Saturday, 18 September 2021

द्वितीयायां रुद्रसंहितायां* *द्वितीयः सतीखण्डः* *अथ द्वितीयोऽध्यायः*

 *ऊँ श्रीशिवमहापुराण ऊँ*                           

*द्वितीयायां रुद्रसंहितायां*

*द्वितीयः सतीखण्डः*

*अथ द्वितीयोऽध्यायः*


*सूत उवाच*

*इत्याकर्ण्य वचस्तस्य नैमिषारण्य वासिनः।*

*पप्रच्छ च मुनिश्रेष्ठः कथां पापप्रणाशिनीम्।।1।।*

*सूतजी बोले-हे नैमिषारण्य निवासी मुनियो! ब्रह्मा के इस वचन को सुनकर नारद ने पुनः पापों को नष्ट करने वाली कथा पूछी।।1।।*

*नारद उवाच*

*विधे विधे महाभाग कथां. शंभोः शुभावहाम्।*

*श्रृण्वन् भवन्मुखांभोजान्न तृप्तोऽस्मि महाप्रभो।।2।।*

*नारदजी बोले-हे विधे!हे विधे! हे महाभाग!हे महा प्रभो! आपके मुख कमल से कही जाने वाली कल्याण कारिणी कथा को सुनकर मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ।।2।।*

*अतः कथय तत्सर्वं शिवस्य चरितं शुभम्।*

*सतीकीर्त्यन्वितं दिव्यं श्रोतुमिच्छामि विश्वकृत्।।3।।*

*हे विश्वस्त्रष्टा! सती की कीर्ति से युक्त शिवजी के कल्याणमय तथा दिव्य उस सम्पूर्ण चरित्र को कहिये, मैं उसे सुनना चाहता हूँ।।3।।*

*सती हि कथमुत्पन्ना दक्षदारेषु शोभना।*

*कथं हरो मनश्चक्रे दाराहणकर्मणि।।4।।*

*दक्ष की अनेक पत्नियों में से शोभामयी सती किस प्रकार उत्पन्न हुईं और हर ने किस प्रकार स्त्री से विवाह करने का विचार किया।।4।।*

*कथं वा दक्षकोपेन त्यक्तदेहा सती पुरा।*

*हिमवत्तनया जाता भूयो वाकाशमागता।।5।।*

*पूर्व काल में सती ने दक्ष पर क्रोध से किस प्रकार अपने शरीर का त्याग किया? पुनः किस प्रकार हिमालय की कन्या पार्वती हुईं और किस प्रकार से प्रकाश में आयीं।।5।।*

*पार्वत्याश्च तपोऽत्युग्रं विवाहश्च  कथं त्वभूत्।*

*कथमर्धशरीरस्था बभूव स्मरनाशिनः।।6।।*

*पार्वती का कठोर तप तथा उनका विवाह किस प्रकार हुआ? फिर वे कामदेव का नाश करने वाले शिव की अर्धांगिनी कैसे हुईं।।6।।*

*एतत्सर्वं समाचक्ष्व विस्तरेण महामते।*

*नान्योऽस्ति संशयच्छेत्ता त्वत्समो न भविष्यति।।7।।*

*हे महामते! इन सब बातों को आप विस्तार के साथ कहिये, आप के समान संशयों को दूर करने वाला कोई दूसरा न तो है और न ही होगा।।7।।*

*ब्रह्मोवाच*

*श्रृणु त्वं च मुने सर्वं सतीशिवयशः शुभम्।*

*पावनं परमं दिव्यं गुह्याद् गुह्यतम्ं परम्।।8।।*

*एतच्छम्भुः पुरोवाच भक्तवर्याय विष्णवे।*

*पृष्टस्तेन महाभक्त्या परोपकृतये मुने।।9।।*

*ब्रह्माजी बोले- हे मुने!शिवकथा सती के परम पावन, दिव्य एवं गुह्य से गुह्यतम तथा परम कल्याणकारी चरित्र को सुनिये। हे मुने! पूर्वकाल में परोपकार के लिये विष्णु द्वारा महान भक्ति से पूछे जाने पर शिवजी ने भक्तवर विष्णु से इसका वर्णन किया था।।8-9।।*

*ततः सोऽपि मया पृष्टो विष्णुः शैववरः सुधीः।*

*प्रीत्या मह्यं समाचख्यौ विस्तरान्मुनिसत्तम।।10।।*

*अहं तत्कथयिष्यामि कथामेतां पुरातनीम्।*

*शिवाशिवयशोयुक्तां सर्वकामफलप्रदाम्।।11।।*

*हे मुनिश्रेष्ठ! उसके बाद मैंने भी यह कथा शिव भक्तों में श्रेष्ठ बुद्धिमान विष्णु से पूछी, तब उन्होंने प्रीतिपूर्वक विस्तार से मुझसे कहा था। मैं सभी कामनाओं का फल प्रदान करने वाली एवं शिव के यश से युक्त उस प्राचीन कथा को आपसे कहूँगा।।10-11।।*

*पुरा यदा शिवो देवो निर्गुण निर्विकल्पकः।*

*अरूपः शक्तिरहितश्चिन्मात्रः सदसत्परः।।12।।*

 *पहले भगवान शिव निर्गुण, निर्विकल्प, रूपहीन, शक्ति से रहित, चिन्मात्र एवं सत-असत से परे थे।।12।।*

*अभवत्सगुणः सोऽद्विरूपः शक्तिमान्प्रभुः।*

*सोमो दिव्याकृतिर्विप्र निर्विकारी परात्परः।।13।।*

*फिर हे विप्र! वे प्रभु सगुण, द्विरूप, शक्तिमान, उमा सहित दिव्य आकृति वाले, विकार रहित तथा परात्पर हो गये।।13।।*

*तस्य वामाङ्गजो विष्णुर्ब्रह्माहं दक्षिणाङ्गजः।*

*रुद्रो हृदयतो जातोऽभवच्च मुनिसत्तम।।14।।*

*सृष्टिकर्ताभवं ब्रह्मा विष्णुः पालनकारकः।*

*लयकर्ता स्वयं रुद्रस्त्रिधाभूतः सदाशिवः।।15।।*

*हे मुनिसत्तम! उनके वामांग से विष्णु, दक्षिणांग से मैं ब्रह्मा तथा हृदय से रुद्र की उत्पत्ति हुई। मैं ब्रह्मा सृष्टि करने वाला और विष्णु पालन करने वाले तथा रुद्र स्वयं लय करने वाले हुए। इस प्रकार सदाशिव के तीन रूप हुए।।14-15।।*

*तमेवाहं समाराध्य ब्रह्मा लोकपितामहः।*

*प्रजाः ससर्ज सर्वास्ताः सुरासुरनरादिकाः।।16।।*

*सृष्ट्वा प्रजापतीन् दक्षप्रमुखान्सुरसत्तमान।*

*अमन्यं सुप्रसन्नोऽहं निजं सर्वमहोन्नतम्।।17।।*

*लोक पितामह मुझ ब्रह्मा ने उन्हीं सदाशिव की आराधना कर देव, दैत्य,मनुष्य आदि  समस्त प्रजाओं की सृष्टि की। दक्ष आदि प्रमुख प्रजापतियों की तथा देवश्रेष्ठों की रचना कर मैं बड़ा ही प्रसन्न हुआ तथा अपने को सबसे महान समझने लगा।।16-17।।*

*मरीचिमत्रिं पुलहं पुलस्त्याङ्गिरसौ क्रतुम्।*

*वसिष्ठं नारदं दक्षं भृगुं चेति महाप्रभून।।18।।*

*ब्रह्माहं मानसान्पुत्रानसर्जं च यदा मुने।*

*तदा मन्मनसो जाता चारुरूपा वराङ्गना।।19।।*

*हे मुने! जिस समय मुझ ब्रह्मा ने मरीचि, अत्री, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वशिष्ठ, नारद, दक्ष एवं भृगु- इन महान प्रभुतासंपन्न मानस पुत्रों की सृष्टि की, उसी समय मेरे मन से एक सुन्दर रूपवाली से श्रेष्ठ युवती भी उत्पन्न हुई।।18-19।।*                  

*नाम्ना सन्ध्या दिवाक्षान्ता सायं संध्या जपन्तिका।*

*अतीव सुन्दरी सुभ्रूर्मुनिचेतोविमोहिनी।।20।।*

*वह सन्ध्या के नाम से प्रसिद्ध हुई, जो प्रातः सन्ध्या तथा सायं-सन्ध्या के रूप में क्रमशः दिवाक्षान्ता तथा जपन्तिका कही गयी। वह अत्यन्त सुन्दरी, सुन्दर भौहों वाली तथा मुनियों के मन को मोहित करने वाली थी।।20।।*

*न तादृशी देवलोके न मर्त्ये न रसातले।*

*कालत्रयेऽपि वै नारी सम्पूर्ण गुणशालिनी।।21।।*

 *सम्पूर्ण गुणों से युक्त वैसी स्त्री देवलोक, मृत्युलोक और पाताल लोक में न उत्पन्न हुई, ना है और न तो होगी। वह सम्पूर्ण गुणों से परिपूर्ण थी।।21।।*

*दृष्ट्वाहं तां समुत्थाय चिन्तयन् हृदि हृदगताम्।*

*दक्षादयश्च स्त्रष्टारो मरीच्याद्याश्च मत्सुताः।।22।।*

*एवं चिन्तयतो मे हि ब्रह्मणो मुनिसत्तम।*

*मानसः पुरुषो मञ्जुराविर्भूतो महाद्भुतः।।23।।*

 *उस कन्या को देखते ही उठ करके उसे हृदय में धारण करने के लिए मैं मन में सोचने लगा। दक्ष तथा मरीचि आदि लोकस्त्रष्टा मेरे पुत्र भी सोचने लगे। हे मुनिसत्तम! मैं ब्रह्मा अभी इस प्रकार सोच ही रहा था कि उसी समय एक अत्यन्त अद्भुत एवं मनोहर मानस पुरुष उत्पन्न हुआ।।22-23।।*

*काञ्चनीकृतजाताभः पीनोरस्कः सुनासिकः।*

*सुवृत्तोरुकटीजंघो नीलवेलितकेसरः।।24।।*

*लग्नभ्रूयुगलो लोलः पूर्णचन्द्रनिभाननः।*

*कपाटायतसद्वक्षो रोमराजीविराजितः।।25।।*

*अभ्रमातङ्गकाकारः पीनो नीलसुवासकः।*

*आरक्तपाणिनयनमुखपादकरोद्भवः।।26।।*

*हे तात! वह पुरुष तप्त स्वर्ण के समान कान्ति वाला, स्थूल वक्षःस्थल वाला, सुन्दर नासिका वाला, सुन्दर तथा गोल उरु-कमर जंघा वाला, काले तथा घुँघराले बालों वाला, आपस में मिली हुई भौहों वाला, पूर्ण चन्द्रमा के समान मुख वाला, कपाट के समान विस्तीर्ण छाती वाला, रोमराजि से सुशोभित,बादल पर्यंत ऊँचे गजराज के समान आकृति वाला, महास्थूल तथा नीलवर्ण का सुन्दर वस्त्र धारण किये, रक्त वर्ण के हाथ, नेत्र, मुख, और अँगुलियों वाला, पतली कमर वाला था।।24-25-26।।*                      

*क्षीणमध्यश्चारुदन्तः प्रमत्तगजगन्धनः।*

*प्रफुल्लपद्यपत्राक्षः केसरघ्राण तर्पणः।।27।।*

*कंबुग्रीवो मीनकेतुः प्रांशुर्मकरवाहनः।*

*पञ्चपुष्पायुधो वेगी पुष्पकोदंडमंडितः।।28।।*

*कान्तः कटाक्षपातेन भ्रामयन्नयनद्वयम्।*

*सुगन्धिमारुतो तात श्रृङ्गाररससेवितः।।29।।*

*वह सुन्दर दाँतों वाला, मतवाले हाथी की सी गन्ध वाला, खिले हुए कमल के पत्र सदृश नेत्रों वाला, अंगों पर लगे हुए केसर से नासिका को तृप्त करने वाला, शंख के समान गर्दन वाला, मछली के चिन्ह से अंकित ध्वजा वाला, अत्यन्त ऊँचा, मकर के वाहन वाला, पुष्पों के पाँच बाणों से युक्त, वेगवान, पुष्प धनुष से सुशोभित, कटाक्षपात से अपने नेत्रों को घुमाते हुए मनोहर प्रतीत होने वाला, सुगन्धित श्वास से युक्त और श्रंगार रस से सेवित था।।27-28-29।।*

*तं वीक्ष्य पुरुषं सर्वे दक्षाद्या मत्सुताश्च ते।*

*औत्सुक्यं परमं जग्मुर्विस्मयाविष्टमानसाः।।30।।*

*उस पुरुष को देखकर मेरे दक्ष आदि पुत्रों का मन आश्चर्य से भर गया और वे उसे जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक हो गये।।30।।*

*अभवद्विकृतं तेषां मत्सुतानां मनो द्रुतम्।*

*धैर्यं नैवालभत्तात कामाकुलितचेतसाम्।।31।।*

 *वासना से आकुल चित्त वाले मेरे उन पुत्रों का मन शीघ्र ही विकृत हो गया, हे तात! उन्हें थोड़ा भी धैर्य नहीं प्राप्त हुआ।।31।।*

*मां सोऽपि वेधसं वीक्ष्य स्त्रष्टारं जगतां पतिम्।*

*प्रणम्य पुरुषः प्राह विनयानतकन्धरः।।32।।*

 *वह पुरुष स्त्रष्टा तथा जगत्पति मुझ ब्रह्मा को देखकर विनय भाव से सिर झुका कर प्रणाम करके मुझसे कहने लगा।।32।।*       

*पुरुष उवाच*

*किं करिष्याम्यहं कर्म ब्रह्मंस्तत्र नियोजय।*

*मान्योऽद्य पुरुषो यस्मादुचितः शोभितो विधे।।33।।*

*पुरुष बोला- हे ब्रह्मन! मैं कौन सा कार्य करूँ? मुझे जो कर्म करणीय हो, उस कर्म में मुझे नियुक्त कीजिये। हे विधाता!आप मेरे मान्य पुरुष हैं, मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँ, यही उचित है तथा इसी से मेरी शोभा भी होगी।।33।।*

*अभिमानं च योग्यं च स्थानं पत्नी च या मम।*

*तन्मे वद त्रिलोकेश त्वं स्त्रष्टा जगतां पतिः।।34।।*

 *मेरे लिये जो अभिमान योग्य स्थान हो तथा जो मेरी पत्नी हो, उसे मुझे बताइये। हे त्रिलोकेश! आप जगत के पति हैं।।34।।*

*ब्रह्मोवाच*

*एवं तस्य वचः श्रुत्वा पुरुषस्य महात्मनः।*

*क्षणं न किंचित प्रोवाच स स्त्रष्टा चातिविस्मितः।।35।।*

 *ब्रह्माजी बोले- उस महात्मा पुरुष के इस वचन को सुनकर मैं ब्रह्मा अत्यन्त आश्चर्य चकित हो गया और थोड़ी देर तक कुछ नहीं बोला।।35।।*

*अतो मनः सुसंयम्य सम्यगुत्सृज्य विस्मयम्।*

*अवोचत्पुरुषं ब्रह्मा तत्कामं च समावहन्।।36।।*

*फिर मन को नियन्त्रित कर और आश्चर्य का परित्याग करके उस कामदेव को बताते हुए कहने लगा।।36।।*

