प्रथमा विद्येश्वरसंहिता
अथ चतुर्विंशोऽध्यायः
सूत उवाच
द्विविधं भस्म सम्प्रोक्तं सर्वमङ्गलदं परम्।
तत्प्रकारमहं वक्ष्ये सावधानतया श्रृणु।।1।।
सूत जी बोले- हे महर्षियो! भस्म सम्पूर्ण मंगलों को देने वाला तथा उत्तम है, उसके दो भेद बताये गये हैं। मैं उन भेदों का वर्णन करता हूंँ, आप लोग सावधान होकर सुनिये।।1।।
एकं ज्ञेयं महाभस्म द्वितीयं स्वल्पसंज्ञकम्।
महाभस्म इति प्रोक्तं भस्म नानाविधं परम्।।2।।
तद्भस्म त्रिविधं प्रोक्तं श्रौतं स्मार्तं च लौकिकम्।
भस्मैव स्वल्पसंज्ञं हि बहुधा परिकीर्तितम्।।3।।
श्रौतं भस्म तथा स्मार्तं द्विजनामेव कीर्तितम्।
अन्येषामपि सर्वेषामपरं भस्म लौकिकम्।।4।।
एक को 'महाभस्म' जानना चाहिये और दूसरे को 'स्वल्प भस्म'। महाभस्म के भी अनेक भेद हैं। वह तीन प्रकार का कहा गया है- श्रौत, स्मार्त और लौकिक। स्वल्प भस्म के भी बहुत से भेदों का वर्णन किया गया है। श्रौत और स्मार्त भस्म को केवल द्विजों के ही उपयोग में आने के योग्य कहा गया है। तीसरा जो लौकिक भस्म है, वह अन्य लोगों के भी उपयोग में आ सकता है।।2-3-4।।
धारणं मन्त्रतः प्रोक्तं द्विजानां मुनिपुङ्गवैः।
केवलं धारणं ज्ञेयमन्येषां मन्त्रवर्जितम्।।5।।
श्रेष्ठ महर्षियों ने यह बताया है कि द्विजों को वैदिक मंत्र के उच्चारण पूर्वक भस्म धारण करना चाहिये। दूसरे लोगों के लिए बिना मंत्र के ही केवल धारण करने का विधान है।।5।।
आग्नेयमुच्यते भस्म दग्धगोमयसम्भवम्।
तदपि द्रव्यमित्युक्तं त्रिपुण्ड्रस्य महामुने।।6।।
जले हुए गोबर से उत्पन्न होने वाला भस्म आग्नेय कहलाता है। हे महामुने! वह भी त्रिपुण्ड्रका द्रव्य है- ऐसा कहा गया है।।6।।
अग्निहोत्रोत्थितं भस्म सङ्ग्राह्यं वा मनीषिभिः।
अन्ययज्ञोत्थितं वापि त्रिपुण्ड्रस्य च धारणे।।7।।
अग्निहोत्र से उत्पन्न हुए भस्म का भी मनीषी पुरुषों को संग्रह करना चाहिये। अन्य यज्ञ से प्रकट हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड्र धारण के काम में आ सकता है।।7।।
अग्निरित्यादिभिर्मन्त्रैर्जाबालोपनिषद्गतैः।
सप्तभिर्धूलनं कार्यं भस्मना सजलेन च।।8।।
जावालोपनिषद में आये हुए अग्निः इत्यादि सात मंत्रों द्वारा जल मिश्रित भस्म से धूलन (विभिन्न अंगों में मर्दन या लेपन) करना चाहिये।।8।।
वर्णानामाश्रमाणां च मन्त्रतोऽमन्त्रतोऽपि च।
त्रिपुण्ड्रोद्धूलनं प्रोक्तं जाबालैरादरेण च।।9।।
महर्षि जाबालि ने सभी वर्णों और आश्रमों के लिये मन्त्र से या बिना मन्त्र के भी आदरपूर्वक भस्म से त्रिपुण्ड्र लगाने की आवश्यकता बतायी है।।9।।
भस्मनोद्धूलनं चैव धृतं तिर्यक् त्रिपुण्ड्रकम्।
प्रमादादपि मोक्षार्थी न त्यजेदिति वै श्रुतिः।।10।।
समस्त अंगों में सजल भस्म को मलना अथवा विभिन्न अंगों में तिरछा त्रिपुण्ड्र लगाना-इन कार्यों को मोक्षार्थी पुरुष प्रमाद से भी न छोड़े। ऐसा श्रुति का आदेश है।।10।।
शिवेन विष्णुना चैव धृतं तिर्यक् त्रिपुण्ड्रकम्।
उमादेव्या च लक्ष्म्या च स्तुतमन्यैश्च नित्यशः।।11।।
भगवान शिव और विष्णु ने भी तिर्यक् त्रिपुण्ड्र धारण किया है। अन्य देवियों सहित भगवती उमा और लक्ष्मी देवी ने भी वाणी द्वारा इसकी प्रशंसा की है।।11।।
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः शूद्रैरपि च सङ्करैः।
अपभ्रंशैर्धृतं भस्म त्रिपुण्ड्रोद्धूलनात्मना।।12
ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, वर्णसंकरों तथा जाति भ्रष्ट पुरुषों ने भी उद्धूलन एवं त्रिपुण्ड्र के रूप में भस्म को धारण किया है।।12।।
उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषां नास्ति समाचारो वर्णाश्रम समन्वितः।।13।।
जो लोग श्रद्धा पूर्वक शरीर में भस्म का उद्धलन(लेप) तथा त्रिपुण्ड्र धारण करने का आचरण नहीं करते हैं, उनमें वर्णाश्रम समन्वित सदाचार की कमी है।।13।।
उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषां नास्ति विनिर्मुक्तिः संसाराज्जन्मकोटिभिः।।14।।
जिनके द्वारा श्रद्धा पूर्वक शरीर में भस्मलेप और त्रिपुण्ड्रधारण नहीं किया जाता है, उनकी विनिर्मुक्ति करोड़ों जन्मों में भी संसार से संभव नहीं है।।14।।
उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषां नास्ति शिवज्ञानं कल्पकोटिशतैरपि।।15।।
जो श्रद्धा पूर्वक शरीर में भस्मलेप और त्रिपुण्ड्रधारण का आचार पालन नहीं करते हैं, उन्हें सौ करोड़ कल्पों में भी शिव का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है।।15।।
उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
ते महापातकैर्युक्ता इति शास्त्रीयनिर्णयः।।16।।
जो श्रद्धा पूर्वक भस्मलेप तथा त्रिपुण्ड्रधारण का आचरण नहीं करते हैं, वे महापातकों से युक्त हो जाते हैं, ऐसा शास्त्रों का निर्णय है।।16।।
उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च श्रद्धया नाचरन्ति ये।
तेषामाचरितं सर्वं विपरीतफलाय हि।।17।।
जो श्रद्धा पूर्वक भस्मोद्धूलन और त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करते हैं, उन लोगों का सम्पूर्ण आचरण विपरीत फल प्रदान करने वाला हो जाता है।।17।।
महापातकयुक्तानां जन्तूनां शर्वविद्विषाम्।
त्रिपुण्ड्रोद्धूलनद्वेषो जायते सुदृणं मुने।।18।।
हे मुनियों! जो महापातकों से युक्त और समस्त प्राणियों से द्वेष करने वाले हैं, वही त्रिपुण्ड्र धारण तथा भस्मोद्धूलन से अत्यधिक द्वेष करते हैं।।18।।
शिवाग्निकार्यं यः कृत्वा कुर्यात्त्रियायुषात्मवित्।
मुच्यते सर्वपापैस्तु स्पृष्टेन भस्मना नरः।।19।।
जो आत्मज्ञानी मनुष्य शिवाग्नि (अग्निहोत्र) का कार्य करके 'त्रयायुषं जमदग्नेः' इस मंत्र से भस्म का मात्र स्पर्श ही कर लेता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।।19।।
सितेन भस्मना कुर्यात्त्रिसन्ध्यं यस्त्रिपुण्ड्रकम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवेन सह मोदते।।20।।
जो मनुष्य तीनों संध्याकालों में श्वेत भस्म के द्वारा त्रिपुण्ड्र धारण करता है वह समस्त पापों से मुक्त होकर शिव सानिध्य का आनंद भोगता है।।20।।
सितेन भस्मना कुर्याल्ललाटे तु त्रिपुण्ड्रकम्।
योऽसावनादिभूतान्हि लोकानाप्तोयोऽमृतो भवेत्।।21।।
जो व्यक्ति श्वेत भस्म से अपने मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह अनादि भूत लोकों को प्राप्त कर अमर हो जाता है।।21।।
अकृत्वा भस्मना स्नानं न जपेद्वै षडक्षरम्।
त्रिपुण्ड्रं च रचित्वा तु विधिना भस्मना जपेत्।।22।।
बिना भस्म स्नान किये षडक्षर (ॐ नमः शिवाय) मन्त्र का जप नहीं करना चाहिये। विधिपूर्वक भस्म से त्रिपुण्ड्र धारण करके ही इसका जप करना चाहिये।।22।।
अदयो वाधमो वापि सर्वपापान्वितोऽपि वा।
उपपापान्वितो वापि मूर्खो वा पतितोऽपि वा।।23।।
यस्मिन्देशे वसेन्नित्यं भूतिशासनसंयुतः।
सर्वतीर्थैश्च क्रतुभिः सान्निध्यं क्रियते सदा।।24।।
दयाहीन,अधम,महापापों से युक्त, उपपापों से युक्त, मूर्ख अथवा पतित व्यक्ति भी जिस देश में नित्य भस्म धारण करते रहते हैं, वह देश सदैव सम्पूर्ण तीर्थों और यज्ञ से परिपूर्ण ही रहता है।।23-24।।
त्रिपुण्ड्रसहितो जीवः पूज्यः सर्वैः सुरासुरैः।
पापान्वितोऽपि शुद्धात्मा किं पुनः श्रद्धया युतः।।25।।
त्रिपुण्ड्र धारण करने वाला पापी जीव भी समस्त देवताओं और असुरों के द्वारा पूज्य है। यदि पुण्यात्मा त्रिपुण्ड्र से युक्त है तो उसके लिए कहना ही क्या।।25।।
यस्मिन्देशे शिवज्ञानी भूतिशासनसंयुतः।
गतो यदृच्छयाद्यापि तस्मिंस्तीर्थाः समागताः।।26।।
भस्म धारण करने वाला शिव ज्ञानी जिस देश में स्वेच्छया चला जाता है, उस देश में समस्त तीर्थ आ जाते हैं।।26।।
बहुनात्र किमुक्तेन धार्यं भस्म सदा बुधैः।
लिङ्गार्चनं सदा कार्यं जप्यो मन्त्रः षडक्षरः।।27।।
इस विषय में और अधिक क्या कहा जाय! विद्वानों को सदैव भस्म धारण करना चाहिये एवं लिंगार्चन करके षडक्षर मंत्र का जप करना चाहिये।।27।।
ब्रह्मणा विष्णुना वापि रुद्रेण मुनिभिः सुरैः।
भस्मधारण माहात्म्यं न शक्यं परिभाषितुम्।।28।।
ब्रह्मा,विष्णु, रुद्र, मुनि गण, और देवताओं के द्वारा भी भस्म धारण करने के महत्व का वर्णन किया जाना संभव नहीं है।।28।।
इति वर्णाश्रमाचारो लुप्तवर्णक्रियोऽपि च।
पापात्सकृत्त्रिपुण्ड्रस्य धारणात्सोऽपि मुच्यते।।29।।
जिसने अपने वर्ण तथा आश्रमधर्म से सम्बन्धित आचार तथा क्रियाएं लुप्त कर दी हैं, यदि वह भी त्रिपुण्ड्र धारण करता है, तो समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।।29।।
ये भस्मधारिणं त्यक्त्वा कर्म कुर्वन्ति मानवाः।
तेषां नास्ति विनिर्मोक्षः संसाराज्जन्मकोटिभिः।।30।।
जो भस्म धारण करने वाले को त्याग कर धार्मिक कृत्य करते हैं, उनको करोड़ों जन्म लेने पर भी संसार से मुक्ति प्राप्त नहीं हो पाती है।।30।।
तेनाधीतं गुरोः सर्वं तेन सर्वमनुष्ठितम्।
येन विप्रेण शिरसि त्रिपुण्ड्रं भस्मना कृतम्।।31।।
जिस ब्राह्मण ने भस्म से अपने सिर पर त्रिपुण्ड्र धारण कर लिया है, उसने मानो गुरु से सब कुछ पढ़ लिया है और सभी धार्मिक अनुष्ठान कर लिये हैं।।31।।
