प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ पञ्चविंशोऽध्यायः
शौनकर्षे महाप्राज्ञ शिवरूप महामते।
श्रृणु रुद्राक्ष माहात्म्यं समासात् कथयाम्यहम्।।1।।
शिवप्रियतमो ज्ञूयो रुद्राक्षः परपावनः।
दर्शनात् स्पर्शनाज्जाप्यात् सर्वपापहरः स्मृतः।।2।।
पुरा रुद्राक्ष महिमा देव्यग्रे कथितो मुने।
लोकोपकरणार्थाय शिवेन परमात्मना।।3।।
सूत जी कहते हैं - महाप्रज्ञ! महामते ! शिवस्वरूप शौनक ! अब में संक्षेप से रुद्राक्ष का माहात्म्य बता रहा हूंँ, सुनो, रुद्राक्ष शिव को बहुत ही प्रिय है। इसे परम पावन समझना चाहिये। रुद्राक्ष के दर्शन से, स्पर्श से, तथा उस पर जप करने से वह समस्त पापों का अपहरण करने वाला माना गया है। मुने ! पूर्वकाल में परमात्मा शिव ने समस्त लोकों का उपकार करने के लिए देवी पार्वती के सामने रुद्राक्ष की महिमा का वर्णन किया था।।1-2-3।।
श्रूयतां तु महेशानि रुद्राक्ष महिमा शिवे।
कथयामि तव प्रीत्या भक्तानां हितकाम्यया।।4।।
दिव्यवर्षसहस्त्राणि महेशानि पुनः पुरा।
तपः प्रकुर्वतस्त्रस्तं मनः संयम्य वै मम।।5।।
भगवान शिव बोले- महेश्वरि शिवे! मैं तुम्हारे प्रेमवस भक्तों के हित की कामना से रुद्राक्ष की महिमा का वर्णन करता हूंँ, सुनो। महेशानि पूर्वकाल की बात है, मैं मन को संयम में रखकर हजारों दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या में लगा रहा।।4-5।।
स्वतन्त्रेण परेशेन लोकोपकृतिकारिणा।
लीलया परमेशानि चक्षुरुन्मीलितं मया।।6।।
पुटाभ्यां चारुचक्षुर्भ्यां पतिता जलबिन्दवः।
तत्राश्रुबिन्दुतो जाता वृक्षा रुद्राक्षसंज्ञकाः।।7।।
एक दिन सहसा मेरा मन क्षुब्ध हो उठा। परमेश्वरी मैं सम्पूर्ण लोकों का उपकार करने वाला स्वतन्त्र परमेश्वर हूंँ। अतः उस समय मैंने लीलावश ही अपने दोनों नेत्र खोले, खोलते ही मेरे मनोहर नेत्रपुटों से कुछ जल की बूंदें गिरीं। आंँसू की उन बूँदों से वहां रुद्राक्ष नामक वृक्ष पैदा हो गया।।6-7।।
स्थावरत्वमनुप्राप्य भक्तानुग्रहकारणात।
ते दत्ता विष्णुभक्तेभ्यश्चतुर्वर्णेभ्य एव च।।8।।
भूमौ गौडोद्भवांश्चक्रे रुद्राक्षाञ्छिववल्लभान्।
मथुरायामयोध्यायां लंकायां मलये तथा।।9।।
सह्याद्रौ च तथा काश्यां देशेष्वन्येषु वा तथा।
परानसह्यपापौघभेदनाञ्छ्रुतिनोदनान्।।10।।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा जाता ममाज्ञया।
रुद्राक्षास्ते पृथिव्यां तु तज्जातीयाः शुभाक्षकाः।।11
भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए वे अश्रुबिन्दु स्थावर भाव को प्राप्त हो गये। वे रुद्राक्ष मैंने विष्णु भक्त को तथा चारों वर्णों के लोगों को बांट दिये। भूतल पर अपने प्रिय रुद्राक्षों को मैंने गौड़ देश में उत्पन्न किया। मथुरा, अयोध्या, लंका, मलयाचल, सह्ययगिरि, काशी तथा अन्य देशों में भी उनके अंकुर उगाये। वे उत्तम रुद्राक्ष असह्य पापसमूहों का भेदन करने वाले तथा श्रुतियों के भी प्रेरक हैं। मेरी आज्ञा से वे ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र जाति के भेद से इस भूतल पर प्रकट हुए।।8-9-10-11।।
श्वैतरक्ता: पीतकृष्णा वर्णा ज्ञेया: क्रमाद् बुधै:।
स्वजातीय नृभिर्धार्यं रुद्राक्षं वर्णत: क्रमात्।।12।।
उन ब्राह्मणादि जाति वाले रुद्राक्षों के वर्ण श्वेत, रक्त, पीत तथा कृष्ण जानने चाहिये। मनुष्यों को चाहिये कि वे क्रमशः वर्ण के अनुसार अपनी जाति का ही रुद्राक्ष धारण करें।।12।।
वर्णेस्तु तत्फलं धार्यं भुक्ति मुक्ति फलेप्सुभि:।
शिवभक्तैर्विशेषेण शिवयो: प्रीतये सदा।।13।।
भोग और मोक्ष की इच्छा रखने वाले चारों वर्णों के लोगों और विशेषतः शिव भक्तों को शिव पार्वती की प्रसन्नता के लिए रुद्राक्ष के फलों को अवश्य धारण करना चाहिये।।13।।