*ब्रह्मोवाच*

*अनेन त्वं स्वरूपेण पुष्पबाणैश्च पञ्चभिः।*

*मोहयन् पुरुषान् स्त्रींश्च कुरु सृष्टिं सनातनीम्।।37।।*

*अस्मिञ्जीवाश्च देवाद्यास्त्रैलोक्ये सचराचरे।*

*एते सर्वे भविष्यन्ति न क्षमास्तव लंघने।।38।।*

 *ब्रह्माजी बोले- तुम अपने स्वरूप से और पुष्पों के पाँच बाणों से सभी स्त्री तथा पुरुषों को मोहित करते हुए सनातन सृष्टि की रचना करो। इस चराचर त्रिलोकी में जीव तथा देवता आदि कोई भी तुम्हारा लंघन करने में समर्थ नहीं होंगे।।37-38।।*

*अहं वा वासुदेवो वा स्थाणुर्वा पुरुषोत्तम।*

*भविष्यामस्तव वशे किमन्ये प्राणधारकाः।।39।।*

*हे पुरुषोत्तम! मैं वासुदेव अथवा शंकर भी तुम्हारे बस में रहेंगे, अन्य प्राणधारियों की तो बात ही क्या?।।39।।*

*प्रच्छन्नरूपो जन्तूनां प्रविशन् हृदयं सदा।*

*सुखहेतुः स्वयं भूत्वा सृष्टिं कुरु सनातनीम्।।40।।*

*तुम गुप्त रूप से प्राणियों के हृदय में प्रवेश करते हुए स्वयं सबके सुख के कारण बनकर सनातन सृष्टि करो।।40।।*

*त्वत्पुष्पबाणस्य सदा सुखलक्ष्यं मनोऽद्भुतम्।*

*सर्वेषां प्राणिनां नित्यं सदा मदकरो भवान्।।41।।*

 *समस्त प्राणियों का विचित्र मन तुम्हारे पुष्पबाणों का सुखपूर्वक भेदने योग्य लक्ष्य होगा, तुम सभी को सदा उन्मत्त करने वाले होगे।।41।।*

*इति ते कर्म कथितं सृष्टिप्रावर्तकं पुनः।*

*नामान्येते वदिष्यन्ति सुता। मे तव तत्त्वतः।।42।।*

*मैंने सृष्टि में प्रवृत्त करने वाला यह तुम्हारा कर्म कह दिया। ये मेरे पुत्र तत्त्व पूर्वक तुम्हारे नामों का वर्णन करेंगे।।42।।*

*ब्रह्मोवाच*

*इत्युक्त्वाहं सुरश्रेष्ठ स्वसुतानां मुखानि च।*

*आलोक्य स्वासने पाद्मे प्रोपविष्टोऽभवं क्षणम्।।43।।*

 *ब्रह्माजी बोले- हे सुरश्रेष्ठ! ऐसा कहकर अपने पुत्रों के मुख की ओर देखकर क्षणभर के लिए मैं अपने पद्मासन पर बैठ गया।।43।।*

*इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये सतीखण्डे कामप्रादुर्भावो नाम द्वितीयोऽध्यायः।।2।।*


*🙏🏿जय बाबा की🙏🏿*

*बाबाचरण दास*

Thursday, 16 September 2021

द्वितीयायां रुद्रसंहितायां - प्रथमः सृष्टिखणडः - अथ प्रथमोऽध्यायः

ऊँ श्रीशिवमहापुराण ऊँ  द्वितीयायां रुद्रसंहितायां                           
प्रथमः सृष्टिखणडः
अथ प्रथमोऽध्यायः  

विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेकं गौरीपतिं विदिततत्त्वमनन्तकीर्तिम्।
मायाश्रयं विगतमायमचिन्त्यरूपं बोधस्वरूपममलं हि शिवं नमामि।।1।।

जो विश्व की उत्पत्ति- स्थिति और लय आदि के एकमात्र कारण हैं, गिरिराज कुमारी उमा के पति हैं, तत्त्वज्ञ हैं, जिनकी कीर्ति का कहीं अन्त नहीं है, जो माया के आश्रय  होकर भी उससे अत्यन्त दूर हैं, जिनका स्वरूप अचिन्त्य है, जो बोध स्वरूप हैं तथा निर्विकार हैं, उन भगवान शिव को मैं प्रणाम करता हूंँ।।1।।

वन्दे शिवं तं प्रकृतेरनादिं प्रशान्तमेकं पुरुषोत्तमं हि।
स्वमायया कृत्स्नमिदं हि सृष्ट्वा नभोवदन्तर्बहिरास्थितो यः।।2।।

मैं स्वभाव से ही उन अनादि, शान्तस्वरूप पुरुषोत्तम शिव की वन्दना करता हूंँ, जो अपनी माया से इस सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करके आकाश की भाँति इसके भीतर और बाहर भी स्थित हैं।।2।।

वन्देऽन्तरस्थं निजगूढरूपं शिवं स्वतः स्त्रष्टुमिदं विचष्टे।
जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवत्तम्।।3।।

 जैसे लोहा चुम्बक से आकृष्ट होकर उसके पास ही लटका रहता है, उसी प्रकार ये सारे जगत सदा सब ओर जिसके आस पास ही भ्रमण करते हैं, जिन्होंने अपने से ही इस प्रपंच को रचने की विधि बतायी थी, जो सबके भीतर अन्तर्यामी रूप से विराजमान हैं तथा जिनका अपना स्वरूप अत्यन्त गूढ़ है, उन भगवान शिव की में सादर वन्दना करता हूँ।।3।।

व्यास उवाच-

जगतः पितरं शम्भुं जगतो मातरं शिवाम्।
तत्पुत्रञ्च गणाधीशं नत्वैतद्वर्णयामहे।।4।।

व्यास जी बोले- जगत के पिता भगवान शिव, जगन्माता कल्याणमयी पार्वती तथा उनके पुत्र गणेश जी को नमस्कार करके हम इस पुराण का वर्णन करते हैं।।4।।

एकदा मुनयः सर्वे नैमिषारण्य वासिनः।
पप्रच्छुर्वरया भक्त्या सूतं ते शौनकादयः।।5।।

एक समय की बात है, नैमिषारण्य में निवास करने वाले शौनक आदि सभी मुनियों ने उत्तम भक्ति भाव के साथ सूतजी से पूछा।।5।।

ऋषयः ऊचुः

विद्येश्वर संहितायाः श्रुता सा सत्कथा शुभा।
साध्य साधन खण्डाख्या रम्याद्या भक्तवत्सला।।6।।

 ऋषिगण बोले- हे सूतजी विद्येश्वर संहिता की जो साध्य- साधन खण्ड नाम वाली शुभ तथा उत्तम कथा है, उसे हम लोगों ने सुन लिया। उसका आदि भाग बहुत ही रमणीय है तथा वह शिव भक्तों पर भगवान शिव का वात्सल्य स्नेह प्रकट करने वाली है।।6।।

सूत सूत महाभाग चिरञ्जीव सुखी भव।
यच्छ्रावयसि नस्तात शान्करीं परमां कथाम्।।7।।
पिबन्तस्त्वन्मुखाम्भोजच्युतं ज्ञानामृतं वयम्।
अवितृप्तिः पुनः कञ्चित्प्रष्टुमिच्छामहेऽनघ।।8।।

हे महाभाग सूतजी! हे तात! आप हम लोगों को सदा शिव भगवान शंकर की उत्तम कथा का श्रवण करा रहे हैं, अतएव आप चिरकाल तक जीवित रहें और सदा सुखी रहें। आपके मुख कमल से निकल रहे ज्ञानामृत का पूर्ण रूप से पान करते हुए भी हमलोग तृप्त नहीं हो पा रहे हैं, इसलिए हे अनघ (पुण्यात्मा) हम सब पुनः कुछ पूछना चाहते हैं।।7-8।।

व्यासप्रसादात्सर्वज्ञो प्राप्तोऽसि कृतकृत्यताम्।
नाज्ञातं विद्यते किञ्चिद्भूतं भव्यं भवच्च यत्।।9।।

 भगवान व्यास की कृपा से आप सर्वज्ञ एवं कृतकृत्य हैं। आपके लिए भूत, भविष्य और वर्तमान का कुछ भी अज्ञात नहीं है अर्थात सब कुछ आपको ज्ञात है।।9।।

गुरोर्व्यासस्य सद्भक्त्या समासाद्य कृपा पराम्।
सर्वं ज्ञातं विशेषेण सर्वं सार्थं कृतं जनुः।।10।।

अपनी सद्भक्ति के द्वारा गुरु व्यास जी से परमकृपा को प्राप्त कर आप विशेष रूप से सब कुछ जान गये हैं और अपने सम्पूर्ण जीवन को भी कृतार्थ कर लिया है।।10।।

इदानीं कथय प्राज्ञ शिवरूपमनुत्तमम्।
दिव्यानि वै चरित्राणि शिवयोरप्यशेषतः।।11।।

 हे विद्वन! अब आप भगवान शिव के परम उत्तम स्वरूप का वर्णन कीजिये। साथ ही शिव और पार्वती के दिव्य चरित्रों का पूर्ण रूप से श्रवण कराइये।।11।।

अगुणो गुणतां याति कथं लोके महेश्वरः।
शिवतत्त्वं वयं सर्वे न जानीमो विचारतः।।12।।

 निर्गुण महेश्वर लोक में सगुण रूप कैसे धारण करते हैं ? हम सब लोग विचार करने पर भी शिव के तत्व को नहीं समझ पाते।।12।।

सृष्टेः पूर्वं कथं शम्भुः स्वरूपेणावतिष्ठते।
सृष्टिमध्ये स हि कथं क्रीडन्संवर्तते प्रभुः।।13।।

तदन्ते च कथं देवः स तिष्ठति महेश्वरः।
कथं प्रसन्नता याति शंकरो लोकशंकरः।।14।।

सृष्टि के पूर्व में भगवान शिव किस प्रकार अपने स्वरूप से स्थित होते हैं, पुनः सृष्टि के मध्य काल में वे भगवान किस तरह क्रीड़ा करते हुए सम्यक् व्यवहार करते हैं। सृष्टिकल्प का अन्त होने पर वे महेश्वरदेव किस रूप में स्थित रहते हैं? लोक कल्याणकारी शंकर कैसे प्रसन्न होते हैं।।13-14।।
 
स प्रसन्नो महेशानः किं प्रयच्छति सत्फलम्।
स्वभक्तेभ्यः परेभ्यश्च तत्सर्वं कथयस्व नः।।15।।

सद्यः प्रसन्नो भगवान्भवतीत्यनुशुश्रुम।
भक्तप्रयासं स महान्न पश्यति दयापरः।।16।।

प्रसन्न हुए महेश्वर अपने भक्तों तथा दूसरों को कौन सा उत्तम फल प्रदान करते हैं? यह सब हमसे कहिये। हमने सुना है कि भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। वे महान दयालु हैं, इसलिए वे अपने भक्तों का कष्ट नहीं देख सकते।।15-16।।

  ब्रह्मा विष्णुर्महेशश्च त्रयो देवाः शिवाङ्गजाः।
महेशस्तत्र पूर्णांशः स्वयमेव शिवोऽपरः।।17।।

तस्याविर्भावमाख्याहि चरितानि विशेषतः।
उमाविर्भावमाख्याहि तद्विवाहं  तथा प्रभो।।18।।
तद्गार्हस्थ्यं विशेषेण तथा लीलाः परा अपि।
एतत्सर्वं तदन्यच्च कथनीयं त्वयानघ।।19।।

ब्रह्मा विष्णु और महेश-ये तीनों देवता शिव के ही अंग से उत्पन्न हुए हैं। इनमें महेश तो पूर्णांश हैं, वे स्वयं ही दूसरे शिव हैं। आप उनके प्राकट्य की कथा तथा उनके विशेष चरित्रों का वर्णन कीजिये। हे प्रभो!आप उमा के आविर्भाव और उनके विवाह की भी कथा कहिये। विशेषतः उनके गार्हस्थ्य धर्म का और अन्य लीलाओं का भी वर्णन कीजिये। निष्पाप सूतजी! ये सब तथा अन्य बातें भी आप बतायें।।17-19।।

व्यास उवाच

इति पृष्टस्तदा तैस्तु सूतो हर्षसमन्वितः।
स्मृत्वा शम्भुपदाम्भोजं प्रत्युवाच मुनीश्वरान्।।20।।

व्यास जी बोले - उनके ऐसा पूछने पर सूत जी प्रसन्न हो उठे और भगवान शंकर के चरण कमलों का स्मरण करके मुनीश्वरों से कहने लगे।।20।।
 
  सूत उवाच

सम्यक् पृष्टं भवद्भिश्च धन्या यूयं मुनीश्वराः।
सदाशिवकथायां वो यज्जाता नैष्ठिकी मतिः।।21।।
सदाशिवकथाप्रश्नः पुरुषांस्त्रीन्पुनाति हि।
वक्तारं पृच्छकं श्रोतॄञ्जाह्नवीसलिलं यथा।।22।।

सूतजी बोले-हे मुनीश्वरो! आप लोगों ने बड़ी उत्तम बात पूछी है। आप लोग धन्य हैं, जो कि भगवान सदाशिव की कथा में आप लोगों की आन्तरिक निष्ठा हुई है। सदाशिव से सम्बन्धित कथा वक्ता, पूछने वाले और सुनने वाले- इन तीनों प्रकार के पुरुषों को गंगा जी के समान पवित्र करती है।।21-22।।

शम्भोर्गुणानुवादात्को विरज्येत पुमान्द्विजाः।
विना पशुघ्नं त्रिविधजनानन्दकरात्सदा।।23।।

गीयमानो वितृष्णैश्च भवरोगौषधोऽपि हि।
मनः श्रोत्राभिरामश्च यतः सर्वार्थदः स वै।।24।।

हे द्विजो! पशुओं की हिंसा करने वाले निष्ठुर कसाई के सिवा दूसरा कौन पुरुष तीनों प्रकार के लोगों को सदा आनन्द देने वाले शिव गुणानुवाद को  सुनने से ऊब सकता है। जिनके मन में कोई तृष्णा नहीं है, ऐसे महात्मा पुरुष भगवान शिव के उन गुणों का गान करते हैं, क्योंकि वह संसार रूपी रोग की दवा है, मन तथा कानों को प्रिय लगने वाला है और सम्पूर्ण मनोरथों को देने वाला है।।23-24।।

 कथयामि यथाबुद्धि भवत्प्रश्नानुसारतः।
शिवलीलां प्रयत्नेन द्विजास्तां श्रृणुतादरात्।।25।।

हे ब्राह्मणो! आप लोगों के प्रश्न के अनुसार मैं यथाबुद्धि शिव लीला का वर्णन करता हूंँ, आप लोग आदर पूर्वक सुनें।।25।।

भवद्भिः पृच्छ्यते यद्वत्तत्तथा नारदेन वै।
पृष्टं पित्रे प्रेरितेन हरिणा शिवरूपिणा।।26।।

ब्रह्मा श्रुत्वा सुतवचः शिवभक्तः प्रसन्नधीः।
जगौ शिवयशः प्रीत्या हर्षयन्मुनिसत्तमम्।।27।।

जैसे आप लोग पूछ रहे हैं, उसी प्रकार नारदजी ने शिव रूपी भगवान विष्णु से प्रेरित होकर अपने पिता ब्रह्मा जी से पूछा था। अपने पुत्र नारद का प्रश्न सुनकर शिवभक्त ब्रह्मा जी का चित्त प्रसन्न हो गया और वे उन मुनिश्रेष्ठ को हर्ष प्रदान करते हुए प्रेमपूर्वक भगवान शिव के यश का गान करने लगे।।26-27।।
व्यास उवाच

सूतोक्तमिति तद्वाक्यमाकर्ण्य द्विजसत्तमाः।
पप्रच्छुस्तत्सुसंवादं कुतूहलसमन्विताः।।28।।

