Sunday, 16 June 2019

श्रीशिवपुराण माहात्म्य - अथ पंचमोअध्याय

श्रीशिवपुराण माहात्म्य -   अथ पंचमोअध्याय
मूलपाठ एवं हिन्दी व्याख्या
संकलन - बाबा चरणदास 
सूत उवाच

सा कदाचिदुमा देवी मुपगम्य प्रणम्य च।
सुतुष्टाव करौ बद्ध्वा परमानन्दसम्प्लुता।1।

सूतजी बोले ----

 शौनक एक दिन परमानन्द मैं निमग्न हुई चञ्चुला ने उमादेवी के पास जाकर प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर वह उनकी स्तुति करने लगी।1।

चञ्चुलोवाच

गिरिजे स्कन्दमातस्त्वं सेविता सर्वदा नरः।
सर्व सौख्यप्रदे शम्भुप्रिये ब्रह्मस्वरूपिणि।2।

चञ्चुला बोली---
गिरिराज नन्दिनी स्कन्दमाता उमे मनुष्यों ने सदा आपका सेवन किया है। समस्त सुखों को देने वाली शम्भुप्रिये आप ब्रह्मस्वरुपिणी हैं।2।

विष्णुब्रह्मादिभिस्सेव्यासगुणा निर्गुणापि च।
त्वमाद्या प्रकृति स्सूक्ष्मा सच्चिदानन्द रूपिणी।3।
विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा सेव्य हैं।आप ही सगुणा और निर्गुणा है तथा आप ही सूक्ष्म सच्चिदानन्द स्वरूपिणी आद्या प्रकृति हैं।3।

सृष्टि स्थितिलक्षयकरी त्रिगुणा त्रिसुरालया।
ब्रह्मविष्णु महेशानां सुप्रतिष्ठाकरा परा।4।
आप ही संसार की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली हैं। तीनों गुणों का आश्रय भी आप ही हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर इन तीनों देवताओं का आवास स्थान और उनकी उत्तम प्रतिष्ठा कराने वाली परा शक्ति आप ही है।4।

सूत उवाच

इति स्तुत्वामहेशीं तां चञ्चुला प्राप्त सद्गतिः।
विरराम नतस्कन्धा प्रेमपूर्णा श्रुलोचना।5।
सूतजी कहते हैं

शौनक जिसे सद्गति प्राप्त हो चुकी थी, वह चंचुला इस प्रकार महेश्वर पत्नी उमा की स्तुति करके सिर झुकाए चुप हो गयी। उसके नेत्रों में प्रेम के आँसू उमड़ आये थे।5।

ततः सा करुणाविष्टा पार्वतही शंकरप्रिया।
तामुवाच महाप्रीत्या चञ्चुलां भक्त वत्सला।6।
तब करुणा से भरी हुयी शंकरप्रिया भक्तबत्सला पार्वती देवी ने चंचुला को  सम्बोधित करके. बड़े प्रेम से इस प्रकार कहा।6।

पार्वत्युवाच

चञ्चुले सखि सुप्रीतानया स्तुत्यास्मि सुन्दरि। 
किं याचसे बरं ब्रूहि नादेयं विद्यते तव।7।
 पार्वती बोलीं-----

सखी चञ्चुले सुन्दरि मैं तुम्हारी की हुयी स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ।बोलो क्या वर माँगती हो, तुम्हारे लिए मुझे कुछ भी अदेय नहीं है।7।

इत्युक्ता सा गिरिजया चञ्चुला सुप्रणम्य ताम।
पर्यपृच्छत सुप्रीत्या साञ्जलिर्नतमस्तका।8।
पार्वती जी की बात सुनकर चञ्चुला ने हाथ जोड़े औऱ प्रणाम पूर्वक सिर झुकाकर उनसे प्रश्न किया।8।

चञ्चुलोवाच
मम भर्ताधुना क्वास्ते नैव जानामि तद्गतिम्। 
तेन युक्ता यथाहं वै भवामि गिरिजे अनघे।9।
चञ्चुलोवाच

निष्पाप गिरिराज कुमारी मेरे पति बिन्दुग इस समय कहाँ है, उनकी कैसी गति हुई है यह मैं नहीं जानती ,कल्याण मयी दीन वत्सले मैं अपने उन पतिदेव से जिस प्रकार संयुक्त हो सकूँँ वैसा ही उपाय कीजिये।9।

