हैं, आपको नमस्कार है। इन पद्यों द्वारा अपने गुरु महेश्वर की स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों में प्रणाम किया।31।
ईश्वर उवाच--

वत्सकौ सर्वतत्त्वं च कथितं दर्शितं च वाम्।
जपतं प्रणवं मन्त्रं देवी दिष्टं मदात्मकम्।32।

ईश्वर बोले--

 हे पुत्र ! आपको सब तत्त्व कहा और दिखाया भी, इसी दिव्य पवित्र मन्त्र का जप करना, यह साक्षात मेरा ही स्वरूप है।32।

ज्ञानं च सुस्थिरं भाग्यं सर्वं भवति शाश्वतम्।
आर्द्रायां च चतुर्दश्यां तज्जयं त्वक्षयं भवेत्।33।

इससे ज्ञान सुस्थिर होता है तथा सर्वत्र श्रेष्ठ भाग्य होता है। आर्द्रा नक्षत्र से युक्त चतुर्दशी को प्रणव का जप किया जाये तो वह अक्षय फल देने वाला होता है।33।

सूर्यगत्या महार्द्रायामेकं कोटि गुणं भवेत्।
मृगशीर्षान्तिमो भागः पुनर्वस्वादिमस्तथा।34।

आर्द्रासमं सदा ज्ञेयं पूजाहोमादितर्पणे।
दर्शनं तु प्रभाते च प्रातः सङ्गवकालयोः।35।

सूर्य की संक्रांति से युक्त  महा आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया हुआ प्रणव जप कोटिगुने जप का फल देता है। मृगशिरा नक्षत्र का अन्तिम भाग तथा पुनर्वसु का आदिम भाग पूजा, होम और तर्पण आदि के लिए सदा आर्द्रा के समान ही होता है। यह जानना चाहिये। मेरा या शिवलिङ्ग दर्शन प्रभातकाल में ही प्रातः और संगव (मध्याह्न के पूर्व) काल में करना चाहिये।34-35। 

चतुर्दशी तथा ग्राह्या निशीथ व्यापिनी भवेत्।
प्रदोष व्यापिनी चैव परयुक्ता प्रशस्यते।36।

मेरे दर्शन-पूजन के लिये चतुर्दशी तिथि निशीथ व्यापिनी अथवा प्रदोष व्यापिनी लेनी चाहिये, क्योंकि परवर्तिनी तिथि से संयुक्त चतुर्दशी की ही प्रशंसा की जाती है।36।

लिङ्गं वेरं च मे तुल्यं यजतां लिङ्ग मुत्तमम्।
 तस्मालिंङ्गं परं पूज्यं वेरादपि मुमुक्षुभिः।37।

पूजा करने वालों के लिये मेरी मूर्ति तथा शिवलिङ्ग समान हैं। फिर भी मूर्ति की अपेक्षा शिवलिङ्ग का स्थान ऊंचा है। इसलिये मुमुक्षु पुरुषों को चाहिये कि वे वेर(मूर्ति) से भी श्रेष्ठ समझकर शिवलिङ्ग का ही पूजन करें ।37।

लिङ्गमोंकार  मन्त्रेण वेरं पञ्चाक्षरेण तु।
स्वयमेव हि सद्द्रव्यैः प्रतिष्ठा प्यं परैरपि।38।

पूजयेदुपचारैश्च मत्पदं सुलभं भवेत्।
इति शास्य तथा शिष्यौ तत्रैवान्तर्हितः शिवः।39।

शिवलिङ्ग का  ऊँ कार मन्त्र से और वेर ( मूर्ति) का पञ्चाक्षर मन्त्र से पूजन करना चाहिये। शिवलिङ्ग की स्वयं ही स्थापना करके अथवा दूसरों से भी स्थापना करवाकर उत्तम द्रव्यमय उपचारों से पूजा करनी चाहिये। इससे मेरा पद सुलभ हो जाता है। इस प्रकार दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान शिव वहीं अंतर्ध्यान हो गये।38-39।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां ओंकारोपदेशवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः
ॐ जय बाबा की ॐ 

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ नवमोऽध्यायः

ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ  नवमोऽध्यायः

नन्दिकेश्वर उवाच

तत्रान्तरे तौच नाथं प्रणम्य विधिमाधवौ।
 बद्धाञ्जलिपुटौ तूष्णीं तस्थतुर्दक्षवामगौ।1।

नन्दीश्वर बोले

इस समय में ब्रह्मा और विष्णुजी शिवजी को प्रणाम करके, हाथ जोड़कर, मौन होकर क्रम से शिवजी के दक्षिण और वाम भाग में चुपचाप खड़े हो गए।1।

तत्र संस्थाप्य तौ देवं सकुटुम्बं वरासने।
पूजयामासतुः पूज्यं पुण्यैः पुरुषवस्तुभिः।2।

उन दोनों ने कुटुंब सहित शिवजी को सुन्दर आसन पर बैठाकर अन्य पवित्र पुरुषों के योग्य पदार्थों से उन पूज्य की पूजा की।2।

पौरुषं प्राकृतं वस्तुज्ञेयं दीर्घाल्पकालिकम्।
हारनूपुरकेयूरकिरीटमणि कुण्डलै।3।

यज्ञ सूत्रोत्तरीयस्त्रवक्षौम माल्याङ्गुलीयकैः।
पुष्प ताम्बूलकर्पूर चन्दनागुरु लेपनैः।4।

धूपदीपसितच्छत्रव्यजनध्वज चामरैः।
अन्यैर्दिव्योपहारैश्च वाङ्मनोतीतवैभवैः।5।

पतियोग्यैः पश्चलभ्यैस्तौ समार्चयतां पतिम्।
यद्यच्छ्रेष्ठतमं वस्तु पतियोग्यं हितध्वज।6।