धात्रीफलप्रमाणं यच्छेष्ठमेतदुदाहृतम्।
बदरीफलमात्रं तु मध्यम सम्प्रकीर्तितम्।।14।।
अधमं चणमात्रं स्यात् प्रक्रियैषा परोच्यते।
श्रृणु पार्वति सुप्रीत्या भक्तानां हितकाम्यया।।15।।
आंवले के फल के बराबर जो रुद्राक्ष हो, वह श्रेष्ठ बताया गया है, जो बेर के फल के बराबर हो, उसे मध्यम श्रेणी का कहा गया है। जो चने के बराबर हो, उसकी गणना निम्न कोट में की गयी है। हे पार्वती! अब इसकी उत्तमता को परखने की यह दूसरी प्रक्रिया भक्तों की हित कामना से बताई जाती है। अतः आप भली-भांति प्रेम पूर्वक इस विषय को सुनिये।।14-15।।
बदरीफलमात्रं च यत् स्यात् किल महेश्वरि।
तथापि फलदं लोके सुखसौभाग्यवर्धनम्।।16।।
हे महेश्वरि! जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह उतना छोटा होने पर भी लोक में उत्तम फल देने वाला तथा सुख सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है।।16।।
धात्रीफलसमं यत् स्यात् सर्वारिष्टविनाशनम्।
गुञ्जया सदृशं च यत् स्यात् सर्वार्थफलसाधनम्।।17।।
जो रुद्राक्ष आंवले के फल के बराबर होता है वह समस्त अरिष्टों का विनाश करने वाला होता है तथा जो गुंजाफल के समान बहुत छोटा होता है, वह सम्पूर्ण मनोरथों और फलों की सिद्धि करने वाला होता है।।17।।
यथा यथा लघुः स्याद्वै तथाधिकफलप्रदः।
एकैकतः फलं प्रोक्तं दशांशैरधिकं बुधैः।।18।।
रुद्राक्ष जैसे-जैसे छोटा होता है, वैसे वैसे अधिक फल देने वाला होता है। एक छोटे रुद्राक्ष को विद्वानों ने एक बड़े रुद्राक्ष से दस गुना अधिक फल देने वाला बताया है।।18।।
रुद्राक्ष धारणं प्रोक्तं पापनाशनहेतवे।
तस्माच्च धारणीयो वै सर्वार्थ साधनो ध्रुवम्।।19।।
पापों का नाश करने के लिए रुद्राक्ष धारण आवश्यक बताया गया है। वह निश्चय ही सम्पूर्ण अभीष्ट मनोरथों का साधक है। अतः उसे अवश्य ही धारण करना चाहिये।।19।।
यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्षः फलदः शुभः।
न तथा दृश्यतेऽन्या च। मालिका परमेश्वरि।।20।।
हे परमेश्वरि! लोक में रुद्राक्ष जैसा मंगलमय फल देने वाला देखा जाता है, वैसे ही फलदायिनी दूसरी कोई माला नहीं दिखाई देती है।।20।।
समाः स्निग्धाः दृढाः स्थूलाः कण्टकैः संयुताः शुभाः।
रुद्राक्षाः कामदा देवि भुक्ति मुक्ति प्रदाः सदा।।21।।
हे देवि! समान आकार प्रकार वाले चिकने, सुद्रढ़, स्थूल, कण्टक युक्त, उभरे हुए छोटे दानों वाले और सुन्दर रुद्राक्ष अभिलाषित पदार्थों के दाता सदा सदैव भोग और मोक्ष देने वाले हैं।।21।।
कृमिदुष्टं छिन्न भिन्नं कण्टकैर्हीनमेव च।
व्रणयुक्तमवृतं च रुद्राक्षान् षड् विवर्जयेत्।।22।।
जिसे कीड़ों ने दूषित कर दिया हो, जो खण्डित हो, फूटा हो, जिस में उभरे हुए दाने न हों,, जो व्रण युक्त हो तथा जो पूरा पूरा गोल ना हो, इन छः प्रकार के रुद्राक्षों को त्याग देना चाहिये।।22।।
स्वयमेव कृतद्वारं रुद्राक्षं स्यादिहोत्तमम्।
यत्तु पौरुषयत्नेन कृतं तन्मध्यमं भवेत्।।23।।
रुद्राक्ष धारणं प्रोक्तं महापातकनाशनं।
रुद्रसङ्ख्याशतं धृत्वा रुद्ररूपो भवेन्नरः।।24।।
एकादशशतानीह धृत्वा यत्फलमाप्यते।
तत्फलं शक्यते नैव वक्तुं वर्षशतैरपि।।25।।
जिस रुद्राक्ष में अपने आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही यहां उत्तम माना गया है। जिसमें मनुष्य के प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह मध्यम श्रेणी का होता है। रुद्राक्ष धारण बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला है। इस जगत में ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण करके मनुष्य जिस फल को पाता है उसका वर्णन सैकड़ों वर्षो में भी नहीं किया जा सकता।।23-24-25।