तथैव कुरु कल्याणि कृपया दीनवत्सले।
महादेवि महेशानि भर्ता मे वृषलीपतिः।
मत्तः पूर्वं मृतः पापमी न जाने कां गतिं गतः।10।
माहेश्वरि महादेवी मेरे पति एक शूद्र जातीय वेश्या के प्रति आसक्त थे और पाप में ही डूबे रहते थे उनकी मृत्यु मुझसे पहले ही हो गयी थी। न जाने वो किस गति को प्राप्त हुए।10।

गिरिजोवाच
सुते भर्ता बिन्दुगाह्वो महापापी दुराशयः।
वेश्याभोगी महामूढ़़ो मृत्वा स नरकं गतः।11।
गिरिजा बोलीं

बेटी तुम्हारा बिन्दुग नाम वाला पति बड़ा पापी था।उसका अन्तः करण बड़ा ही दूषित था। वेश्या का उपभोग करने वाला वह महामूढ़ मरने के बाद नरक में पड़ा।11।

भुक्त्वा नरकदुःखानि विविधान्यमिताः समाः।
पापशेषेण पापात्मा विन्ध्ये जातः पिशाचकः।12।
अगणित वर्षों तक नरक मैं नाना प्रकार के दुःख भोगकर वह पापात्मा अपने शेष पाप को भोगने के लिये विन्ध्यपर्वत पर पिशाच हुआ है।12।

इदानीं स पिशाचोस्ति नानाक्लेश समन्वितः।
तत्रैव वातभुग्दुष्टः सर्वकष्टवहः सदा।13।
इस समय वह पिशाच अवस्था में ही है और नाना प्रकार के क्लेश उठा रहा है। वह दुष्ट वहीं वायु पीकर रहता है और सदा सब प्रकार के कष्ट सहता है।13।

सूत उवाच

इति गौर्या वचः श्रुत्वा चञ्चुला सा शुभव्रता।
पति दुःखेन महता दुःखिता सीत्तदा किल।14।
सूत जी कहते हैं ---- शौनक गौरी देवी की यह बात सुनकर उत्तम व्रत का पालन करने वाली  चञ्चुला उस समय पति के महान दुःख से दुःखी हो गयी।14।

समाधाय ततश्चित्तं सुप्रणम्य महेश्वरीम।
पुनः पप्रच्छ सा नारी हृदयेन विदूयता।15।
फिर मन को स्थिर करके उस ब्राह्मण पत्नी ने व्यथित हृदय से माहेश्वरि को प्रणाम करके पुनः पूछा।15।

महेश्वरी महिदेवि  मुझ पर कृपा कीजिये और दूषित कर्म करनेवाले मेरे उस दुष्ट पति का अब उद्बार कर दीजिये।16।

महेश्वरी महादेवि कृपां कुरु ममौपरि।
समुद्धार पतिं मे अद्य दुष्ट कमकं खलम्।16।
केनोपायेन मे भर्ता पापात्मा स कुबुद्धिमान ।
सद्गति प्राप्नुयाद्देवि तद्वदाशु नमोस्तुते।17।
देवि कुत्सित बुद्बि वाले मेरे उस पापात्मा पति को किस उपाय से उत्तम गति प्राप्त हो सकती है शीघ्र बताइये। आपको नमस्कार है।17।

 श्रृणुयाद्यदि ते भर्ता पुण्यां शिवकथा पराम्।
निस्तीर्यं दुर्गति सर्वा सद्गतिं प्राप्नुयादिति।18।
पार्वती ने कहा ---- यदि तुम्हारा पति  शिवपुराण की पुण्यमयी उत्तम कथा सुने तो सारी दुर्गति को पार करके वह उत्तम गति का भागी बन सकता है।18।
 इति गौर्या वचःश्रुत्वा मृताक्षर मथादरात्।
कृताञजलिर्नतस्कथा प्रणनाम पुनःपुनः।19।
अमृत के समान मधुर अक्षरों से युक्त गौरीदैवी का यह वचन आदर पूर्वक सुनकर चंचुला ने हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उन्हें बारंबार प्रणाम किया।19।

तत्कथा श्रवणं भर्तुः सर्वपापविशुद्धये।
सद्गति प्राप्तये चैव प्रार्थयामास तां तदा।20।
और अपने पति के समस्त पापों की शुद्धि तथा उत्तम गति की प्राप्ति के लिये पार्वती देवी से यह प्रार्थना  की कि मेरे पति को शिवपुराण सुनाने की व्यवस्था होनी चाहिये।20।
तया मुहुर्मुहुर्नार्या प्रार्थ्यमाना शिवप्रिया।
गौरी कृपान्वितासीत् सा महेशी भक्तबत्सला।21।
उस ब्राह्मण पत्नी के बारंबार प्रार्थना करने पर शिवप्रिया ग़ौरी दैवी को बड़ी दया आयी।21।