 व्यास जी वोले-  सूत जी के द्वारा कथित उस वचन को सुनकर सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण आश्चर्यचकित हो उठे और उन लोगों ने उस विषय को उनसे पूछा।।28।।
                     
 ऋषय ऊचुः

सूत सूत महाभाग शैवोत्तम महामते।
श्रुत्वा तव वचो रम्यं चेतो नः सकुतूहलम्।।29।।

ऋषिगण बोले - हे सूतजी!हे महाभाग! हे शिव भक्तों में श्रेष्ठ! हे महामते! आपके सुंदर वचन को सुनकर हमारे हृदय में कौतूहल हो रहा है।।29।।
 
कदा बभूव सुखकृद्विधिनारदयोर्महान।
संवादो यत्र गिरिशसुशीला भवमोचनी।।30।।

ब्रह्मा और नारद को यह महान सुख देने वाला संवाद कब हुआ था, जिसमें संसार से मुक्ति प्रदान करने वाली शिव लीला वर्णित है।।30।।

विधिनारदसंवादपूर्वकं शांकरं यशः।
ब्रूहि नस्तात तत्प्रीत्या तत्तत्प्रश्नानुसारतः।।31।।

हे तात! प्रेमपूर्वक नारद के द्वारा पूछे गये उन-उन प्रश्नों के अनुसार भगवान शंकर के यश का गुणानुवाद करने वाले ब्रह्मा और नारद के संवाद का वर्णन करें।।31।।

इत्याकर्ण्य वचस्तेषां मुनीनां भावितात्मनाम्।
सूतः प्रोवाच सुप्रीतस्तत्संवादानुसारतः।।32।।

आत्मज्ञानी उन मुनियों के ऐसे वचन सुनकर प्रसन्न हुए सूतजी उस ब्रह्मा-नारद संवाद के अनुसार (कही गयी शिव कथा को) कहने लगे।।32।।

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखण्डे सृष्ट्युपाख्याने मुनिप्रश्नवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः।।1।।

जय बाबा की
बाबाचरण दास

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ पञ्चविंशोऽध्यायः

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ पञ्चविंशोऽध्यायः

शौनकर्षे महाप्राज्ञ शिवरूप महामते।

श्रृणु रुद्राक्ष माहात्म्यं समासात् कथयाम्यहम्।।1।।

शिवप्रियतमो ज्ञूयो रुद्राक्षः परपावनः।

दर्शनात् स्पर्शनाज्जाप्यात् सर्वपापहरः स्मृतः।।2।।

पुरा रुद्राक्ष महिमा देव्यग्रे कथितो मुने।

लोकोपकरणार्थाय शिवेन परमात्मना।।3।।

 सूत जी कहते हैं - महाप्रज्ञ! महामते ! शिवस्वरूप शौनक ! अब में संक्षेप से रुद्राक्ष का माहात्म्य बता रहा हूंँ, सुनो, रुद्राक्ष शिव को बहुत ही प्रिय है। इसे परम पावन समझना चाहिये। रुद्राक्ष के दर्शन से, स्पर्श से, तथा उस पर जप करने से वह समस्त पापों का अपहरण करने वाला माना गया है। मुने ! पूर्वकाल में परमात्मा शिव ने समस्त लोकों का उपकार करने के लिए देवी पार्वती के सामने रुद्राक्ष की महिमा का वर्णन किया था।।1-2-3।।

श्रूयतां तु महेशानि रुद्राक्ष महिमा शिवे।
कथयामि तव प्रीत्या भक्तानां हितकाम्यया।।4।।
दिव्यवर्षसहस्त्राणि महेशानि पुनः पुरा।
तपः प्रकुर्वतस्त्रस्तं मनः संयम्य वै मम।।5।।

भगवान शिव बोले- महेश्वरि शिवे! मैं तुम्हारे प्रेमवस भक्तों के हित की कामना से रुद्राक्ष की महिमा का वर्णन करता हूंँ, सुनो। महेशानि पूर्वकाल की बात है, मैं मन को संयम में रखकर हजारों दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या में लगा रहा।।4-5।।


स्वतन्त्रेण परेशेन लोकोपकृतिकारिणा।

लीलया परमेशानि  चक्षुरुन्मीलितं मया।।6।।

पुटाभ्यां चारुचक्षुर्भ्यां पतिता जलबिन्दवः।

तत्राश्रुबिन्दुतो जाता वृक्षा रुद्राक्षसंज्ञकाः।।7।।

 एक दिन सहसा मेरा मन क्षुब्ध हो उठा। परमेश्वरी मैं सम्पूर्ण लोकों का उपकार करने वाला स्वतन्त्र परमेश्वर हूंँ। अतः उस समय मैंने लीलावश ही अपने दोनों नेत्र खोले, खोलते ही मेरे मनोहर नेत्रपुटों से कुछ जल की बूंदें गिरीं। आंँसू की उन बूँदों से वहां रुद्राक्ष नामक वृक्ष पैदा हो गया।।6-7।।


स्थावरत्वमनुप्राप्य भक्तानुग्रहकारणात।

ते दत्ता विष्णुभक्तेभ्यश्चतुर्वर्णेभ्य एव च।।8।।

भूमौ गौडोद्भवांश्चक्रे रुद्राक्षाञ्छिववल्लभान्।

मथुरायामयोध्यायां लंकायां मलये तथा।।9।।

सह्याद्रौ च तथा काश्यां देशेष्वन्येषु वा तथा।

परानसह्यपापौघभेदनाञ्छ्रुतिनोदनान्।।10।।

ब्राह्मणाः  क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा जाता ममाज्ञया।

रुद्राक्षास्ते पृथिव्यां तु तज्जातीयाः शुभाक्षकाः।।11

भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए वे अश्रुबिन्दु स्थावर भाव को प्राप्त हो गये। वे रुद्राक्ष मैंने विष्णु भक्त को तथा चारों वर्णों के लोगों को बांट दिये। भूतल पर अपने प्रिय रुद्राक्षों को मैंने गौड़ देश में उत्पन्न किया। मथुरा, अयोध्या, लंका, मलयाचल, सह्ययगिरि, काशी तथा अन्य देशों में भी उनके अंकुर उगाये। वे उत्तम रुद्राक्ष असह्य पापसमूहों का भेदन करने वाले तथा श्रुतियों के भी प्रेरक हैं। मेरी आज्ञा से वे ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र जाति के भेद से इस भूतल पर प्रकट हुए।।8-9-10-11।।

श्वैतरक्ता: पीतकृष्णा वर्णा ज्ञेया: क्रमाद् बुधै:।

स्वजातीय नृभिर्धार्यं रुद्राक्षं वर्णत: क्रमात्।।12।।

उन ब्राह्मणादि जाति वाले रुद्राक्षों के वर्ण श्वेत, रक्त, पीत तथा कृष्ण जानने चाहिये। मनुष्यों को चाहिये कि वे क्रमशः वर्ण के अनुसार अपनी जाति का ही रुद्राक्ष धारण करें।।12।।

वर्णेस्तु तत्फलं धार्यं भुक्ति मुक्ति फलेप्सुभि:।

शिवभक्तैर्विशेषेण शिवयो: प्रीतये सदा।।13।।

भोग और मोक्ष की इच्छा रखने वाले चारों वर्णों के लोगों और विशेषतः शिव भक्तों को शिव पार्वती की प्रसन्नता के लिए रुद्राक्ष के फलों को अवश्य धारण करना चाहिये।।13।।

धात्रीफलप्रमाणं यच्छेष्ठमेतदुदाहृतम्।

बदरीफलमात्रं तु मध्यम सम्प्रकीर्तितम्।।14।।

अधमं चणमात्रं स्यात् प्रक्रियैषा परोच्यते।

श्रृणु पार्वति सुप्रीत्या भक्तानां हितकाम्यया।।15।।

 आंवले के फल के बराबर जो रुद्राक्ष हो, वह श्रेष्ठ बताया गया है, जो बेर के फल के बराबर हो, उसे मध्यम श्रेणी का कहा गया है। जो चने के बराबर हो, उसकी गणना निम्न कोट में की गयी है। हे पार्वती! अब इसकी उत्तमता को परखने की यह दूसरी प्रक्रिया भक्तों की हित कामना से बताई जाती है। अतः आप भली-भांति प्रेम पूर्वक इस विषय को सुनिये।।14-15।।

बदरीफलमात्रं च  यत् स्यात् किल महेश्वरि।

तथापि फलदं लोके सुखसौभाग्यवर्धनम्।।16।।

हे महेश्वरि! जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह उतना छोटा होने पर भी लोक में उत्तम फल देने वाला तथा सुख सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है।।16।।

धात्रीफलसमं यत् स्यात् सर्वारिष्टविनाशनम्।

गुञ्जया सदृशं च  यत् स्यात् सर्वार्थफलसाधनम्।।17।।

 जो रुद्राक्ष आंवले के फल के बराबर होता है वह समस्त अरिष्टों का विनाश करने वाला होता है तथा जो गुंजाफल के समान बहुत छोटा होता है, वह सम्पूर्ण मनोरथों और फलों की सिद्धि करने वाला होता है।।17।।

यथा यथा लघुः स्याद्वै तथाधिकफलप्रदः।

एकैकतः फलं प्रोक्तं दशांशैरधिकं बुधैः।।18।।

रुद्राक्ष जैसे-जैसे छोटा होता है, वैसे वैसे अधिक फल देने वाला होता है। एक छोटे रुद्राक्ष को विद्वानों ने  एक बड़े रुद्राक्ष से दस  गुना अधिक फल देने वाला बताया है।।18।। 

रुद्राक्ष धारणं प्रोक्तं पापनाशनहेतवे।

तस्माच्च धारणीयो वै सर्वार्थ साधनो ध्रुवम्।।19।।

पापों का नाश करने के लिए रुद्राक्ष धारण आवश्यक बताया गया है।  वह निश्चय ही सम्पूर्ण अभीष्ट मनोरथों का साधक है। अतः उसे अवश्य ही धारण करना चाहिये।।19।।

यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्षः फलदः शुभः।

न तथा दृश्यतेऽन्या च। मालिका परमेश्वरि।।20।।

हे परमेश्वरि! लोक में  रुद्राक्ष जैसा मंगलमय फल देने वाला देखा जाता है, वैसे ही फलदायिनी दूसरी कोई माला नहीं दिखाई देती है।।20।।

समाः स्निग्धाः दृढाः स्थूलाः कण्टकैः संयुताः शुभाः।

रुद्राक्षाः कामदा देवि भुक्ति मुक्ति प्रदाः सदा।।21।।

हे देवि! समान आकार प्रकार वाले चिकने, सुद्रढ़, स्थूल, कण्टक युक्त, उभरे हुए छोटे दानों वाले और सुन्दर रुद्राक्ष अभिलाषित पदार्थों के दाता सदा सदैव भोग और मोक्ष देने वाले हैं।।21।।

कृमिदुष्टं छिन्न भिन्नं कण्टकैर्हीनमेव च।

व्रणयुक्तमवृतं च रुद्राक्षान् षड्  विवर्जयेत्।।22।।

 जिसे कीड़ों ने दूषित कर दिया हो, जो खण्डित हो, फूटा हो, जिस में उभरे हुए दाने न हों,, जो व्रण युक्त हो तथा जो पूरा पूरा गोल ना हो, इन छः प्रकार के रुद्राक्षों को त्याग देना चाहिये।।22।।

स्वयमेव कृतद्वारं  रुद्राक्षं स्यादिहोत्तमम्।

यत्तु पौरुषयत्नेन कृतं तन्मध्यमं भवेत्।।23।।

रुद्राक्ष धारणं प्रोक्तं महापातकनाशनं।

रुद्रसङ्ख्याशतं धृत्वा रुद्ररूपो भवेन्नरः।।24।।

एकादशशतानीह धृत्वा यत्फलमाप्यते।

तत्फलं शक्यते नैव वक्तुं वर्षशतैरपि।।25।।

जिस रुद्राक्ष में अपने आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही यहां उत्तम माना गया है। जिसमें मनुष्य के प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह मध्यम श्रेणी का होता है। रुद्राक्ष धारण बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला है। इस जगत में ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण करके मनुष्य जिस फल को पाता है उसका वर्णन सैकड़ों वर्षो में भी नहीं किया जा सकता।।23-24-25।

शतार्धेन युतैः पञ्चशतैर्वै मुकुटं मतम्।

रुद्राक्षैर्विरचेत्सम्यग्भक्तिमान्पुरुषो वरः।।26।।

त्रिभिः शतैः षष्टियुक्तैस्त्रिरावृत्त्या तथा पुनः।

रुद्राक्षैरुपवीतं च निर्मीयाद्भक्तितत्परः।।27।।

      भक्तिमान पुरुष भलीभाँति साढे पांच सौ रुद्राक्ष के दानों का सुन्दर मुकुट बना ले और उसे सिर पर धारण करे। तीन सौ साठ दानों को लम्बे सूत्र में पिरोकर एक हार बना ले। वैसे वैसे तीन हार बनाकर भक्ति परायण पुरुष उनका यज्ञोपवीत तैयार करे।।26-27।।

शिखायां च त्रयं प्रोक्तं रुद्राक्षाणां महेश्वरि।

कर्णयोः षट् चैव वामदक्षिणयोस्तथा।।28।।

शतमेकोत्तरं कण्ठे बाह्वोर्वै रुद्रसङ्ख्या।

कूर्परद्वारयोस्तत्र मणिबन्धे तथा पुनः।।29।।

उपवीते त्रयं धार्यं शिवभक्तिरतैर्नरै।

शेषानुर्वरितान्पञ्च सम्मितान्धारयेत्कटौ।।30।।

एतत्सङ्ख्या धृता येन रुद्राक्षाः परमेश्वरि।

तद्रूपं तु प्रणम्यं हि स्तुत्यं सर्वैर्महेशवत्।।31।।

हे महेश्वरि! शिवभक्त मनुष्यों को शिखा में तीन,  दाहिने और बायें दोनों कानों में क्रमशः छह-छह, कण्ठ में एक सौ एक, भुजाओं में ग्यारह ग्यारह, दोनों कुहनियों और दोनों मणिबन्धों में पुनः ग्यारह ग्यारह, यज्ञोपवीत में तीन तथा कटिप्रदेश में गुप्त रूप से पांँच रुद्राक्ष धारण करना चाहिये। हे परमेश्वरि! उपर्युक्त कही गई इस संख्या के अनुसार जो व्यक्ति रुद्राक्ष धारण करता है, उसका स्वरूप भगवान शंकर के समान सभी लोगों के लिये प्रणम्य और स्तुत्य हो जाता है।।28-29-30-31।।

एवंभूतं स्थितं ध्याने यदाकृत्वासने जनम्।

शिवेति व्याहरंश्चैव दृष्टवा पापैः प्रमुच्यते।।32।।

इस प्रकार रुद्राक्ष से युक्त होकर मनुष्य जब आसन लगाकर ध्यानपूर्वक शिव का नाम जपने लगता है, तो उसको देखकर पाप स्वतः छोड़कर भाग जाते हैं।।32।।

शताधिकसहस्त्रस्य विधिरेष प्रकीर्तितः।

तदभावे प्रकारोऽन्यः शुभः सम्प्रोच्यते मया।।33।।

इस तरह मैंने एक हजार एक सौ रुद्राक्षों को धारण करने की विधि कह दी है। इतने रुद्राक्षों के न प्राप्त होने पर मैं दूसरे प्रकार की कल्याणकारी विधि कह रहा हूंँ।।33।।

शिखायामेकरुद्राक्षं शिरसा त्रिशतं वहेत्।

पञ्चाशच्च गले दध्याद् बाह्वोः षोडश षोडश।।34।।

शिखा में एक सिर पर  तीस, गले में पचास और दोनों भुजाओं में सोलह सोलह रुद्राक्ष धारण करना चाहिये।।34।।