और पुरुष के संकल्प से उत्पन्न हुई वस्तु कोई दीर्घ, कोई अल्प काल में जानी जाती है, वह भी देने योग्य सब वस्तु से हार, नूपुर,केयूर, किरीट, मणि, कुंडल, यज्ञसूत्र, उत्तरीय वस्त्र, माला, रेशमीवस्त्र, पुष्प माला, अंगूठी, चन्दन, फूल, ताम्बूल, कपूर, अगर, लेपन, धूप, दीप,  श्वेतछत्र, व्यंजन, ध्वजा, चमर और भी दिव्य उपहारों द्वारा, जिनका वैभव वाणी  और मन की पहुँच से परे था, जो केवल पशुपति(परमात्मा) के ही योग्य थे और जिन्हें पशु (बद्ध जीव) कदापि नहीं पा सकते थे, उन दोनों ने अपने स्वामी महेश्वर का पूजन किया।3-4-5-6।

तद्वस्त्वखिलमीशोऽपि
पारम्पर्यचिकीर्षया।
सभ्यानां प्रदहौ हृष्टः पृथक् तत्र यथाक्रमम्।7।

इस कारण परम्परा से चले आये क्रम को करने की इच्छा से उन सबके स्वामी ने भी प्रसन्नता पूर्वक सबके निमित्त पृथक-पृथक वस्तु प्रदान की।7।

कोलाहलो महानासीत्तत्र तद्वस्तु गृह्यताम्।
तत्रैव ब्रह्माविष्णुभ्यां चार्चितः शंकरः पुरा।8।

तब वहाँ उन वस्तुओं को ग्रहण करने वालों का बड़ा भारी कोलाहल हुआ। सबसे पहले वहाँ ब्रह्मा और विष्णुजी ने भगवान शंकर की पूजा की।8।

प्रसन्नः प्राह तौ नम्रौ सस्मितं भक्तिवर्धनः।

इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने भक्तिपूर्वक नम्रभाव से खड़े हुए उन दोनों देवताओं से मुस्कराकर कहा।

ईश्वर उवाच

तुष्टोऽहमद्य वां वत्सौ पूजयास्मिन् महादिने।9।

महेश्वर बोले ---

पुत्रो! आज का दिन एक महान् दिन है। इसमें  तुम्हारे द्वारा जो आज मेरी पूजा हुई है, इससे मैं तुम लोगों पर बहुत प्रसन्न हूँ।9।

दिनमेतत्ततः पुण्यं भविष्यति महत्तरम्।
शिवरात्रिरिति ख्याता तिथिरेषा मम प्रिया।10।

इसी कारण यह दिन परम् पवित्र और महान से महान होगा।आज की यह तिथि शिवरात्रि के नाम से विख्यात होकर मेरे लिए परम् प्रिय होगी।10।

एतत्काले तु यः कुर्यात् पूजां मल्लिङ्गवेरयोः।
कुर्यात् स जगतः कृत्यं स्थितसर्गादिकं पुमान्।11।

इस समय जो पुरूष लिङ्ग वा वेर स्वरूप की पूजा करेगा वह पुरुष जगत स्थित और सर्गादि कर्म कर सकेगा।11। 

शिवरात्रावहोरात्रं निराहारो जितेन्द्रियः।
अर्चयेद्वा यथान्यायं यथाबलमवञ्चकः।12।

यत्फलं मय पूजायां वर्षमेकं निरंतरम्।
तत्फलं लभते सद्यः शिवरात्रौ मदर्चनात्।13।

जो जो जितेंद्रिय होकर निराहार एक रात दिन यथान्याय यथाशक्ति प्रपंच रहित मेरा पूजन करेगा। जो फल मेरा निरंतर एक वर्ष तक पूजन करने से मिलता है वही फल शिवरात्रि के दिन मेरा अर्चन करने से मिल जाता है।12-13।

मद्धर्मवृद्धिकालोऽयं चन्द्रकाल इवाम्बुधेः।
प्रतिष्ठाद्युत्सवो यत्र मामको मङ्गलायनः।14।

जैसे पूर्ण चंद्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है, उसी प्रकार यह शिवरात्रि तिथि मेरेे धर्म की वृद्धि का समय है। इस तिथि में मेरी स्थापना आदि का मङ्गलमय उत्सव होना चाहिये।14।

यत्पुनः स्तम्भ रुपेण स्वाविरासमहं पुरा।
स कालो मागशीर्षे तु स्यादार्द्राऋक्षमभकौ।15।

पहले मै जब ज्योतिर्मय स्तंभरूप से प्राकट हुआ था, वह समय मार्गशीर्ष मास में आद्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा है।15।

आर्द्रायां मागशीर्षेतुयः पश्येन्मामुमासखम्।
मद्वेरमपि वा लिङ्गं स गुहादपि मे प्रियः।16।

 जो पुरुष मार्गशीर्ष मास में आद्रा नक्षत्र होने पर पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिङ्ग की ही झांकी करता है, वह मेरे लिए कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है।16।

अलं दर्शनमात्रेण फलं तस्मिन् दिने शुभे।
अभ्यर्चनं चेदधिकं फलं वाचामगोचरम्।17।

उस शुभ दिन को मेरे दर्शन मात्र से पूरा फल प्राप्त होता है। यदि दर्शन के साथ साथ मेरा पूजन भी किया जाय तो इतना अधिक फल प्राप्त होता है कि उसका वाणी द्वारा वर्णन नहीं हो सकता।17।
   
रणरङ्गतलेऽमुष्पिन् यदहं लिङ्गवष्र्मणा।
जृम्भितो लिङ्गवत्तस्मल्लिङ्ग स्थानमिदं भवेत्।18।

वहां पर में लिङ्गरुप से प्रकट होकर बहुत बड़ा हो गया था। अतः उस लिङ्ग के कारण यह भूतल लिङ्गस्थान के नाम् से प्रसिद्ध हुआ।18।

अनाद्यन्तमिदं स्तम्भमणुमात्रं भविष्यति।
दर्शनार्थंं हि जगतां पूजनार्थंं हि पुत्रकौ।19।

