ॐश्रीशिवमहापुराणम्ॐ
प्रथमा विद्येश्वरसंहिता - अथ द्वादशोऽध्यायः
|| संकलन - बाबा चरणदास ||
सूत उवाच
श्रृणुध्वमृषयः प्राज्ञाः शिवक्षेत्रं विमुक्तिदम्।
तदागमांस्ततो वक्ष्ये लोकरक्षार्थमेव हि।।1।।
सूत जी बोले- विद्वान एवं बुद्धिमान महर्षियो! मोक्षदायक शिवक्षत्रों का वर्णन सुनो।तत्पश्चात मैं लोकरक्षा के लिए शिव सम्बन्धी आगमों का वर्णन करूँगा।।1।
पञ्चाशत्कोटिविस्तीर्णा सशैलवनकानना।
शिवाज्ञया हि पृथिवी लोकं धृत्वा च तिष्ठति।।2।।
पर्वत , वन और काननों सहित इस पृथ्वी का विस्तार पचास करोड़ योजन है। भगवान शिव की आज्ञा से पृथ्वी सम्पूर्ण जगत को धारण करके स्थित है।।2।।
तत्र तत्र शिवक्षेत्रं तत्र तत्र निवासिनाम्।
मोक्षार्थं कृपया देवः क्षेत्रं कल्पितवान्प्रभुः।।3।।
भगवान शिव ने भूतल पर विभिन्न स्थानों में वहाँ वहाँ के निवासियों को कृपापूर्वक मोक्ष देने के लिये शिवक्षेत्र का निर्माण किया है।।3।।
परिग्रहाद् ऋषीणां च देवानां च परिग्रहात्।
स्वयम्भूतान्यथान्यानि लोकरक्षार्थमेव हि।।4।।
कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिन्हें देवताओं तथा ऋषियों ने अपना वासस्थान बनाकर अनुग्रहीत किया है। इसीलिए उनमें तीर्थत्व प्रकट हो गया है तथा अन्य बहुत से तीर्थ क्षेत्र ऐसे हैं, जो लोकों की रक्षा के लिये स्वयं प्रादुर्भूत हुए हैं।।4।।
तीर्थे क्षेत्रे सदा कार्यं स्नानदानजपादिकम्।
अन्यथा रोगदारिद्रयमूकत्वाद्याप्नुयान्नरः।।5।।
तीर्थ और शिवक्षेत्र में जाने पर मनुष्य को सदा स्नान , दान और जप आदि करना चाहिये, अन्यथा वह रोग, दरिद्रता तथा मूकता आदि दोषों का भागी होता है।।5।।
अथास्मिन्भारते वर्षे प्राप्नोति मरणं नरः।
स्वयम्भूस्थानवासेन पुनर्मानुष्यमाप्नुयात्।।6।।
जो मनुष्य इस भारतवर्ष के भीतर मृत्यु को प्राप्त होता है, वह अपने पुण्य के फल से ब्रह्मलोक में वास करके पुण्य क्षय के पश्चात पुनः मनुष्य योनि में ही जन्म लेता है।।6।।
क्षेत्रे पापस्य करणं दृढं भवति भूसुराः।
पुण्यक्षेत्रे निवासे हि पापमण्वपि नाचरेत।।7।।
ब्राह्मणों! पुण्यक्षेत्र में पापकर्म किया जाय तो वह और भी दृढ़ हो जाता है। अतः पुण्यक्षेत्र में निवास करते समय सूक्ष्म से सूक्ष्म अथवा थोड़ा सा भी पाप न करे।।7।।
येन केनाप्युपायेन पुण्य क्षेत्रे वसेन्नरः।
सिन्धोः शतनदीतीरे सन्ति क्षेत्राण्यनेकशः।।8।।
किसी भी उपाय से मनुष्य पुण्य क्षेत्र में निवास करे। सिन्धु और शत्रदू ( सतलज) के किनारे जो अनेक तीर्थ हैं।।8।।
सरस्वती नदी पुण्या प्रोक्ता षष्टिमुखा तथा।
तत्तत्तीरे वसेत्प्राज्ञः क्रमाद ब्रह्म पदं लभेत्।।9।।