मणिबन्धे द्वादश द्विस्कन्धे पञ्चशतं वहेत्।

अष्टोत्तरशतैर्माल्यमुपवीतं प्रकल्पयेत्।।35।।

 दोनों मणिबंध पर बारह, दोनों स्कंधों में पाँच सौ और एक सौ आठ रुद्राक्षों की माला बनाकर यज्ञोपवीत के रूप में धारण करनी चाहिये।।35।।

एवं सहस्त्ररुद्राक्षान्धारयेद्यो दृणव्रतः।

तं नमन्ति सुराः सर्वे यथा रुद्रस्तथैव सः।।36।।

 इस प्रकार दृढ़ निश्चय करने वाला जो मनुष्य एक हजार रुद्राक्षों को धारण करता है, वह रूद्र स्वरूप है, समस्त देवगण जैसे शिव को नमस्कार करते हैं,वैसे ही उसको भी नमन करते हैं।।36।।

एकं शिखायां रुद्राक्षं चत्वारिंशत्तु मस्तके।

द्वात्रिंशत्कण्ठदेशे तु वक्षस्यष्टोत्तरं शतम्।।37।।

एकैकं कर्णयोः षट् षट् बाह्वोः षोडश षोडष।

करयो रविमानेन द्विगुणेन मुनीश्वर।।38।।

 शिखा में एक मस्तक पर चालीस, कण्ठ प्रदेश में बत्तीस, वक्षः स्थल पर एक सौ आठ, प्रत्येक कान में एक-एक, भुजबन्धों में छह छह या सोलह सोलह।  हे मुनीश्वर दोनों हाथों में उनका दुगना धारण करें।।37-38।।

सङ्ख्या प्रीतिधृता येन सोऽपि शैवजनः।

शिववत्पूजनीयो हि वन्द्यः सर्वैरभीक्ष्णसः।।39।।

प्रीतिपूर्वक जितनी इच्छा हो, उतने रुद्राक्षों को धारण करना चाहिये। ऐसा जो करता है, वह शिवभक्त सभी लोगों के लिए शिव के समान पूजनीय, वन्दनीय और बार-बार दर्शन के योग्य हो जाता है।।39।।

शिरसीशानमन्त्रेण कर्णे तत्पुरुषेण च।

अघोरेण गले धार्यं। तेनैव हृदयेऽपि च।।40।।

  सिर पर ईशान मन्त्र से, कान में तत्पुरुष मन्त्र से तथा गले और हृदय में अघोर मन्त्र से रुद्राक्ष धारण करना चाहिये।।40।।

अघोरबीजमन्त्रेण करयोर्धारयेत्सुधीः।

पञ्चदशाक्षग्रथितां वामदेवेन चोदरे।।41।।

विद्वान पुरुष दोनों हाथों में अघोर बीज मंत्र से रुद्राक्ष धारण करे और उदर पर वामदेव मंत्र से पंद्रह रुद्राक्षों द्वारा गूँथी हुई माला धारण करे।।41।।

पञ्चब्रह्मभिरङ्गैश्च त्रिमाला पञ्च सप्त च।

अथ वा मूलमन्त्रेण सर्वानक्षांस्तु धारयेत्।।42।।

 सद्योजात आदि पाँच ब्रह्म मंत्रों तथा अंग मन्त्रों के द्वारा रुद्राक्ष की तीन,पाँच या सात मालाएंँ धारण करे अथवा मूल मंत्र (नमः शिवाय) से ही समस्त रुद्राक्षों को धारण करे।।42।।

मद्य मांसं तु लशुनं पलाण्डुं शिग्रुमेव च।

श्लेष्मान्तकं विड्वराहं भक्षणे वर्जयेत्ततः।।43।।

रुद्राक्षधारी पुरुष अपने खान-पान में मदिरा, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोड़ा, विड्वराह आदि को त्याग दे।।43।।

वलक्षं रुद्राक्षं द्विजतनुभिरेवेह विहितं सुरक्तं क्षत्राणां प्रमुदितमुमे पीतमसकृत्।

ततोवैश्यैर्धार्यं प्रतिदिवसमावश्यकमहो तथा कृष्णं शूद्रैः श्रुतिगदितमार्गोऽयमगजे।।44।।

हे गिरिराज नंदिनी उमे! श्वेत रुद्राक्ष केवल ब्राह्मणों को ही धारण करना चाहिये। गहरे लाल रंग का रुद्राक्ष क्षत्रियों के लिए हितकर बताया गया है। वैश्यों के लिए प्रतिदिन बार-बार पीले रुद्राक्ष को धारण करना आवश्यक है और शूद्रों को काले रंग का रुद्राक्ष धारण करना चाहिये- यह वेदोक्त मार्ग है।।44।।

वर्णी वनी गृहयतिर्नियमेन दध्यादेतद्रहस्यपरमो न हि जातु तिष्ठेत।

रुद्राक्षधारणमिदं सुकृतैश्च लभ्यं त्यक्त्वेदमेतदखिलान्नरकान् प्रयान्ति।।45।।

 ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, गृहस्थ और संन्यासी सबको नियम पूर्वक रुद्राक्ष धारण करना उचित है। इसे धारण किये बिना न रहे, यह परम रहस्य है। इसे धारण करने का सौभाग्य बड़े पुण्य से प्राप्त होता है। इसको त्यागने वाला व्यक्ति नरक को जाता है।।45।।

आदावामलकास्ततो लघुतरा रुग्णास्ततः कण्टकैः सन्दष्टाः कृमिभिस्तनूपकरणच्छिद्रेण हीनास्तथा।

धार्या नैव शुभेप्सुभिश्चणकवद्   रुद्राक्षमप्यन्ततो रुद्राक्षो मम लिङ्गमङ्गलमुले सूक्ष्मं प्रशस्तं सदा।।46।।

हे उमे! पहले आंँवले के बराबर और फिर उससे भी छोटे रुद्राक्ष धारण करे।  जो रोग युक्त हों, जिनमें दाने न हों, जिन्हें कीड़ों ने खा लिया हो,जिनमें पिरोने योग्य छेद न हों, ऐसे रुद्राक्ष मंगलकांक्षी पुरुषों को नहीं धारण करना चाहिये। रुद्राक्ष मेरा मंगलमय लिंगविग्रह है। वह अन्ततः चने के बराबर लघुतर होता है। सूक्ष्म रुद्राक्ष को ही सदा प्रशस्त माना गया है।।46।।

सर्वाश्रमाणां वर्णानां स्त्री शूद्राणां शिवाज्ञया।

धार्याः सदैव रुद्राक्षा यतीनां प्रणवेन हि।।47।।

सभी आश्रमों, समस्त वर्णों, स्त्रियों और शूद्रों को भी भगवान शिव की आज्ञा के अनुसार सदैव रुद्राक्ष धारण करना चाहिये। यतियों के लिए प्रणव के उच्चारण पूर्वक रुद्राक्ष धारण करने का विधान है।।47।।

दिवा बिभ्रद्रात्रिकृतै रात्रौ बिभ्रद्दिवाकृतैः।

प्रातर्मध्याह्नसायाह्ने मुच्यते सर्वपातकैः।।48।।

 मनुष्य दिन में रुद्राक्ष धारण करने से रात्रि में किये गये पापों से और रात्रि में रुद्राक्ष धारण करने से दिन में किये गए पापों से, प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल रुद्राक्ष धारण करने से किये गये समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।।48।।

ये त्रिपुण्ड्रधरा लोके जटाधारिण एव ये।

ये रुद्राक्षधरास्ते वै यमलोकं प्रयान्ति न।।49।।

संसार में जितने भी त्रिपुण्ड्र धारण करने वाले हैं, जटाधारी हैं और रुद्राक्ष धारण करने वाले हैं, वे यमलोक को नहीं जाते हैं।।49।।

रुद्राक्षमेकं शिरसा बिभर्ति तथा त्रिपुण्ड्रं च ललाट मध्ये।

पञ्चाक्षरं ये हि जपन्ति मन्त्रं पूज्यि भवद्भिः खलु ते हि साधवः।।50।।

जिनके ललाट में त्रिपुण्ड्र लगा हो और सभी अंग रूद्राक्ष से विभूषित हों तथा जो शिव पंचाक्षर मंत्र का जप कर रहे हों, वे आप सदृश पुरुषों के पूज्य हैं, वे वस्तुतः साधु हैं।।50।।

यस्याङ्गे नास्ति रुद्राक्षस्त्रिपुण्ड्रं   भालपट्टके।

मुखे पञ्चाक्षरं नास्ति तमानय यमालयम्।।51।।

ज्ञात्वा ज्ञात्वा  तत्प्रभावं भस्मरुद्राक्षधारिणः।

ते पूज्याः सर्वदास्माकं नो नेतव्याः कदाचन।।52

यम अपने गणों को आदेश करते हैं कि जिसके शरीर पर रुद्राक्ष नहीं है, मस्तक पर त्रिपुण्ड्र नहीं है, और मुख में 'ऊँ नमः शिवाय' यह पञ्चाक्षर  मंत्र नहीं है, उसको यमलोक लाया जाय। भस्म एवं रुद्राक्ष के उस प्रभाव को जानकर या न जानकर जो भस्म और रुद्राक्ष को धारण करने वाले हैं, वे सर्वदा हमारे लिये पूज्य हैं, उन्हें यमलोक नहीं लाना चाहिये।।51-52।।

एवमाज्ञापयामास कालोऽपि निजकिंकरान्।

तथेति मत्वा ते सर्वे तूष्णीमासन्सुविस्मिताः।।53।।

काल ने भी इस प्रकार से अपने गणों को आदेश दिया, तब 'वैसा ही होगा' ऐसा कह कर आश्चर्यचकित सभी गण चुप हो गये।।53।।

अत एव महादेवि रुद्राक्षोऽप्यघनाशनः।

तद्धरो मत्प्रियः शुद्धोऽत्यघवानपि पार्वति।।54।। 

इसलिए हे महादेवि! रुद्राक्ष भी पापों का नाशक है। हे पार्वति! उसको धारण करने वाला मनुष्य पापी होने पर भी मेरे लिए प्रिय है और शुद्ध है।।54।।

हस्ते बाहौ तथा मूर्ध्नि रुद्राक्षं धारयेत्तु यः।

अवध्यः सर्वभूतानां रुद्ररूपी चरेद्भुवि।।55।।

 हाथ में, भुजाओं में और सिर पर जो रुद्राक्ष धारण करता है, वह समस्त प्राणियों से अवध्य है और पृथ्वी पर रूद्र रूप होकर विचरण करता है।।55।।

सुरासुराणां सर्वेषां वन्दनीयः सदा स वै।

पूजनीयो हि दृष्टस्य पापहा च यथा शिवः।।56।।

सभी देवों और और असुरों के लिए वह सदैव वन्दनीय एवं पूजनीय है। वह दर्शन करने वाले प्राणी के पापों का शिव के समान ही नाश करने वाला है।।56।।

ध्यानज्ञानावमुक्तोऽपि रुद्राक्षं धारयेत्तु यः।

सर्वपापविनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम्।।57।।

ध्यान और ज्ञान से रहित होने पर भी जो रुद्राक्ष धारण करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त होता है।।57।।

रुद्राक्षेण जपन्मन्त्रं पुण्यं कोटिगुणं भवेत्।

पुण्यं धारणाल्लभते नरः।।58।।

 मणि आदि की अपेक्षा रुद्राक्ष के द्वारा मन्त्र जप करने से करोड़ गुना पुण्य प्राप्त होता है और उसको धारण करने से तो दस करोड़ गुना पुण्यलाभ होता है।।58।।

यावत्कालं हि जीवस्य शरीरस्थो भवेत्स वै।

तावत्कालं स्वल्पमृत्युर्न तं देवि विबाधते।।59।।

 हे देवि! यह रुद्राक्ष, प्राणी के शरीर पर जब तक रहता है, तब तक स्वल्प मृत्यु उसे बाधा नहीं पहुंचाती है।।59।।

त्रिपुण्ड्रेण च संयुक्तुं रुद्राक्षाविलसाङ्गकम्।

मृत्युञ्जयं जपन्तं च दृष्ट्वा रुद्रफलं लभेत्।।60।।

 त्रिपुण्ड्र को धारण कर तथा रुद्राक्ष से सुशोभित अंग वाला होकर मृत्युंजय मन्त्र का जप कर रहे उस पुण्यवान् मनुष्य को देखकर ही रूद्र दर्शन का फल प्राप्त हो जाता है।।60।।

पञ्चदेवप्रियश्चैव सर्वदेवप्रियस्तथा।

सर्वमन्त्राञ्जपेद्भक्तो रुद्राक्षमालया प्रिये।।61।।

हे प्रिये! पंचदेवप्रिय अर्थात् स्मार्त और वैष्णव तथा सर्वदेव प्रिय सभी लोग रुद्राक्ष की माला से समस्त मन्त्रों का जप कर सकते हैं।।61।।

विष्ण्वादिदेवभक्ताश्च धारयेयुर्न संशयः।

रुद्रभक्तो विशेषेण रुद्राक्षान्धारयेत्सदा।।62।।

विष्णु आदि देवताओं के भक्तों को भी निस्सन्देह इसे धारण करना चाहिये। रुद्र भक्तों के लिए तो विशेष रूप से रुद्राक्ष धारण करना आवश्यक है।।62।।

रुद्राक्षा विविधाः प्रोक्तास्तेषां भेदान वदाम्यहम्।

श्रृणु पार्वति सदभक्त्या भुक्तिमुक्तिफलप्रदान्।।63।।

 हे पार्वति! रुद्राक्ष अनेक प्रकार के बताए गये हैं। मैं उनके भेदों का वर्णन करता हूंँ। वे भेद भोग और मोक्ष रूप फल देने वाले हैं। तुम उत्तम भक्ति भाव से उनका परिचय सुनो।।63।।

एकवक्त्रः शिवः साक्षाद्भुक्तिमुक्तिफलप्रदः।

तस्य दर्शन मात्रेण ब्रह्महत्यां व्यपोहति।।64।।

 एक मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात शिव का स्वरूप है। वह भोग और मोक्ष रूपी फल प्रदान करता है। उसके दर्शन मात्र से ही ब्रह्महत्या का पाप नष्ट हो जाता है।।64।।

यत्र सम्पूजितस्तत्र लक्ष्मीर्दूरतरा न हि।

नश्यन्त्युपद्रवाः सर्वे सर्वकामा भवन्ति हि।।65।।

 जहां रुद्राक्ष की पूजा होती है, वहां से लक्ष्मी दूर नहीं जातीं, उस स्थान के सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं तथा वहांँ रहने वाले लोगों की सम्पूर्ण कामनाएं पूर्ण होती हैं।।65।।

द्विवक्त्रो देवदेवेशः सर्वकामफलप्रदः।

विशेषतः स रुद्राक्षो गोवधं.नाशयेद् द्रुतम्।।66।।

 दो मुख वाला रुद्राक्ष देवदेवेश्वर कहा गया है। वह सम्पूर्ण कामनाओं और फलों को देने वाला है। वह विशेष रूप से गौ हत्या का पाप नष्ट करता है।।66।।

त्रिवक्त्रो यो हि रुद्राक्षः सीक्षात्साधनदः सदा।

तत्प्रभावाद्भवेयुर्वै विद्याः सर्वाः प्रतिष्ठिताः।।67।।

 तीन मुख वाला रुद्राक्ष सदा साक्षात् साधन का फल देने वाला है, उसके प्रभाव से सारी विद्याएँ प्रतिष्ठित हो जाती हैं।।67।।