भोगावहमिदं लिङ्गं भुक्तिमुक्त्यैकसाधनम्।
दर्शनस्पर्शनध्यानाज्जन्तूनां जन्ममोचनम्।20।

जगत् के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें, इसके लिये यह अनादि और अनन्त ज्योतिः स्तंभ अथवा ज्योतिर्मय लिङ्ग अत्यंत छोटा हो जायेगा। यह लिङ्गसब प्रकार के भोग सुलभ कराने वाला तथा भोग और मोक्ष का एकमात्र साधन है। इसका दर्शन, स्पर्श और ध्यान किया जाय तो यह प्राणियों को जन्म और मृत्यु के कष्ट से छुड़ाने वाला है।19-20।
अनलाचलसंकाशं यदिदं लिङ्गमुत्थितम्।
अरुणाचलमित्येव तदिदं ख्यातिमेष्यति।21।

अग्नि के पहाड़ जैसा जो यह शिव लिङ्ग यहाँ प्रकट हुआ है, इसके कारण यह स्थान अरुणाचल नाम् से प्रसिद्ध होगा।21।

अत्र तीर्थं च बहुधा भविष्यति महत्तरम।
मुक्तिरप्यत्र जन्तूनां वासेन मरणेन च।22।

     यहां अनेक प्रकार के बड़े बड़े तीर्थ प्रकट होंगे। इस स्थान में निवास करने या मारने से जीवों का मोक्ष तक हो जाएगा।22।

रथोत्सवादिकल्याणं जनावासं तु सर्वतः।
अत्र दत्तं हुतं जप्तं सर्वं कोटि गुणं भवेत।23।

रथयात्रा उत्सव कल्याण और जनों के निवास करने योग्य यह स्थान होगा। यहां किया हुआ तप,जप, हवन करोड़ गुणा हो जायेगा।23।

मत्क्षेत्रादपि सर्वस्मात् क्षेत्रमेतन्महत्तरम्।
अत्र संस्मृतिमात्रेण मुक्तिर्भवति देहिनाम्।।24।

हमारे समस्त क्षेत्रों में यह श्रेष्ठ होगा, यहाँ मेरा स्मरण करते ही प्राणी मुक्त हो जायेंगे।24।

तस्मान्महत्तरमिदं क्षेत्रमत्यन्तशोभन।
सर्वं कल्याणसम्पूर्णं सर्वमुक्तिकरं शुभम्।।25।

इस कारण यह क्षेत्र महान् और अत्यंत शोभित होगा। सब प्रकार से कल्याण दायक और सब प्रकार से मुक्ति दायक होगा।25।

अर्चयित्वात्र मामेव लिङ्गे लिङ्गिनमीश्वरम्।
सालोकयं चैव सामीप्यं सारूप्यं सार्ष्टिरेव च।26।

सायुज्यमिति पञ्चैते क्रियादीनां फलं मतम्।
सर्वेऽपि यूयं सकलं प्राप्स्यथासु मनोरथम्।27। 
जो यहाँ लिङ्गस्वरूप में मुझ लिङ्गेश्वर की पूजा करेंगे उन्हें सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सार्ष्टि, सायुज्य इन् पांचों मुक्तियों के क्रिया के फल  प्राप्त हो जाएंगे और यहाँ पूजन करने से आप भी सब मनोरथों को प्राप्त हो जाओगे।26--27।

नन्दिकेश्वर उवाच

इत्यनुग्रह्य भगवान् विनीतौ विधिमाधवौ।
यत्पूर्वं प्रहतं युद्धे तयोः सैन्यं परस्परम्।28।

नंदिकेश्वर जी बोले

इस प्रकार भगवान् शिवजी ने उन नम्र हुए ब्रह्मा और विष्णुजी पर अनुग्रह करके उनके परस्पर युद्ध में जो उनकी सेना मारी गई थी।28।

तदुत्थापयदत्यर्थं स्वशक्त्यामृतधारया।
तयोर्मौढ्यं च वैरं च व्यपनेतुमुवाच तौ।29।

उन सबको जिस शक्ति में अमृत की धारा रहती है उस अपनी शक्ति से जीवित कर उठाया और उन दोनों ब्रह्मा और विष्णुजी की अज्ञानता और बैर को दूर करने के निमित्त दोनों से कहा।29।

सकलं निष्कलं चेति स्वरुप द्वयमस्ति मे।
नान्यस्य कस्यचित्तस्मादन्यः सर्वोऽप्यनीश्वरः।30।

मेरे सकल और निष्कल भेद के दो स्वरूप हैं, परन्तु और ईश्वर नहीं, इस कारण उनके दो रूप नहीं हो सकते।30।

पुरस्तात स्तम्भरुपेण पश्चाद् रुपेण चार्भकौ।
ब्रह्मत्वंं निष्कलं प्रोक्तमीशत्वं सकलं तथा।31।

पहला स्तंभरूप और पश्चात् मूर्तिमान रूप धारण किया है इसमें ब्रह्म रूप निष्कल है और ईश्वर रूप सगुण है।31।

द्वयं ममैव संसिद्धं न मदन्यस्य कस्यचित्।
तस्मादीशत्वमन्येषां युवयोरपि न क्वचित्।32।

मेरे यह दोनों रूप सिद्ध हैं, दूसरे किसी के नहीं हो सकते। इस कारण आप दोनों को अथवा दूसरों को ईश्वरत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती।32।

तदज्ञानेन वां वृत्तमीशमानं महाद्भूतम्।
तन्निराकर्तुमत्रैवमुत्थितोऽहं रणक्षितौ।33।

आपने जो अज्ञान से अपने को ईश माना यह बड़ा अद्भुत हुआ। उसे दूर करने को ही मैं रण स्थान में आया हूँ।33।

त्यजतं मानमात्मीयं मयीशे कुरुतं मतिम्।
मत्प्रसादेन लोकेषु सर्वोऽप्यर्थः प्रकाशते।34।

