ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ षष्ठोऽध्यायः
नन्दिकेश्वर उवाच
पुरा कदाचिद्योगीन्द्र विष्णुर्विषधरासनः।
सुष्वाप परया भूत्या स्वानुगैरपि संवृतः।1।
नंदिकेश्वर जी बोले---
हे योगीन्द्र! पहले एक समय अपने गरुणादि पार्षदों से संयुक्त भगवान विष्णु जी लक्ष्मी सहित शेषशय्या पर शयन करते थे।1।
यदृच्छयागतस्तत्र ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः।
अपृच्छत् पुण्डरीकाक्षंं शयानं सर्वसुन्दरम्।2।
उस समय ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ ब्रह्मा जी अपनी इच्छा से ही वहाँ आये। सर्व प्रकार सुन्दर सेज पर शयन करते हुए कमल लोचन विष्णुजी से पूछने लगे।2।
कस्त्वं पुरूषवच्छेषे दृ्ष्ट्वा मामपिदृप्तवत्।
उत्तिष्ठ वत्स मां पश्य तव नाथमिहागतम्।3।
तुम कौन हो, जो मुझे देखकर अभिमानी पुरुष के समान शयन करते हो? हे वत्स? उठो, देखो मैं तुम्हारा स्वामी आया हूँ।3।
आगतं गुरूमाराध्यमं दृ्ष्ट्वायो दृप्तवच्चरेत।
द्रोहिणस्तस्य मूढस्य प्रायश्चित्तं विधीयते।4।
आये हुए गुरु को देखकर जो अभिमान करता है, इस द्रोही मूढ़ का प्रायश्चित होना उचित है।
इति श्रुत्वा वचः क्रुद्धो बहिः शान्तवदाचरन्।
स्वस्ति ते स्वागतमं वत्स तिष्ठ पीठमितो विश।5।
यह सुनकर विष्णु जी के अन्तर में क्रोध तो हुआ, परंतु बाहर से शान्त रहे और बोले, वत्स! आपका मंगल हो। बैठिये, इस आसन पर विराजिये।5।
किमु ते व्यग्र वद्वक्त्रं विभाति विषमेक्षणम्।
ब्रह्मोवाच
वत्स विष्णो महामानमागतं कालवेगतः।6।
इस समय आपका नेत्र कुटिल और मुख वक्र क्यों हो रहा है?
ब्रह्माजी बोले ---हे वत्स विष्णु! तुमको समय के प्रभाव से अभिमान है।6।
पितामहश्च जगतः पाता च तव वत्सक।
विष्णुरुवाच
मत्स्थं जगदिदं वत्स मनुषे त्वं हि चोरवत्।7।
हे पुत्र! मैं आपका रक्षक और जगत का पितामह हूँ।
विष्णु जी बोले--यह तो सब जगत मुझमें स्थित है, फिर आप चोर के समान किस प्रकार अपना कहते हो।7।
मन्नाभिकमलाज्जातः पुत्रस्त्वं भाषसे वृथा।
नन्दिकेश्वर उवाच
एवं हि वदतोस्तत्र मुग्धयोरजयोस्तदा।8।
आप मेरी नाभिकमल से उत्पन्न हुए हो, इस कारण मेरे पुत्र हो, आपका मुझे पुत्र कहना वृथा है।
नंदिकेश्वर जी बोले---इस प्रकार ब्रह्मा तथा विष्णुजी दोनों ही रजोगुण से मुग्ध होकर विवाद करने लगे।8।
अहमेव वरोन त्वमहं प्रभुरहं प्रभुः।
परस्परं हन्तुकामो चक्रतुः समरोद्यमम्।9।
मैं श्रेष्ठ हूँ, मैं स्वामी हूँ, ऐसा कहकर एक दूसरे को मारने की इच्छा से युद्ध करने में उत्सुक हुए।9।
युयुधातेऽमरौ वीरौ हंसपक्षन्द्रवाहनौ।
वैरञ्च्या वैष्णवाश्चैवं मिथो युयुधिरे तदा।10।
और अपने हंस और गरुण वाहन पर स्थित होकर वे दोनों देव युद्ध करने में लगे। तब ब्रह्मा और विष्णु जी के वाहन गण भी युद्ध करने लगे।10।
तावद्विमानगतयः सर्वां वै देवजातयः।
दिदृक्षवः समाजग्मुः समरं तं महाद्भूतम्।11।
तब सर्व देवता विमानों में बैठकर उस महाद्भूत युद्ध को देखने चले आये।11।
क्षिपन्तः पुष्पवर्षाणि पशयन्तः स्वैरमुम्बरे।
सुपर्णवाहनस्तत्र क्रुद्धो वै ब्रह्मवक्षसि।12।
मुमोच बाणानसहानस्त्रांश्च विविधान बहून्।
मुमोचाथ विधिः क्रुद्धो विष्णोरुरसि दुःसहान्।13।
बाणाननलसंकाशानस्त्रांश्च बहुशस्तदा।
तदाश्चर्यमिति स्पष्टे तयोः समरगोचरम्। 14।
और आकाश से उनके ऊपर फूल वर्षाने लगे तब विष्णुजी ने क्रोध कर ब्रह्मा जी की छाती में अनेक प्रकार के बाण और अस्त्र मारे और ब्रह्माजी ने भी महा क्रोध कर विष्णु जी के हृदय में अग्नि के समान दुःसह बाण और अनेक शस्त्र मारे। उस युद्ध में यह बड़े आश्चर्य का व्यापार होने लगा।12-13-14।
समीक्ष्य दैवतगणाः शशंसूर्भँशमाकुलाः।