चतुर्वक्त्रः स्वयं ब्रह्मा नरहत्यां व्यपोहति।

दर्शनात् स्पर्शनात् सद्यश्चतुर्वर्गफलप्रदः।।68।।

  चार मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात् ब्रह्मा का रूप है और ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति देने वाला है। उसके दर्शन और स्पर्श से शीघ्र ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।।68।।

पञ्चवक्त्रः स्वयं रुद्रः कालाग्निर्नामतः प्रभुः।

सर्वमुक्तिप्रदश्चैव सर्वकामफलप्रदः।।69।।

अगम्यागमनं पापमभक्ष्यस्य च भक्षणम्।

इत्यादि सर्वपापानि पञ्चवक्त्रो व्यपोहति।।70।।

 पांच मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् कालाग्नि रूद्र रूप है। वह सब कुछ करने में समर्थ, सब को मुक्ति देने वाला तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फल प्रदान करने वाला है। वह पंचमुख रुद्राक्ष अगम्या स्त्री के साथ गमन और पापान्न-भक्षण से उत्पन्न समस्त पापों को दूर कर देता है।।69-70।।

षड्वक्त्रः कार्तिकेयस्तु धारणाद् दक्षिणे भुजे।

ब्रह्महत्यादिकैः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः।।71।।

 छः मुख वाला रुद्राक्ष कार्तिकेय का स्वरूप है। यदि दाहिनी बाँह में उसे धारण किया जाय, तो धारण करने वाला मनुष्य ब्रह्म हत्या आदि पापों से मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।।71।।

सप्तवक्त्रो महेशानि ह्यनङ्गो नाम नामतः।

धारणात्तस्य देवेशि दरिद्रोऽपीश्वरो भवेत्।।72।।

हे महेश्वरि! सात मुख वाला रुद्राक्ष अनंग नाम से प्रसिद्ध है। हे देवेशि! उसको धारण करने से दरिद्र भी एश्वर्यशाली हो जाता है।।72।।

रुद्राक्षश्चाष्टवक्त्रश्च वसुमूर्तिश्च भैरवः।

धारणात्तस्य पूर्णियुर्मृतो भवति शूलभृत्।।73।।

 आठ मुख वाला रुद्राक्ष अष्टमूर्ति भैरव रूप है। उसको धारण करने से मनुष्य पूर्णायु होता है और मृत्यु के पश्चात शूलधारी शंकर हो जाता है।।73।।

भैरवो नववक्त्रश्च कपिलश्च मुनिः स्मृतः।

दुर्गा वा तदधिष्ठात्री नवरूपा महेश्वरी।।74।।

नौ मुख वाले रुद्राक्ष को भैरव तथा कपिल मुनि का प्रतीक माना गया है अथवा नौ रूप धारण करने वाली महेश्वरी दुर्गा उस की अधिष्ठात्री देवी मानी गयी हैं।।74।।

तं धारयेद्वामहस्ते रुद्राक्षं भक्तितत्परः।

सर्वेश्वरो भवेन्नूनं मम तुल्यो न संशयः।।75।।

जो मनुष्य भक्ति परायण होकर अपने बायें हाथ में नव मुख रुद्राक्ष धारण करता है, वह निश्चय ही मेरे समान सर्वेश्वर हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।।75।।

दशवक्त्रो महेशानि स्वयं देवो जनार्दनः।

धारणात्तस्य देवेशि सर्वान्कामानवाप्नुयात्।।76।।

 हे महेश्वरि! दस मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात भगवान विष्णु का रूप है। हे देवेशि! उसको धारण करने से मनुष्य की सम्पूर्ण कामनाएंँ पूर्ण हो जाती हैं।।76।।

एकादश मुखो यस्तु रुद्राक्षः परमेश्वरि।

स रुद्रो धारणात्तस्य सर्वत्र विजयी भवेत्।।77।।

 हे परमेश्वरि! ग्यारह मुख वाला जो रुद्राक्ष है, वह रूद्र रूप है, उसको धारण करने से मनुष्य सर्वत्र विजयी होता है।।77।।

द्वादशास्य तु रुद्राक्षं धारयेत् केशदेशके।

आदित्याश्चैव ते सर्वे द्वादशैव स्थितास्तथा।।78।।

 बारह मुख वाले रुद्राक्ष को केशप्रदेश में धारण करे। उसको धारण करने से मानो मस्तक पर बारहों आदित्य विराजमान हो जाते हैं।।78।।

त्रयोदशमुखो विश्वेदेवस्तद्धारणान्नरः।

सर्वान्कामानवाप्नोति सौभाग्यं मङ्गलं लभेत्।।79।।

 तेरह मुख वाला रुद्राक्ष विश्वदेवों का स्वरूप है। उसको धारण करके मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्टों को प्राप्त करता है तथा सौभाग्य और मंगल लाभ करता है।।79।।

चतुर्दशमुखो यो हि रुद्राक्षः परमः शिवः।

धारयेन्मूर्ध्नि तं भक्त्या सर्वपापं प्रणश्यतिः।।80।।

चौदह मुख वाला जो रुद्राक्ष है, वह परमशिव रूप है। उसे भक्ति पूर्वक मस्तक पर धारण करे, इससे समस्त पापों का नाश हो जाता है।।80।।

इति रुद्राक्षभेदा हि प्रोक्ता वै मुखभेदतः।

तत्तन्मन्त्राञ्छ्रणु प्रीत्या क्रमाच्छैलेश्वरात्मजे।।81।।

 हे गिरिराज कुमारी! इस प्रकार मुखों के भेद से रुद्राक्ष के चौदह भेद बताये गये। अब तुम क्रमशः उन रुद्राक्षों के धारण करने के मन्त्रों को प्रसन्नता पूर्वक सुनो-

1- ॐ ह्रीं नमः। 2- ॐ नमः। 3- क्लीं नमः। 4 - ॐ ह्रीं नमः। 5 - ॐ ह्रीं नमः। 6 - ॐ ह्रीं हुं नमः। 7 - ॐ हुं नमः। 8 - ॐ हुं नमः। 9 - ॐ ह्रीं हुं नमः। 10 - ॐ ह्रीं नमः। 11 -  ॐ ह्रीं हुं नमः। 12- ॐ क्रौं क्षौं रौं नमः। 13 - ॐ ह्रीं नमः। 14 - ॐ नमः।

इन चौदह मन्त्रों द्वारा क्रमशः एक से लेकर चौदह मुख वाले रुद्राक्षों को धारण करने का विधान है।।81।।

भक्तिश्रद्धायुतश्चैव सर्वकामार्थसिद्धये।

रुद्राक्षान्धारयेन्मन्त्रैर्देवि आलस्यवर्जितः।।82।।

 साधक को चाहिये कि वह निद्रा और आलस्य का त्याग करके श्रद्धा भक्ति से सम्पन्न होकर सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि के लिए उक्त मन्त्रों द्वारा उन उन रुद्राक्षों को धारण करे।।82।।

विना मन्त्रेण यो धत्ते रुद्राक्षं भुवि मानवः।

स याति नरकं घोरं यावदिन्द्राश्चतुर्दश।।83।।

इस पृथ्वी पर जो मनुष्य मन्त्र के द्वारा अभिमन्त्रित किये बिना ही रुद्राक्ष धारण करता है, वह क्रमशः चौदह इन्द्रों के काल पर्यंत घोर नरक को जाता है।।83।।

रुद्राक्षमालिनं दृष्ट्वा भूतप्रेतपिशाचकाः।

डाकिनी शाकिनी चैव ये चान्ये द्रोहकारकाः।।84।।

कृत्रिमं चैव यत्किञ्चिदभिचारादिकं च यत्।

तत्सर्वं दूरतो याति दृष्ट्वा शंकितविग्रहम्।।85।।

रुद्राक्ष की माला धारण करने वाले पुरुष को देखकर भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी तथा जो अन्य द्रोहकारी राक्षस आदि हैं, वे सब के सब दूर भाग जाते हैं। जो कृत्रिम अभिचार आदि कर्म प्रयुक्त होते हैं, वे सब रुद्राक्ष धारी को देखकर सशंक हो दूर चले जाते हैं।।84-85।।

रुद्राक्षमालिनं दृष्ट्वा शिवो विष्णुः प्रसीदति।

देवी गणपतिः सूर्यः सुराश्चान्येऽपि पार्वति।।86।।

 हे पार्वति! रुद्राक्ष माला धारी पुरुष को देखकर मैं शिव, भगवान विष्णु, देवी दुर्गा, गणेश, सूर्य तथा अन्य देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं।।86।।

एवं ज्ञात्वा तु माहात्म्यं रुद्राक्षस्य महेश्वरि।

सम्यग्धार्याः समन्त्राश्च भक्त्या धर्मविवृद्धये।।87।।

 हे महेश्वरि! इस प्रकार रुद्राक्ष की महिमा को जानकर धर्म की वृद्धि के लिए भक्ति पूर्वक पूर्वोक्त मंत्रों द्वारा विधिवत उसे धारण करना चाहिये।।87।।

इत्युक्तं गिरिजाग्रे हि शिवेन परमात्मना।

भस्मरुद्राक्षमाहात्म्यं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम्।।88।।

 हे मुनीश्वरो! इस प्रकार परमात्मा शिव ने भगवती पार्वती के सामने भुक्ति तथा मुक्ति प्रदान करने वाले भस्म तथा रुद्राक्ष के माहात्म्य का वर्णन किया था।।88।।

शिवस्यातिप्रियौ ज्ञेयौ भस्मरुद्राक्षधारिणौ।

तद्धारणप्रभावाद्धि भुक्तिमुक्तिर्न संशयः।।89।।

भस्म और  रुद्राक्ष को  धारण करने वाले मनुष्य भगवान शिव को अत्यंत प्रिय हैं।  उसको धारण करने के प्रभाव से ही भुक्ति मुक्ति दोनों प्राप्त हो जाती हैं, इसमें संदेह नहीं है।।89।।

भस्मरुद्राक्षधारी यः शिवभक्तः स उच्यते।

पञ्चाक्षरजपासक्तः परिपूर्णश्च सन्मुखे।।90।।

भस्म और रुद्राक्ष धारण करने वाला मनुष्य शिव  भक्त कहा जाता है। भस्म एवं रुद्राक्ष से युक्त होकर जो मनुष्य शिव प्रतिमा के सामने स्थित होकर 'ऊँ नमः शिवाय' इस पंचाक्षर मन्त्र का जप करता है, वह पूर्ण भक्त कहलाता है।।90।।

विना भस्मत्रिपुण्ड्रेण विना रुद्राक्षमालया।

पूजितोऽपि महादेवो नाभीष्टफलदायकः।।91।।

बिना भस्म का त्रिपुण्ड्र धारण किये और बिना रुद्राक्ष माला लिये जो महादेव की पूजा करता है, उससे पूजित होने पर भी महादेव अभीष्ट फल प्रदान नहीं करते हैं।।91।।

तत्सर्वं च समाख्यातं यत्पृष्टं हि मुनीश्वर।

भस्मरुद्राक्ष माहात्म्यं सर्वकामसमृद्धिदम्।।92।।

एतद्यः श्रृणुयान्नित्यं माहात्म्यं परमं शुभम्।

रुद्राक्षभस्मनोर्भक्त्या सर्वान्कामानवाप्नुयात्।।93।।

इह सर्वसुखं भुक्त्वा पुत्रपौत्रादिसंयुतः।

लभेत्परत्र सन्मोक्षं शिवस्यातिप्रियो भवेत्।।94।।

हे मुनीश्वर! सभी कामनाओं को परिपूर्ण करने वाले भस्म और रुद्राक्ष के माहात्म्य को मैंने सुनाया। जो इस रुद्राक्ष और भस्म के माहात्म्य को भक्ति पूर्वक सुनता है, उसकी सभी कामनाएंँ पूर्ण हो जाती हैं। वह पुत्र- पौत्र आदि के साथ इस लोक में सभी प्रकार के सुख भोग कर अन्त में मोक्ष को प्राप्त होता है और भगवान शिव का अतिप्रिय हो जाता है।।92-93-94।।

विद्येश्वर संहितेयं कथिता वो मुनीश्वराः।

सर्वसिद्धिप्रदा नित्यं मुक्तिदा शिवशासनात्।।95।।

हे मुनीश्वरो! इस प्रकार मैंने शिव की आज्ञा के अनुसार उत्तम मुक्ति देने वाली विद्येश्वर संहिता आपके समक्ष कही।।95।।

 इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां साध्यसाधनखण्डे रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः।।25।।

।। समाप्तेयं प्रथमा विद्येश्वर संहिता।।1।।

जय बाबा की

बाबाचरण दास

Saturday, 9 May 2020

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता अथ चतुर्विंशोऽध्यायः

प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ चतुर्विंशोऽध्यायः

 सूत उवाच

द्विविधं भस्म सम्प्रोक्तं सर्वमङ्गलदं परम्।
तत्प्रकारमहं वक्ष्ये सावधानतया श्रृणु।।1।।

 सूत जी बोले- हे महर्षियो! भस्म सम्पूर्ण मंगलों को देने वाला तथा उत्तम है, उसके दो भेद बताये गये हैं। मैं उन भेदों का वर्णन करता हूंँ, आप लोग सावधान होकर सुनिये।।1।।

एकं ज्ञेयं महाभस्म द्वितीयं स्वल्पसंज्ञकम्।
महाभस्म इति प्रोक्तं भस्म नानाविधं परम्।।2।।

तद्भस्म त्रिविधं प्रोक्तं श्रौतं स्मार्तं च लौकिकम्।
भस्मैव स्वल्पसंज्ञं हि बहुधा परिकीर्तितम्।।3।।

श्रौतं भस्म तथा स्मार्तं द्विजनामेव कीर्तितम्।
अन्येषामपि सर्वेषामपरं भस्म लौकिकम्।।4।।

एक को 'महाभस्म' जानना चाहिये और दूसरे को 'स्वल्प भस्म'। महाभस्म के भी अनेक भेद हैं। वह तीन प्रकार का कहा गया है- श्रौत, स्मार्त और लौकिक। स्वल्प भस्म के भी बहुत से भेदों का वर्णन किया गया है। श्रौत और स्मार्त भस्म को केवल द्विजों के ही उपयोग में आने के योग्य कहा गया है। तीसरा जो लौकिक भस्म है, वह अन्य लोगों के भी उपयोग में आ सकता है।।2-3-4।।

धारणं मन्त्रतः प्रोक्तं द्विजानां मुनिपुङ्गवैः।
केवलं धारणं ज्ञेयमन्येषां मन्त्रवर्जितम्।।5।।

श्रेष्ठ महर्षियों ने यह बताया है कि द्विजों को वैदिक मंत्र के उच्चारण पूर्वक भस्म धारण करना चाहिये। दूसरे लोगों के लिए बिना मंत्र के ही केवल धारण करने का विधान है।।5।।

आग्नेयमुच्यते भस्म दग्धगोमयसम्भवम्।
तदपि द्रव्यमित्युक्तं त्रिपुण्ड्रस्य महामुने।।6।।

जले हुए गोबर से उत्पन्न होने वाला भस्म आग्नेय कहलाता है। हे महामुने! वह भी त्रिपुण्ड्रका द्रव्य है- ऐसा कहा गया है।।6।।

अग्निहोत्रोत्थितं भस्म सङ्ग्राह्यं वा मनीषिभिः।
अन्ययज्ञोत्थितं वापि त्रिपुण्ड्रस्य च धारणे।।7।।

अग्निहोत्र से उत्पन्न हुए भस्म का भी मनीषी पुरुषों को संग्रह करना चाहिये। अन्य यज्ञ से प्रकट हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड्र धारण के काम में आ सकता है।।7।।

अग्निरित्यादिभिर्मन्त्रैर्जाबालोपनिषद्गतैः।
सप्तभिर्धूलनं कार्यं भस्मना सजलेन च।।8।।