शतार्धेन युतैः पञ्चशतैर्वै मुकुटं मतम्।
रुद्राक्षैर्विरचेत्सम्यग्भक्तिमान्पुरुषो वरः।।26।।
त्रिभिः शतैः षष्टियुक्तैस्त्रिरावृत्त्या तथा पुनः।
रुद्राक्षैरुपवीतं च निर्मीयाद्भक्तितत्परः।।27।।
भक्तिमान पुरुष भलीभाँति साढे पांच सौ रुद्राक्ष के दानों का सुन्दर मुकुट बना ले और उसे सिर पर धारण करे। तीन सौ साठ दानों को लम्बे सूत्र में पिरोकर एक हार बना ले। वैसे वैसे तीन हार बनाकर भक्ति परायण पुरुष उनका यज्ञोपवीत तैयार करे।।26-27।।
शिखायां च त्रयं प्रोक्तं रुद्राक्षाणां महेश्वरि।
कर्णयोः षट् चैव वामदक्षिणयोस्तथा।।28।।
शतमेकोत्तरं कण्ठे बाह्वोर्वै रुद्रसङ्ख्या।
कूर्परद्वारयोस्तत्र मणिबन्धे तथा पुनः।।29।।
उपवीते त्रयं धार्यं शिवभक्तिरतैर्नरै।
शेषानुर्वरितान्पञ्च सम्मितान्धारयेत्कटौ।।30।।
एतत्सङ्ख्या धृता येन रुद्राक्षाः परमेश्वरि।
तद्रूपं तु प्रणम्यं हि स्तुत्यं सर्वैर्महेशवत्।।31।।
हे महेश्वरि! शिवभक्त मनुष्यों को शिखा में तीन, दाहिने और बायें दोनों कानों में क्रमशः छह-छह, कण्ठ में एक सौ एक, भुजाओं में ग्यारह ग्यारह, दोनों कुहनियों और दोनों मणिबन्धों में पुनः ग्यारह ग्यारह, यज्ञोपवीत में तीन तथा कटिप्रदेश में गुप्त रूप से पांँच रुद्राक्ष धारण करना चाहिये। हे परमेश्वरि! उपर्युक्त कही गई इस संख्या के अनुसार जो व्यक्ति रुद्राक्ष धारण करता है, उसका स्वरूप भगवान शंकर के समान सभी लोगों के लिये प्रणम्य और स्तुत्य हो जाता है।।28-29-30-31।।
एवंभूतं स्थितं ध्याने यदाकृत्वासने जनम्।
शिवेति व्याहरंश्चैव दृष्टवा पापैः प्रमुच्यते।।32।।
इस प्रकार रुद्राक्ष से युक्त होकर मनुष्य जब आसन लगाकर ध्यानपूर्वक शिव का नाम जपने लगता है, तो उसको देखकर पाप स्वतः छोड़कर भाग जाते हैं।।32।।
शताधिकसहस्त्रस्य विधिरेष प्रकीर्तितः।
तदभावे प्रकारोऽन्यः शुभः सम्प्रोच्यते मया।।33।।
इस तरह मैंने एक हजार एक सौ रुद्राक्षों को धारण करने की विधि कह दी है। इतने रुद्राक्षों के न प्राप्त होने पर मैं दूसरे प्रकार की कल्याणकारी विधि कह रहा हूंँ।।33।।
शिखायामेकरुद्राक्षं शिरसा त्रिशतं वहेत्।
पञ्चाशच्च गले दध्याद् बाह्वोः षोडश षोडश।।34।।
शिखा में एक सिर पर तीस, गले में पचास और दोनों भुजाओं में सोलह सोलह रुद्राक्ष धारण करना चाहिये।।34।।
मणिबन्धे द्वादश द्विस्कन्धे पञ्चशतं वहेत्।
अष्टोत्तरशतैर्माल्यमुपवीतं प्रकल्पयेत्।।35।।
दोनों मणिबंध पर बारह, दोनों स्कंधों में पाँच सौ और एक सौ आठ रुद्राक्षों की माला बनाकर यज्ञोपवीत के रूप में धारण करनी चाहिये।।35।।
एवं सहस्त्ररुद्राक्षान्धारयेद्यो दृणव्रतः।
तं नमन्ति सुराः सर्वे यथा रुद्रस्तथैव सः।।36।।
इस प्रकार दृढ़ निश्चय करने वाला जो मनुष्य एक हजार रुद्राक्षों को धारण करता है, वह रूद्र स्वरूप है, समस्त देवगण जैसे शिव को नमस्कार करते हैं,वैसे ही उसको भी नमन करते हैं।।36।।
एकं शिखायां रुद्राक्षं चत्वारिंशत्तु मस्तके।
द्वात्रिंशत्कण्ठदेशे तु वक्षस्यष्टोत्तरं शतम्।।37।।
एकैकं कर्णयोः षट् षट् बाह्वोः षोडश षोडष।
करयो रविमानेन द्विगुणेन मुनीश्वर।।38।।
शिखा में एक मस्तक पर चालीस, कण्ठ प्रदेश में बत्तीस, वक्षः स्थल पर एक सौ आठ, प्रत्येक कान में एक-एक, भुजबन्धों में छह छह या सोलह सोलह। हे मुनीश्वर दोनों हाथों में उनका दुगना धारण करें।।37-38।।
सङ्ख्या प्रीतिधृता येन सोऽपि शैवजनः।
शिववत्पूजनीयो हि वन्द्यः सर्वैरभीक्ष्णसः।।39।।
प्रीतिपूर्वक जितनी इच्छा हो, उतने रुद्राक्षों को धारण करना चाहिये। ऐसा जो करता है, वह शिवभक्त सभी लोगों के लिए शिव के समान पूजनीय, वन्दनीय और बार-बार दर्शन के योग्य हो जाता है।।39।।