सरस्वती नदी परम पवित्र और साठ मुख वाली कही गयी है अर्थात उसकी साठ धारायें हैं। विद्वान पुरुष सरस्वती के उन उन धाराओं के तट पर निवास करे तो वह क्रमशः ब्रह्मपद को पा लेता है।।9।।
हिमवद्गिरिजा गंगा पुण्या शतमुखा नदी।
तत्तीरे चैव काश्यादिपुण्यक्षेत्राण्यनेकशः।।10।।
हिमालय पर्वत से निकली हुई पुण्यसलिला गंगा सौ मुख वाली नदी है, उसके तट पर काशी प्रयाग आदि अनेक पुण्य क्षेत्र हैं।।10।।
तत्र तीरं प्रशस्तं हि मृगे मृगबृहस्पतौ।
शोणभद्रो दशमुखः पुण्योऽभीष्टफलप्रदः।।11।।
वहाँ मकरराशि के सूर्य होने पर गंगा की तट भूमि पहले से भी अधिक प्रशस्त एवं पुण्यदायक हो जाती है। शोणभद्र नदी की दस धारायें हैं वह बृहस्पति के मकर राशि में आने पर अत्यंत पवित्र तथा अभीष्ट फल देने वाला हो जाता है।।11।।
तत्रनानोपवासेन पदं वैनायकं लभेत्।
चतुर्विंशमुखा पुण्या नर्मदा च महानदी।।12।।
इस समय वहाँ स्नान और उपवास करने से विनायक पद की प्राप्ति होती है। पुण्यसलिला महानदी नर्मदा के चौबीस् मुख (स्त्रोत) हैं।।12।।
तस्यां स्नानेन वासेन पदं वैष्णवमाप्नुया।
तमसा द्वादशमुखा रेवा दशमुखा नदी।।13।।
नर्मदा जी में स्नान तथा उसके तट पर निवास करने से मनुष्य को वैष्णव पद की प्राप्ति होती है। तमसा के बारह तथा रेवा के दस मुख हैं।।13।।
गोदावरी महापुण्या ब्रह्मगोवधनाशिनी।
एकविंशमुखा प्रोक्ता रुद्र लोक प्रदायिनी।।14।।
परम पुण्यमयी गोदावरी के इक्कीस मुख बताये गये हैं। वह ब्रह्महत्या तथा गोवध के पाप का भी नाश करने वाली एवं रुद्र लोक देने वाली है।।14।।
कृष्णा वेणी पुण्यनदी सर्वपापक्षयावहा।
साष्टादशमुखा प्रोक्ता विष्णुलोक प्रदायिनी।।15।।
कृष्णवेणी नदी का जल बड़ा पवित्र है। वह नदी समस्त पापों का नाश करने वाली है उसके अठारह मुख बताये गये हैं तथा वह विष्णुलोक प्रदान करने वाली है।।15।।
तुंग भद्रा दशमुखा ब्रह्मलोकप्रदायिनी।
सुवर्णमुखरी पुण्या प्रोक्ता नवमुखा तथा।।16।।
तुङ्गभद्रा के दश मुख हैं। वह ब्रह्म लोक देने वाली है। पुण्यसलिला सुवर्णमुखरी के नौ मुख कहे गए हैं।।16।।
तत्रैव सुप्रजायन्ते ब्रह्मलोकच्युतास्थता।
सरस्वती च पम्पा च कन्या श्वेतनदी शुभा।।17।।
ब्रह्मलोक से लौटे हुए जीव उसी के तट पर जन्म लेते हैं। सरस्वती नदी, पम्पा सरोवर, कन्याकुमारी अन्तरीप तथा शुभकारक श्वेत नदी ये सभी पुण्यक्षेत्र हैं।।17।।
एतासां तीरवासेन इन्द्रलोकमवाप्नुयात्।
सह्याद्रिजामहापुण्या कावेरीति महानदी।।18।।
इनके तट पर निवास करने से इन्द्र लोक की प्राप्ति होती है। सह्य पर्वत से निकली हुई महानदी कावेरी परम पुण्यमयी है।।18।।
सप्तविंशमुखा प्रोक्ता सर्वाभीष्ट प्रदायिनी।
