Thursday, 16 September 2021

द्वितीयायां रुद्रसंहितायां - प्रथमः सृष्टिखणडः - अथ प्रथमोऽध्यायः

ऊँ श्रीशिवमहापुराण ऊँ  द्वितीयायां रुद्रसंहितायां                           
प्रथमः सृष्टिखणडः
अथ प्रथमोऽध्यायः  

विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेकं गौरीपतिं विदिततत्त्वमनन्तकीर्तिम्।
मायाश्रयं विगतमायमचिन्त्यरूपं बोधस्वरूपममलं हि शिवं नमामि।।1।।

जो विश्व की उत्पत्ति- स्थिति और लय आदि के एकमात्र कारण हैं, गिरिराज कुमारी उमा के पति हैं, तत्त्वज्ञ हैं, जिनकी कीर्ति का कहीं अन्त नहीं है, जो माया के आश्रय  होकर भी उससे अत्यन्त दूर हैं, जिनका स्वरूप अचिन्त्य है, जो बोध स्वरूप हैं तथा निर्विकार हैं, उन भगवान शिव को मैं प्रणाम करता हूंँ।।1।।

वन्दे शिवं तं प्रकृतेरनादिं प्रशान्तमेकं पुरुषोत्तमं हि।
स्वमायया कृत्स्नमिदं हि सृष्ट्वा नभोवदन्तर्बहिरास्थितो यः।।2।।

मैं स्वभाव से ही उन अनादि, शान्तस्वरूप पुरुषोत्तम शिव की वन्दना करता हूंँ, जो अपनी माया से इस सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करके आकाश की भाँति इसके भीतर और बाहर भी स्थित हैं।।2।।

वन्देऽन्तरस्थं निजगूढरूपं शिवं स्वतः स्त्रष्टुमिदं विचष्टे।
जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवत्तम्।।3।।

 जैसे लोहा चुम्बक से आकृष्ट होकर उसके पास ही लटका रहता है, उसी प्रकार ये सारे जगत सदा सब ओर जिसके आस पास ही भ्रमण करते हैं, जिन्होंने अपने से ही इस प्रपंच को रचने की विधि बतायी थी, जो सबके भीतर अन्तर्यामी रूप से विराजमान हैं तथा जिनका अपना स्वरूप अत्यन्त गूढ़ है, उन भगवान शिव की में सादर वन्दना करता हूँ।।3।।

व्यास उवाच-

जगतः पितरं शम्भुं जगतो मातरं शिवाम्।
तत्पुत्रञ्च गणाधीशं नत्वैतद्वर्णयामहे।।4।।

व्यास जी बोले- जगत के पिता भगवान शिव, जगन्माता कल्याणमयी पार्वती तथा उनके पुत्र गणेश जी को नमस्कार करके हम इस पुराण का वर्णन करते हैं।।4।।

एकदा मुनयः सर्वे नैमिषारण्य वासिनः।
पप्रच्छुर्वरया भक्त्या सूतं ते शौनकादयः।।5।।

एक समय की बात है, नैमिषारण्य में निवास करने वाले शौनक आदि सभी मुनियों ने उत्तम भक्ति भाव के साथ सूतजी से पूछा।।5।।

ऋषयः ऊचुः

विद्येश्वर संहितायाः श्रुता सा सत्कथा शुभा।
साध्य साधन खण्डाख्या रम्याद्या भक्तवत्सला।।6।।

 ऋषिगण बोले- हे सूतजी विद्येश्वर संहिता की जो साध्य- साधन खण्ड नाम वाली शुभ तथा उत्तम कथा है, उसे हम लोगों ने सुन लिया। उसका आदि भाग बहुत ही रमणीय है तथा वह शिव भक्तों पर भगवान शिव का वात्सल्य स्नेह प्रकट करने वाली है।।6।।

सूत सूत महाभाग चिरञ्जीव सुखी भव।
यच्छ्रावयसि नस्तात शान्करीं परमां कथाम्।।7।।
पिबन्तस्त्वन्मुखाम्भोजच्युतं ज्ञानामृतं वयम्।
अवितृप्तिः पुनः कञ्चित्प्रष्टुमिच्छामहेऽनघ।।8।।

हे महाभाग सूतजी! हे तात! आप हम लोगों को सदा शिव भगवान शंकर की उत्तम कथा का श्रवण करा रहे हैं, अतएव आप चिरकाल तक जीवित रहें और सदा सुखी रहें। आपके मुख कमल से निकल रहे ज्ञानामृत का पूर्ण रूप से पान करते हुए भी हमलोग तृप्त नहीं हो पा रहे हैं, इसलिए हे अनघ (पुण्यात्मा) हम सब पुनः कुछ पूछना चाहते हैं।।7-8।।

व्यासप्रसादात्सर्वज्ञो प्राप्तोऽसि कृतकृत्यताम्।
नाज्ञातं विद्यते किञ्चिद्भूतं भव्यं भवच्च यत्।।9।।