शिरसीशानमन्त्रेण कर्णे तत्पुरुषेण च।
अघोरेण गले धार्यं। तेनैव हृदयेऽपि च।।40।।
सिर पर ईशान मन्त्र से, कान में तत्पुरुष मन्त्र से तथा गले और हृदय में अघोर मन्त्र से रुद्राक्ष धारण करना चाहिये।।40।।
अघोरबीजमन्त्रेण करयोर्धारयेत्सुधीः।
पञ्चदशाक्षग्रथितां वामदेवेन चोदरे।।41।।
विद्वान पुरुष दोनों हाथों में अघोर बीज मंत्र से रुद्राक्ष धारण करे और उदर पर वामदेव मंत्र से पंद्रह रुद्राक्षों द्वारा गूँथी हुई माला धारण करे।।41।।
पञ्चब्रह्मभिरङ्गैश्च त्रिमाला पञ्च सप्त च।
अथ वा मूलमन्त्रेण सर्वानक्षांस्तु धारयेत्।।42।।
सद्योजात आदि पाँच ब्रह्म मंत्रों तथा अंग मन्त्रों के द्वारा रुद्राक्ष की तीन,पाँच या सात मालाएंँ धारण करे अथवा मूल मंत्र (नमः शिवाय) से ही समस्त रुद्राक्षों को धारण करे।।42।।
मद्य मांसं तु लशुनं पलाण्डुं शिग्रुमेव च।
श्लेष्मान्तकं विड्वराहं भक्षणे वर्जयेत्ततः।।43।।
रुद्राक्षधारी पुरुष अपने खान-पान में मदिरा, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोड़ा, विड्वराह आदि को त्याग दे।।43।।
वलक्षं रुद्राक्षं द्विजतनुभिरेवेह विहितं सुरक्तं क्षत्राणां प्रमुदितमुमे पीतमसकृत्।
ततोवैश्यैर्धार्यं प्रतिदिवसमावश्यकमहो तथा कृष्णं शूद्रैः श्रुतिगदितमार्गोऽयमगजे।।44।।
हे गिरिराज नंदिनी उमे! श्वेत रुद्राक्ष केवल ब्राह्मणों को ही धारण करना चाहिये। गहरे लाल रंग का रुद्राक्ष क्षत्रियों के लिए हितकर बताया गया है। वैश्यों के लिए प्रतिदिन बार-बार पीले रुद्राक्ष को धारण करना आवश्यक है और शूद्रों को काले रंग का रुद्राक्ष धारण करना चाहिये- यह वेदोक्त मार्ग है।।44।।
वर्णी वनी गृहयतिर्नियमेन दध्यादेतद्रहस्यपरमो न हि जातु तिष्ठेत।
रुद्राक्षधारणमिदं सुकृतैश्च लभ्यं त्यक्त्वेदमेतदखिलान्नरकान् प्रयान्ति।।45।।
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, गृहस्थ और संन्यासी सबको नियम पूर्वक रुद्राक्ष धारण करना उचित है। इसे धारण किये बिना न रहे, यह परम रहस्य है। इसे धारण करने का सौभाग्य बड़े पुण्य से प्राप्त होता है। इसको त्यागने वाला व्यक्ति नरक को जाता है।।45।।
आदावामलकास्ततो लघुतरा रुग्णास्ततः कण्टकैः सन्दष्टाः कृमिभिस्तनूपकरणच्छिद्रेण हीनास्तथा।
धार्या नैव शुभेप्सुभिश्चणकवद् रुद्राक्षमप्यन्ततो रुद्राक्षो मम लिङ्गमङ्गलमुले सूक्ष्मं प्रशस्तं सदा।।46।।
हे उमे! पहले आंँवले के बराबर और फिर उससे भी छोटे रुद्राक्ष धारण करे। जो रोग युक्त हों, जिनमें दाने न हों, जिन्हें कीड़ों ने खा लिया हो,जिनमें पिरोने योग्य छेद न हों, ऐसे रुद्राक्ष मंगलकांक्षी पुरुषों को नहीं धारण करना चाहिये। रुद्राक्ष मेरा मंगलमय लिंगविग्रह है। वह अन्ततः चने के बराबर लघुतर होता है। सूक्ष्म रुद्राक्ष को ही सदा प्रशस्त माना गया है।।46।।
सर्वाश्रमाणां वर्णानां स्त्री शूद्राणां शिवाज्ञया।
धार्याः सदैव रुद्राक्षा यतीनां प्रणवेन हि।।47।।
सभी आश्रमों, समस्त वर्णों, स्त्रियों और शूद्रों को भी भगवान शिव की आज्ञा के अनुसार सदैव रुद्राक्ष धारण करना चाहिये। यतियों के लिए प्रणव के उच्चारण पूर्वक रुद्राक्ष धारण करने का विधान है।।47।।
दिवा बिभ्रद्रात्रिकृतै रात्रौ बिभ्रद्दिवाकृतैः।
प्रातर्मध्याह्नसायाह्ने मुच्यते सर्वपातकैः।।48।।
मनुष्य दिन में रुद्राक्ष धारण करने से रात्रि में किये गये पापों से और रात्रि में रुद्राक्ष धारण करने से दिन में किये गए पापों से, प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल रुद्राक्ष धारण करने से किये गये समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।।48।।