 जावालोपनिषद में आये हुए अग्निः इत्यादि सात मंत्रों द्वारा जल मिश्रित भस्म से धूलन (विभिन्न अंगों में मर्दन या लेपन) करना चाहिये।।8।।

वर्णानामाश्रमाणां च मन्त्रतोऽमन्त्रतोऽपि च।
त्रिपुण्ड्रोद्धूलनं प्रोक्तं जाबालैरादरेण च।।9।।

महर्षि जाबालि ने सभी वर्णों और आश्रमों के लिये मन्त्र से या बिना मन्त्र के भी आदरपूर्वक भस्म से त्रिपुण्ड्र लगाने की आवश्यकता बतायी है।।9।।

भस्मनोद्धूलनं चैव धृतं तिर्यक् त्रिपुण्ड्रकम्।
प्रमादादपि मोक्षार्थी न त्यजेदिति वै श्रुतिः।।10।।

समस्त अंगों में सजल भस्म को मलना अथवा विभिन्न अंगों में तिरछा त्रिपुण्ड्र लगाना-इन कार्यों को मोक्षार्थी पुरुष प्रमाद से भी न छोड़े। ऐसा श्रुति का आदेश है।।10।।

शिवेन विष्णुना चैव धृतं तिर्यक् त्रिपुण्ड्रकम्।
उमादेव्या च लक्ष्म्या च स्तुतमन्यैश्च नित्यशः।।11।।

भगवान शिव और विष्णु ने भी तिर्यक् त्रिपुण्ड्र धारण किया है। अन्य देवियों सहित भगवती उमा और लक्ष्मी देवी ने भी वाणी द्वारा इसकी प्रशंसा की है।।11।।

ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः शूद्रैरपि च सङ्करैः।
अपभ्रंशैर्धृतं भस्म त्रिपुण्ड्रोद्धूलनात्मना।।12

ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, वर्णसंकरों तथा जाति भ्रष्ट पुरुषों ने भी उद्धूलन एवं त्रिपुण्ड्र के रूप में भस्म को धारण किया है।।12।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषां नास्ति समाचारो वर्णाश्रम समन्वितः।।13।।

जो लोग श्रद्धा पूर्वक शरीर में भस्म का उद्धलन(लेप) तथा त्रिपुण्ड्र धारण करने का आचरण नहीं करते हैं, उनमें वर्णाश्रम समन्वित सदाचार की कमी है।।13।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषां नास्ति विनिर्मुक्तिः संसाराज्जन्मकोटिभिः।।14।।

जिनके द्वारा श्रद्धा पूर्वक   शरीर में भस्मलेप और त्रिपुण्ड्रधारण नहीं किया जाता है, उनकी विनिर्मुक्ति करोड़ों जन्मों में भी संसार से संभव नहीं है।।14।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषां नास्ति शिवज्ञानं कल्पकोटिशतैरपि।।15।।

जो श्रद्धा पूर्वक शरीर में भस्मलेप और त्रिपुण्ड्रधारण का आचार पालन नहीं करते हैं, उन्हें सौ करोड़ कल्पों में भी शिव का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है।।15।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
ते महापातकैर्युक्ता इति शास्त्रीयनिर्णयः।।16।।

जो श्रद्धा पूर्वक भस्मलेप तथा त्रिपुण्ड्रधारण का आचरण नहीं करते हैं, वे महापातकों से युक्त हो जाते हैं, ऐसा शास्त्रों का निर्णय है।।16।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषामाचरितं सर्वं विपरीतफलाय हि।।17।।

जो श्रद्धा पूर्वक भस्मोद्धूलन और त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करते हैं, उन लोगों का सम्पूर्ण आचरण विपरीत फल प्रदान करने वाला हो जाता है।।17।।

महापातकयुक्तानां जन्तूनां शर्वविद्विषाम्।
त्रिपुण्ड्रोद्धूलनद्वेषो जायते सुदृणं मुने।।18।।

हे मुनियों! जो महापातकों से युक्त और समस्त प्राणियों से द्वेष करने वाले हैं, वही त्रिपुण्ड्र धारण तथा भस्मोद्धूलन से अत्यधिक द्वेष करते हैं।।18।।

शिवाग्निकार्यं यः कृत्वा कुर्यात्त्रियायुषात्मवित्।
मुच्यते सर्वपापैस्तु स्पृष्टेन भस्मना नरः।।19।।

जो आत्मज्ञानी मनुष्य शिवाग्नि (अग्निहोत्र) का कार्य करके 'त्रयायुषं जमदग्नेः' इस मंत्र से भस्म का मात्र स्पर्श ही कर लेता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।।19।।

सितेन भस्मना कुर्यात्त्रिसन्ध्यं यस्त्रिपुण्ड्रकम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवेन सह मोदते।।20।।

जो मनुष्य तीनों संध्याकालों में श्वेत भस्म के द्वारा त्रिपुण्ड्र धारण करता है वह समस्त पापों से मुक्त होकर शिव सानिध्य का आनंद भोगता है।।20।।

सितेन भस्मना कुर्याल्ललाटे तु त्रिपुण्ड्रकम्।
योऽसावनादिभूतान्हि लोकानाप्तोयोऽमृतो भवेत्।।21।।

 जो व्यक्ति श्वेत भस्म से अपने मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह अनादि भूत लोकों को प्राप्त कर अमर हो जाता है।।21।।

अकृत्वा भस्मना स्नानं न जपेद्वै षडक्षरम्।
त्रिपुण्ड्रं च रचित्वा तु विधिना भस्मना जपेत्।।22।।

 बिना भस्म स्नान किये षडक्षर (ॐ नमः शिवाय) मन्त्र का जप नहीं करना चाहिये। विधिपूर्वक भस्म से त्रिपुण्ड्र धारण करके ही इसका जप करना चाहिये।।22।।

अदयो वाधमो वापि सर्वपापान्वितोऽपि वा।
उपपापान्वितो वापि मूर्खो वा पतितोऽपि वा।।23।।

यस्मिन्देशे वसेन्नित्यं भूतिशासनसंयुतः।
सर्वतीर्थैश्च क्रतुभिः सान्निध्यं क्रियते सदा।।24।।

 दयाहीन,अधम,महापापों से युक्त, उपपापों से युक्त, मूर्ख अथवा पतित व्यक्ति भी जिस देश में नित्य भस्म धारण करते रहते हैं, वह देश सदैव सम्पूर्ण तीर्थों और यज्ञ से परिपूर्ण ही रहता है।।23-24।।

त्रिपुण्ड्रसहितो जीवः पूज्यः सर्वैः सुरासुरैः।
पापान्वितोऽपि शुद्धात्मा किं पुनः श्रद्धया युतः।।25।।

त्रिपुण्ड्र धारण करने वाला पापी जीव भी समस्त देवताओं और असुरों के द्वारा पूज्य है। यदि पुण्यात्मा त्रिपुण्ड्र से युक्त है तो उसके लिए कहना ही क्या।।25।।

यस्मिन्देशे शिवज्ञानी भूतिशासनसंयुतः।
गतो यदृच्छयाद्यापि तस्मिंस्तीर्थाः समागताः।।26।।

भस्म धारण करने वाला शिव ज्ञानी जिस देश में स्वेच्छया चला जाता है, उस देश में समस्त तीर्थ आ जाते हैं।।26।।

बहुनात्र किमुक्तेन धार्यं भस्म सदा बुधैः।
लिङ्गार्चनं सदा कार्यं जप्यो मन्त्रः षडक्षरः।।27।।

इस विषय में और अधिक क्या कहा जाय! विद्वानों को सदैव भस्म धारण करना चाहिये एवं लिंगार्चन करके षडक्षर मंत्र का जप करना चाहिये।।27।।

ब्रह्मणा विष्णुना वापि रुद्रेण मुनिभिः सुरैः।
भस्मधारण माहात्म्यं न शक्यं परिभाषितुम्।।28।।

 ब्रह्मा,विष्णु, रुद्र, मुनि गण, और देवताओं के द्वारा भी भस्म धारण करने के महत्व का वर्णन किया जाना संभव नहीं है।।28।।

इति वर्णाश्रमाचारो लुप्तवर्णक्रियोऽपि च।
पापात्सकृत्त्रिपुण्ड्रस्य धारणात्सोऽपि मुच्यते।।29।।

जिसने अपने वर्ण तथा आश्रमधर्म से सम्बन्धित आचार तथा क्रियाएं लुप्त कर दी हैं, यदि वह भी त्रिपुण्ड्र धारण करता है, तो समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।।29।।

ये भस्मधारिणं त्यक्त्वा कर्म कुर्वन्ति मानवाः।
तेषां नास्ति विनिर्मोक्षः संसाराज्जन्मकोटिभिः।।30।।

जो भस्म धारण करने वाले को त्याग कर धार्मिक कृत्य करते हैं, उनको करोड़ों जन्म लेने पर भी संसार से मुक्ति प्राप्त नहीं हो पाती है।।30।।

तेनाधीतं गुरोः सर्वं तेन सर्वमनुष्ठितम्।
येन विप्रेण शिरसि त्रिपुण्ड्रं भस्मना कृतम्।।31।।

 जिस ब्राह्मण ने भस्म से अपने सिर पर त्रिपुण्ड्र धारण कर लिया है, उसने मानो गुरु से सब कुछ पढ़ लिया है और सभी धार्मिक अनुष्ठान कर लिये हैं।।31।।

ये भस्म धारिणं दृष्ट्वा नराः कुर्वन्ति ताडनम्।
तेषां चण्डालतो जन्म ब्रह्मन्नूह्यं विपश्चिता।।32।।

जो मनुष्य भस्म धारण करने वाले को देख कर उसे कष्ट देते हैं, वे निश्चित ही चाण्डाल से उत्पन्न हुए हैं, ऐसा विद्वानों को जानना चाहिये।।32।।

मानस्तोकेन मन्त्रेण मन्त्रितं भस्म धारयेत्।
ब्राह्मणः क्षत्रियश्चैव प्रोक्तेष्वङ्गेषु भक्तिमान्।।33।।

भक्ति परायण ब्राह्मण और क्षत्रिय को "मानस्तोके तनये मान आयुषि मानो गोषु मानो अश्वेषुरीरिषः। मानो वीरान्न रुद्र भामिनो वधीरिहविष्मन्तः सदमित्वाहवामहे।।" इस मंत्र से अभिमन्त्रित भस्म को शास्त्रसम्मत कहे गये अंगों पर धारण करना चाहिये।।33।।

वैश्यस्त्रियम्बकेनैव शूद्रः पञ्चाक्षरेण तु।
अन्यासां विधवास्त्रीणां विधिः प्रोक्तश्च शूद्रवत्।।34।।

 वैश्य "त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिम पुष्टि वर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।"इस मंत्र से और शूद्र "शिवाय नमः" इस पंचाक्षर मन्त्र से भस्म को अभिमन्त्रित  कर धारण करें, विधवा स्त्रियों के लिये भस्म धारण की विधि शूद्रों के समान कही गई है।।34।।

पञ्चब्रह्मादिमनुभिर्गृहस्थस्य विधीयते।
त्रियम्बकेन मनुना विधिर्वै ब्रह्मचारिणः।।35।।

अघोरेणाथ मनुना विपिनस्थविधिः स्मृतः।
यतिस्तु प्रणवेनैव त्रिपुण्ड्रादीनि कारयेत्।।36।।

 पांँच ब्रह्मादि(अघोर,ईशान,तत्पुरुष,सद्योजात, वामदेव ) मंत्रों से अभिमंत्रित भस्म के द्वारा गृहस्थ त्रिपुण्ड्र धारण करे। ब्रह्मचारी 'त्रयम्बकं यजामहे' है इस मंत्र से भस्म को अभिमंत्रित करके और वानप्रस्थी 'अघोरेभ्योऽथ०'  इस मंत्र से भस्म को अभिमंत्रित करके त्रिपुण्ड्र धारण करे, किंतु यति सन्यासी प्रणव के मंत्र से भस्म को अभिमंत्रित करके त्रिपुण्ड्र धारण करे।।35-36।।

अतिवर्णाश्रमी नित्यं शिवोऽहं भावनात्परात्।
शिवयोगी च नियतमीशानेनापि धारयेत्।।37।।

जो वर्णाश्रम धर्म से परे हैं, वह 'शिवोऽहं' इस भावना से नित्य त्रिपुण्ड्र धारण करें और जो शिवयोगी है, वह ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम् ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदा शिवोम्।। इस भावना को करता हुआ त्रिपुण्ड्र धारण करे।।37।।

न त्याज्यं सर्ववर्णैश्च भस्मधारणमुत्तमम्।
अन्यैरपि यथा जीवैः सदेति शिवशासनम्।।38।।

सभी वर्णों के द्वारा भस्म धारण करने के इस उत्तम कार्य को नहीं छोड़ना चाहिये। जीवों को सदा भस्म धारण करना चाहिये, ऐसा भगवान शिव का आदेश है।।38।।

भस्मस्नानेन यावन्तः कणाः स्वाङ्गे प्रतिष्ठिताः।
तावन्ति शिवलिङ्गानि तनौ धत्ते हि धारकः।।39।।

भस्म स्नान करने से जितने कण शरीर में प्रवेश करते हैं, उतने ही शिव लिंगों को वह धारक अपने शरीर में धारण करता है।।39।।

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चापि च सङ्कराः।
स्त्रियोऽथ विधवा बालाः प्राप्ता पाखण्डिकास्तथा।।40।।

ब्रह्मचारी गृही वन्यः सन्यासी वा व्रती तथा।
नार्यो भस्मत्रिपुण्ड्राङ्का मुक्ता एव न संशयः।।41।।

 ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, स्त्री (सधवा, विधवा) बालक, पाखंडी, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी, व्रती और सन्यासिनी स्त्रियां ये सभी भस्म के त्रिपुण्ड्र धारण के प्रभाव के द्वारा मुक्त हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है।।40-41।।

ज्ञाना ज्ञान धृतो वापि वह्निदाहसमो यथा।
ज्ञानाज्ञानधृतं भस्म पावयेत्सकलं नरम्।।42।।

 जैसे ज्ञान या अज्ञानवश धारण की गयी अग्नि सबको समान रूप से जलाती है, वैसे ही ज्ञान या अज्ञान वश धारण किया गया भस्म भी समान रूप से सभी मनुष्यों को पवित्र करता है।।42।।

नाश्नीयाज्जलमन्नमल्पमपि वा भस्माक्षधृत्या विना भुक्त्वा वाथ गृही वनीपतियतिर्वर्णी तथा सङ्करः।
एनोभुङ् नरकं प्रयाति स तदा गायत्रिजापेन तद् वर्णानां तु यतेस्तु मुख्यप्रणवाजापेन मुक्तिर्भवेत्।।43।।

भस्म तथा रुद्राक्ष धारण के बिना जल अथवा अन्न को अंश मात्र भी नहीं खाना चाहिये। गृहस्थ, वानप्रस्थ सन्यासी और वर्णसंकर जाति का व्यक्ति यदि भस्म एवं रुद्राक्ष को धारण किए बिना भोजन करता है, तो वह मात्र पाप ही खाता है और नरक की ओर प्रस्थान करता है। ऐसे समय में उक्त वर्ण धर्मों का वह व्यक्ति गायत्री मंत्र के जप से तथा यति(सन्यासी) मुख्य प्रणव मंत्र के जप से प्रायश्चित करके मुक्ति प्राप्त कर सकता है।।43।। 

त्रिपुण्ड्रं ये विनिन्दन्ति निन्दन्ति शिवमेव ते।
धारयन्ति  च ये भक्त्या धारयन्ति तमेव ते।।44।।