 भगवान व्यास की कृपा से आप सर्वज्ञ एवं कृतकृत्य हैं। आपके लिए भूत, भविष्य और वर्तमान का कुछ भी अज्ञात नहीं है अर्थात सब कुछ आपको ज्ञात है।।9।।

गुरोर्व्यासस्य सद्भक्त्या समासाद्य कृपा पराम्।
सर्वं ज्ञातं विशेषेण सर्वं सार्थं कृतं जनुः।।10।।

अपनी सद्भक्ति के द्वारा गुरु व्यास जी से परमकृपा को प्राप्त कर आप विशेष रूप से सब कुछ जान गये हैं और अपने सम्पूर्ण जीवन को भी कृतार्थ कर लिया है।।10।।

इदानीं कथय प्राज्ञ शिवरूपमनुत्तमम्।
दिव्यानि वै चरित्राणि शिवयोरप्यशेषतः।।11।।

 हे विद्वन! अब आप भगवान शिव के परम उत्तम स्वरूप का वर्णन कीजिये। साथ ही शिव और पार्वती के दिव्य चरित्रों का पूर्ण रूप से श्रवण कराइये।।11।।

अगुणो गुणतां याति कथं लोके महेश्वरः।
शिवतत्त्वं वयं सर्वे न जानीमो विचारतः।।12।।

 निर्गुण महेश्वर लोक में सगुण रूप कैसे धारण करते हैं ? हम सब लोग विचार करने पर भी शिव के तत्व को नहीं समझ पाते।।12।।

सृष्टेः पूर्वं कथं शम्भुः स्वरूपेणावतिष्ठते।
सृष्टिमध्ये स हि कथं क्रीडन्संवर्तते प्रभुः।।13।।

तदन्ते च कथं देवः स तिष्ठति महेश्वरः।
कथं प्रसन्नता याति शंकरो लोकशंकरः।।14।।

सृष्टि के पूर्व में भगवान शिव किस प्रकार अपने स्वरूप से स्थित होते हैं, पुनः सृष्टि के मध्य काल में वे भगवान किस तरह क्रीड़ा करते हुए सम्यक् व्यवहार करते हैं। सृष्टिकल्प का अन्त होने पर वे महेश्वरदेव किस रूप में स्थित रहते हैं? लोक कल्याणकारी शंकर कैसे प्रसन्न होते हैं।।13-14।।
 
स प्रसन्नो महेशानः किं प्रयच्छति सत्फलम्।
स्वभक्तेभ्यः परेभ्यश्च तत्सर्वं कथयस्व नः।।15।।

सद्यः प्रसन्नो भगवान्भवतीत्यनुशुश्रुम।
भक्तप्रयासं स महान्न पश्यति दयापरः।।16।।

प्रसन्न हुए महेश्वर अपने भक्तों तथा दूसरों को कौन सा उत्तम फल प्रदान करते हैं? यह सब हमसे कहिये। हमने सुना है कि भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। वे महान दयालु हैं, इसलिए वे अपने भक्तों का कष्ट नहीं देख सकते।।15-16।।

  ब्रह्मा विष्णुर्महेशश्च त्रयो देवाः शिवाङ्गजाः।
महेशस्तत्र पूर्णांशः स्वयमेव शिवोऽपरः।।17।।

तस्याविर्भावमाख्याहि चरितानि विशेषतः।
उमाविर्भावमाख्याहि तद्विवाहं  तथा प्रभो।।18।।
तद्गार्हस्थ्यं विशेषेण तथा लीलाः परा अपि।
एतत्सर्वं तदन्यच्च कथनीयं त्वयानघ।।19।।

ब्रह्मा विष्णु और महेश-ये तीनों देवता शिव के ही अंग से उत्पन्न हुए हैं। इनमें महेश तो पूर्णांश हैं, वे स्वयं ही दूसरे शिव हैं। आप उनके प्राकट्य की कथा तथा उनके विशेष चरित्रों का वर्णन कीजिये। हे प्रभो!आप उमा के आविर्भाव और उनके विवाह की भी कथा कहिये। विशेषतः उनके गार्हस्थ्य धर्म का और अन्य लीलाओं का भी वर्णन कीजिये। निष्पाप सूतजी! ये सब तथा अन्य बातें भी आप बतायें।।17-19।।

व्यास उवाच

इति पृष्टस्तदा तैस्तु सूतो हर्षसमन्वितः।
स्मृत्वा शम्भुपदाम्भोजं प्रत्युवाच मुनीश्वरान्।।20।।

व्यास जी बोले - उनके ऐसा पूछने पर सूत जी प्रसन्न हो उठे और भगवान शंकर के चरण कमलों का स्मरण करके मुनीश्वरों से कहने लगे।।20।।
 
  सूत उवाच

सम्यक् पृष्टं भवद्भिश्च धन्या यूयं मुनीश्वराः।
सदाशिवकथायां वो यज्जाता नैष्ठिकी मतिः।।21।।
सदाशिवकथाप्रश्नः पुरुषांस्त्रीन्पुनाति हि।
वक्तारं पृच्छकं श्रोतॄञ्जाह्नवीसलिलं यथा।।22।।