तत्तीराः स्वर्गदाश्चैव ब्रह्मा विष्णुपदप्रदाः।।19।।
महानदी कावेरी परम पुण्यमयी है। उनके सत्ताईस मुख बताये गए हैं। वह सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली है।उसके तट स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने वाले तथा ब्रह्मा और विष्णुजी का पद देने वाले हैं।19।।
शिवलोकप्रदाः शैवास्तथाभीष्टफलप्रदाः।
नैमिषे बदरे स्नायान्मेषगे च गुरौ रवौ।।20।।
ब्रह्मलोकप्रदं विद्यात्ततः पूजादिकं तथा।
सिन्धुनद्यां तथा स्नानं सिंहे कर्कटगेरवौ।।21।।
कावेरी के जो तट शैवक्षेत्र के अंतर्गत हैं, वे अभीष्ट फल देने के साथ ही शिवलोक प्रदान करने वाले भी हैं। नेमिषारण्य तथा बदरिका आश्रम में सूर्य और वृहस्पति के मेष राशि में आने पर यदि स्नान करे तो उस समय वहां किये हुए स्नान पूजन आदि को ब्रह्मलोक की प्राप्ति कराने वाला जानना चाहिए। सिंह और करके राशि में सूर्य की संक्रान्ति होने पर सिंधु नदी में किया हुआ स्नान ज्ञान दायक माना गया है।।20-21।।
केदारोदकपानं च स्नानं च ज्ञानदं विदुः।
गोदावर्यां सिंहमासे स्नायात्सिंह बृहस्पतौ।।22।।
शिवलोकप्रदमिति शिवेनोक्तं तथा पुरा।
यमुना शोणयोः स्नायाद् गुरौ कन्यागते रवौ।।23।।
केदारतीर्थ के जल का पान एवं स्नान ज्ञान दायक माना गया है। जब वृहस्पति सिंह राशि में स्थित हो, उस समय सिंह की संक्रांति से युक्त भाद्रपद मास में यदि गोदावरी के जल में स्नान किया जाये तो वह शिवलोक की प्राप्ति कराने वाला होता है। इसे पूर्वकाल में स्वयं भगवान् शिव ने कहा था। जब सूर्य और बृहस्पति कन्या राशि में स्थित हों, तब यमुना और शोणभद्र में स्नान करे।।22-23।।
धर्मलोके दन्तिलोकेमहाभोगप्रदं विदुः।
कावेर्याञ्च तथा स्नायात्तुलागे तु रवौ गुरौ।।24।।
विष्णोर्वचनमाहात्म्यात्सर्वाभीष्टप्रदं विदुः।
वृश्चिके मासि सम्प्राप्ते तथार्के गुरुवृश्चिके।।25।।
वह स्नान धर्मराज तथा गणेशजी के लोक में महान् भोग प्रदान कराने वाला होता है, यह महर्षियों की मान्यता है। जब सूर्य और बृहस्पति तुला राशि में स्थित हों , उस समय कावेरी नदी में स्नान करे। वह स्नान भगवान विष्णु के वचन की महिमा से सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाला माना गया है। जब सूर्य और बृहस्पति वृश्चिक राशि में स्थित हों , तब मार्गशीर्ष महीने में नर्मदा जी में स्नान करे।।24-25।।
नर्मदायां नदी स्नानाद्विष्णुलोकमवाप्नुयात्।
सुवर्णमुखरी स्नानं चापगे च गुरौ रवौ।।26।।
शिवलोकप्रदमिति ब्रह्मणो वचनं यथा।
मृगमासि तथा स्नायाज्जाह्नव्यां मृगगे गुरौ।।27।।