अथ तुम्बरूमाहूय शिवसत्कीर्तिगायकम्।
प्रीत्या गन्धर्वराजं हि गिरिकन्येदमब्रबीत्।22।
 उन भक्तबत्सला महेश्वरि गिरिराजकुमारी ने भगवान शिव की उत्तम कीर्ति का गान  करने वाले गन्धर्वराज तुम्बरू को बुलाकर उनसे प्रसन्नता पूर्वक इस प्रकार कहा।22।

गिरिजोवाच

हे तुम्बुरो शिवप्रीत मम मानसकारक।
सहानया विन्ध्यशैलं भद्रं ते गच्छ सत्वरम्।23।
गिरिजोवाच
तुम्बुरो तुम्हारी भगवान शिव में प्रीति है। तुम मेरे मन की बातों को जानकर मेरे अभीष्ट कार्यों को सिद्ध करने वाले हो। इसलिए मैं तुमसे एक बात कहती हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी इस सखी के साथ शीघ्र ही विन्ध्यपर्वत पर जाओ।23।

आस्ते तत्र महाघोरः पिशाचो अतिभयंकरः।
तदवृत्तं श्रृणु सुप्रीत्यादितः सर्वं ब्रवीमि ते।24।
वहाँ एक महाघोर और भयंकर पिशाच रहता है। उसका वृत्तांत तुम आरम्भ से ही सुनो । मैं तुमसे प्रसन्नता पूर्वक सब कुछ बताती हूँ।24।

पुराभवे पिशाचः स बिन्दुगाह्वोभवद् द्विजः।
अस्या नार्याः पतिर्दुष्टो मत्सख्या वृषलीपतिः।25।
पूर्व जन्म में वह पिशाच बिन्दुग नामक ब्राह्मण था।मेरी इस सखी चंचुला का पति था। परन्तु वह दुष्ट वेश्यागामी हो गया।25।
स्नान संध्या क्रियाहीनोशौचः क्रोध विमूढधीः।
दुर्भक्षी सज्जन द्वेषी दुष्परिग्रहकारकः।26।
वह  स्नान, संध्या आदि नित्य कर्म छोड़कर अपवित्र रहने लगा।क्रोध के कारण उसकी बुद्धि पर मूढ़ता छा गयी थी।वह कर्तव्याकर्तव्य का विवेक नहीं कर पाता था। अभक्ष्य भक्षण, सज्जनों से द्वेष और दूषित बस्तुओं का दान लेना यही उसका स्वाभाविक कर्म बन गया था। 26।

हिंसकः शस्त्रधारी च सव्यहस्तेन भोजनी।
दीनानां पीडकः क्रूरः परवेश्मप्रदीपकः।27।
वह अस्त्र शस्त्र लेकर हिंसा करता, बाएं हाथ से खाता, दीनों को सताता और क्रूरता पूर्वक पराये घरों में आग लगा देता था।27।

चाण्डालाभिरतो नित्यं वेश्याभोगी महाखलः।
स्वपत्नीत्यागकृत पापी दुष्ट संगरतस्तदा।28।
चांडालों से प्रेम करता और प्रतिदिन वेश्या के संपर्क में रहता था। बड़ा दुष्ट था। वह पापी अपनी पत्नी का परित्याग करके दुष्टों के संग में ही आनंद मनाता था।28।

आमृत्योः स दुराचारी कालेन निधनं गतः।
ययौ यमपुरं घोरं भोगस्थानं हि पापिनाम्।29।
वह मृत्युपर्यन्त दुराचार में ही फँसा रहा। फिर अंतकाल आने पर उसकी मृत्यु हो गयी
वह पापियों के भोगस्थान घोर यमपुर में गया।29।

तत्र भुक्त्वा स दुष्टात्मा नरकानि बहूनि च।
इदानीं स पिशाचोस्ति विन्ध्येद्रौ पापभुक् खलः।30।
और वहां बहुत से नरकों का उपभोग करके वह दुष्टात्मा जीव इस समय विंध्य पर्वत पर पिशाच बना हुआ है।30।

तस्याग्रे परमां पुण्यां सर्वपापविनाशिनीम्।
दिवयां शिवपुराणस्य कथां कथय यत्नतः।31।
वहीं वह दुष्ट अपने पापों का फल भोग रहा है। तुम उसके आगे यत्न पूर्वक शिवपुराण की उस दिव्य कथा का प्रवचन करो। जो परम् पुण्यमयी तथा समस्त पापों का नाश करने वाली है।31।