सूतजी बोले-हे मुनीश्वरो! आप लोगों ने बड़ी उत्तम बात पूछी है। आप लोग धन्य हैं, जो कि भगवान सदाशिव की कथा में आप लोगों की आन्तरिक निष्ठा हुई है। सदाशिव से सम्बन्धित कथा वक्ता, पूछने वाले और सुनने वाले- इन तीनों प्रकार के पुरुषों को गंगा जी के समान पवित्र करती है।।21-22।।

शम्भोर्गुणानुवादात्को विरज्येत पुमान्द्विजाः।
विना पशुघ्नं त्रिविधजनानन्दकरात्सदा।।23।।

गीयमानो वितृष्णैश्च भवरोगौषधोऽपि हि।
मनः श्रोत्राभिरामश्च यतः सर्वार्थदः स वै।।24।।

हे द्विजो! पशुओं की हिंसा करने वाले निष्ठुर कसाई के सिवा दूसरा कौन पुरुष तीनों प्रकार के लोगों को सदा आनन्द देने वाले शिव गुणानुवाद को  सुनने से ऊब सकता है। जिनके मन में कोई तृष्णा नहीं है, ऐसे महात्मा पुरुष भगवान शिव के उन गुणों का गान करते हैं, क्योंकि वह संसार रूपी रोग की दवा है, मन तथा कानों को प्रिय लगने वाला है और सम्पूर्ण मनोरथों को देने वाला है।।23-24।।

 कथयामि यथाबुद्धि भवत्प्रश्नानुसारतः।
शिवलीलां प्रयत्नेन द्विजास्तां श्रृणुतादरात्।।25।।

हे ब्राह्मणो! आप लोगों के प्रश्न के अनुसार मैं यथाबुद्धि शिव लीला का वर्णन करता हूंँ, आप लोग आदर पूर्वक सुनें।।25।।

भवद्भिः पृच्छ्यते यद्वत्तत्तथा नारदेन वै।
पृष्टं पित्रे प्रेरितेन हरिणा शिवरूपिणा।।26।।

ब्रह्मा श्रुत्वा सुतवचः शिवभक्तः प्रसन्नधीः।
जगौ शिवयशः प्रीत्या हर्षयन्मुनिसत्तमम्।।27।।

जैसे आप लोग पूछ रहे हैं, उसी प्रकार नारदजी ने शिव रूपी भगवान विष्णु से प्रेरित होकर अपने पिता ब्रह्मा जी से पूछा था। अपने पुत्र नारद का प्रश्न सुनकर शिवभक्त ब्रह्मा जी का चित्त प्रसन्न हो गया और वे उन मुनिश्रेष्ठ को हर्ष प्रदान करते हुए प्रेमपूर्वक भगवान शिव के यश का गान करने लगे।।26-27।।
व्यास उवाच

सूतोक्तमिति तद्वाक्यमाकर्ण्य द्विजसत्तमाः।
पप्रच्छुस्तत्सुसंवादं कुतूहलसमन्विताः।।28।।

 व्यास जी वोले-  सूत जी के द्वारा कथित उस वचन को सुनकर सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण आश्चर्यचकित हो उठे और उन लोगों ने उस विषय को उनसे पूछा।।28।।
                     
 ऋषय ऊचुः

सूत सूत महाभाग शैवोत्तम महामते।
श्रुत्वा तव वचो रम्यं चेतो नः सकुतूहलम्।।29।।

ऋषिगण बोले - हे सूतजी!हे महाभाग! हे शिव भक्तों में श्रेष्ठ! हे महामते! आपके सुंदर वचन को सुनकर हमारे हृदय में कौतूहल हो रहा है।।29।।
 
कदा बभूव सुखकृद्विधिनारदयोर्महान।
संवादो यत्र गिरिशसुशीला भवमोचनी।।30।।

ब्रह्मा और नारद को यह महान सुख देने वाला संवाद कब हुआ था, जिसमें संसार से मुक्ति प्रदान करने वाली शिव लीला वर्णित है।।30।।

विधिनारदसंवादपूर्वकं शांकरं यशः।
ब्रूहि नस्तात तत्प्रीत्या तत्तत्प्रश्नानुसारतः।।31।।

हे तात! प्रेमपूर्वक नारद के द्वारा पूछे गये उन-उन प्रश्नों के अनुसार भगवान शंकर के यश का गुणानुवाद करने वाले ब्रह्मा और नारद के संवाद का वर्णन करें।।31।।

इत्याकर्ण्य वचस्तेषां मुनीनां भावितात्मनाम्।
सूतः प्रोवाच सुप्रीतस्तत्संवादानुसारतः।।32।।

आत्मज्ञानी उन मुनियों के ऐसे वचन सुनकर प्रसन्न हुए सूतजी उस ब्रह्मा-नारद संवाद के अनुसार (कही गयी शिव कथा को) कहने लगे।।32।।

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखण्डे सृष्ट्युपाख्याने मुनिप्रश्नवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः।।1।।

जय बाबा की
बाबाचरण दास

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