अब आप अपने अभिमान को त्यागकर मुझ ईश्वर में अपनी बुद्धि लगाओ। मेरे प्रसाद से लोक में सब अर्थ प्रकाश करते हैं।34।

गुरुक्तिर्व्यञ्जकं तत्र प्रमाणंं वा पुनः पुनः।
ब्रह्मतत्त्वमिदं गूढं भवत्प्रीत्या भणाम्यहम्।35।

मुझ गुरू के वचन से ही आपको बारंबार प्रणाम है, आपकी प्रीति से ही यह गूढ़ ब्रह्मत्व मैं आपसे कहता हूँ।35।

अहमेव परं ब्रह्म मत्स्वरुपं कलाकलम्।
ब्रह्मत्विदीश्वश्चाहं कृत्यं मेऽनुग्रहादिकम्।36।

मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूँ। कलायुक्त और अकल मेरे ही स्वरूप हैं।  ब्रह्मरूप होने के कारण मैं ईश्वर भी हूँ। जीवों पर अनुग्रह आदि करना मेरा कार्य है।36।

बृहत्त्वाद् बृंहणत्वाच्च ब्रह्माहं ब्रह्मकेशवौ।
समत्वाद्वयापकत्वाच्च तथैवात्माहमर्भकौ।37।

ब्रह्मा और केशव! मैं सबसे बृहत और जगत् की वृद्धि करने वाला होने के कारण ब्रह्म कहलाता हूँ। सर्वत्र समरूप से स्थित  और व्यापक होने से मैं ही सबका आत्मा हूँ।37।

अनात्मानः परे सर्वे जीवा एव न संशयः।
अनुग्रहाद्यं सर्गान्तं जगत्कृतयंं च पञ्चकम्।38।

ईशत्वादेव मे नित्यं न मदन्यस्य कस्यचित्।
आदौ ब्रह्मत्वबुद्धयर्थं निष्कलं लिङ्ग मुत्थितम्।39।

अन्य सम्पूर्ण जीव आत्मा नहीं है, इसमें संदेह नहीं है। सर्ग से लेकर अनुग्रह तक (आत्मा या ईश्वर से भिन्न) जो जगत् सम्बन्धी पाँच कृत्य हैं, वे सदा मेरे ही हैं, मेरे अतरिक्त दूसरे किसी के नहीं हैं, क्योंकि मैं ही सबका ईश्वर हूँ। पहले मेरी ब्रह्मरूपता का बोध कराने के लिये निष्कल लिङ्ग प्रकट हुआ था।38--39।

तस्मादज्ञातमीशत्वं व्यक्तं द्योतयितुं हि वाम।
सकलोऽहमतो जातः साक्षादीशस्तु तत्क्षणात्।40।

सकलत्वमतो ज्ञेयमीशत्वं मयि सत्वरम्।
यदिदं निष्कलं स्तंभं मम ब्रह्मत्वबोधकम्ः41।

फिर अज्ञात ईश्वरत्व का साक्षात्कार कराने के निमित्त मैं साक्षात जगदीश्वर ही सकल रूप में तत्काल प्रकट हो गया। अतः मुझमें जो ईशत्व है, उसे ही मेरा सकलरूप जानना चाहिये तथा जो मेरा यह निष्कल स्तम्भ है, वह मेरे ब्रह्मस्वरूप का बोध कराने वाला है।40-41।

लिङ्गलक्षणयुक्तत्वान्मम लिङ्गं भवेदिदम्।
तदिदं नित्यमभ्यर्थं युवाभ्यामत्र पुत्रकौ।42।

मदात्मकमिदं नित्यं मम सान्न्ध्यि कारणम्।
महत्पूज्यमिदं नित्यमभेदाल्लिङ्गलिंङ्गिनौ।43।

हे पुत्रो तुम दोनों प्रतिदिन यहाँ रहकर इसका पूजन करो। यह मेरा ही स्वरुप है और मेरे सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है। लिङ्ग और मूर्तिस्वरूप में नित्य अभेद होने के कारण मेरे इस लिंङ्गस्वरूप का महान् पुरुषों को भी पूजन करना चाहिये।42-43।

यत्र प्रतिष्ठितं येन मदीयं लिङ्ग मीदृशम्।
तत्र प्रतिष्ठितः सोऽहमप्रतिष्ठोऽपि वत्सकौ।44।

जहाँ कहीं किसी ने मेरे इस लिंङ्ग की प्रतिष्ठा की है, हे  पुत्रो! वहाँ मैं अप्रतिष्ठित भी स्थित हूँ।44।

मत्साम्यमेक लिङ्गस्य स्थापने फलमीरितम्।
द्वितीये स्थापिते लिङ्गे मदैक्यं फलमेव हि।45।

मेरे एक लिङ्ग की स्थापना करने का यह फल बताया गया है कि उपासक को मेरी समानता की प्राप्ति हो  जाती है। यदि एक के बाद दूसरे शिवलिङ्गं की भी स्थापना कर दी गयी, तब तो उपासक को फल रूप से मेरे साथ एकत्व (सायुज्य मोक्ष) रूप फल प्राप्त होता है।45।

लिङ्गं प्राधान्यतः स्थाप्यं तथा वेरं तु गौणकम्।
लिङ्गा भावे न तत्क्षेत्रं सवेरमपि सर्वतः।46।

प्रधानतया शिवलिङ्ग की ही स्थापना करनी चाहिये। मूर्ति की स्थापना शिवलिङ्ग की अपेक्षा गौण कर्म है। शिवलिङ्ग के अभाव में सब ओर से सवेर(मूर्तियुक्त) होने पर भी वह स्थान क्षेत्र नहीं कहलाता।46।

इति श्री शिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां शिवस्य महेश्वराभिधान वर्णनं नाम नवमोऽध्यायः।।9।।