ये भस्म धारिणं दृष्ट्वा नराः कुर्वन्ति ताडनम्।
तेषां चण्डालतो जन्म ब्रह्मन्नूह्यं विपश्चिता।।32।।
जो मनुष्य भस्म धारण करने वाले को देख कर उसे कष्ट देते हैं, वे निश्चित ही चाण्डाल से उत्पन्न हुए हैं, ऐसा विद्वानों को जानना चाहिये।।32।।
मानस्तोकेन मन्त्रेण मन्त्रितं भस्म धारयेत्।
ब्राह्मणः क्षत्रियश्चैव प्रोक्तेष्वङ्गेषु भक्तिमान्।।33।।
भक्ति परायण ब्राह्मण और क्षत्रिय को "मानस्तोके तनये मान आयुषि मानो गोषु मानो अश्वेषुरीरिषः। मानो वीरान्न रुद्र भामिनो वधीरिहविष्मन्तः सदमित्वाहवामहे।।" इस मंत्र से अभिमन्त्रित भस्म को शास्त्रसम्मत कहे गये अंगों पर धारण करना चाहिये।।33।।
वैश्यस्त्रियम्बकेनैव शूद्रः पञ्चाक्षरेण तु।
अन्यासां विधवास्त्रीणां विधिः प्रोक्तश्च शूद्रवत्।।34।।
वैश्य "त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिम पुष्टि वर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।"इस मंत्र से और शूद्र "शिवाय नमः" इस पंचाक्षर मन्त्र से भस्म को अभिमन्त्रित कर धारण करें, विधवा स्त्रियों के लिये भस्म धारण की विधि शूद्रों के समान कही गई है।।34।।
पञ्चब्रह्मादिमनुभिर्गृहस्थस्य विधीयते।
त्रियम्बकेन मनुना विधिर्वै ब्रह्मचारिणः।।35।।
अघोरेणाथ मनुना विपिनस्थविधिः स्मृतः।
यतिस्तु प्रणवेनैव त्रिपुण्ड्रादीनि कारयेत्।।36।।
पांँच ब्रह्मादि(अघोर,ईशान,तत्पुरुष,सद्योजात, वामदेव ) मंत्रों से अभिमंत्रित भस्म के द्वारा गृहस्थ त्रिपुण्ड्र धारण करे। ब्रह्मचारी 'त्रयम्बकं यजामहे' है इस मंत्र से भस्म को अभिमंत्रित करके और वानप्रस्थी 'अघोरेभ्योऽथ०' इस मंत्र से भस्म को अभिमंत्रित करके त्रिपुण्ड्र धारण करे, किंतु यति सन्यासी प्रणव के मंत्र से भस्म को अभिमंत्रित करके त्रिपुण्ड्र धारण करे।।35-36।।
अतिवर्णाश्रमी नित्यं शिवोऽहं भावनात्परात्।
शिवयोगी च नियतमीशानेनापि धारयेत्।।37।।
जो वर्णाश्रम धर्म से परे हैं, वह 'शिवोऽहं' इस भावना से नित्य त्रिपुण्ड्र धारण करें और जो शिवयोगी है, वह ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम् ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदा शिवोम्।। इस भावना को करता हुआ त्रिपुण्ड्र धारण करे।।37।।
न त्याज्यं सर्ववर्णैश्च भस्मधारणमुत्तमम्।
अन्यैरपि यथा जीवैः सदेति शिवशासनम्।।38।।
सभी वर्णों के द्वारा भस्म धारण करने के इस उत्तम कार्य को नहीं छोड़ना चाहिये। जीवों को सदा भस्म धारण करना चाहिये, ऐसा भगवान शिव का आदेश है।।38।।
भस्मस्नानेन यावन्तः कणाः स्वाङ्गे प्रतिष्ठिताः।
तावन्ति शिवलिङ्गानि तनौ धत्ते हि धारकः।।39।।
भस्म स्नान करने से जितने कण शरीर में प्रवेश करते हैं, उतने ही शिव लिंगों को वह धारक अपने शरीर में धारण करता है।।39।।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चापि च सङ्कराः।
स्त्रियोऽथ विधवा बालाः प्राप्ता पाखण्डिकास्तथा।।40।।
ब्रह्मचारी गृही वन्यः सन्यासी वा व्रती तथा।
नार्यो भस्मत्रिपुण्ड्राङ्का मुक्ता एव न संशयः।।41।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, स्त्री (सधवा, विधवा) बालक, पाखंडी, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी, व्रती और सन्यासिनी स्त्रियां ये सभी भस्म के त्रिपुण्ड्र धारण के प्रभाव के द्वारा मुक्त हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है।।40-41।।
ज्ञाना ज्ञान धृतो वापि वह्निदाहसमो यथा।
ज्ञानाज्ञानधृतं भस्म पावयेत्सकलं नरम्।।42।।
जैसे ज्ञान या अज्ञानवश धारण की गयी अग्नि सबको समान रूप से जलाती है, वैसे ही ज्ञान या अज्ञान वश धारण किया गया भस्म भी समान रूप से सभी मनुष्यों को पवित्र करता है।।42।।
नाश्नीयाज्जलमन्नमल्पमपि वा भस्माक्षधृत्या विना भुक्त्वा वाथ गृही वनीपतियतिर्वर्णी तथा सङ्करः।
एनोभुङ् नरकं प्रयाति स तदा गायत्रिजापेन तद् वर्णानां तु यतेस्तु मुख्यप्रणवाजापेन मुक्तिर्भवेत्।।43।।
भस्म तथा रुद्राक्ष धारण के बिना जल अथवा अन्न को अंश मात्र भी नहीं खाना चाहिये। गृहस्थ, वानप्रस्थ सन्यासी और वर्णसंकर जाति का व्यक्ति यदि भस्म एवं रुद्राक्ष को धारण किए बिना भोजन करता है, तो वह मात्र पाप ही खाता है और नरक की ओर प्रस्थान करता है। ऐसे समय में उक्त वर्ण धर्मों का वह व्यक्ति गायत्री मंत्र के जप से तथा यति(सन्यासी) मुख्य प्रणव मंत्र के जप से प्रायश्चित करके मुक्ति प्राप्त कर सकता है।।43।।
त्रिपुण्ड्रं ये विनिन्दन्ति निन्दन्ति शिवमेव ते।