ये त्रिपुण्ड्रधरा लोके जटाधारिण एव ये।
ये रुद्राक्षधरास्ते वै यमलोकं प्रयान्ति न।।49।।
संसार में जितने भी त्रिपुण्ड्र धारण करने वाले हैं, जटाधारी हैं और रुद्राक्ष धारण करने वाले हैं, वे यमलोक को नहीं जाते हैं।।49।।
रुद्राक्षमेकं शिरसा बिभर्ति तथा त्रिपुण्ड्रं च ललाट मध्ये।
पञ्चाक्षरं ये हि जपन्ति मन्त्रं पूज्यि भवद्भिः खलु ते हि साधवः।।50।।
जिनके ललाट में त्रिपुण्ड्र लगा हो और सभी अंग रूद्राक्ष से विभूषित हों तथा जो शिव पंचाक्षर मंत्र का जप कर रहे हों, वे आप सदृश पुरुषों के पूज्य हैं, वे वस्तुतः साधु हैं।।50।।
यस्याङ्गे नास्ति रुद्राक्षस्त्रिपुण्ड्रं भालपट्टके।
मुखे पञ्चाक्षरं नास्ति तमानय यमालयम्।।51।।
ज्ञात्वा ज्ञात्वा तत्प्रभावं भस्मरुद्राक्षधारिणः।
ते पूज्याः सर्वदास्माकं नो नेतव्याः कदाचन।।52
यम अपने गणों को आदेश करते हैं कि जिसके शरीर पर रुद्राक्ष नहीं है, मस्तक पर त्रिपुण्ड्र नहीं है, और मुख में 'ऊँ नमः शिवाय' यह पञ्चाक्षर मंत्र नहीं है, उसको यमलोक लाया जाय। भस्म एवं रुद्राक्ष के उस प्रभाव को जानकर या न जानकर जो भस्म और रुद्राक्ष को धारण करने वाले हैं, वे सर्वदा हमारे लिये पूज्य हैं, उन्हें यमलोक नहीं लाना चाहिये।।51-52।।
एवमाज्ञापयामास कालोऽपि निजकिंकरान्।
तथेति मत्वा ते सर्वे तूष्णीमासन्सुविस्मिताः।।53।।
काल ने भी इस प्रकार से अपने गणों को आदेश दिया, तब 'वैसा ही होगा' ऐसा कह कर आश्चर्यचकित सभी गण चुप हो गये।।53।।
अत एव महादेवि रुद्राक्षोऽप्यघनाशनः।
तद्धरो मत्प्रियः शुद्धोऽत्यघवानपि पार्वति।।54।।
इसलिए हे महादेवि! रुद्राक्ष भी पापों का नाशक है। हे पार्वति! उसको धारण करने वाला मनुष्य पापी होने पर भी मेरे लिए प्रिय है और शुद्ध है।।54।।
हस्ते बाहौ तथा मूर्ध्नि रुद्राक्षं धारयेत्तु यः।
अवध्यः सर्वभूतानां रुद्ररूपी चरेद्भुवि।।55।।
हाथ में, भुजाओं में और सिर पर जो रुद्राक्ष धारण करता है, वह समस्त प्राणियों से अवध्य है और पृथ्वी पर रूद्र रूप होकर विचरण करता है।।55।।
सुरासुराणां सर्वेषां वन्दनीयः सदा स वै।
पूजनीयो हि दृष्टस्य पापहा च यथा शिवः।।56।।
सभी देवों और और असुरों के लिए वह सदैव वन्दनीय एवं पूजनीय है। वह दर्शन करने वाले प्राणी के पापों का शिव के समान ही नाश करने वाला है।।56।।
ध्यानज्ञानावमुक्तोऽपि रुद्राक्षं धारयेत्तु यः।
सर्वपापविनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम्।।57।।
ध्यान और ज्ञान से रहित होने पर भी जो रुद्राक्ष धारण करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त होता है।।57।।
रुद्राक्षेण जपन्मन्त्रं पुण्यं कोटिगुणं भवेत्।
पुण्यं धारणाल्लभते नरः।।58।।
मणि आदि की अपेक्षा रुद्राक्ष के द्वारा मन्त्र जप करने से करोड़ गुना पुण्य प्राप्त होता है और उसको धारण करने से तो दस करोड़ गुना पुण्यलाभ होता है।।58।।
यावत्कालं हि जीवस्य शरीरस्थो भवेत्स वै।
तावत्कालं स्वल्पमृत्युर्न तं देवि विबाधते।।59।।
हे देवि! यह रुद्राक्ष, प्राणी के शरीर पर जब तक रहता है, तब तक स्वल्प मृत्यु उसे बाधा नहीं पहुंचाती है।।59।।
त्रिपुण्ड्रेण च संयुक्तुं रुद्राक्षाविलसाङ्गकम्।
मृत्युञ्जयं जपन्तं च दृष्ट्वा रुद्रफलं लभेत्।।60।।
त्रिपुण्ड्र को धारण कर तथा रुद्राक्ष से सुशोभित अंग वाला होकर मृत्युंजय मन्त्र का जप कर रहे उस पुण्यवान् मनुष्य को देखकर ही रूद्र दर्शन का फल प्राप्त हो जाता है।।60।।
पञ्चदेवप्रियश्चैव सर्वदेवप्रियस्तथा।
सर्वमन्त्राञ्जपेद्भक्तो रुद्राक्षमालया प्रिये।।61।।