जो त्रिपुण्ड्र धारण की निंदा करते हैं वे साक्षात शिव  की ही निंदा करते हैं और जो त्रिपुण्ड्र को धारण करते हैं वे साक्षात उन्हीं शिव को ही धारण करते हैं।।44।।

धिग्भस्मरहितं भालं धिग्ग्राममशिवालयम्।
धिगनीशार्चनं जन्म धिग्विद्यामशिवाश्रयाम्।।45।।

 भस्म रहित भाल को धिक्कार है, शिवालय (शिव मंदिर) रहित ग्राम को धिक्कार है, शिवार्चन से रहित जन्म को धिक्कार है और शिव ज्ञान रहित विद्या को धिक्कार है।।45।।

ये निन्दन्ति महेश्वरं त्रिजगतामाधारभूतं हरं ये निन्दन्ति त्रिपुण्ड्रधारणकरं दोषस्तु तद्दर्शने।
ते वै सङ्करसूकरासुरखरश्वक्रोष्टुकीटोपमा जाता एव भवन्ति पापपरमास्ते नारकाः केवलम्।।46।।

जो लोग तीनों लोकों के आधार स्वरूप महेश्वर भगवान शिव की निंदा करते हैं और त्रिपुण्ड्र धारण करने वाले की निंदा करते हैं, उनको तो देखने से ही पाप लगता है। वर्णसंकर, सूअर, असुर, खर (गधा), स्वान, क्रोष्टु (सियार) तथा कीड़े मकोड़ों के समान ही उत्पन्न होते हैं और उन नरकगामी व्यक्तियों का यह जन्म मात्र पाप करने के लिए ही होता है।।46।।

ते दृष्ट्वा शशिभास्करौ निशि दिने स्वपनेऽपि नो केवलं पश्यन्तु श्रुतिरुद्रसूक्तजपतो मुच्येत तेनादृताः।
तत्सम्भाषणतो भवेद्धि नरकं निस्तारवानास्थितं ये भस्मादिविधारणं हि पुरुषं  निन्दन्ति मन्दा हि  ते।।47।।

 भगवान शिव की तथा त्रिपुण्ड्र धारण करने वाले उनके भक्तों की जो निन्दा करते हैं, उन्हें रात में देखने पर चंद्रमा के दर्शन से और दिन में देखने पर सूर्य के दर्शन से शुद्धि प्राप्त होती है। मात्र इतना ही नहीं स्वप्न में भी उन्हें देखने से पाप लगता है, अतः स्वप्न में जो उन्हें देखे, उसको अपनी शुद्धि के लिए श्रुति में कहे गए रुद्र सूक्त का आदर पूर्वक पाठ करना चाहिये, तभी उससे छुटकारा मिल सकता है। उनसे बात करने से नरक होता है। उस नरक से मुक्ति प्राप्त करना असम्भव है। जो भस्म, त्रिपुण्ड्र आदि धारण करने वाले पुरुष की निन्दा करते हैं, वे निश्चित ही मूर्ख हैं।।47।।

न तान्त्रिकस्त्वधिकृतो नोर्ध्वपुण्ड्रधरो मुने।
सन्तप्तचक्रचिह्नोऽत्र शिवयज्ञे बहिष्कृतः।।48।।

हे मुने! तांत्रिक, उर्ध्वत्रिपुण्ड्र धारण करने वाले तथा तपाये हुए चक्र आदि चिह्नों को धारण  करने वाले इस शिवयज्ञ  के अधिकारी नहीं है, वे इस यज्ञ से बहिष्कृत हैं।।48।।

तत्रैते बहवो लोका बृहज्जाबालचोदिताः।
ते विचार्याः प्रयत्नेन ततो भस्मरतो भवेत्।।49।।

बृहज्जाबालोपनिषद में कहे गये वे लोग ही उस यज्ञ में अधिकारी हैं। प्रयत्न पूर्वक उन्हें शिव यज्ञ के कार्य में सम्मिलित करना चाहिये। उन्हें भस्म लगाना चाहिये।।49।।

यच्चन्दनैश्चन्दनकेऽपि मिश्रं धार्यं हि भस्मैव त्रिपुण्ड्र भस्मना।
विभूतिभालोपरि किञ्चनापि धार्यं सदा नो यदि सन्ति बुद्धयः।।50।।

 विभूति का चंदन से या चंदन में विभूति का मिश्रण कर बनाये गये मिश्रित भस्म से मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये। कुछ भी हो मस्तक पर विभूति धारण करना आवश्यक है। यदि बुद्धि नहीं है तो भी यह करना सदा लोगों के लिए आवश्यक ही है।।50।।

स्त्रीभिस्त्रिपुण्ड्रमलकखवधि धारणीयं भस्म द्विजादिभिरथो विधवाभिरेवम्।
तद्वत्सदाश्रमवतां विशदा विभूतिर्धार्यापवर्गफलदा सकलाघहन्त्री।।51।।

ब्रह्मचारिणी,सधवा तथा विधवा स्त्रियों और ब्राह्मण द्विजों  को केशपर्यन्त भस्म धारण करना चाहिये। इसी प्रकार ब्रह्मचर्यादि आश्रम वालों को भी स्वच्छ विभूति धारण करना उचित है, क्योंकि विभूति मोक्ष देने वाली और समस्त पापों का नाश करने वाली है।।51।।

त्रिपुण्ड्रं कुरुते यस्तु भस्मना विधिपूर्वकम्।
महापातकसङ्घातैर्मुच्यते चोपपातकैः।।52।।

जो भस्म द्वारा विधिपूर्वक त्रिपुण्ड्रधारण करता है वह ब्रह्महत्यादि महापातक समूहों और उच्छिष्ट अन्नादिभक्षण उपपातकों से मुक्त हो जाता है।।52।।

ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थो थवा यतिः।
ब्रह्मक्षत्राश्च विट्शूद्रास्तथान्ये पतिताधमाः।।53।।

उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च धृत्वा शुद्धा भवन्ति च।
भस्मनो विधिना सम्यक् पापराशिं विहाय च।।54।।

 ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी और सन्यासी ये चारों आश्रम, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य वर्णसंकर ये चारों वर्ण और उपवर्ण के लोग पतित अथवा नीच मनुष्य भी विधिपूर्वक शरीर पर भस्म  उद्धूलन और त्रिपुण्ड्र धारण करके शुद्ध हो जाते हैं। क्योंकि सम्यक रूप से धारण की गई भस्म से तत्काल ही पाप राशि से मुक्ति प्राप्त हो जाती है।।53-54।।

भस्मधारी विशेषेण स्त्रीगोहत्यादिपातकैः।
वीरहत्याश्वहत्याभ्यां मुच्यते नात्र संशयः।।55।।
भस्म धारण करने वाला व्यक्ति विशेष रूप से स्त्री हत्या,गौ हत्या, वीर हत्या और अश्वहत्या आदि पापों से मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।।55।।

परद्रव्यापहरणं परदाराभिमर्शनम्।
परनिन्दां परक्षेत्रहरणं परपीडनम्।।56।।

सस्यारामादिहरणं गृहदाहादिकर्म च।
गोहिरण्यमहिष्यादितिलकम्बलवाससाम्।।57।।

अन्नधान्यजलादीनां नीचेभ्यश्च परिग्रहः।
दाशवेश्यामतङ्गीषु वृषलीषु नटीषु च।।58।।

रजस्वलासु कन्यासु विधवासु च मैथुनम्।
मांसचर्मरसादीनां लवणस्य च विक्रयः।।59।।

पैशुन्यं कूटवादश्च साक्षिमिथ्याभिलाषिणाम्।
एवमादीन्यसङ्ख्यानि पापानि  विविधानि च।
सद्य एव विनश्यन्ति त्रिपुण्ड्रस्य च धारणात्।।60।।

 दूसरे के द्रव्य का अपहरण, पराई स्त्री का अभिमर्शन, दूसरे की निंदा, पराये खेत का अपहरण, दूसरे को कष्ट देना, फसल और बाग आदि का अपहरण, घर फूँकना (जलाना) आदि कर्म,नीचों से गाय, सोना, भैंस, तिल कंबल, वस्त्र, अन्न,धान्य तथा जल आदि का परिग्रह, दाश( मछुवारा) वेश्या, मतंगी, चाण्डाली, शूद्रा,  नटी, रजस्वला, कन्या और विधवा स्त्रियों से मैथुन, मांस, चर्म,रस तथा नमक का विक्रय, पैशुन्य(चुगली) और अस्पष्ट बात, असत्य गवाही आदि देना। इस प्रकार से अन्य असंख्य विभिन्न प्रकार के पाप त्रिपुण्ड्र धारण करने के प्रभाव से तत्काल ही नष्ट हो जाते हैं।।56-57-58-59-60।।

शिवद्रव्यापहरणं शिवनिन्दख च कुत्रचित्।
निन्दा च शिवभक्तानां प्रायश्चत्तैर्न शुध्यति।।61।।

भगवान शिव के द्रव्य का अपहरण और जहाँ कहीं शिव की निंदा करने वाला तथा शिव के भक्तों की निंदा करने वाला व्यक्ति प्रायश्चित करने पर भी शुद्ध नहीं होता है।।61।।

रुद्राक्षं यस्य गात्रेषु ललाटे तु त्रिपुण्ड्रकम्।
स चाण्डाल़ोऽपि सम्पूज्यः सर्ववर्णोत्तमोत्तमः।।62।।

जिसने शरीर पर रुद्राक्ष और मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण किया है, ऐसा मनुष्य यदि चाण्डाल भी है, तो भी वह सभी वर्णों में श्रेष्ठतम और सम्पूज्य है।।62।।

यानि तीर्थानि लोकेऽस्मिन् गङ्गाद्याः सरितश्च याः।
स्नातो भवति सर्वत्र ललाटे यस्त्रिपुण्ड्रकम्।।63।।

 जो मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह इस संसार में जितने भी तीर्थ है और गंगा आदि जितनी नदियांँ हैं, उन सब में स्नान किए हुए के समान पुण्य फल प्राप्त करने वाला होता है।।63।।

 सप्तकोटिमहामन्त्राः पञ्चाक्षरपुरस्सराः।
तथान्ये कोटिशो मन्त्राः शैवकैवल्यहेतवः।।64।।

पञ्चाक्षर मन्त्र से लेकर सात करोड़ महामन्त्र और अन्य करोड़ो मन्त्र शिवकैवल्य को प्रदान करनेवाले होते हैं।।64।।

अन्ये मन्त्राश्च देवानां सर्वसौख्यकरा मुने।
ते सर्वे तस्य वश्याः स्युर्यो बिभर्ति त्रिपुण्ड्रकम्।।65।।

हे मुने! विष्णु आदि देवताओं के लिए प्रतिपादित अन्य जो मन्त्र हैं, वे सभी सुखों को देने वाले हैं, जो त्रिपुण्ड्र धारण करता है, उसके वश में वे सब मन्त्र स्वतः ही हो जाते हैं।।65।।

सहस्त्र पूर्वजातानां सहस्त्रं जनयिष्यताम्।
स्ववंशजानां ज्ञातीनामुद्धरेद्यस्त्रिपुण्ड्रकृत्।।66। 

त्रिपुण्ड्र धारण करने वाला मनुष्य अपने वंश और गोत्र में उत्पन्न हजारों पूर्वजों का और भविष्य में उत्पन्न होने वाली हजारों सन्तानों का उद्धार करता है।।66।।

इह भुक्त्वा खिलान्भोगान्दीर्घायुव्र्याधिवर्जितः।
जीवितान्ते च मरणं सुखेनैव प्रपद्यते।।67।।
अष्टैश्वर्यगणोपेतं प्राप्य दिव्यवपुः शिवम्।
दिव्यं विमानमारुह्य दिव्यत्रिदशसेवितम्।।68।।

 जो त्रिपुंड धारण करता है, उसे इस लोक में रोग रहित दीर्घायु प्राप्त होती है और वह सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके जीवन के अन्तिम समय में सुख पूर्वक ही मृत्यु को प्राप्त करता है। वह मृत्यु के पश्चात अणिमा, महिमा आदि आठों ऐश्वर्यों और सद्गुणों से युक्त दिव्य शरीर वाले शिव को प्राप्त करता है और दिव्यलोक के देवों से सेवित दिव्य विमान पर चढ़कर शिवलोक को जाता है।।67-68।।

विद्याधराणां सर्वेषां गन्धर्वाणां महौजसाम्।
इन्द्रादि लोकपालानां लोकेषु च यथाक्रमम्।।69।।

भुक्त्वा भोगान्सुविपुलान्प्रजेशानां पदेषु च।
ब्रह्मणः पदमासाद्य तत्र कन्याशतं रमेत्।।70।।

 वहांँ पर वह सभी विद्याधरों और महापराक्रमी गन्धर्वों, इन्द्रादि लोकपालों के लोकों में क्रमशः जाकर बहुत से भोगों का उपभोग करता हुआ प्रजापतियों के पदों तथा ब्रह्मा के पद पर आसीन होकर वहां दिव्यलोक की सैकड़ों कन्याओं के साथ आनन्दित होता है।।69-70।।

तत्र ब्रह्मायुषो मानं भुक्त्वा भोगाननेकशः।
विष्णोर्लोके लभेद्भोगं यावद् ब्रह्मशतात्ययः।।71।।
शिवलोकं ततः प्राप्य लब्ध्वेष्टं काममक्षयम्।
शिवसायुज्यमाप्नोति संशयो नात्र जायते।।72।।

वह उस लोक में ब्रह्मा की आयु के बराबर आयु को प्राप्त कर अनेक सुखों का भोग करके विष्णुलोक को जाता है और ब्रह्मा के सौ वर्षों तक सुखों का भोग प्राप्त करता है। तदनन्तर वह शिवलोक को जाकर इच्छानुकूल अक्षय कामनाओं को प्राप्त कर शिव का सानिध्य प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं है।।71-72।।

सर्वोपनिषदां सारं समालोक्य मुहुर्मुहुः।
इदमेव हि निर्णीतं परं श्रेयस्त्रिपुण्ड्रकम्।।73।।

सभी उपनिषदों के सार को बार बार सम्यक रूप से देखकर यही निर्णय लिया गया है कि त्रिपुण्ड्र धारण करना ही परम श्रेष्ठ है।।73।।

विभूतिं निन्दते यो वै ब्राह्मणः सोऽन्यजातकः।
प्रयाति नरके घोरे यावद् ब्रह्मा चतुर्मुखः।।74।।

 जो ब्राह्मण विभूति की निन्दा करता है, वह ब्राह्मण नहीं है, अपितु अन्य जाति का है और विभूति निन्दा के कारण उसे चतुर्मुख ब्रह्मा की आयु सीमा तक नरक भोगना पड़ता है।।74।।

श्राद्धे यज्ञे जपे होमे वैश्वदेवे सुरार्चने।
धृतत्रिपुण्ड्र पूतात्मा मृत्यं जयति मानवः।।75।।

 श्राद्ध, यज्ञ, जप, होम, बलिवैश्वदेव और देव पूजन के समय जो पूतात्मा मनुष्य त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह मृत्यु को भी जीत लेता है।।75।।

जलस्नानं मलत्यागे भस्मस्नानं सदा शुचिः।
मन्त्रस्नानं हरेत्पापं ज्ञानस्नानं परं पदम्।।76।।

 मल त्याग करने पर शुद्धि के लिये जल स्नान किया जाता है, भस्म स्नान करने पर सदा पवित्रता आती है, मन्त्र स्नान पाप का हरण करता है और ज्ञानरूपी जल में अवगाहन करने पर परम पद की प्राप्ति होती है।।76।।

भस्मस्नानं परं तीर्थं गङ्गास्नानं दिने दिने।
भस्मरुपी शिवः साक्षाद्भस्म त्रैलोक्यपावनम्।।77।।