धारयन्ति च ये भक्त्या धारयन्ति तमेव ते।।44।।
जो त्रिपुण्ड्र धारण की निंदा करते हैं वे साक्षात शिव की ही निंदा करते हैं और जो त्रिपुण्ड्र को धारण करते हैं वे साक्षात उन्हीं शिव को ही धारण करते हैं।।44।।
धिग्भस्मरहितं भालं धिग्ग्राममशिवालयम्।
धिगनीशार्चनं जन्म धिग्विद्यामशिवाश्रयाम्।।45।।
भस्म रहित भाल को धिक्कार है, शिवालय (शिव मंदिर) रहित ग्राम को धिक्कार है, शिवार्चन से रहित जन्म को धिक्कार है और शिव ज्ञान रहित विद्या को धिक्कार है।।45।।
ये निन्दन्ति महेश्वरं त्रिजगतामाधारभूतं हरं ये निन्दन्ति त्रिपुण्ड्रधारणकरं दोषस्तु तद्दर्शने।
ते वै सङ्करसूकरासुरखरश्वक्रोष्टुकीटोपमा जाता एव भवन्ति पापपरमास्ते नारकाः केवलम्।।46।।
जो लोग तीनों लोकों के आधार स्वरूप महेश्वर भगवान शिव की निंदा करते हैं और त्रिपुण्ड्र धारण करने वाले की निंदा करते हैं, उनको तो देखने से ही पाप लगता है। वर्णसंकर, सूअर, असुर, खर (गधा), स्वान, क्रोष्टु (सियार) तथा कीड़े मकोड़ों के समान ही उत्पन्न होते हैं और उन नरकगामी व्यक्तियों का यह जन्म मात्र पाप करने के लिए ही होता है।।46।।
ते दृष्ट्वा शशिभास्करौ निशि दिने स्वपनेऽपि नो केवलं पश्यन्तु श्रुतिरुद्रसूक्तजपतो मुच्येत तेनादृताः।
तत्सम्भाषणतो भवेद्धि नरकं निस्तारवानास्थितं ये भस्मादिविधारणं हि पुरुषं निन्दन्ति मन्दा हि ते।।47।।
भगवान शिव की तथा त्रिपुण्ड्र धारण करने वाले उनके भक्तों की जो निन्दा करते हैं, उन्हें रात में देखने पर चंद्रमा के दर्शन से और दिन में देखने पर सूर्य के दर्शन से शुद्धि प्राप्त होती है। मात्र इतना ही नहीं स्वप्न में भी उन्हें देखने से पाप लगता है, अतः स्वप्न में जो उन्हें देखे, उसको अपनी शुद्धि के लिए श्रुति में कहे गए रुद्र सूक्त का आदर पूर्वक पाठ करना चाहिये, तभी उससे छुटकारा मिल सकता है। उनसे बात करने से नरक होता है। उस नरक से मुक्ति प्राप्त करना असम्भव है। जो भस्म, त्रिपुण्ड्र आदि धारण करने वाले पुरुष की निन्दा करते हैं, वे निश्चित ही मूर्ख हैं।।47।।
न तान्त्रिकस्त्वधिकृतो नोर्ध्वपुण्ड्रधरो मुने।
सन्तप्तचक्रचिह्नोऽत्र शिवयज्ञे बहिष्कृतः।।48।।
हे मुने! तांत्रिक, उर्ध्वत्रिपुण्ड्र धारण करने वाले तथा तपाये हुए चक्र आदि चिह्नों को धारण करने वाले इस शिवयज्ञ के अधिकारी नहीं है, वे इस यज्ञ से बहिष्कृत हैं।।48।।
तत्रैते बहवो लोका बृहज्जाबालचोदिताः।
ते विचार्याः प्रयत्नेन ततो भस्मरतो भवेत्।।49।।
बृहज्जाबालोपनिषद में कहे गये वे लोग ही उस यज्ञ में अधिकारी हैं। प्रयत्न पूर्वक उन्हें शिव यज्ञ के कार्य में सम्मिलित करना चाहिये। उन्हें भस्म लगाना चाहिये।।49।।
यच्चन्दनैश्चन्दनकेऽपि मिश्रं धार्यं हि भस्मैव त्रिपुण्ड्र भस्मना।
विभूतिभालोपरि किञ्चनापि धार्यं सदा नो यदि सन्ति बुद्धयः।।50।।
विभूति का चंदन से या चंदन में विभूति का मिश्रण कर बनाये गये मिश्रित भस्म से मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये। कुछ भी हो मस्तक पर विभूति धारण करना आवश्यक है। यदि बुद्धि नहीं है तो भी यह करना सदा लोगों के लिए आवश्यक ही है।।50।।
स्त्रीभिस्त्रिपुण्ड्रमलकखवधि धारणीयं भस्म द्विजादिभिरथो विधवाभिरेवम्।
तद्वत्सदाश्रमवतां विशदा विभूतिर्धार्यापवर्गफलदा सकलाघहन्त्री।।51।।
ब्रह्मचारिणी,सधवा तथा विधवा स्त्रियों और ब्राह्मण द्विजों को केशपर्यन्त भस्म धारण करना चाहिये। इसी प्रकार ब्रह्मचर्यादि आश्रम वालों को भी स्वच्छ विभूति धारण करना उचित है, क्योंकि विभूति मोक्ष देने वाली और समस्त पापों का नाश करने वाली है।।51।।
त्रिपुण्ड्रं कुरुते यस्तु भस्मना विधिपूर्वकम्।
महापातकसङ्घातैर्मुच्यते चोपपातकैः।।52।।
जो भस्म द्वारा विधिपूर्वक त्रिपुण्ड्रधारण करता है वह ब्रह्महत्यादि महापातक समूहों और उच्छिष्ट अन्नादिभक्षण उपपातकों से मुक्त हो जाता है।।52।।
ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थो थवा यतिः।
ब्रह्मक्षत्राश्च विट्शूद्रास्तथान्ये पतिताधमाः।।53।।
उद्धूलनं त्रिपुण्ड्रं च धृत्वा शुद्धा भवन्ति च।
भस्मनो विधिना सम्यक् पापराशिं विहाय च।।54।।
ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी और सन्यासी ये चारों आश्रम, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य वर्णसंकर ये चारों वर्ण और उपवर्ण के लोग पतित अथवा नीच मनुष्य भी विधिपूर्वक शरीर पर भस्म उद्धूलन और त्रिपुण्ड्र धारण करके शुद्ध हो जाते हैं। क्योंकि सम्यक रूप से धारण की गई भस्म से तत्काल ही पाप राशि से मुक्ति प्राप्त हो जाती है।।53-54।।