हे प्रिये! पंचदेवप्रिय अर्थात् स्मार्त और वैष्णव तथा सर्वदेव प्रिय सभी लोग रुद्राक्ष की माला से समस्त मन्त्रों का जप कर सकते हैं।।61।।
विष्ण्वादिदेवभक्ताश्च धारयेयुर्न संशयः।
रुद्रभक्तो विशेषेण रुद्राक्षान्धारयेत्सदा।।62।।
विष्णु आदि देवताओं के भक्तों को भी निस्सन्देह इसे धारण करना चाहिये। रुद्र भक्तों के लिए तो विशेष रूप से रुद्राक्ष धारण करना आवश्यक है।।62।।
रुद्राक्षा विविधाः प्रोक्तास्तेषां भेदान वदाम्यहम्।
श्रृणु पार्वति सदभक्त्या भुक्तिमुक्तिफलप्रदान्।।63।।
हे पार्वति! रुद्राक्ष अनेक प्रकार के बताए गये हैं। मैं उनके भेदों का वर्णन करता हूंँ। वे भेद भोग और मोक्ष रूप फल देने वाले हैं। तुम उत्तम भक्ति भाव से उनका परिचय सुनो।।63।।
एकवक्त्रः शिवः साक्षाद्भुक्तिमुक्तिफलप्रदः।
तस्य दर्शन मात्रेण ब्रह्महत्यां व्यपोहति।।64।।
एक मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात शिव का स्वरूप है। वह भोग और मोक्ष रूपी फल प्रदान करता है। उसके दर्शन मात्र से ही ब्रह्महत्या का पाप नष्ट हो जाता है।।64।।
यत्र सम्पूजितस्तत्र लक्ष्मीर्दूरतरा न हि।
नश्यन्त्युपद्रवाः सर्वे सर्वकामा भवन्ति हि।।65।।
जहां रुद्राक्ष की पूजा होती है, वहां से लक्ष्मी दूर नहीं जातीं, उस स्थान के सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं तथा वहांँ रहने वाले लोगों की सम्पूर्ण कामनाएं पूर्ण होती हैं।।65।।
द्विवक्त्रो देवदेवेशः सर्वकामफलप्रदः।
विशेषतः स रुद्राक्षो गोवधं.नाशयेद् द्रुतम्।।66।।
दो मुख वाला रुद्राक्ष देवदेवेश्वर कहा गया है। वह सम्पूर्ण कामनाओं और फलों को देने वाला है। वह विशेष रूप से गौ हत्या का पाप नष्ट करता है।।66।।
त्रिवक्त्रो यो हि रुद्राक्षः सीक्षात्साधनदः सदा।
तत्प्रभावाद्भवेयुर्वै विद्याः सर्वाः प्रतिष्ठिताः।।67।।
तीन मुख वाला रुद्राक्ष सदा साक्षात् साधन का फल देने वाला है, उसके प्रभाव से सारी विद्याएँ प्रतिष्ठित हो जाती हैं।।67।।
चतुर्वक्त्रः स्वयं ब्रह्मा नरहत्यां व्यपोहति।
दर्शनात् स्पर्शनात् सद्यश्चतुर्वर्गफलप्रदः।।68।।
चार मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात् ब्रह्मा का रूप है और ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति देने वाला है। उसके दर्शन और स्पर्श से शीघ्र ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।।68।।
पञ्चवक्त्रः स्वयं रुद्रः कालाग्निर्नामतः प्रभुः।
सर्वमुक्तिप्रदश्चैव सर्वकामफलप्रदः।।69।।
अगम्यागमनं पापमभक्ष्यस्य च भक्षणम्।
इत्यादि सर्वपापानि पञ्चवक्त्रो व्यपोहति।।70।।
पांच मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् कालाग्नि रूद्र रूप है। वह सब कुछ करने में समर्थ, सब को मुक्ति देने वाला तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फल प्रदान करने वाला है। वह पंचमुख रुद्राक्ष अगम्या स्त्री के साथ गमन और पापान्न-भक्षण से उत्पन्न समस्त पापों को दूर कर देता है।।69-70।।
षड्वक्त्रः कार्तिकेयस्तु धारणाद् दक्षिणे भुजे।
ब्रह्महत्यादिकैः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः।।71।।
छः मुख वाला रुद्राक्ष कार्तिकेय का स्वरूप है। यदि दाहिनी बाँह में उसे धारण किया जाय, तो धारण करने वाला मनुष्य ब्रह्म हत्या आदि पापों से मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।।71।।
सप्तवक्त्रो महेशानि ह्यनङ्गो नाम नामतः।
धारणात्तस्य देवेशि दरिद्रोऽपीश्वरो भवेत्।।72।।
हे महेश्वरि! सात मुख वाला रुद्राक्ष अनंग नाम से प्रसिद्ध है। हे देवेशि! उसको धारण करने से दरिद्र भी एश्वर्यशाली हो जाता है।।72।।
रुद्राक्षश्चाष्टवक्त्रश्च वसुमूर्तिश्च भैरवः।