ततो विष्णुः सुसंक्रुद्धः श्वसन् व्यसनकर्शितः।15।
माहेश्वरास्त्रं मतिमान् सन्दधे ब्रह्मणोपरि।
ततो ब्रह्मा भर्शं क्रुद्धः कम्पयन् विश्वमेव हि।16।
अस्त्रं पाशुपतं घोरं सन्दधे विष्णु वक्षसिः।
ततस्तदुत्थितं वयोम्नि तपनायुतसन्निभम्।17।
और उनका युद्ध देखकर देवता अत्यंत व्याकुल होने लगे। तब विष्णुजी ने श्वास लेते हुए युद्ध से कुछ श्रांत होकर, क्रोध करके बुद्धिमानी से ब्रह्माजी के ऊपर माहेश्वर अस्त्र का प्रयोग किया तब ब्रह्माजी ने महाक्रोध कर विश्व को कम्पित करते हुए घोर पाशुपतास्त्र विष्णुजी की छाती पर चलाया, उस समय आकाश में दशसहस्त्र सूर्य के समान तेज उठा।15-16-17।
सहस्त्रमुखमत्युग्रं चण्डवात भयंकरम्।
अस्त्रद्वयमिदं तत्र ब्रह्मविष्णवोर्भयंकरम्18।
इत्थं बभूव समरं ब्रह्मविष्णवोः परस्परम्।
ततो देवगणाः सर्वे विष्ण्णा भृशमाकुलाः।
ऊचुः परस्परं तात राजक्षोभेयथाद्विजाः।19।
जिसके सहस्त्र मुख जो अति उग्र और तीक्ष्ण था। उस समय महा भयंकर तीक्ष्ण पवन चलने लगी।जब ब्रह्मा और विष्णु जी के दोनों भयंकर अस्त्र उदय हुए तब घोर उपद्रव हुए। जब इस प्रकार ब्रह्मा और विष्णु जी का परस्पर युद्ध हुआ, समस्त देवता अत्यंत व्याकुल और उद्विग्न हो गए।18--19।
सृष्टिः स्थितिश्च संहारस्तिरोभावोऽप्यनुग्रहः।
यस्मात् प्रवर्तते तस्मै ब्रह्मणे च त्रिशूलने।20।
अशयमन्यैर्यदनुग्रहं विना।
तृणक्षयोऽ प्यत्र यदृच्छया क्वचित।21।
हे तात जैसे राजक्षोभ में ब्राह्मण क्षुभित होते हैं, उसी प्रकार वे व्याकुल होकर बोले--- सृष्टि की स्थिति, तिरोभाव और अनुग्रह जिनसे होता है त्रिशूलधारी ब्रह्म के अनुग्रह के बिना, इच्छा से कोई भी एक तृण को भी नष्ट करने में समर्थ नहीं है।20--21।
इति देवा भयं कृत्वा विचिन्वन्तः शिवक्षयम्।
जग्युः कैलाश शिखां यत्रास्ते चन्द्रशेखरः।22।
इस प्रकार भयभीत होकर सर्व देवता शिवजी के स्थान की खोज करते करते कैलाश के शिखर पर शिवजी के पास गये ।22।
दृष्ट्वैवममरा हृष्टाः पदं तत्पारमेश्वरम्।
प्रणेमुः प्रणवाकारं प्रविष्टास्तत्र सद्मनि।23।
तेऽपि तत्र सभामध्ये मण्डपे मणिविष्टरे।
विराजमानमुमया ददृशुर्देवपुङ्गवम्।24।
देवता प्रसन्न हो उस परमेश्वरपद प्रणवाकार को देखकर प्रणाम करके स्थिति हुए और उस स्थान में प्रवेश करके उस सभा मंडल में मणि के विस्तर पर पार्वती सहित विराजमान देवश्रेष्ठ को देखा।23-24।
सव्योत्तरेतरपदं तदर्पितकराम्बुजम्।
स्वगणैः सर्वतो जुष्टं सर्वलक्षणलक्षितं।25।
वीज्यमानं विशेषज्ञैः स्त्रीजनैस्तीव्रभावनैः।
शंस्यामानं सदा वेदैरनुगृह्णन्तमीश्वरम्।26।
वाम पद के ऊपर दक्षिण पद रखे हुए शिवजी के निमित्त अपना करकमल अर्पण किये अपने गणों से सब प्रकार वेष्टित सम्पूर्ण लक्षणों से लक्षित महाभक्ति युक्त स्त्रीजन जो विशेष उपचार जानती थीं, वे पंखा कर रही थीं। वेद स्तुति करते थे और अनुग्रह की दृष्टि से सबको देखते थे। 25-26।
दृष्ट्वैवमीशममराः संतोषसलिलेक्षणाः।
दण्डवद् दूरतो वत्स नमश्चक्रुर्मणाः।27।
हे कुमार ! दूर से ही शिवजी का दर्शन करके संतोष का जल नेत्रों में भरे वह देवताओं का महा समूह दूर से नमस्कार करने लगा।27।
तानवेक्ष्य पतिर्देवान् समीपे चाह्वयद् गणै।
अथ संह्लादयन् देवान् देवो देवशिखामणिः।
अवोचदथ गम्भीरं वचनं मधुमङ्गलम्।28।
उन देवताओं को देखकर गणों द्वारा उन्हें बुलाकर देवदेव महादेव देवताओं को प्रसन्न करते हुए मधुर और मंगलयुक्त वचन गम्भीर वाणी से बोले।28।
इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां देवानां कैलाशयात्रावर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः।6।
🙏जय बाबा की🙏
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