भस्मधारी विशेषेण स्त्रीगोहत्यादिपातकैः।
वीरहत्याश्वहत्याभ्यां मुच्यते नात्र संशयः।।55।।
भस्म धारण करने वाला व्यक्ति विशेष रूप से स्त्री हत्या,गौ हत्या, वीर हत्या और अश्वहत्या आदि पापों से मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।।55।।
परद्रव्यापहरणं परदाराभिमर्शनम्।
परनिन्दां परक्षेत्रहरणं परपीडनम्।।56।।
सस्यारामादिहरणं गृहदाहादिकर्म च।
गोहिरण्यमहिष्यादितिलकम्बलवाससाम्।।57।।
अन्नधान्यजलादीनां नीचेभ्यश्च परिग्रहः।
दाशवेश्यामतङ्गीषु वृषलीषु नटीषु च।।58।।
रजस्वलासु कन्यासु विधवासु च मैथुनम्।
मांसचर्मरसादीनां लवणस्य च विक्रयः।।59।।
पैशुन्यं कूटवादश्च साक्षिमिथ्याभिलाषिणाम्।
एवमादीन्यसङ्ख्यानि पापानि विविधानि च।
सद्य एव विनश्यन्ति त्रिपुण्ड्रस्य च धारणात्।।60।।
दूसरे के द्रव्य का अपहरण, पराई स्त्री का अभिमर्शन, दूसरे की निंदा, पराये खेत का अपहरण, दूसरे को कष्ट देना, फसल और बाग आदि का अपहरण, घर फूँकना (जलाना) आदि कर्म,नीचों से गाय, सोना, भैंस, तिल कंबल, वस्त्र, अन्न,धान्य तथा जल आदि का परिग्रह, दाश( मछुवारा) वेश्या, मतंगी, चाण्डाली, शूद्रा, नटी, रजस्वला, कन्या और विधवा स्त्रियों से मैथुन, मांस, चर्म,रस तथा नमक का विक्रय, पैशुन्य(चुगली) और अस्पष्ट बात, असत्य गवाही आदि देना। इस प्रकार से अन्य असंख्य विभिन्न प्रकार के पाप त्रिपुण्ड्र धारण करने के प्रभाव से तत्काल ही नष्ट हो जाते हैं।।56-57-58-59-60।।
शिवद्रव्यापहरणं शिवनिन्दख च कुत्रचित्।
निन्दा च शिवभक्तानां प्रायश्चत्तैर्न शुध्यति।।61।।
भगवान शिव के द्रव्य का अपहरण और जहाँ कहीं शिव की निंदा करने वाला तथा शिव के भक्तों की निंदा करने वाला व्यक्ति प्रायश्चित करने पर भी शुद्ध नहीं होता है।।61।।
रुद्राक्षं यस्य गात्रेषु ललाटे तु त्रिपुण्ड्रकम्।
स चाण्डाल़ोऽपि सम्पूज्यः सर्ववर्णोत्तमोत्तमः।।62।।
जिसने शरीर पर रुद्राक्ष और मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण किया है, ऐसा मनुष्य यदि चाण्डाल भी है, तो भी वह सभी वर्णों में श्रेष्ठतम और सम्पूज्य है।।62।।
यानि तीर्थानि लोकेऽस्मिन् गङ्गाद्याः सरितश्च याः।
स्नातो भवति सर्वत्र ललाटे यस्त्रिपुण्ड्रकम्।।63।।
जो मस्तक पर त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह इस संसार में जितने भी तीर्थ है और गंगा आदि जितनी नदियांँ हैं, उन सब में स्नान किए हुए के समान पुण्य फल प्राप्त करने वाला होता है।।63।।
सप्तकोटिमहामन्त्राः पञ्चाक्षरपुरस्सराः।
तथान्ये कोटिशो मन्त्राः शैवकैवल्यहेतवः।।64।।
पञ्चाक्षर मन्त्र से लेकर सात करोड़ महामन्त्र और अन्य करोड़ो मन्त्र शिवकैवल्य को प्रदान करनेवाले होते हैं।।64।।
अन्ये मन्त्राश्च देवानां सर्वसौख्यकरा मुने।
ते सर्वे तस्य वश्याः स्युर्यो बिभर्ति त्रिपुण्ड्रकम्।।65।।
हे मुने! विष्णु आदि देवताओं के लिए प्रतिपादित अन्य जो मन्त्र हैं, वे सभी सुखों को देने वाले हैं, जो त्रिपुण्ड्र धारण करता है, उसके वश में वे सब मन्त्र स्वतः ही हो जाते हैं।।65।।
सहस्त्र पूर्वजातानां सहस्त्रं जनयिष्यताम्।
स्ववंशजानां ज्ञातीनामुद्धरेद्यस्त्रिपुण्ड्रकृत्।।66।
त्रिपुण्ड्र धारण करने वाला मनुष्य अपने वंश और गोत्र में उत्पन्न हजारों पूर्वजों का और भविष्य में उत्पन्न होने वाली हजारों सन्तानों का उद्धार करता है।।66।।
इह भुक्त्वा खिलान्भोगान्दीर्घायुव्र्याधिवर्जितः।
जीवितान्ते च मरणं सुखेनैव प्रपद्यते।।67।।
अष्टैश्वर्यगणोपेतं प्राप्य दिव्यवपुः शिवम्।
दिव्यं विमानमारुह्य दिव्यत्रिदशसेवितम्।।68।।
जो त्रिपुंड धारण करता है, उसे इस लोक में रोग रहित दीर्घायु प्राप्त होती है और वह सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके जीवन के अन्तिम समय में सुख पूर्वक ही मृत्यु को प्राप्त करता है। वह मृत्यु के पश्चात अणिमा, महिमा आदि आठों ऐश्वर्यों और सद्गुणों से युक्त दिव्य शरीर वाले शिव को प्राप्त करता है और दिव्यलोक के देवों से सेवित दिव्य विमान पर चढ़कर शिवलोक को जाता है।।67-68।।
विद्याधराणां सर्वेषां गन्धर्वाणां महौजसाम्।
इन्द्रादि लोकपालानां लोकेषु च यथाक्रमम्।।69।।
भुक्त्वा भोगान्सुविपुलान्प्रजेशानां पदेषु च।
ब्रह्मणः पदमासाद्य तत्र कन्याशतं रमेत्।।70।।