🙏जय बाबा की🙏

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ अथाष्टमोऽध्यायः

ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ अथाष्टमोऽध्यायः

नन्दिकेश्वर उवाच

ससर्जिथ महादेवः पुरुषं कञ्चिदद्भुतम्।
भैरवाख्यं भ्रुवोर्मध्याद् ब्रह्मदर्पजिघांसया।।1।।

नन्दिकेश्वरजी  बोले--

तब महादेव जी ने ब्रह्मा जी का मद दूर करने के निमित्त अपनी भृकुटी के मध्य से एक अद्भुत पुरुष भैरव जी की रचना की।।1।।

स वै तदा तत्र पतिं प्रणम्य शिवमङ्गणे।
किं कार्यं करवाण्यत्र शीघ्रमाज्ञापय प्रभो।।2।।

उत्पन्न होते ही समरांगण में उस पुरुष ने शिवजी को प्रणाम करके कहा--है भगवन! मैं क्या करूँ? शीघ्र आज्ञा दीजिये।।2।।

शिव उवाच

वत्स योऽयं विधिः साक्षाज्जगतामाद्यदैवतम्।
नूनमर्चय खडगेन तिग्मेन जवसा परम्।।3।।

शिवजी ने कहा--- हे वत्स! यह जो जगत के आदि देवता ब्रह्मा हैं, इनकी तीक्ष्ण धार वाले वेगवान खड्ग से अर्चा करो अर्थात प्रहार करो।।3।।

स वै गृहीत्वैककरेण केशं तत्पञ्चमं दृप्तमसत्यभाषिणम्।
छित्त्वा शिरो ह्यस्य निहन्तुमुद्यतः प्रकम्पयन् खड्गमतिस्फुटं करैः।।4।।

सो सुनते ही भैरव ने एक  हाथ से केश पकड़कर व ब्रह्मा जी का पांचवा असत्य भाषी सिर काटकर स्फुरायमान होते हुए खड्ग से उनके दूसरे भी सिर काटने की इच्छा की।।4।।

पिता तववोत्सृष्ट विभूषणाम्बर
स्त्रगुत्तरीयामलकेश संहतिः।
प्रवातरम्भेव लतेव चञ्चलः पपात वै भैरपादपंकजे।।5।।

तब आपके पिता ब्रह्माजी गहने, माला और उत्तरीय वस्त्र त्यागकर, केश खोले हुए हवा चलने से केले और वेल के समान कम्पित होकर भैरव जी के चरण कमलों में गिर पड़े।।5।।

तावद्विधिं तात  दिदृक्षुरच्युतः कृपालुरस्मत्पति पादपल्लवम्।
निषिच्य बाष्पैरवदत् कृताञ्जलिर्यथाशिशुः स्वं पितरं कलाक्षरम्।।6।।

ब्रह्माजी की यह दशा देखते ही विष्णुजी ने हमारे स्वामी के चरणकमलों में अश्रुमोचन करते करते हाथ जोड़कर कहा, जैसे बालक पिता से कहते हैं।।6।।

अच्युत उवाच

त्वया प्रयत्नेन पुरा हि दत्तं यदस्य पञ्चाननमीश चिह्नम्।
तस्मात् क्षमस्वाद्य मनुग्रहार्हं कुरु प्रसादं विधये ह्यमुष्मै।।7।।

विष्णुजी बोले -- हे भगवन! प्रथम आपने कृपा करके इनको पांच सिर दिये थे, अब एक जाता रहा, इस कारण क्षमा करके अब ब्रह्मा जी पर प्रसन्नता कीजिये।।7।।

इत्यर्थितोऽच्युतेनेशस्तुष्टः सुरगणाङ्गणे।
निवर्तयामास तदा भैरवं ब्रह्मदण्डतः।।8।।

जब विष्णुजी ने इस प्रकार कहा, तब शिवजी देवताओं से सेवित होकर गणों के मध्य स्थित हो गये और उ्न्होंने ब्रह्मा जी को दण्ड देने से भैरव  जी को निवृत किया।।8।।

अथाह देवः कितवं विधिं विगतकन्धरम्।
ब्रह्मंस्त्वमर्हणाकाङ्क्षी शठेशत्वं समास्थितः।।9।।

तब एक कन्धरा रहित ब्रह्माजी से शिवजी बोले कि, आपने कपट किया और अपनी पूजा और ईश्वर होनेकी इच्छा से छल किया।।9।।

नातस्ते सत्कृतिर्लोके भूयात् स्थानोत्सवादिकम्।
ब्रह्मोवाच

स्वामिन् प्रसीदाद्य महाविभूते मन्ये वरं मे शिरशः प्रमोक्षम्।।10।।

इस कारण लोक में आपका सत्कार न होगा। आपका स्थान और उत्सवादिक न होगा।
ब्रह्मा जी बोले---
हे स्वामी! हे महाविभूति युक्त! प्रसन्न हो, और हे वर देने वाले! मेरा शिर मोक्ष हो, यही वर दीजिये।।10।।
नमस्तुभ्यं भगवते बन्धवे विश्वयोनये।
सहिष्णवे च दोषाणां शम्भवे शैलधन्वने।।11।।

हे भगवन! है जगदबंधु! संसार के कारण सब दोषों को सहने वाले, हे शैल धनुषधारी शंभुजी! आपको नमस्कार है।।11।।
ईश्वर उवाच

अराजभयमेतद्वै जगत् सर्वं नशिष्यति।
ततस्त्ववं जहि दण्डार्हं वह लोकधुरं शिशो।।12।।

शिवजी बोले---
अराज के भय से यह सब जगत् स्थिर न रहेगा, इस कारण से जो दण्ड के योग्य है, आप उनको दण्ड दो और लोक की धुरी धारण करो।।12।।

वरं ददामि ते तत्र गृहाण दुर्लभं परम्।
वैतानिकेषु गृह्येषु यज्ञेषु च भवान् गुरूः।13।