द्रुतं शिवपुराणस्य कथाश्रवणतः परात्।
सर्वपापविशुद्धात्मा हास्यति प्रेततां च सः।32।
शिवपुराण की कथा का श्रवण सबसे उत्कृष्ट पुण्यकर्म है। उससे उसका हृदय शीघ्र ही समस्त पापों से शुद्ध हो जाएगा और वह प्रेतयोनि का परित्याग कर देगा।32।

मुक्तं च दुर्गतेस्तं वै बिन्दुगं त्वं पिशाचकम्।
मदाज्ञया विमानेन समानय शिवान्तिकम्।33।
उस दुर्गति से मुक्त होने पर बिन्दुग नामक पिशाच को मेरी आज्ञा से विमान पर बिठाकर तुम भगवान शिव समीप ले आओ।33।

सूत उवाच

इत्यादिष्टो महेशान्या गन्धर्वेन्द्रश्च तुम्बरूः।
मुमुदेऽतीव मनसि भाग्यं निजमवर्णयत्।34।
सूत जी कहते हैं---

शौनक ! महेश्वरि उमा के इस प्रकार आदेश देने पर गन्धर्वराज तुम्बुरु मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने भाग्य की सराहना की।34।

आरुह्य सुविमानं स सत्या तत्प्रियया सह।
ययौ विन्ध्याचले सोऽरं यत्रास्ते नारदप्रियः।35।
तत्पश्चात उस पिशाच की सती साध्वी पत्नी चञ्चुला के साथ विमान पर बैठकर नारद के प्रिय मित्र तुम्बुरू वेगपूर्वक विंध्याचल पर्वत पर गये, जहाँ वह पिशाच रहता था।35।
तत्रापश्यत् पिशाचं तं महाकायं महाहनुम्।
प्रहसन्तं रुदन्तं च वल्गन्तं विकटाकृतिम्।36।
वहां उन्होंने उस पिशाच को देखा। उसका शरीर विशाल था। ठोड़ी बहुत बड़ी थी। वह कभी हँसता, कभी रोता और कभी उछलता था। उसकी आकृति बड़ी विकराल थी।36।
बलाज्जग्राह तं पाशैः पिशाचं चातिभीकरम्।
तुम्बरूश्शिवकीर्तिगायकश्च महाबलली।37।
भगवान शिव की उत्तम कीर्ति का गान करने वाले महाबली तुम्बुरू ने उस अत्यन्त भयंकर पिशाच को पाशों द्वारा बाँध लिया।37।
अथो शिवपुराणस्य वाचनार्थं स तुम्बरुः।
निश्चित्य रचनां चक्रेमहोत्सवसमन्विताम्।38।
तदनंतर तुम्बुरू ने शिवपुराण की कथा बाँचने का निश्चय करके महोत्सव युक्त स्थान और मंडप आदि की रचना की।38
पिशाचं तारितुं देव्याः शाशनात्तुम्बुरुर्गतः।
विन्ध्यं शिवपुराणं स ह्यद्रिं श्रावयितुं परम्।39।
इतने में ही सम्पूर्ण लोकों में बड़े वेग से यह प्रचार हो गया कि देवी पार्वती की आज्ञा से एक पिशाच का उद्धार करने के उद्देश्य से शिवपुराण की उत्तम कथा सुनाने के लिये तुम्बुरु विन्ध्यपर्वत पर गये हैं।39।
इति कोलाहलो जातः सर्वलोकेषु वै महान्।
तत्र तच्छृवणार्थाय ययुर्देवर्षयो द्रुतम् ।40।

फिर तो उस कथा को सुनने के लोभ से बहुत से देवर्षि भी शीघ्र ही वहां जा पहुँचे।40।
समाजस्तत्र परमोऽद्भुतश्चासीच्छुभावः।
तेषां शिवपुराणस्यागतानां श्रोतुमादरात्।41।