वहांँ पर वह सभी विद्याधरों और महापराक्रमी गन्धर्वों, इन्द्रादि लोकपालों के लोकों में क्रमशः जाकर बहुत से भोगों का उपभोग करता हुआ प्रजापतियों के पदों तथा ब्रह्मा के पद पर आसीन होकर वहां दिव्यलोक की सैकड़ों कन्याओं के साथ आनन्दित होता है।।69-70।।
तत्र ब्रह्मायुषो मानं भुक्त्वा भोगाननेकशः।
विष्णोर्लोके लभेद्भोगं यावद् ब्रह्मशतात्ययः।।71।।
शिवलोकं ततः प्राप्य लब्ध्वेष्टं काममक्षयम्।
शिवसायुज्यमाप्नोति संशयो नात्र जायते।।72।।
वह उस लोक में ब्रह्मा की आयु के बराबर आयु को प्राप्त कर अनेक सुखों का भोग करके विष्णुलोक को जाता है और ब्रह्मा के सौ वर्षों तक सुखों का भोग प्राप्त करता है। तदनन्तर वह शिवलोक को जाकर इच्छानुकूल अक्षय कामनाओं को प्राप्त कर शिव का सानिध्य प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं है।।71-72।।
सर्वोपनिषदां सारं समालोक्य मुहुर्मुहुः।
इदमेव हि निर्णीतं परं श्रेयस्त्रिपुण्ड्रकम्।।73।।
सभी उपनिषदों के सार को बार बार सम्यक रूप से देखकर यही निर्णय लिया गया है कि त्रिपुण्ड्र धारण करना ही परम श्रेष्ठ है।।73।।
विभूतिं निन्दते यो वै ब्राह्मणः सोऽन्यजातकः।
प्रयाति नरके घोरे यावद् ब्रह्मा चतुर्मुखः।।74।।
जो ब्राह्मण विभूति की निन्दा करता है, वह ब्राह्मण नहीं है, अपितु अन्य जाति का है और विभूति निन्दा के कारण उसे चतुर्मुख ब्रह्मा की आयु सीमा तक नरक भोगना पड़ता है।।74।।
श्राद्धे यज्ञे जपे होमे वैश्वदेवे सुरार्चने।
धृतत्रिपुण्ड्र पूतात्मा मृत्यं जयति मानवः।।75।।
श्राद्ध, यज्ञ, जप, होम, बलिवैश्वदेव और देव पूजन के समय जो पूतात्मा मनुष्य त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह मृत्यु को भी जीत लेता है।।75।।
जलस्नानं मलत्यागे भस्मस्नानं सदा शुचिः।
मन्त्रस्नानं हरेत्पापं ज्ञानस्नानं परं पदम्।।76।।
मल त्याग करने पर शुद्धि के लिये जल स्नान किया जाता है, भस्म स्नान करने पर सदा पवित्रता आती है, मन्त्र स्नान पाप का हरण करता है और ज्ञानरूपी जल में अवगाहन करने पर परम पद की प्राप्ति होती है।।76।।
भस्मस्नानं परं तीर्थं गङ्गास्नानं दिने दिने।
भस्मरुपी शिवः साक्षाद्भस्म त्रैलोक्यपावनम्।।77।।
भस्म स्नानही परमश्रेष्ठ तीर्थ है, जो प्रतिदिन गङ्गा तीर्थ स्नान के समान है, भस्म तो भस्मरुपी साक्षात शिव है, भस्म त्रैलोक्य को पवित्र करने वाला है।।77।।
सर्वतीर्थेषु यत्पुण्यं सर्वतीर्थेषु यत्फलम्।
तत्फलं समवाप्नोति भस्मस्नान करो नरः।।78।।
समस्त तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य और फल प्राप्त होता है, वह फल, भस्म स्नान करने वाले को प्राप्त हो जाता है।।78।।
नतत्स्नानं न तद्ध्यानं न तद्दानं जपो न सः।
त्रिपुण्ड्रेण विना येन विप्रेण यदनुष्ठितम्।।79।।
बिना त्रिपुण्ड्र धारण किए हुए जो ब्राह्मण स्नान, ध्यान, दान और जप आदि अनुष्ठान कर्म करता है, वह न तो स्नान है, न ध्यान है, न दान है, और न जप, आदि अन्य अनुष्ठित कर्म ही हैं।।79।।
वानप्रस्थस्य कन्यानां दीक्षाहीननृणां तथा।
मध्याह्नात्प्राग्जलैर्युक्तं परतो जलवर्जितम्।।80।।
एवं त्रिपुण्ड्रं यः कुर्यान्नित्यं नियतमानसः।
शिवभक्तः स विज्ञेयो भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति।।।81।।
वानप्रस्थ, कन्या और दीक्षा रहित मनुष्यों को मध्याह्न के पूर्व ही जल से युक्त त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये, किंतु मध्याह्न के पश्चात जलरहित भस्म से त्रिपुण्ड्र धारण करना उचित है। इस प्रकार श्रद्धा पूर्वक दृढ़ निश्चय वाला जो व्यक्ति नित्य त्रिपुण्ड्र धारण करता है, उसे ही शिवभक्त जानना चाहिये, उसी को भुक्ति तथा मुक्ति भी प्राप्त होती है।।80-81।।
यस्याङ्गे नैव रुद्राक्ष एकोऽपि बहुपुण्यदः।
तस्य जन्म निरर्थं स्यात्त्रिपुण्ड्ररहितो यदि।।82।।
जिसके अंग पर प्रचुर पुण्य देने वाला एक भी रुद्राक्ष नहीं है और वह त्रिपुण्ड्र से भी रहित है, उसका जन्म लेना व्यर्थ है।।82।।
एवं त्रिपुण्ड्र माहात्म्यं समासात् कथितं मया।
रहस्यं सर्वजन्तूनां गोपनीयमिदं त्वया।।83।।
इसके पश्चात भस्म धारण तथा त्रिपुण्ड्र की महिमा एवं विधि बताकर सूत जी ने फिर कहा। हे महर्षियो! इस प्रकार मैंने संक्षेप से त्रिपुण्ड्र का माहात्म्य बताया है। यह समस्त प्राणियों के लिये गोपनीय रहस्य है। अतः आपको भी इसे गुप्त ही रखना चाहिये।।83।।
तिस्त्रो रेखा भवन्त्येव स्थानेषु मुनिपुङ्गवाः।
ललाटादिषु सर्वेषु यथोक्तेषच बुधैर्मुने।।84।।
मुनिवरो! ललाट आदि सभी निर्दिष्ट स्थानों में जो भस्म से तीन तिरछी रेखाएं बनायी जाती हैं, उन्ही को विद्वानों ने त्रिपुण्ड्र कहा है।।84।।