धारणात्तस्य पूर्णियुर्मृतो भवति शूलभृत्।।73।।
आठ मुख वाला रुद्राक्ष अष्टमूर्ति भैरव रूप है। उसको धारण करने से मनुष्य पूर्णायु होता है और मृत्यु के पश्चात शूलधारी शंकर हो जाता है।।73।।
भैरवो नववक्त्रश्च कपिलश्च मुनिः स्मृतः।
दुर्गा वा तदधिष्ठात्री नवरूपा महेश्वरी।।74।।
नौ मुख वाले रुद्राक्ष को भैरव तथा कपिल मुनि का प्रतीक माना गया है अथवा नौ रूप धारण करने वाली महेश्वरी दुर्गा उस की अधिष्ठात्री देवी मानी गयी हैं।।74।।
तं धारयेद्वामहस्ते रुद्राक्षं भक्तितत्परः।
सर्वेश्वरो भवेन्नूनं मम तुल्यो न संशयः।।75।।
जो मनुष्य भक्ति परायण होकर अपने बायें हाथ में नव मुख रुद्राक्ष धारण करता है, वह निश्चय ही मेरे समान सर्वेश्वर हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।।75।।
दशवक्त्रो महेशानि स्वयं देवो जनार्दनः।
धारणात्तस्य देवेशि सर्वान्कामानवाप्नुयात्।।76।।
हे महेश्वरि! दस मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात भगवान विष्णु का रूप है। हे देवेशि! उसको धारण करने से मनुष्य की सम्पूर्ण कामनाएंँ पूर्ण हो जाती हैं।।76।।
एकादश मुखो यस्तु रुद्राक्षः परमेश्वरि।
स रुद्रो धारणात्तस्य सर्वत्र विजयी भवेत्।।77।।
हे परमेश्वरि! ग्यारह मुख वाला जो रुद्राक्ष है, वह रूद्र रूप है, उसको धारण करने से मनुष्य सर्वत्र विजयी होता है।।77।।
द्वादशास्य तु रुद्राक्षं धारयेत् केशदेशके।
आदित्याश्चैव ते सर्वे द्वादशैव स्थितास्तथा।।78।।
बारह मुख वाले रुद्राक्ष को केशप्रदेश में धारण करे। उसको धारण करने से मानो मस्तक पर बारहों आदित्य विराजमान हो जाते हैं।।78।।
त्रयोदशमुखो विश्वेदेवस्तद्धारणान्नरः।
सर्वान्कामानवाप्नोति सौभाग्यं मङ्गलं लभेत्।।79।।
तेरह मुख वाला रुद्राक्ष विश्वदेवों का स्वरूप है। उसको धारण करके मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्टों को प्राप्त करता है तथा सौभाग्य और मंगल लाभ करता है।।79।।
चतुर्दशमुखो यो हि रुद्राक्षः परमः शिवः।
धारयेन्मूर्ध्नि तं भक्त्या सर्वपापं प्रणश्यतिः।।80।।
चौदह मुख वाला जो रुद्राक्ष है, वह परमशिव रूप है। उसे भक्ति पूर्वक मस्तक पर धारण करे, इससे समस्त पापों का नाश हो जाता है।।80।।
इति रुद्राक्षभेदा हि प्रोक्ता वै मुखभेदतः।
तत्तन्मन्त्राञ्छ्रणु प्रीत्या क्रमाच्छैलेश्वरात्मजे।।81।।
हे गिरिराज कुमारी! इस प्रकार मुखों के भेद से रुद्राक्ष के चौदह भेद बताये गये। अब तुम क्रमशः उन रुद्राक्षों के धारण करने के मन्त्रों को प्रसन्नता पूर्वक सुनो-
1- ॐ ह्रीं नमः। 2- ॐ नमः। 3- क्लीं नमः। 4 - ॐ ह्रीं नमः। 5 - ॐ ह्रीं नमः। 6 - ॐ ह्रीं हुं नमः। 7 - ॐ हुं नमः। 8 - ॐ हुं नमः। 9 - ॐ ह्रीं हुं नमः। 10 - ॐ ह्रीं नमः। 11 - ॐ ह्रीं हुं नमः। 12- ॐ क्रौं क्षौं रौं नमः। 13 - ॐ ह्रीं नमः। 14 - ॐ नमः।
इन चौदह मन्त्रों द्वारा क्रमशः एक से लेकर चौदह मुख वाले रुद्राक्षों को धारण करने का विधान है।।81।।
भक्तिश्रद्धायुतश्चैव सर्वकामार्थसिद्धये।
रुद्राक्षान्धारयेन्मन्त्रैर्देवि आलस्यवर्जितः।।82।।
साधक को चाहिये कि वह निद्रा और आलस्य का त्याग करके श्रद्धा भक्ति से सम्पन्न होकर सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि के लिए उक्त मन्त्रों द्वारा उन उन रुद्राक्षों को धारण करे।।82।।
विना मन्त्रेण यो धत्ते रुद्राक्षं भुवि मानवः।
स याति नरकं घोरं यावदिन्द्राश्चतुर्दश।।83।।
इस पृथ्वी पर जो मनुष्य मन्त्र के द्वारा अभिमन्त्रित किये बिना ही रुद्राक्ष धारण करता है, वह क्रमशः चौदह इन्द्रों के काल पर्यंत घोर नरक को जाता है।।83।।
रुद्राक्षमालिनं दृष्ट्वा भूतप्रेतपिशाचकाः।