आदर पूर्वक शिवपुराण सुनने के लिये आये हुए लोगों का उस पर्वत पर बड़ा अद्भुत और कल्याणकारी समाज जुट गया।41।
पिशाचमथ तं पाशैर्बद्ध्वा समुपवेस्य च।
तुम्बरुर्वल्लकीहस्तो जगौ गौरीपतेः कथाम्।42।
फिर तुम्बुरू ने उस पिशाच को पाशों से बांधकर आसन पर बिठाया और हाथ मे वीणा लेकर गौरीपति की कथा का गान आरम्भ किया।42
आरभ्य संहितामाद्यां सप्तमी संहितावधि।
स्पष्टं शिवपुराणं हि समाहात्यं समावदत्।43।
पहली अर्थात विद्येश्वर संहिता से लेकर सातवीं वायुसंहिता तक माहात्म्य सहित शिवपुराण की कथा का उन्होने स्पष्ट वर्णन किया।43।
श्रुत्वा शिवपुराणं तु सप्तसंहितमादरात।
बभूवुः सुकृतार्थास्ते सर्वे श्रोतार एव हि।44।
सातों संहिताओं सहित  शिवपुराण का आदरपूर्वक श्रवण करके वे सभी श्रोता पूर्णतः कृतार्थ हो गये।44।
स पिशाचो महापुण्यं श्रुत्वा शिवपुराणकं।
विधूय कलुषं सर्वं जहौ पैशाचिकं वपुः।45।
उस परम पुण्यमय शिवपुराण को सुनकर उस पिशाच ने अपने सारे पापों को धोकर उस पैशाचिक शरीर को त्याग  दिया।45।
दिव्य रुपो बभूवाशु गौरवर्णः सितांशुकः।
सर्वालंकार दीप्तांगस्त्रिनेत्रश्चन्द्रशेखरः।46।
फिर तो शीघ्र ही उसका दिव्य रूप हो गया। अंगकान्ति गौरवर्ण की हो गयी। शरीर पर श्वेत वस्त्र तथा सब प्रकार के पुरुषोचित आभूषण उसके अंगों को उद्भासित करने लगे। वह त्रिनेत्रधारी चंद्रशेखर रूप हो गया।46।
दिव्यं दिव्यवपुर्भूत्वा तया स निजकान्तया।
जगौ स्वयमपि श्रीमांश्चरितं पार्वतीपतेः।47।
इस प्रकार दिव्यदेहधारी होकर श्रीमान बिन्दुग अपनी प्राणबल्लभा चञ्चुला के साथ स्वयं भी पार्वती बल्लभ भगवान शिव का गुणगान करने लगा।47।
तद्वधूमिति सन्दृष्ट्वा सर्वे देवर्षयश्च ते।
बभूवुर्विस्मिताश्चित्ते परमानन्दसंयुताः।48।
उसकी स्त्री को इस प्रकार दिव्य रूप से सुशोभित देख वे सभी देवर्षि बड़े विस्मित हुए। उनका चित्त परमानन्द से परिपूर्ण हो गया।48।
सुकृतार्था महेशस्य श्रुत्वा चरितमद्भुतम्।
स्वं स्वं धाम ययुः प्रीत्या शंसन्तः शांकरंं यशः।49।
भगवान महेश्वर का वह अद्भुत चरित्र सुनकर वे सभी श्रोता परम कृतार्थ हो प्रेमपूर्वक श्रीशिव का यशोगान करते हुए अपने अपने धाम को चले गए।49।
बिन्दुगः सोऽपि दिव्यात्मासुविमानस्थितः सुखी।
स्वकान्तापार्श्वगः श्रीमाञ्छुशुभेऽतीव खस्थितः।50।
दिव्य रूपधारी श्रीमान बिन्दुग भी सुंदर विमान पर अपनी प्रियतमा के पास बैठकर सुखपूर्वक आकाश में स्थित हो बड़ी शोभा पाने लगा।50।
अथ गायन महेशस्य सुगुणान् सुमनोहरान्।
सतुम्बुरूर्जगामाशु सकान्तः शांकरं पदम्।51।
तदनंतर महेश्वर के सुंदर एवं मनोहर गुणों का गान करता हुआ वह अपनी प्रियतमा तथा  तुम्बुरु के साथ शीघ्र ही शिवधाम में जा पहुंचा।51।
सुसत्कृतो महेशेन पार्वत्या च स बिन्दुगः।
स्वगणश्च कृतः प्रीत्या साभवद्गिरिजासखी।52।
वहां भगवान महेश्वर तथा पार्वती देवी ने प्रसन्नतापूर्वक बिन्दुग का बड़ा सत्कार किया और उसे अपना पार्षद बना लिया उसकी पत्नी चञ्चुला पार्वती जी की सखी हो गयी।52।
तस्मिँल्लोके परानन्दे घनज्योतिषिशाश्वते।
लव्ध्वा निवासमचलं लभेते परमं सुखम्।53।
उस घनीभूत ज्योतिःस्वरूप परमानन्दमय सनातनधाम में अवविचल निवास पाकर वे दोनों दम्पति परम सुखी हो गए।53।

इति श्रीस्कान्दे महापुराणे शिवपुराण माहात्म्ये बिन्दुगसद्गतिवर्णनं नाम पंचमो अध्यायः।।5।।

ॐ जय बाबा की ॐ || बाबा चरणदास || 

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