नर्मदा नदी में स्नान करने से विष्णु लोक की प्राप्ति हो सकती है। सूर्यऔर बृहस्पति के धनराशि में स्थित होने पर सुवर्णमुखरी नदी में किया हुआ स्नान शिवलोक प्रदान कराने वाला होता है, ऐसा ब्रह्मा जी का वचन है। जब सूर्यऔर बृहस्पति मकर राशि में स्थित हों, उस समय माघमास में गंगाजी के जल में स्नान करना चाहिये।।26-27।।
शिवलोकप्रदमिति ब्रह्मणो वचनं यथा।
ब्रह्मविष्णवोः.पदे भुक्त्वा तदन्ते.ज्ञानमाप्नुयात्।।28।।
ब्रह्माजी का कथन है कि वह स्नान शिवलोक की प्राप्ति कराने वाला होता है। शिवलोक के पश्चात ब्रह्मा और विष्णु के स्थानों में सुख भोगने पर अन्त में मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है।।28।।
गङ्गायां माघमासे तु तथा कुम्भगते रवौ।
श्राद्धं वा पिण्डदानं वा तिलोदकमथापि वा।।29।।
वंशद्वयपितृणां च कुलकोटयुद्धरं विदुः।
कृष्णा वेण्यां प्रशंसन्ति मीनगे च गुरौ रवौ।।30।।
माघमासमें तथा सूर्य के कुम्भ राशि में स्थित होने पर फाल्गुन मास में गंगाजी के तट पर किया हुआ श्राद्ध, पिण्डदान अथवा तिलोदक दान पिता और नाना दोनों कुलों के पितरों की अनेकों पीढ़ियों के उद्धार करने वाला माना गया है। सूर्य और बृहस्पति जब मीन राशि में स्थित हों, तब कृष्णवेणी नदी में किये गए स्नान की ऋषियों ने प्रशंसा की है।।29-30।।
तत्ततीर्थे च तन्मासि स्नानमिन्द्रपदप्रदम्।
गङ्गा वा सह्यजां वापि समाश्रित्य वसेद् बुधः।।31।।
तत्कालकृतपापस्य क्षयो भवति निश्चितम्।
रुद्रलोकप्रदान्येव सन्ति क्षेत्राण्यनेकशः।।32।।
उन उन महीनों में पूर्वोक्त तीर्थों में किया हुआ स्नान इन्द्रपद की प्राप्ति कराने वाला होता है। विद्वान पुरूष गंगा अथवा कावेरी नदी का आश्रय लेकर तीर्थवास करे। ऐसा करने से तत्काल किये हुए पाप का निश्चय ही नाश हो जाता है। रुद्रलोक प्रदान करने वाले बहुत से क्षेत्र हैं।।31-32।।
ताम्रपर्णी वेगववती ब्रह्मलोकफलप्रदे।
तयोस्तीरे हि सन्त्येव क्षेत्राणि स्वर्गदानि च।।33।।
ताम्रपर्णी और वेगववती ये दोनों नदियां ब्रह्मलोक की प्राप्ति रूप फल देने वाली हैं। इन दोनों के तट पर कितने ही स्वर्गदायक क्षेत्र हैं।।33।।
सन्ति क्षेत्राणि तन्मध्ये पुण्यदानि च भूरिशः।
तत्र तत्र वसन्प्राज्ञस्तादृशं च फलं लभेत्।।34।।
इन दोनों के मध्य में बहुत से पुण्यप्रद क्षेत्र हैं। वहाँ निवास करने वाला विद्वान पुरुष वैसे ही फल का भागी होता है।।34।।
सदाचारेण सदवृत्त्या सदा भावनयापि च।
वसेद् दयालुः प्राज्ञो वै नान्यथा तत्फलं लभेत्।।35।।
सदाचार, उत्तम वृत्ति तथा सद्भावना के साथ मन में दयाभाव रखते हुए विद्वानपुरुष को तीर्थ में निवास करना चाहिये। अन्यथा उसका फल नहीं मिलता।।35।।