डाकिनी शाकिनी चैव ये चान्ये द्रोहकारकाः।।84।।
कृत्रिमं चैव यत्किञ्चिदभिचारादिकं च यत्।
तत्सर्वं दूरतो याति दृष्ट्वा शंकितविग्रहम्।।85।।
रुद्राक्ष की माला धारण करने वाले पुरुष को देखकर भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी तथा जो अन्य द्रोहकारी राक्षस आदि हैं, वे सब के सब दूर भाग जाते हैं। जो कृत्रिम अभिचार आदि कर्म प्रयुक्त होते हैं, वे सब रुद्राक्ष धारी को देखकर सशंक हो दूर चले जाते हैं।।84-85।।
रुद्राक्षमालिनं दृष्ट्वा शिवो विष्णुः प्रसीदति।
देवी गणपतिः सूर्यः सुराश्चान्येऽपि पार्वति।।86।।
हे पार्वति! रुद्राक्ष माला धारी पुरुष को देखकर मैं शिव, भगवान विष्णु, देवी दुर्गा, गणेश, सूर्य तथा अन्य देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं।।86।।
एवं ज्ञात्वा तु माहात्म्यं रुद्राक्षस्य महेश्वरि।
सम्यग्धार्याः समन्त्राश्च भक्त्या धर्मविवृद्धये।।87।।
हे महेश्वरि! इस प्रकार रुद्राक्ष की महिमा को जानकर धर्म की वृद्धि के लिए भक्ति पूर्वक पूर्वोक्त मंत्रों द्वारा विधिवत उसे धारण करना चाहिये।।87।।
इत्युक्तं गिरिजाग्रे हि शिवेन परमात्मना।
भस्मरुद्राक्षमाहात्म्यं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम्।।88।।
हे मुनीश्वरो! इस प्रकार परमात्मा शिव ने भगवती पार्वती के सामने भुक्ति तथा मुक्ति प्रदान करने वाले भस्म तथा रुद्राक्ष के माहात्म्य का वर्णन किया था।।88।।
शिवस्यातिप्रियौ ज्ञेयौ भस्मरुद्राक्षधारिणौ।
तद्धारणप्रभावाद्धि भुक्तिमुक्तिर्न संशयः।।89।।
भस्म और रुद्राक्ष को धारण करने वाले मनुष्य भगवान शिव को अत्यंत प्रिय हैं। उसको धारण करने के प्रभाव से ही भुक्ति मुक्ति दोनों प्राप्त हो जाती हैं, इसमें संदेह नहीं है।।89।।
भस्मरुद्राक्षधारी यः शिवभक्तः स उच्यते।
पञ्चाक्षरजपासक्तः परिपूर्णश्च सन्मुखे।।90।।
भस्म और रुद्राक्ष धारण करने वाला मनुष्य शिव भक्त कहा जाता है। भस्म एवं रुद्राक्ष से युक्त होकर जो मनुष्य शिव प्रतिमा के सामने स्थित होकर 'ऊँ नमः शिवाय' इस पंचाक्षर मन्त्र का जप करता है, वह पूर्ण भक्त कहलाता है।।90।।
विना भस्मत्रिपुण्ड्रेण विना रुद्राक्षमालया।
पूजितोऽपि महादेवो नाभीष्टफलदायकः।।91।।
बिना भस्म का त्रिपुण्ड्र धारण किये और बिना रुद्राक्ष माला लिये जो महादेव की पूजा करता है, उससे पूजित होने पर भी महादेव अभीष्ट फल प्रदान नहीं करते हैं।।91।।
तत्सर्वं च समाख्यातं यत्पृष्टं हि मुनीश्वर।
भस्मरुद्राक्ष माहात्म्यं सर्वकामसमृद्धिदम्।।92।।
एतद्यः श्रृणुयान्नित्यं माहात्म्यं परमं शुभम्।
रुद्राक्षभस्मनोर्भक्त्या सर्वान्कामानवाप्नुयात्।।93।।
इह सर्वसुखं भुक्त्वा पुत्रपौत्रादिसंयुतः।
लभेत्परत्र सन्मोक्षं शिवस्यातिप्रियो भवेत्।।94।।
हे मुनीश्वर! सभी कामनाओं को परिपूर्ण करने वाले भस्म और रुद्राक्ष के माहात्म्य को मैंने सुनाया। जो इस रुद्राक्ष और भस्म के माहात्म्य को भक्ति पूर्वक सुनता है, उसकी सभी कामनाएंँ पूर्ण हो जाती हैं। वह पुत्र- पौत्र आदि के साथ इस लोक में सभी प्रकार के सुख भोग कर अन्त में मोक्ष को प्राप्त होता है और भगवान शिव का अतिप्रिय हो जाता है।।92-93-94।।
विद्येश्वर संहितेयं कथिता वो मुनीश्वराः।
सर्वसिद्धिप्रदा नित्यं मुक्तिदा शिवशासनात्।।95।।
हे मुनीश्वरो! इस प्रकार मैंने शिव की आज्ञा के अनुसार उत्तम मुक्ति देने वाली विद्येश्वर संहिता आपके समक्ष कही।।95।।
इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां साध्यसाधनखण्डे रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः।।25।।
।। समाप्तेयं प्रथमा विद्येश्वर संहिता।।1।।
जय बाबा की
बाबाचरण दास