हे पुत्र! मैं आपको दुर्लभ वर देता हूँ, सो ग्रहण करो। अग्निहोत्र, स्मार्तकर्म और यज्ञों के गुरू आप ही होंगे, उसमें आपका सत्कार होगा।।13।।

निष्फलस्त्वदृते यज्ञः साङ्गश्च सहदक्षिणः।
अथाह देवः कितवं केतकं कूटसाक्षिणम्।।14।।

सांग और दक्षिणा सहित भी यज्ञ आपके बिना पूर्ण न होगा, किन्तु निष्फल हो जायेगा। यह कहकर देव ने असत्य भाषी केतकी पुष्प से कहा।।14।।

रे रे केतक दुष्टस्त्वं शठ दूरमितो व्रज ।
ममापि प्रेम ते पुष्पे माभूत्पूजास्वितः परम्।।15।।

अरे असत्य भाषी केतक, दुष्ट! तू यहाँ से दूर हो, आज से मेरा प्रेम तुझमें नहीं और मेरी पूजा में तू न होगा।।15।।

इत्युक्ते तत्र देवेन केतकं देवजातयः।
सर्वां निवारयामासुस्तत्पा र्श्वादन्यतस्तदा।।16।।

देव के ऐसा कहते ही शिवजी के निकटवर्ती देवजाती केतक  को वहां से दूर करने लगी।।16।।

केतक उवाच
नमस्ते नाथ मे जन्म निष्फलं भवदाज्ञया।
सफलं क्रियतां तात क्षम्यतां मम किल्बिषम्।।17।।

केतक बोला--
हे नाथ! नमस्कार है। आज से आपकी आज्ञा से मेरा जन्म निष्फल हुआ। हे स्वामिन्! कुछ तो सफल कीजिये। अब मेरा पाप दूर कीजिये।।17।।

ज्ञानाज्ञान कृतं पापं नाशयत्येव ते स्मृतिः।
तादृशे त्वयि दृष्टे मे मिथ्या दोषः कुतो भवेत्।।18।।

आपके तो स्मरण से ही ज्ञान होता है और अज्ञान कृत पाप नष्ट हो जाते हैं, फिर आपका दर्शन करने से मेरा मिथ्या भाषण दोष क्यों न नष्ट होगा?।।18।।

तथा स्तुतस्तु भगवान केतकेन  सभास्थले।
न मे त्वद्धारणं योग्यं सत्यवागमहीश्वरः।।19।।

जब केतक ने सभा में भगवान शिव की इस प्रकार प्रार्थना की, तब शिवजी ने कहा-- हमारी वाणी असत्य नहीं होती, हम तुझे धारण नहीं करेंगे।।19।।

मदीयास्त्वां धरिष्यन्ति जन्म ते सफलं ततः।
त्वं वै वितानव्याजेन ममोपरि भविष्यसि।।20।।
परंतु विष्णुजी आदि हमारे भक्त देवता तुझे धारण करेंगे। इससे तेरा जन्म सफल होगा और मण्डप रचना के निमित्त मेरे भी ऊपर तू होगा।।20।।

इत्यनुगृह्य भगवान केतकं विधिमाधवौ।
विरराज सभामध्ये सर्वदेवैरभिष्टुतः।।21।।

इस प्रकार केतक, ब्रह्मा और विष्णुजी पर अनुग्रह करके भगवान शिवजी सब देवताओं से पूजित होकर सभा में विराजे।।21।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां शिवानुग्रहवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः।।8।।

🙏जय बाबा की🙏

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ सप्तमोऽध्यायः

ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ सप्तमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच

वत्सकाः स्वस्ति वः कच्चिद्वर्तते मम् शासनात्।
जगच्च देवतावंशः स्वस्य कर्मणि किं न वा।1।

ईश्वर बोले --

हे पुत्रो! हमारी आज्ञा में बरतने वाले आपका मङ्गल है। जगत और सब देवता अपने अपने कर्मकरने में प्रवृत हैं या नहीं?।1।

प्रागेव विदितं युद्धं ब्रह्मविष्ण्वोर्मया सुराः।
भवतामभितापेन पौनरुक्त्येन भाषितम्।2।

पहले ही मैंने ब्रह्मा और विष्णु जी के युद्ध को जान लिया हैआपने अपने दुःख के साथ पुनरुक्तता से प्रकाश किया है।2।

इति सस्मितया माध्व्या कुमार परिभाषया।
समतोषयदम्बायाः स पतिस्तत्सुरव्रजम्।3।

हे कुमार इस प्रकार मधुर वाणी से पार्वती पति शंकरजी ने  सर्व देवताओं को संतुष्ट किया।3।

अथ युद्धाङ्गणं गन्तुं हरिधात्रोरधीश्वरः।
आज्ञापयद्गणेशानां शतं तत्रैव संसदि।4।

तब शिवजी ने अपने सौ गणों को उस समरस्थान में जाने की आज्ञा दी, जहाँ ब्रह्मा और विष्णु जी थे।4।
ततो वाद्यं बहुविधं प्रयाणाय परेशितुः।
गणेश्वराश्च सन्नद्धा नानावाहनभूषणाः।5।

तब शंकरजी के प्रयाण समय में अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे, अनेक प्रकार  के वाहनों पर चढ़कर विविध भूषण पहने गणेश्वर चलने को उद्यत हुए।5।

प्रणवाकारमाद्यन्तं पञ्चमण्डलमण्डितम्।
आरूरोह रथं भद्रमम्बिकापतिरीश्वरः।
ससूनुगणमिन्द्राद्याः सर्वेऽप्यनुययुः सुराः।6।

प्रणव के समानआकार से सर्वत्र व्याप्त पंचमण्डल से मंडित भद्ररथ में अम्बिकापति गिरीश चढ़े और पुत्र तथा गण भी संग हुए। उस समय इन्द्रादि देवता उनके पीछे चलने लगे।6।