भ्रुवोर्मध्यं समारभ्य यावदन्तो भवेद् भ्रुवोः।
तावत्प्रमाणं सन्धार्यं ललाटे च त्रिपुण्ड्रकम्।।85।।
भौहों के के मध्य भाग से लेकर जहां तक भौहों का अन्त है, उतना बड़ा त्रिपुण्ड्र ललाट में धारण करना चाहिये।।85।।
मध्यमानामिकाङ्गुल्या मध्ये तु प्रतिलोमतः।
अङ्गुष्ठेन कृता रेखा त्रिपुण्ड्राख्याभिधीयते।।86।।
मध्येऽङ्गुलिभिरादाय तिसृभिर्भस्म यत्नतः।
त्रिपुण्ड्रं धारयेद्भक्त्या भुक्तिमुक्तिप्रदं परम्।।87।।
मध्यमा और अनामिका अँगुली से दो रेखाएं करके बीच में अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से की गई रेखा त्रिपुण्ड्र कहलाती है अथवा बीच की तीन अँगुलियों से भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्ति भाव से ललाट में त्रिपुण्ड्र धारण करे। त्रिपुण्ड्र अत्यन्त उत्तम तथा भोग और मोक्ष को देने वाला है।।86-87।।
त्रिसृणामपि रेखानां प्रत्येकं नवदेवताः।
सर्वत्राङ्गेषु ता वक्ष्ये सावधानतया श्रृणु।।88।।
त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाओं में से प्रत्येक के नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अंगों में स्थित हैं, मैं उनका परिचय देता हूंँ सावधान होकर सुनें।।88।।
अकारो गार्हपत्याग्निर्भूर्धर्मश्च रजोगुणः।
ऋगवेदश्च क्रियाशक्तिः प्रातः सवनमेव च।।89।।
महादेवश्च रेखायाः प्रथमायाश्च देवता।
विज्ञेया मुनिशार्दूलाः शिवदीक्षापरायणैः।।90।।
हे मुनिवरो! प्रणव का प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋगवेद, क्रियाशक्ति, प्रातःसवन तथा महादेव- ये त्रिपुण्ड्र की प्रथम रेखा के नौ देवता हैं, यह बात शिवदीक्षापरायण पुरुषों को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये।।89-90।।
उकारो दक्षिणाग्निश्च नभस्तत्त्वं यजुस्तथा।
मध्यन्दिनं च सवनमिच्छाशक्त्यन्तरात्मकौ।।91।।
महेश्वरश्च रेखाया द्वितीयायाश्च देवता।
विज्ञेया मुनिशार्दूल शिवदीक्षापरायणैः।।92।।
हे मुनिश्रेष्ठो! प्रणव का दूसरा अक्षर उकार दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्त्वगुण, यजुर्वेद, माध्यन्दिनसवन, इच्छाशक्ति अन्तरात्मा तथा महेश्वर- यह दूसरी रेखा के नौ देवता हैं ऐसा शिव दीक्षित लोगों को जानना चाहिये।।91-92।।
मकाराहवनीयो च परमात्मा तमो दिवौ।
ज्ञानशक्तिः सामवेदस्तृतीयं सवनं तथा।।93।।
शिवश्चैव च रेखायास्तृतीयायाश्च देवता।
विज्ञेया मुनिशार्दूल शिवदीक्षापरायणैः।।94।।
हे मुनिश्रेष्ठो! प्रणव का तीसरा अक्षर मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीय सवन तथा शिव- ये तीसरी रेखा के नौ देवता हैं, ऐसा शिव दीक्षित भक्तों को जानना चाहिये।।93-94।।
एवं नित्यं नमस्कृत्य सद्भक्त्या स्थानदेवताः।
त्रिपुण्ड्रं धारयेच्छुद्धो भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति।।95।।
इस प्रकार स्थान देवताओं को उत्तम भक्तिभाव से नित्य नमस्कार करके स्नान आदि से शुद्ध हुआ पुरुष यदि त्रिपुण्ड्र धारण करे, तो भोग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है।।95।।
इत्युक्ताः स्थान देवाश्च सर्वाङ्गेषु मुनीश्वराः।
तेषां सम्बन्धिनो भक्त्या स्थानानि श्रृणु साम्प्रतम्।।96।।
हे मुनीश्वरो! ये सम्पूर्ण अंगों में स्थान देवता बताये गये हैं, अब उनसे सम्बन्धित स्थान बताता हूंँ, भक्ति पूर्वक सुनिये।।96।।
द्वात्रिंशत्स्थानके वार्धषोडसशस्थानकेऽपि च।
अष्टस्थाने तथा चैव पञ्चस्थानेऽनान्यसेत्।।97।।
उत्तमाङ्गे ललाटे च कर्णयोर्नेत्रयोस्तथा।
नासावक्त्रगलेष्वेवं हस्तयोरुभयोस्ततः।।98।।
कूर्परे मणिबन्धे च ह।दये पार्श्वयोर्द्वयोः।
नाभौ मुष्कद्वये चैवमूर्वोर्गुल्फे च जानुनि।।99।।
जङ्घाद्वये पदद्वन्द्वे द्वात्रिंशत्स्थान मुत्तमम्।
अग्न्यब्भूवायुदिग्देश दिक्पालान् वसुभिः सह।।100।।
बत्तीस,सोलह, आठ अथवा पाँच स्थानों में मनुष्य त्रिपुण्ड्र का न्यास करे। मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों हाथ, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, दोनों पार्श्वभाग,नाभि,दोनों अण्डकोष, दोनों उरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिण्डली और दोनों पैर - ये बत्तीस उत्तम स्थान हैं, इनमें क्रमशः अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, दिक्प्रदेश,दस दिक्पाल तथा आठ वसुओं का निवास है।।97-98-99-100।।
धरा ध्रुवश्च सोमश्च आपश्चैवानिलोऽनलः।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्ट प्रकीर्तिताः।।101।।