पुण्यक्षेत्रे कृतं पुण्यं बहुधा ऋद्धिमृच्छति।
पुण्य क्षेत्रे कृतं पापं महदण्वपि जायते।।36।।
पुण्यक्षेत्र में किया हुआ थोड़ा सा पुण्य भी अनेक प्रकार से वृद्धि को प्राप्त होता है। तथा वहाँ किया हुआ छोटा सा पाप भी महान् हो जाता है।।36।।
तत्कालं जीवनार्थश्चेत्पुण्येन क्षयमेष्यति।
पुण्यमैश्चर्यदं प्राहुः कायिकंं वाचिकं तथा।।37।।
मानसं च तथा पापं तादृशं नाशयेद् द्विजाः।
मानसं वज्रलेपं तु कल्पकल्पानुगं तथा।।38।।
यदि पुण्यक्षेत्र में रहकर ही जीवन बिताने का निश्चय हो तो उस पुण्य संकल्प से ही उसका पहले का सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाएगा, क्योंकि पुण्य को ऐश्वर्य दायक कहा गया है।ब्राह्मणों ! तीर्थवास जनित पुण्य कायिक, वाचिक और मानसिक सारे पापों का नाश कर देता है। तीर्थ में किया हुआ मानसिक पाप वज्रलेप हो जाता है। वह कई कल्पों तक पीछा नहीं छोड़ता है।।37-38।।
ध्यानादेव हि तन्नश्येन्नान्यथा नाशमृच्छति।
वाचिकं जपजालेन कायिकंं कायशोषणात्।।39।।
वैसा पाप केवल ध्यान से ही नष्ट होता है, अन्यथा नहीं। वाचिक पाप जप से तथा कायिक पाप शरीर को सुखाने जैसे कठोर तप से ही नष्ट होता है।।39।।
दानाद्धनकृतं नश्येन्नान्यथा कल्पकोटिभिः।
क्वचित्पापेन पुण्यं च वृद्धिपूर्वेण नश्यति।।40।।
धन का पाप दान करने से नष्ट होता है। अन्यथा सौ करोड़ वर्ष में भी नष्ट नहीं होता है। बड़े हुए पापों से पुण्य भी नष्ट हो जाते हैं।।40।।
बीजांशश्चैव वृद्धयंशो भोगांशः पुण्यपापयोः।
ज्ञाननाश्यो हि बीजांशो वृद्धिरुक्तप्रकारतः।।41।।
भोगांशो भोगनाश्यश्तु नान्यथा पुण्यकोटिभिः।
बीजप्ररोहे नष्टे तु शेषो भोगाय कल्पते।।42।।
बीजअंश, वृद्धिअंश और भोगअंश यह पाप पुण्य से होते हैं, बीजांश से ज्ञान की नष्टता और पूर्वोक्त प्रकार से वृद्धि होती है। भोगने से ही इनका नाश होता है और कोटिविधि पुण्य करने से भी नष्ट नहीं होते हैं। बीजांकुर नष्ट हो जाने से शेष भोग करने से मिट जाता है।।41-42।।
देवानां पूजया चैव ब्राह्मणानां च दानतः।
तपोधिक्याच्च कालेन भोगः सह्यो भवेन्नृणाम्।
तस्मात्पापमकृत्वैव वस्तव्यं सुखमिच्छता।।43।।
देवताओं की पूजा, ब्राह्मणों को दान देने से और अधिक तप करने से समय पाकर मनुष्य भोगः में सह्य हो जाता है। अतः सुख चाहने वाले पुरुष को देवताओं की पूजा करते और ब्राह्मणों को दान देते हुए पाप से बचकर ही तीर्थ में निवास करना चाहिये।।43।।
इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां शिवक्षेत्रवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः।।12।।
🙏जय बाबा की🙏