चित्रध्वजव्यजनचामर पुष्पवर्षा सङ्गीत नृत्यनिवहैरपि वाद्यवर्गैः।
सम्मानितः पशुपतिःपरया च देव्या साकं तयोः समरभूमिमगात ससैन्यः।7।
सुन्दर ध्वजा, व्यजन, चमर, पुष्पवर्षा, संगीत, नृत्य, बाजों से सम्मानित होकर शिवजी पार्वती सहित ब्रह्मा और विष्णु जी के समीप समर भूमि में सेना सहित गए।7।

समीक्ष्य तु तयोर्युद्धं निगूढ़ोऽभ्रं समास्थितः।
समाप्त वाद्यनिर्घोषः शान्तोरुगणनिःस्वनः।8।

वहाँ जाकर मेघों के मध्य में छिपकर उनका निरन्तर होने वाला युद्ध देखा। उस समय बाजों की ध्वनि नहीं होती थी और गणों का भी शब्द शान्त हो गया था।8।

अथ ब्रह्माच्युतौ वीरौ हन्तुकामौ परस्परम्।
माहेश्वरेण चास्त्रेण तथा पाशुपतेन च।9।

अस्त्रज्वालैरथो दग्धं ब्रह्मविष्ण्वोर्जगत्त्रयम्।
ईशोऽपि तं निरीक्ष्याथ ह्यकालप्रलयं भभृशम्।10।
महानलस्तम्भव विभीषणाकृति र्बभूव तन्मध्यतले स निष्कलः।11।

उस समय ब्रह्मा और विष्णुजी ने परस्पर एक दूसरे को मारने की इच्छा से माहेश्वरास्त्र और पाशुपतास्त्र से तथा अस्त्रों की ज्वाला से मानो त्रिलोकों को भस्म करने लगे, तब शिवजी ने वह अकाल प्रलय देखकर महाअग्नि के स्तम्भ के समान, महाभयंकर आकृति के समान उन दोनों के बीच में वह निर्गुण ब्रह्म स्थित हुए।9-10-11।

ते अस्त्रे चापि सज्वाले लोकसंहरणक्षमे।
निपेततुः क्षणेनैव ह्याविर्भूते महानले12।

उस महा अग्नि के प्रगट होते ही वे लोकक्षय करने में समर्थ अस्त्र क्षण मात्र में निपतित हो गए।12।

दृष्ट्वा तद्मुतम् चित्रमस्त्रशान्तिकरम् शुभम्।
किमेतद्भुताकारमित्यूचुश्च परस्परम्ः13।

वह अस्त्र शांत होने का अद्भुत चित्र देखकर, यह अद्भुत आकार क्या है? ऐसा ब्रह्मा और विष्णुजी परस्पर कहने लगे।13।

अतीन्द्रियमिदं स्तम्भमग्निरुपं किमुत्थितम्।
अस्योर्ध्वमपि चाधश्च आवयोर्लक्ष्यमेव हि।14।

यह इन्द्रिय अगोचर स्तम्भ अग्निरूप सा क्या उठा है? हम दोनों को इसका ऊपर और नीचे का भाग देखना चहिये कि, यह कहाँ से हुआ है?।14।

इति व्यवस्थिऐ वीरौ मिलितौ वीरमानिनौ।
तत्परौ तत्परीक्षार्थं प्रतस्थातेऽथ सत्वरम्।15।
इस प्रकार कहकर वह दोनों मानों वीर परस्पर मिलकर उसकी परीक्षा करने के लिए बहुत शीघ्रता से गये।15।

आवयोर्मिश्रयोस्तत्र कार्यमेकं न सम्भवेत्।
इत्युक्त्वा सूकरतनुर्विष्णुस्तस्यादिमीयिवान्।16।

हम दोनों के मिलने से यह कार्य नहीं होगा, ऐसा कहकर विष्णु जी शूकर शरीर धारण करके उसका मूल भाग देखने को नीचे चले गए।16।

तथा ब्रह्मा हंसतनुस्तदन्तं वीक्षितुं ययौ।
भित्त्वा पातालनिलयं गत्वा दूरतरं हरिः।17।

और ब्रह्मा जी हंस रूप धारण करके उसका ऊपर का भाग देखने गये। हरि पाताल स्थान को भेदकर दूर तक चले गये।17।

नापश्यत्तस्य संस्थानं स्तम्भस्यानलवर्चसः।
श्रान्तः स सूकरहरिः प्राप पूर्वं रणाङ्गणम्।18।

परंतु उस अग्नि के समान प्रज्ज्वलित स्तम्भ का पार नहीं पाया और शांत होकर हरि उस युद्ध स्थान में चले आये।18।

अथ गच्छंस्तु व्योम्ना च विधिस्तात पिता तव।
ददर्श केतकी पुष्पं किञ्चिद्विच्युतमद्भतम्।19
और ब्रह्माजी आकाशमार्ग में चले गये। उन्होंने वहां केतकी का किंचितच्युत होता अद्भुत पुष्प देखा।19।

अतिसौरभ्यमम्लानं बहुवर्षच्युतं तथा।
अन्वीक्ष्य च तयोः कृत्यं भगवान परमेश्वरः।20।
परिहासंंतु कृतवान्कम्पनाच्चलितं शिरः।
तस्मात्तावनुगृह्णातुं च्युतं केतक मुत्तमम्।21।

यद्यपि वो बहुत वर्षों से टूटा था, परंतु उसमें बड़ी सुगंध थी और मलिन न था, ब्रह्मा और विष्णु जी के कृत्यों को देखकर भगवान परमेश्वर ने परिहास किया और कम्पित होने से उनका शिर चलायमान हुआ, उसी से वह पुष्प गिरा, तब केतकी के गिरे हुए उत्तम फूल को ग्रहण करने की इच्छा से ब्रह्मा जी ने कहा।20-21।