एतेषां नाममात्रेण त्रिपुण्ड्रं धारयेद् बुधः।
कुर्याद्वा षोडशस्थाने त्रिपुण्ड्रं तु समाहितः।।102।।
धरा (धर), ध्रुव, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास ये आठ वसु कहे गये हैं। इन सबका नाममात्र लेकर इनके स्थानों में विद्वान पुरुष त्रिपुण्ड्र धारण करे अथवा एकाग्रचित्त होकर सोलह स्थानों में ही त्रिपुण्ड्र धारण करे।।101-102।।
शीर्षके च ललाटे च कण्ठे चांसद्वये भुजे।
कूर्परे मणिबन्धे च हृदये नाभिपार्श्वके।।103।।
पृष्ठे चैवं प्रतिष्ठाप्य यजेत्तत्राश्विदैवते।
शिवं शक्तिं तथा रुद्रमीशं नारदमेव च।।104।।
वामादिनवशक्तीश्च एता षोडश देवताः।
नसत्यौ दस्त्रकश्चैव अश्विनौ द्वौ प्रकीर्तितौ।।105।।
मस्तक, ललाट, कण्ठ, दोनों कन्धों, दोनों भुजाओं, दोनों कोहनियों, दोनों कलाइयों में, हृदय में,नाभि में, दोनों पसलियों में, तथा पृष्ठ भाग में त्रिपुण्ड्र लगाकर वहांँ दोनों अश्विनी कुमारों, शिव,शक्ति, रुद्र, ईश तथा नारद का और वामा आदि नौ शक्तियों का पूजन करे। ये सब मिलकर सोलह देवता हैं। अश्विनी कुमार युगल कहे गये हैं-नासत्य और दस्त्र।।103-105।।
अथवा मूर्ध्नि केशे च कर्णयोर्वदने तथा।
बाहुद्वये च हृदये नाभ्यामूरुयुगे तथा।।106।।
जानुद्वये च पदयोः पृष्ठभागे च षोडश।
शिवश्चन्द्रश्च रुद्रः को विघ्नेशो विष्णुरेव वा।।107।।
श्रीश्चैव हृदये शम्भुस्तथा नाभौ प्रजापतिः।
नागश्च नागकन्याश्च उभयोर्ऋषिकन्यकाः।।108।।
पादयोश्च समुद्राश्च तीर्थाः पृष्ठे विशालतः।
इत्येवं षोडशस्थानमष्टस्थानम थोच्यते।।109।।
अथवा मस्तक, केश, दोनों कान, मुख, दोनों भुजा, हृदय, नाभि, दोनों उरू, दोनों जानु, दोनों पैर और पृष्ठभाग -इन सोलह स्थानों में सोलह त्रिपुण्ड्र का न्यास करे। मस्तक में शिव, केशों में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा, मुख में विघ्नराज गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, हृदय में शम्भू, नाभि में प्रजापति, दोनों ऊरुओं में नाग और नाग कन्यायें, दोनों घुटनों में ऋषि कन्यायें, दोनों पैरों में समुद्र तथा विशाल पृष्ठ भाग में सम्पूर्ण तीर्थ देवता रूप से विराजमान हैं। इस प्रकार सोलह स्थानों का परिचय दिया गया। अब आठ स्थान बताये जा रहे हैं।।106-107-108-109।।
गुह्यस्थानं ललाटश्च कर्णद्वयमनुत्तमम्।
अंसयुग्मं च हृदयं नाभिरित्येवमष्टकम्।।110।।
ब्रह्मा च ऋषयः सप्त देवताश्च प्रकीर्तिताः।
इत्येवं तु समुद्दिष्टं भस्म विद्भिर्मुनीश्वराः।।111।।
अथवा मस्तकं बाहू हृदयं नाभिरेव च।
पञ्चस्थानान्यमून्याहुर्धारणे भस्मविज्जनाः।।112।।
यथासम्भवनं कुर्याद्देशकालाद्यपेक्षया।
उद्धूलनेऽप्यशक्तश्चेत्त्रिपुण्ड्रादीनि कारयेत्।।113।।
गुह्यस्थान, ललाट, परम उत्तम कर्ण युगल, दोनों कन्धे,हृदय और नाभि ये आठ स्थान हैं। इनमें ब्रह्मा तथा सप्तऋषि ये आठ देवता बताये गये हैं। हे मुनीश्वरो भस्म के स्थान को जानने वाले विद्वानों ने इस तरह आठ स्थानों का परिचय दिया है। अथवा मस्तक, दोनों भुजायें, हृदय और नाभि इन पांँच स्थानों को भस्मवेत्ता पुरुषों ने भस्म धारण के योग्य बताया है। यथासम्भव देश, काल आदि की अपेक्षा रखते हुए उद्धूलन (भस्म) को अभिमन्त्रित करना और जल में मिलाना आदि कार्य करे। यदि उद्धूलन में भी असमर्थ हो, तो त्रिपुण्ड्र आदि लगाये।।110-111-112-113।।
त्रिनेत्रं त्रिगुणाधारं त्रिदेव जनकं शिवम्।
स्मरन्नमः शिवायेति ललाटे तु त्रिपुण्ड्रकम्।।114।।
ईशाभ्यां नम इत्युक्त्वा पार्श्वयोश्च त्रिपुण्ड्रकम्।बीजाभ्यां नम इत्युक्त्वा धारयेत्तु प्रकोष्ठयोः।।15।।*
कुर्यादधः पितृभ्यां च उमेशाभ्यां तथोपरि।
भीमायेति ततः पृष्ठे शिरसः पश्चिमे तथा।।116।।
त्रिनेत्रधारी तीनों गुणों के आधार तथा तीनों देवताओं के जनक भगवान शिव का स्मरण करते हुए 'नमः शिवाय' कहकर ललाट में त्रिपुण्ड्र लगाये। 'ईशाभ्या नमः' ऐसा कहकर दोनों पार्श्वभागों में त्रिपुण्ड्र धारण करे। 'वीजाभ्यां नमः' बोलकर दोनों प्रकोष्ठों में भस्म लगाये। 'पितृभ्यां नमः' कहकर नीचे के अंग में, 'उमेशाभ्यां नमः' कहकर ऊपर के अंग में तथा 'भीमाय नमः' कहकर पीठ में और सिर के पिछले भाग में त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिए।।114-115-116।।
इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वर संहितायां भस्मधारण वर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः।।24।।
🙏🏿जय बाबा की🙏🏿
बाबाचरण दास