 भस्म स्नानही परमश्रेष्ठ तीर्थ है, जो प्रतिदिन गङ्गा तीर्थ स्नान के समान है, भस्म तो भस्मरुपी साक्षात शिव है, भस्म त्रैलोक्य को पवित्र करने वाला है।।77।।

सर्वतीर्थेषु यत्पुण्यं सर्वतीर्थेषु यत्फलम्।
तत्फलं समवाप्नोति भस्मस्नान करो नरः।।78।।

समस्त तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य और फल प्राप्त होता है, वह फल, भस्म स्नान करने वाले को प्राप्त हो जाता है।।78।।

नतत्स्नानं न तद्ध्यानं न तद्दानं जपो न सः।
त्रिपुण्ड्रेण विना येन विप्रेण यदनुष्ठितम्।।79।।

बिना त्रिपुण्ड्र धारण किए हुए जो ब्राह्मण स्नान, ध्यान, दान और जप आदि अनुष्ठान कर्म करता है, वह न तो स्नान है, न ध्यान है, न दान है, और न जप, आदि अन्य अनुष्ठित कर्म ही हैं।।79।।

वानप्रस्थस्य कन्यानां दीक्षाहीननृणां तथा।
मध्याह्नात्प्राग्जलैर्युक्तं परतो जलवर्जितम्।।80।।
एवं त्रिपुण्ड्रं यः कुर्यान्नित्यं नियतमानसः।
शिवभक्तः स विज्ञेयो भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति।।।81।।

वानप्रस्थ, कन्या और दीक्षा रहित मनुष्यों को मध्याह्न के पूर्व ही जल से युक्त त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये, किंतु मध्याह्न के पश्चात जलरहित भस्म से त्रिपुण्ड्र धारण करना उचित है। इस प्रकार श्रद्धा पूर्वक दृढ़ निश्चय वाला जो व्यक्ति नित्य त्रिपुण्ड्र धारण करता है, उसे ही शिवभक्त जानना चाहिये, उसी को भुक्ति तथा मुक्ति भी प्राप्त होती है।।80-81।।

यस्याङ्गे नैव रुद्राक्ष एकोऽपि बहुपुण्यदः।
तस्य जन्म निरर्थं स्यात्त्रिपुण्ड्ररहितो यदि।।82।।

जिसके अंग पर प्रचुर पुण्य देने वाला एक भी रुद्राक्ष नहीं है और वह त्रिपुण्ड्र से भी रहित है, उसका जन्म लेना व्यर्थ है।।82।।

एवं त्रिपुण्ड्र माहात्म्यं समासात् कथितं मया।
रहस्यं सर्वजन्तूनां गोपनीयमिदं त्वया।।83।।

इसके पश्चात भस्म धारण तथा त्रिपुण्ड्र की महिमा एवं विधि बताकर सूत जी ने फिर कहा। हे महर्षियो! इस प्रकार मैंने संक्षेप से त्रिपुण्ड्र का माहात्म्य बताया है। यह समस्त प्राणियों के लिये गोपनीय रहस्य है। अतः आपको भी इसे गुप्त ही रखना चाहिये।।83।।

तिस्त्रो रेखा भवन्त्येव स्थानेषु मुनिपुङ्गवाः।
ललाटादिषु सर्वेषु यथोक्तेषच बुधैर्मुने।।84।।

मुनिवरो! ललाट आदि सभी निर्दिष्ट स्थानों में जो भस्म से तीन तिरछी रेखाएं बनायी जाती हैं, उन्ही को विद्वानों ने त्रिपुण्ड्र कहा है।।84।।

भ्रुवोर्मध्यं समारभ्य यावदन्तो भवेद् भ्रुवोः।
तावत्प्रमाणं सन्धार्यं ललाटे च त्रिपुण्ड्रकम्।।85।।

भौहों के के मध्य भाग से लेकर जहां तक भौहों का अन्त है, उतना बड़ा त्रिपुण्ड्र ललाट में धारण करना चाहिये।।85।।

मध्यमानामिकाङ्गुल्या मध्ये तु प्रतिलोमतः।
अङ्गुष्ठेन कृता रेखा त्रिपुण्ड्राख्याभिधीयते।।86।।

मध्येऽङ्गुलिभिरादाय तिसृभिर्भस्म यत्नतः।
त्रिपुण्ड्रं धारयेद्भक्त्या भुक्तिमुक्तिप्रदं परम्।।87।।

मध्यमा और अनामिका अँगुली से दो रेखाएं करके बीच में अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से की गई रेखा त्रिपुण्ड्र कहलाती है अथवा बीच की तीन अँगुलियों से भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्ति भाव से ललाट में त्रिपुण्ड्र धारण करे। त्रिपुण्ड्र अत्यन्त उत्तम तथा भोग और मोक्ष को देने वाला है।।86-87।।

 त्रिसृणामपि रेखानां प्रत्येकं नवदेवताः।
सर्वत्राङ्गेषु ता वक्ष्ये सावधानतया श्रृणु।।88।।

 त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाओं में से प्रत्येक के नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अंगों में स्थित हैं, मैं उनका परिचय देता हूंँ सावधान होकर सुनें।।88।।

अकारो गार्हपत्याग्निर्भूर्धर्मश्च रजोगुणः।
ऋगवेदश्च क्रियाशक्तिः प्रातः सवनमेव च।।89।।

महादेवश्च रेखायाः प्रथमायाश्च देवता।
विज्ञेया मुनिशार्दूलाः शिवदीक्षापरायणैः।।90।।

हे मुनिवरो! प्रणव का प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋगवेद, क्रियाशक्ति, प्रातःसवन तथा महादेव- ये त्रिपुण्ड्र की प्रथम रेखा के नौ देवता हैं, यह बात शिवदीक्षापरायण  पुरुषों को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये।।89-90।।

उकारो दक्षिणाग्निश्च नभस्तत्त्वं यजुस्तथा।
मध्यन्दिनं च सवनमिच्छाशक्त्यन्तरात्मकौ।।91।।

महेश्वरश्च रेखाया द्वितीयायाश्च देवता।
विज्ञेया मुनिशार्दूल शिवदीक्षापरायणैः।।92।।

हे मुनिश्रेष्ठो! प्रणव का दूसरा अक्षर उकार दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्त्वगुण, यजुर्वेद, माध्यन्दिनसवन, इच्छाशक्ति अन्तरात्मा तथा महेश्वर- यह दूसरी रेखा के नौ देवता हैं ऐसा शिव दीक्षित लोगों को जानना चाहिये।।91-92।।

मकाराहवनीयो च परमात्मा तमो दिवौ।
ज्ञानशक्तिः सामवेदस्तृतीयं सवनं तथा।।93।।
शिवश्चैव च रेखायास्तृतीयायाश्च देवता।
विज्ञेया मुनिशार्दूल शिवदीक्षापरायणैः।।94।।

हे मुनिश्रेष्ठो! प्रणव का तीसरा अक्षर मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीय सवन तथा शिव- ये तीसरी रेखा के नौ देवता हैं, ऐसा शिव दीक्षित भक्तों को जानना चाहिये।।93-94।।

एवं नित्यं नमस्कृत्य सद्भक्त्या स्थानदेवताः।
त्रिपुण्ड्रं धारयेच्छुद्धो भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति।।95।।

इस प्रकार स्थान देवताओं को उत्तम भक्तिभाव से नित्य नमस्कार करके स्नान आदि से शुद्ध हुआ पुरुष यदि त्रिपुण्ड्र धारण करे, तो भोग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है।।95।।

इत्युक्ताः स्थान देवाश्च सर्वाङ्गेषु मुनीश्वराः।
तेषां सम्बन्धिनो भक्त्या स्थानानि श्रृणु साम्प्रतम्।।96।।

हे मुनीश्वरो! ये सम्पूर्ण अंगों  में स्थान देवता बताये गये हैं, अब उनसे सम्बन्धित स्थान बताता हूंँ, भक्ति पूर्वक सुनिये।।96।।

द्वात्रिंशत्स्थानके वार्धषोडसशस्थानकेऽपि च।
अष्टस्थाने तथा चैव पञ्चस्थानेऽनान्यसेत्।।97।।
उत्तमाङ्गे ललाटे च कर्णयोर्नेत्रयोस्तथा।
नासावक्त्रगलेष्वेवं हस्तयोरुभयोस्ततः।।98।।
कूर्परे मणिबन्धे च ह।दये पार्श्वयोर्द्वयोः।
नाभौ मुष्कद्वये चैवमूर्वोर्गुल्फे च जानुनि।।99।।
जङ्घाद्वये पदद्वन्द्वे द्वात्रिंशत्स्थान मुत्तमम्।
अग्न्यब्भूवायुदिग्देश दिक्पालान् वसुभिः सह।।100।।

बत्तीस,सोलह, आठ अथवा पाँच स्थानों में मनुष्य त्रिपुण्ड्र का न्यास करे। मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों हाथ, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, दोनों पार्श्वभाग,नाभि,दोनों अण्डकोष, दोनों उरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिण्डली और दोनों पैर - ये बत्तीस उत्तम स्थान हैं, इनमें क्रमशः अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, दिक्प्रदेश,दस दिक्पाल तथा आठ वसुओं का निवास है।।97-98-99-100।।

धरा ध्रुवश्च सोमश्च आपश्चैवानिलोऽनलः।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्ट प्रकीर्तिताः।।101।।
एतेषां नाममात्रेण त्रिपुण्ड्रं धारयेद् बुधः।
कुर्याद्वा षोडशस्थाने त्रिपुण्ड्रं तु समाहितः।।102।।

धरा (धर), ध्रुव, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास ये आठ वसु कहे गये हैं। इन सबका नाममात्र लेकर इनके स्थानों में विद्वान पुरुष त्रिपुण्ड्र धारण करे अथवा एकाग्रचित्त होकर सोलह स्थानों में ही त्रिपुण्ड्र धारण करे।।101-102।।

शीर्षके च ललाटे च कण्ठे चांसद्वये भुजे।
कूर्परे मणिबन्धे च हृदये नाभिपार्श्वके।।103।।
पृष्ठे चैवं प्रतिष्ठाप्य यजेत्तत्राश्विदैवते।
शिवं शक्तिं तथा रुद्रमीशं नारदमेव च।।104।।

वामादिनवशक्तीश्च एता षोडश देवताः।
नसत्यौ दस्त्रकश्चैव अश्विनौ द्वौ प्रकीर्तितौ।।105।।

 मस्तक, ललाट, कण्ठ, दोनों कन्धों, दोनों भुजाओं, दोनों कोहनियों, दोनों कलाइयों में, हृदय में,नाभि में, दोनों पसलियों में, तथा पृष्ठ भाग में त्रिपुण्ड्र लगाकर वहांँ दोनों अश्विनी कुमारों, शिव,शक्ति, रुद्र, ईश तथा नारद का और वामा आदि नौ शक्तियों का पूजन करे। ये सब मिलकर सोलह देवता हैं। अश्विनी कुमार युगल कहे गये हैं-नासत्य और दस्त्र।।103-105।।

 अथवा मूर्ध्नि केशे च कर्णयोर्वदने तथा।
बाहुद्वये च हृदये नाभ्यामूरुयुगे तथा।।106।।
जानुद्वये च पदयोः पृष्ठभागे च षोडश।
शिवश्चन्द्रश्च रुद्रः को विघ्नेशो विष्णुरेव वा।।107।।

श्रीश्चैव हृदये शम्भुस्तथा नाभौ प्रजापतिः।
नागश्च नागकन्याश्च उभयोर्ऋषिकन्यकाः।।108।।
पादयोश्च समुद्राश्च तीर्थाः पृष्ठे विशालतः।
इत्येवं षोडशस्थानमष्टस्थानम  थोच्यते।।109।।

अथवा मस्तक, केश, दोनों कान, मुख, दोनों भुजा, हृदय, नाभि, दोनों उरू, दोनों जानु, दोनों पैर और पृष्ठभाग -इन सोलह स्थानों में सोलह त्रिपुण्ड्र का न्यास करे। मस्तक में शिव, केशों में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा, मुख में विघ्नराज गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, हृदय में शम्भू, नाभि में प्रजापति, दोनों ऊरुओं में नाग और  नाग कन्यायें, दोनों घुटनों में ऋषि कन्यायें, दोनों पैरों में समुद्र तथा विशाल पृष्ठ भाग में सम्पूर्ण तीर्थ देवता रूप से विराजमान हैं। इस प्रकार सोलह स्थानों का परिचय दिया गया। अब आठ स्थान बताये जा रहे हैं।।106-107-108-109।।

 गुह्यस्थानं ललाटश्च कर्णद्वयमनुत्तमम्।
अंसयुग्मं च हृदयं नाभिरित्येवमष्टकम्।।110।।
ब्रह्मा च ऋषयः सप्त देवताश्च प्रकीर्तिताः।
इत्येवं तु समुद्दिष्टं भस्म विद्भिर्मुनीश्वराः।।111।।
अथवा मस्तकं बाहू हृदयं नाभिरेव च।
पञ्चस्थानान्यमून्याहुर्धारणे भस्मविज्जनाः।।112।।
यथासम्भवनं कुर्याद्देशकालाद्यपेक्षया।
उद्धूलनेऽप्यशक्तश्चेत्त्रिपुण्ड्रादीनि कारयेत्।।113।।

गुह्यस्थान, ललाट, परम उत्तम कर्ण युगल, दोनों कन्धे,हृदय और नाभि  ये आठ स्थान हैं। इनमें ब्रह्मा तथा सप्तऋषि ये आठ देवता बताये गये हैं। हे मुनीश्वरो भस्म के स्थान को जानने वाले विद्वानों ने इस तरह आठ स्थानों का परिचय दिया है। अथवा मस्तक, दोनों भुजायें, हृदय और नाभि इन पांँच स्थानों को भस्मवेत्ता पुरुषों ने भस्म धारण के योग्य बताया है। यथासम्भव देश, काल आदि की अपेक्षा रखते हुए उद्धूलन (भस्म) को अभिमन्त्रित करना और जल में मिलाना आदि कार्य करे। यदि उद्धूलन में भी असमर्थ हो, तो त्रिपुण्ड्र आदि लगाये।।110-111-112-113।।

 त्रिनेत्रं त्रिगुणाधारं त्रिदेव जनकं शिवम्।
स्मरन्नमः शिवायेति ललाटे तु त्रिपुण्ड्रकम्।।114।।

ईशाभ्यां नम इत्युक्त्वा पार्श्वयोश्च त्रिपुण्ड्रकम्।बीजाभ्यां नम इत्युक्त्वा धारयेत्तु प्रकोष्ठयोः।।15।।*

कुर्यादधः पितृभ्यां च उमेशाभ्यां तथोपरि।
भीमायेति ततः पृष्ठे शिरसः पश्चिमे तथा।।116।।

त्रिनेत्रधारी तीनों गुणों के आधार तथा तीनों देवताओं के जनक भगवान शिव का स्मरण करते हुए 'नमः शिवाय' कहकर ललाट में त्रिपुण्ड्र लगाये। 'ईशाभ्या नमः' ऐसा कहकर दोनों पार्श्वभागों में त्रिपुण्ड्र धारण करे। 'वीजाभ्यां नमः' बोलकर दोनों प्रकोष्ठों में भस्म लगाये। 'पितृभ्यां नमः' कहकर नीचे के अंग में, 'उमेशाभ्यां नमः' कहकर ऊपर के अंग में तथा 'भीमाय नमः' कहकर पीठ में और सिर के पिछले भाग में त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिए।।114-115-116।।

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां भस्मधारण वर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः।।24।।

 🙏🏿जय बाबा की🙏🏿
बाबाचरण दास