किं त्वं पतसि पुष्पेश पुष्पराट् केन वै धृतः।
आदिमस्याप्रमेयस्य स्तम्भमध्याच्च्युतश्चिरम्।22।
हे पुष्पों के राजा पुष्पपति ! तू क्यों गिरता है? तुझे किसने धारण किया है? तब पुष्प ने कहा --इस सबके प्रथम प्रादुर्भूत हुए प्रमाद रहित स्तम्भ के मध्यस्थान से मैं गिरा हूँ और मुझे बहुत समय बीत गया।22।

न सपश्यामि तस्मात्त्वं जह्याशामन्तदर्शने।
अस्यान्तस्य च सेवार्थं हंस मिर्तिरिहागतः।23।

परन्तु आज तक मुझे इसका अंत नहीं मिला, गिरा ही चला जाता हूँ, इस कारण आप इसका अन्त देखने की आशा छोड़ दीजिये। ब्रह्मा जी बोले---इसका अन्त देखने को मैं हंस रूप धारण करके आया हूँ।23।

इतः परं सखे मेऽद्य त्वया कर्तव्यमीप्सितम्।
मया सह त्वया वाच्यमेतद्विष्णोश्च सन्निधौ।24।
अब, है सखा! तुम्हें हमारा मनोरथ पूर्ण करना चाहिए। मेरे साथ चलकर विष्णु जी के निकट तुम्हें यह कहना चाहिये।24।

स्तम्भान्तो वीक्षितौ धात्रा तत्र साक्ष्यहमच्युत।
इत्युक्त्वा केतकं तत्र प्रणनाम पुनः पुनः।
असत्यमपि शस्तं स्यादापदीत्यनुशासनम्।25।
कि ब्रह्माजी ने इस स्तम्भ का अन्त देख लिया है, इसमें मैं साक्षी हूँ। ऐसा कहकर ब्रह्मा जी ने बारंबार केतकी के पुष्प को प्रणाम किया और कहा यह आज्ञा है कि आपदा में झूठ बोलने में दोष नहीं होता।25।

समीक्ष्य तत्राच्युतमायतश्रमं प्रनष्टहर्षं तु ननर्तं हर्षात्।
उवाच चैनं परमार्थमच्युतं षण्ढात्तवादः स विधिस्ततोऽच्युतम्।26।

जाकर ब्रह्माजी ने जब विष्णुजी को थकित देखा कि,  उनमें प्रसन्नता नहीं है, तब हर्षित होकर नृत्य करने लगे और षण्ढ के समान वाद करते हुए अच्युत से ब्रह्माजी बोले।26।

स्तम्भाग्रमेतत् समुदीक्षितं हरे तत्रैव साक्षी ननु केतकं त्विदम्।
ततोऽ वदत्तत्र हि केतकं मृषा तथेति तद्धातृवचस्तदन्तिके।27।

हे विष्णु! हमने स्तम्भ का अन्त देख लिया, उसमें यह केतकी का पुष्प साक्षी है और ब्रह्माजी के कहने के अनुसार उस केतकी के पुष्प ने भी असत्य भाषण किया।27।

हरिश्च तत्सत्यमितीव चिन्तयंश्चकार तस्मै विधये नमः स्वयम्।
षोडशैरुपचारैश्च पूजयामास तं विधिम्।28।
हरि ने उनका कहा सत्य मानकर स्वयं ब्रह्माजी को प्रणाम किया और षोडशोपचारों से ब्रह्माजी का पूजन किया।28।

विधिं प्रहर्तुं शठमग्निलिङ्गतः स ईश्वरस्तत्र बभूव साकृतिः।
समुत्थितः स्वामिविलोकनात् पुनः प्रकम्पपाणिः परिगृह्य तत्पदम्।29।

तब ब्रह्माजी का कपट देखकर उनको प्रहार करने के लिए उसी अग्निरूप स्तम्भ से वह ईश्वर साकार होकर प्रादुर्भूत हुए। स्वामी को देखते ही कांपते हुए हाथों से विष्णुजी ने उनके चरण पकड़ लिए।29।

आद्यन्तहीननवपुषि त्वयि मोहबुद्धया भूयान् विमर्श इह नावति कामनोत्थः।
स त्वं प्रसीद करुणाकर कश्मलं नौ मृष्टं क्षमस्व विहितं भवतैव केल्या।30।
और बोले हे आद्यंतहीन शरीर वाले! आपको अज्ञान बुद्धि से कामनापूर्वक ढूंढकर भी आप प्राप्त नहीं होते हैं। हे करुणाकर! इससे आप हमारे ऊपर प्रसन्न हों और हमारे कश्मल (पाप) नष्ट करके हमें क्षमा कीजिये, आपकी क्रीड़ा हमने जानी।30।

ईश्वर उवाच

वत्स प्रसन्नोऽस्मि हरे यतस्त्वमीशत्वमिच्छन्नपि सत्यवाक्यम्।
ब्रूयास्ततस्ते भविता जनेषु साम्यं मया सत्कृतिरप्यलप्सि।31।

ईश्वर बोले --हे वत्स! हे विष्णु मैं आपके ऊपर प्रसन्न हूँ, कारण कि आप ईशत्व की इच्छा  करके भी सत्य वक्ता हो, इसी कारण से संसार में  ईशत्व को प्राप्त होकर साम्यता और मुझसे सत्कार को भी प्राप्त होंगे।31।

इतः परं ते पृथगात्मनश्च क्षेत्र प्रतिष्ठोत्सवपूजनं च।32।
और आज से आपकी पृथक मूर्ति के क्षेत्रों में प्रतिष्ठा और उत्सव, पूजन होगा।32।

इति देवः पुरा प्रीतः सत्येन हरये परम्।
ददौ स्वसाम्यमत्यर्थं देवसंघे च पशयति।33।

इस प्रकार सत्य कहने से शिवजी विष्णुजी पर बहुत प्रसन्न हुए और देवसमूह के देखते देखते उन्होंने समानता विष्णुजी को दी।33।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायांविद्येश्वरसंहितायामनलस्तम्भाविष्कारवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः*।।7।।

🙏जय बाबा की🙏